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यूक्रेन को रूस का इलाज मिल गया!

यूक्रेन को यूरोपीय संघ के उम्मीदवार का दर्जा दिया गया

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Ukraine granted EU candidate status (AP)
यूक्रेन को यूरोपीय संघ के उम्मीदवार का दर्जा दिया गया (AP)
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24 जून 2022 (Updated: 28 जून 2022, 12:12 IST)
Updated: 28 जून 2022 12:12 IST
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 यूक्रेन के राष्ट्र्पति वोलोदिमीर ज़ेलेन्स्की ने एक ट्वीट किया 

“ये यूक्रेन और EU के संबंधों में आया ऐतिहासिक क्षण है.  यूक्रेन का भविष्य EU के साथ नत्थी है.”

ट्वीट देखा. अब एक बयान देखिए. ये बयान है, यूरोपियन काउंसिल के प्रेसिडेंट चार्ल्स मिशेल का.

“आज का दिन आपके लिए ऐतिहासिक है. आप EU के सदस्य बनने की राह पर आगे बढ़ चुके हैं.”

इन बयानों में बार-बार EU का ज़िक्र आ रहा है. ये क्या है? ये यूरोपियन यूनियन का शॉर्ट फ़ॉर्म है. यूरोपियन यूनियन क्या है? ये यूरोप के 27 देशों का आर्थिक और राजनीतिक संगठन है. उन्होंने व्यापार, कृषि, फ़िशरीज़ और रीजनल डेवलपमेंट जैसे मुद्दों पर एक जैसे कानून लागू किए हैं. सदस्य देशों के नागरिकों के लिए एक से दूसरे देश में जाने की आज़ादी है. इसके अलावा भी बहुत सारे आर्थिक और राजनैतिक हित जुड़े हुए हैं. EU के देशों में साझा सुरक्षा को लेकर भी समझौता है. एक समय तक EU में 28 देश हुआ करते थे. जनवरी 2020 में ब्रिटेन ने नाता तोड़ लिया था. उसके जाने के बाद संगठन में 27 देश ही बचे. वैसे, एक फ़ैक्ट ये भी है कि शुरुआती दौर में इस गुट में 06 देश ही थे. बेल्जियम, फ़्रांस, इटली, लग्ज़मबर्ग, नीदरलैंड्स और वेस्ट जर्मनी.

EU की ख़ासियत समझने के लिए एक ब्रीफ़ इंट्रो ज़रूरी है. इस संगठन का इतना हौव्वा क्यों है?

- सदस्य - 27 देश.

बड़े देश - फ़्रांस, जर्मनी, इटली, पोलैंड, स्पेन,  पुर्तगाल, स्वीडन आदि. इनमें से फ़्रांस यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल का परमानेंट सदस्य है. यानी, उसके पास वीटो का अधिकार है.

- EU की कुल आबादी - लगभग 45 करोड़. ये पूरी दुनिया का लगभग 6 प्रतिशत है. दुनिया के 100 लोगों में से 06 EU के सदस्य देशों के नागरिक हैं.

- कुल जीडीपी - 2021 की गणना के मुताबिक, 17 ट्रिलियन डॉलर. ये दुनिया की कुल जीडीपी का लगभग 18 प्रतिशत है. ये कितना पैसा होगा? बहुत है. आसान भाषा में समझना हो तो 2020 में भारत की कुल जीडीपी 2.66 ट्रिलियन डॉलर थी. EU की जीडीपी लगभग सात गुणा ज़्यादा है.

- EU के सदस्य देशों का ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स (HDI) काफ़ी बढ़िया है. HDI का निर्धारण मुख्यतौर पर तीन फ़ैक्टर्स के आधार पर किया जाता है. लाइफ़ एक्सपेकटेंसी, एजुकेशन और प्रति व्यक्ति आय. ये बताता है कि EU के देश अपने नागरिकों को स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाएं अच्छे से उपलब्ध कराते हैं.

- 2012 में EU को नोबेल पीस प्राइज़ से सम्मानित किया जा चुका है.

- इसके अलावा, EU का दखल यूनाइटेड नेशंस, वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइज़ेशन, जी-7 और जी-20 जैसे ताक़तवर अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भी है.

