The Lallantop
Advertisement

लीबिया से 2.5 टन यूरेनियम किसने चोरी किया?

यूरेनियम का गायब होना पूरी दुनिया के लिए चिंतादायक क्यों है?

Advertisement
यूरेनियम का गायब होना पूरी दुनिया के लिए चिंतादायक क्यों है?
यूरेनियम का गायब होना पूरी दुनिया के लिए चिंतादायक क्यों है?
pic
साजिद खान
16 मार्च 2023 (Updated: 16 मार्च 2023, 09:53 PM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

एक देश जो बरसों तक सिविल वॉर में झुलसता रहा. जिसका तानाशाह अपने आखिरी वक्त में मौत की भीख मांगता रहा. ऐसा भी वक्त आया कि उसे जान बचाने के लिए सीवर पाइप में छिपना पड़ा. उसी तानाशाह ने अपने देश को परमाणु शक्ति बनाने के लिए जान लगा दी. लेकिन सफल नहीं हो सका. आज उसी देश से ढ़ाई टन यूरेनियम गायब हुआ है. जो 10 बड़े-बड़े ड्रमों में भरकर रखा गया था. यूरेनियम का इस्तेमाल परमाणु हथियार बनाने में किया जाता है. ऐसे में परमाणु शक्ति बनने की चाहत रखने वाले इस देश से इतना यूरेनियम गायब होना, पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय बन गया है. हम जिस देश की बात कर रहे हैं वो लीबिया है.

तो आइए जानते हैं,

इतना यूरेनियम लीबिया के पास कहां से आया और कहां गायब हुआ?

UN ने इसपर क्या चिंता ज़ाहिर की है?

और यूरेनियम का गायब होना पूरी दुनिया के लिए चिंतादायक क्यों है?

19 दिसंबर, साल 2003 की बात है. लीबिया के तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी ने ऐलान किया कि वो अपने देश में खतरनाक हथियारों को बनाना बंद कर देंगे. लीबिया पर वेपन्स ऑफ़ मास डिस्ट्रक्शन यानी WMD बनाने के आरोप थे. लीबिया ने दिसंबर 2003 में कहा कि वो अब WMD बनाना रोक देंगे और अंतराष्ट्रीय नियमों का पालान करेगा. उनके इस ऐलान के बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने मिलकर लीबिया के हथियार के अड्डों को नष्ट कर दिया. उस वक्त लीबिया के पास कई तरह के ख़तरनाक रासायनिक हथियार और लंबी दूरी की बैलिस्टिक मिसाइलें मौजूद थीं. इसके बाद अमेरिका समेत कई पश्चिमी देशों से लीबिया के संबंध सुधर गए.

लेकिन लीबिया की 'परमाणु लालसा' की कहानी 70 के दशक से ही शुरू हो गई थी.

साल 1975 में लीबिया ने NPT संधि को मान्यता दी. इससे 7 साल पहले ही NPT समझौते पर किंग इदरीस ने साइन कर दिया था और समझौते को मानने के लिए राज़ी हो गए थे. NPT क्या है? NPT एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है जिसका उद्देश्य परमाणु हथियार के इस्तेमाल को रोकना और परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग को बढ़ावा देना है.

किंग इदरीस

फिर साल आया 1979. दिसंबर के महीने में त्रिपोली स्थित अमेरिकी दूतावास में हमला हुआ. दूतावास के अधिकारियों को वापस अमेरिका बुला लिया गया और दूतावास में ताला मार दिया गया. अमेरिका ने लीबिया को स्टेट स्पॉन्सर्ड टेररिज्म की लिस्ट में डाल दिया और उसपर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए. लीबिया ने वापस परमाणु हथियार बनाने की ठान ली. लीबिया में गद्दाफी की तानाशाही चल रही थी. उसने वेस्ट अफ्रीका के एक देश नाइजर से 2 हज़ार टन यूरेनियम का ओर खरीदा.