आपने EU के बारे में समझा. अब ये समझते हैं कि आज हम इसकी चर्चा क्यों कर रहे हैं?

अब शुरुआत के दो बयान याद करिए. ज़ेलेन्स्की और मिशेल के. उनके बयानों का मजमून ये था कि यूक्रेन EU का सदस्य बनने के लिए पहली सीढ़ी पर कदम रख चुका है. ये कैसे हुआ? दरअसल, 23 जून को यूरोपियन काउंसिल ने यूक्रेन और मोल्दोवा, दोनों को कैंडिडेट का स्टेटस दे दिया है. चिट्ठी तो जॉर्जिया ने भी भेजी थी. लेकिन फिलहाल के लिए उसके आवेदन को किनारे रख दिया गया है.

अब सवाल आता है, ये कैंडिडेट स्टेटस क्या है?

ये समझने के लिए थोड़ा बैकग्राउंड जानना होगा.

EU फ्लैग

यूक्रेन, मोल्दोवा और जॉर्जिया, तीनों एक समय तक सोवियत संघ का हिस्सा थे. सोवियत संघ के विघटन के बाद ये तीनों अलग और आज़ाद हो गए. लेकिन उनके यहां एक धड़ा ऐसा था, जो इस आज़ादी से खुश नहीं हुआ. उसे रूसी पहचान से लगाव बरकरार रहा. इस धड़े ने अलग होने की कोशिश की. इसके चलते उनका अपनी ही सरकार से संघर्ष हुआ. इस संघर्ष का फायदा उठाया रूस ने. उसने इन जगहों पर या तो अपनी पीसकीपिंग सेना भेज दी. या अलगाववादियों को सपोर्ट करने लगा.

अतीत से एक उदाहरण जॉर्जिया का मिलता है. यहां रूस ने अगस्त 2008 में अपनी सेना भेजी थी. 11 दिनों तक युद्ध भी चला था. तब से जॉर्जिया के दो इलाके रूस-समर्थित अलगाववादियों के नियंत्रण में है. उनकी अपनी सेना और करेंसी है. जबकि मोल्दोवा में 1992 से रूस की पीसकीपिंग आर्मी मौजूद है.

जहां तक यूक्रेन की बात है, उसका हाल तो जगजाहिर है. 2014 में क्रीमिया पर क़ब्ज़ा. दोनेश्क और लुहान्स्क में अलगाववादियों को पैसा और हथियार. फिर 24 फ़रवरी 2022 को स्पेशल मिलिटरी ऑपरेशन के नाम पर सेना भेज दी. ये लड़ाई पिछले चार महीने से जारी है. नतीजे का तो पता नहीं, लेकिन यूक्रेन तबाही की कगार पर पहुंच चुका है.

यूक्रेन के साथ एक और समस्या है. वो है, उसकी लोकेशन. यूक्रेन यूरोपियन यूनियन और रूस के बीच की कड़ी है. रूस की पूर्वी सीमा यूक्रेन से लगती है. उसका कहना है कि अगर नेटो या यूरोपियन यूनियन उसकी पूर्वी सीमा के पास आया तो बवाल होगा. यूक्रेन इन दोनों में शामिल होने की लंबे समय से कोशिश कर रहा था. रूस के हमले के पीछे की एक वजह ये भी थी.

रूस के हमले के बावजूद यूक्रेन ने मेंबरशिप की कोशिश नहीं छोड़ी. 28 फ़रवरी को उसने औपचारिक तौर पर EU की सदस्यता के लिए ऐप्लिकेशन फ़ॉर्म भर दिया. 03 मार्च को जॉर्जिया और मोल्दोवा ने भी फ़ॉर्म भरकर भेज दिया. उन्हें डर ये था कि यूक्रेन के बाद अगला नंबर उनका हो सकता है. चूंकि आज हमारा फ़ोकस यूक्रेन पर रहने वाला है. इसलिए, हम मोल्दोवा और जॉर्जिया के डिटेल्स में जाने से बचेंगे.

हमने दुनियादारी में पहले भी EU की मेंबरशिप के ऐप्लिकेशन की न्यूनतम योग्यताएं बताईं है. एक क्विक रिकैप कर लेते हैं. योग्यता तय करने के लिए 1993 में डेनमार्क की राजधानी कोपेनेहेगन में यूरोपियन काउंसिल की बैठक हुई. इसलिए, इन शर्तों को ‘कोपेनहेगन क्राइटेरिया’ के नाम से जाना जाता है.