इस डील की भनक अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) को लगी, तो उसने लीबिया से पूछ-ताछ करनी शुरू की. लीबिया ने कह दिया कि इस यूरेनियम का इस्तेमाल सिविलियन यूज़ के लिए हो रहा है, मिलिट्री के लिए नहीं. लेकिन IAEA ने लीबिया की नहीं सुनी और देश में कई जगह जांच शुरू कर दी.

लीबिया की इस हरकत के चलते अमेरिका ने वॉशिंगटन में लीबिया के दूतावास पर ताला लगा दिया और लीबिया के राजनयिकों को वापस घर भेज दिया. जनवरी 1981 में अमेरिका और लीबिया की दुश्मनी में एक बड़ी खाई और खुद गई. हुआ ये कि भूमध्य सागर के ऊपर लीबिया के विमान ने एक अमेरिकी विमान पर फायरिंग कर दी. इसके जवाब में अमेरिका ने लीबिया के दो लड़ाकू विमान गिरा दिए. इसके बाद भयानक लड़ाई भड़की. लीबिया ने लड़ाई में जैविक हथियारों का इस्तेमाल किया. फिर ये मामला सुरक्षा परिषद पहुंचा. कई देशों ने मिलकर लीबिया पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए. इन प्रतिबंधों ने लीबिया की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी थी. परमाणु बनाने का ख़्वाब अब उसे बहुत दूर लग रहा था. लेकिन 1998 में ऐसा कुछ हुआ कि लीबिया ने एक बार फिर परमाणु बम बनाने की हिम्मत जुटाई.

क्या हुआ? मई 1998 में भारत ने पोखरण में पांच परमाणु परीक्षण किए. इसके दो हफ़्ते बाद ही पाकिस्तान ने भी न्युक्लियर टेस्ट किया. बलूचिस्तान के चागई में 28 और 30 मई को दो टेस्ट किए गए. दोनों सफल रहे. अब पाकिस्तान भी परमाणु शक्ति से लैस हो चुका था. पाकिस्तान की इस उपलब्धि के पीछे डॉ अब्दुल क़दीर ख़ान का हाथ था. उन्हें पाकिस्तान के सबसे प्रतिष्ठित नागरिकों सम्मानों में से एक निशान-ए-इम्तियाज़ से नवाजा गया. वे पाकिस्तान के नायक बन चुके थे. उनकी तस्वीरें स्कूल की दीवारों पर उकेरी जाने लगी थीं. एक समय वो पाकिस्तान के सबसे शक्तिशाली लोगों में गिने जाने लगे थे.

अब्दुल क़दीर ख़ान 

ये सब पर्दे के सामने चल रहा था. पर्दे के पीछे का खेल कुछ और ही था. अब्दुल क़दीर ख़ान ने पाकिस्तान से बाहर अपनी कंपनियां बना रखी थीं. इसके जरिए उन्होंने परमाणु हथियारों को ‘ब्लैक मार्केट’ में बेचना शुरू किया. डिजाइन, तकनीक, विशेषज्ञता आदि सरेआम खरीद के लिए उपलब्ध थे. जब इसकी भनक लीबिया को लगी तो उसने भी डॉ क़दीर से संपर्क साधने की कोशिश की. लेकिन इसका कुछ ठोस परिणाम नहीं निकला. हालांकि नॉर्थ कोरिया ने डॉक्टर कदीर का भरपूर फायदा उठाया. नॉर्थ कोरिया आज परमाणु हमले की जो धमकियां देते फिरता है, उसकी बुनियाद अब्दुल क़दीर ख़ान की रखी हुई है.

लीबिया ने भारत से भी परमाणु तकनीक विकसित करने की मदद मांगी. साल 1978 में गद्दाफी ने आने ख़ास मुस्तफा अब्दुल जलील को दिल्ली भेजा. उस समय भारत के रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नान्डिस थे. जब उनको इस बात का पता चला तो उन्होंने तात्कालिक प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को ये सब बातें बताई. जलील ने भारत-लीबिया संबंधों का वास्ता देते हुए इस डील को आगे बढ़ाने की बात कही. लेकिन भारत के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने उनकी इस पेशकश को ठुकरा दिया. देसाई की इस प्रतिक्रिया से जलील नाराज़ हो गए. भारत पूरी तरह लीबिया को निराश भी नहीं करना चाहता था. इसलिए उसने इसके लिए अपने 3 वैज्ञानिक त्रिपोली भेजे. 