कौन सा देश EU की सदस्यता के काबिल होगा?

- जिसकी बसाहट यूरोप में हो.
- जहां लोकतंत्र हो. कानून का शासन हो. मानवाधिकारों का सम्मान और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा होती हो.
- जहां अर्थव्यवस्था ठीक स्थिति में और EU के देशों के साथ काम करने लायक हो.
- इन सबके अलावा, संबंधित देशों मेंबरशिप के नियमों और शर्तों का पालन करने की क्षमता हो.

यूक्रेन इन योग्यताओं पर खरा उतरा. उसका ऐप्लिकेशन स्वीकार कर लिया गया. फिर इसे समीक्षा के लिए यूरोपियन कमिशन के पास भेजा गया. कमिशन में हर सदस्य से एक प्रतिनिधि होते हैं. ये EU की एक इंडिपेंडेंट एग्जीक्यूटिव इकाई है. इसका काम नए कानूनों का खाका तैयार करना, यूरोपियन पार्लियामेंट और यूरोपियन काउंसिल के फ़ैसलों को लागू कराना है. 17 जून को यूरोपियन कमिशन ने यूक्रेन और मोल्दोवा को कैंडिडेट स्टेटस देने की सिफ़ारिश की. सिफ़ारिश के बाद ऐप्लिकेशन लेटर पहुंचा यूरोपियन काउंसिल के पास. ये EU की सबसे ताक़तवर इकाई है. यूरोपियन काउंसिल में सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्ष या सरकार के मुखिया शामिल होते हैं. काउंसिल उन मुद्दों पर फ़ैसले लेती है, जिन्हें नीचे के लेवर पर सुलझाना मुश्किल होता है. कैंडिडेट स्टेटस देने में भी इसी काउंसिल का फ़ैसला अंतिम होता है.

यूरोपियन काउंसिल की बैठक हर तीन महीने पर एक बार होती है. आपात स्थिति में बैठक कभी भी बुलाई जा सकती है. 23 जून को ब्रुसेल्स में आयोजित बैठक रूटीन वाली थी. इसमें यूक्रेन और मोल्दोवा के भविष्य पर फ़ैसला होना था. बैठक के बाद पता चला कि काउंसिल ने यूक्रेन को कैंडिडेट का दर्ज़ा देने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास कर दिया है.

कैंडिडेट स्टेटस मिलना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है. ये ऐसा है, जैसे आपने किसी एग्ज़ाम का फ़ॉर्म भरा और उसका एडमिट कार्ड आ गया. आपका फ़ॉर्म रिजेक्ट नहीं हुआ. अंतिम परिणाम परीक्षा में आपकी मेहनत पर तय होता है. यूक्रेन के कैंडिडेट स्टेटस के साथ भी वही पेच है. दर्ज़ा मिल जाने भर से यूक्रेन EU का मेंबर नहीं बन जाएगा. अभी उसे और भी बहुत कुछ करना होगा. क्या? उसे EU की शर्तों के हिसाब से अपने कानून में बदलाव करने होंगे. EU के रूल्स और रेगुलेशंस की संख्या बहुत ज़्यादा है. इन सब पर सहमति बनाने में समय लगता है. अंदाज़न कितना समय लग सकता है? फिनलैंड और स्वीडन तीन साल के अंदर सदस्य बन गए थे. वहीं EU के सबसे नए सदस्य क्रोएशिया को प्रोसेस पूरा करने में 10 साल लग गए थे.

क्रोएशिया का प्रोसेस तो पूरा भी हो गया. कई देश हैं, जो सालों से कैंडिडेट स्टेटस पर अटके हुए हैं. जैसे, अल्बानिया को 2014 में कैंडिडेट स्टेटस मिला था. बात वहीं अटकी हुई है. नॉर्थ मेसेडोनिया को दिसंबर 2005 में कैंडिडेट का दर्ज़ा मिला था. 17 सालों के बाद भी वो EU का मेंबर नहीं बन पाया है. इसी तरह, मॉन्टेनीग्रो को 2010, सर्बिया को 2012 और तुर्की को 1999 में कैंडिडेट घोषित किया जा चुका है. लेकिन ये देश अभी तक सदस्य नहीं बन पाए हैं.