उस वक्त लीबिया में भारत के राजदूत थे तालेयार-खान. वे इस डील के लिए बहुत उत्साहित थे. उन्हें पूरी उम्मीद थी कि भारत लीबिया की मदद कर देगा. लेकिन उस वक्त लीबिया की जनता अपने आतंरिक परेशानियों से त्रस्त थी. उनका कहना था कि हमें देश में अमन शांति चाहिए. लेकिन गद्दाफी के ऊपर परमाणु शक्ति पाने का भूत सा सवार था. जब भारत से उसे मदद नहीं मिली तो उसने चीन का रुख किया. चीन ने मदद देने से इंकार कर दिया. फिर पाकिस्तान ने गद्दाफी को आमंत्रित किया. उस वक्त पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो थे. लीबिया और पाकिस्तान की परमाणु डील मुकम्मल होने से पहले ही भुट्टो को फांसी पर लटका दिया गया. इस तरह ये डील भी पूरी न हो सकी.

तमाम असफलताओं के बावजूद गद्दाफी हार नहीं मान रहे थे. मई 2002 में अमेरिका ने सीरिया और लीबिया पर एक बार फिर आरोप लगाया कि ये दोनों देश फिर से परमाणु तकनीक पाने के करीब पहुंच रहे हैं. CIA के निदेशक जॉर्ज टेनेट ने अपनी खूफिया रिपोर्ट्स का हवाला देते हुए अमेरिकी कांग्रेस को एक चिट्ठी लिखी. इसमें भी यही बात दोहराई गई थी. इसके बाद राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू ने लीबिया पर प्रतिबंध बढ़ा दिए.

लीबिया का तानाशाह गद्दाफी 

फिर आया साल 2003. अमेरिका ने वेपन्स ऑफ़ मास डिस्ट्रक्शन का नाटक रचाकर इराक़ पर हमला बोल दिया. उस समय अमेरिका के कुछ राजनयकों ने कहा था कि इराक़ पर हमला ईरान, सीरिया और लीबिया के लिए भी एक संदेश की तरह देखा जाना चाहिए. जब पूरी दुनिया की तरफ से लीबिया पर प्रेशर पड़ने लगा तो देश की जनता में भी उबाल आया. लेकिन गद्दाफी ने प्रोटेस्ट होने ही नहीं दिए. जनता का गुस्सा बढ़ता जा रहा था. और गद्दाफी भी प्रतिबंधो से परेशान थे. इसलिए साल 2003 के अंत में लीबिया ने हार मान ली. दिसंबर महीने में लीबिया के विदेश मंत्री ने सावर्जनिक तौर पर अपने न्यूकलर प्रोग्राम्स को रोकने की बात कही. उन्होंने कहा कि वो अपने देश में खतरनाक हथियारों को बनाना बंद कर देंगे और अंतराष्ट्रीय नियमों का पालान करेंगे. उनके इस ऐलान के बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने मिलकर लीबिया के हथियार के अड्डों को नष्ट किया. उस वक्त लीबिया के पास कई तरह के ख़तरनाक रासायनिक हथियार और लंबी दूरी की बैलिस्टिक मिसाइलें मौजूद थीं.

आज हम इसकी चर्चा क्यों कर रहे हैं? क्योंकि लीबिया से 2.5 टन यूरेनियम का ओर गायब हुआ है. 10 ड्रम यूरेनियम के गुम होने से अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी IAEA में हड़कंप मचा है.

IAEA के हेडक्वाटर्स में रफाएल मारियानो ग्रोसी ने यूरेनियम के गायब होने की जानकारी दी. ग्रोसी IAEA के डायरेक्टर-जनरल हैं. IAEA के मुताबिक गुम यूरेनियम की जानकारी सदस्य देशों को दे दी गई है. बयान में कहा गया है

‘एजेंसी के सेफगार्ड्स इंस्पेक्टरों को करीब 2.5 टन यूरेनियम अयस्क से भरे 10 ड्रम नहीं मिले. इन ड्रमों के लीबिया में होने के जानकारी पहले से दी गई थी.’

चिंता की बात ये है कि जिस जगह से यूरेनियम गायब हुआ है, वहां लीबिया की सरकार का भी नियंत्रण नहीं है. IAEA के मुताबिक साइट तक पहुंचने के लिए उसके पर्यवेक्षकों को कई तरह की मुश्किलें हुईं.

यूरेनियम का गायब होना कितना ख़तरनाक है? अब ये जानते हैं.

IAEA के मुताबिक गुम हुआ यूरेनियम प्राकृतिक अवस्था में था. प्राकृतिक यूरेनियम को तुरंत परमाणु ऊर्जा या हथियार बनाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. लेकिन इसी यूरेनियम को संवर्धित कर परमाणु हथियार या न्यूक्लियर फ्यूल बनाया जा सकता है.

1 टन प्राकृतिक यूरेनियम के संवर्धन से 5.6 किलोग्राम संवर्धित यूरेनियम बनाया जा सकता है. संवर्धन की प्रक्रिया के दौरान ठोस यूरेनियम को पहले गैस में बदला जाता है और फिर सेंट्रीफ्यूज में डालकर परमाणु ईंधन में बदला जाता है. यूरेनियम एक रेडियोएक्टिव पदार्थ है. उसे सुरक्षित तरीके से स्टोर करना एक बड़ी चुनौती है. अधिकारियों को डर है कि गलत हाथों में पड़ा यूरेनियम परमाणु हथियारों की आशंका के साथ आम लोग की सेहत के लिए खतरा पैदा करता रहेगा.

अभी तक इस बात का पता नहीं चल पाया है कि ये यूरेनियम किसने चुराया है. यूरेनियम से परमाणु हथियार बनाने के लिए उच्च तकनीक चाहिए. क्या किसी गैर सरकारी संगठन के पास ऐसी तकनीक मौजूद है जो इस चुराए यूरेनियम का इस्तेमाल कर परमाणु हथियार बना सके

लीबिया ने IAEA को अपने जिन परमाणु ठिकानों की जानकारी दी है, उनमें साभा भी शामिल है. साभा, लीबिया की राजधानी त्रिपोली से करीब 660 किलोमीटर दूर है. साभा में ही लीबिया के पूर्व तानाशाह मुअम्मर अल गद्दाफी के दौरान लीबिया ने परमाणु हथियार कार्यक्रम शुरू करने के एलान किया था.

इस एलान के बाद लीबिया ने IAEA के पर्यवेक्षकों को साभा की साइट का निरीक्षण भी करने दिया. 2009 में IAEA के इंस्पेक्टरों ने लीबिया से संवर्धित यूरेनियम हटा दिया. लेकिन प्राकृतिक अवस्था में मौजूद असंवर्धित यूरेनियम को वहीं छोड़ दिया गया. अमेरिकी अधिकारियों को हमेशा चिंता लगी रहती थी कि ईरान, लीबिया से यूरेनियम खरीदने की कोशिश करेगा. 2009 में विकीलीक्स के खुलासे में गद्दाफी के एक शीर्ष परमाणु अधिकारी ने अमेरिका को विश्वास दिलाया कि ऐसा नहीं होगा.

फ़िलवक्त साभा का इलाका सरकार के नियंत्रण से बाहर है. वहां स्वघोषित लीबियन नेशनल आर्मी का दबदबा है. इस संगठन के प्रमुख खलीफा हिफतर हैं. माना जाता है कि पूर्व सैन्य अधिकारी हिफतर अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के करीबी हैं. वह त्रिपोली की सरकार को चुनौती देते हैं. बीते कुछ बरसों में दक्षिणी लीबिया में पड़ोसी देश चाड के विद्रोहियों का भी प्रभाव बढ़ा है. 

वीडियो: दुनियादारी: BBC ने एंकर को शो करने से रोका, ब्रिटेन में हड़कंप क्यों मच गया?

Subscribe

to our Newsletter

NOTE: By entering your email ID, you authorise thelallantop.com to send newsletters to your email.

Advertisement