ये तो हुई समय की बात. यूक्रेन के सामने और क्या बाधाएं हैं?

पहली बाधा है, आम सहमति.

EU में किसी नए देश को दाखिल करने के लिए सभी सदस्य देशों की सहमति ज़रूरी है. यूक्रेन के मामले में आम सहमति बन पाना काफ़ी मुश्किल है. उदाहरण के लिए, हंगरी की सरकार पश्चिमी देशों की बजाय रूस की करीबी है. वे यूक्रेन के लिए पुतिन को नाराज़ करने का ज़ोखिम नहीं उठा सकते हैं.

दूसरी बाधा ये है कि कई EU के कई देश नए सदस्यों को शामिल करने को लेकर हिचकते हैं. उन्हें ये आशंका रहती है कि नए सदस्य EU के पूरे कामकाज को प्रभावित कर सकते हैं. वे EU के फ़ैसले लेने की क्षमता पर भी असर डाल सकते हैं. उनका कहना है कि नए दाखिले से पहले संगठन को चुस्त-दुरुस्त कर लिया जाए.

तीसरी बाधा युद्ध की है. EU ने कभी किसी देश को उस वक़्त में सदस्यता नहीं दी है, जब वो देश युद्ध से जूझ रहा हो. मेंबरशिप प्रोसेस पर आगे बढ़ने के लिए युद्ध का रुकना बेहद ज़रूरी है. फिलहाल इसकी कोई संभावना नज़र नहीं आती. रूस ने यूक्रेन को कैंडिडेट स्टेटस मिलने पर कहा कि ये उनका अंदरुनी मसला है. लेकिन रूस इस फ़ैसले के बाद चुप बैठेंगे, ऐसा दावे से नहीं कहा जा सकता है. जानकारों की मानें तो यूक्रेन की राह में रूस अभी और कांटे बिछाने वाला है.

अब सवाल ये आता है कि यूक्रेन EU का मेंबर बनने के लिए कितना तैयार है?

यूक्रेन पिछले आठ बरस से EU के नियम-कानूनों को आत्मसात करने के लिए काम कर रहा है. EU के मुताबिक, यूक्रेन ने लगभग 70 प्रतिशत अहर्ता पूरी भी कर ली है. अभी पहली समस्या युद्ध की है. जब तक युद्ध नहीं रुकता, तब तक बाकी का प्रोसेस लेट होता जाएगा. इसका सीधा असर उसकी EU मेंबरशिप पर पड़ेगा. यानी, यूक्रेन को अभी जो मिला है, वो बस एक दिवास्वप्न है. ये स्वप्न हक़ीक़त में कामयाब होता है या नहीं, ये काफ़ी हद तक रूस के कंधों पर टिका है.

अब सुर्खियों की बारी.

पहली सुर्खी अफ़ग़ानिस्तान से है. 22 जून 2022 का दिन अफगानिस्तान के लिए नासूर साबित हुआ. इस भूकंप से अब तक हज़ार से भी ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. हताहतों का आंकड़ा बढ़ने की पूरी आशंका है. भूकंप का सबसे ज़्यादा प्रभाव पकतिका प्रांत में दिखा. जब भी ऐसी प्राकृतिक आपदाएं आती हैं तो फौरी तौर पर तबाही तो होती ही है, लेकिन इनमें लोगों का भविष्य भी अंधकार में चला जाता है.

अफगानिस्तान में आए इस भूकंप ने ऐसी ही कई कहानियां दी हैं. ऐसी ही एक कहानी है कौसर की, कौसर अफगानिस्तान के पकतिका प्रांत में रहते हैं. उन्होंने DW को बताया,

‘जब भूकंप आया, उस वक़्त मैं सो रहा था. लेकिन भूकंप के झटके इतने तेज़ थे की मेरी नींद फ़ौरन खुल गई. नींद खुलते ही मैं अपने कमरे से निकलकर बाहर की तरफ भागा तो देखा धूल का गुबार, हर तरफ सिर्फ एक ही चीज़ थी, धूल! मेरा घर भी ढह गया था, और उसी धूल की आगोश में समा गया था, हमने जैसे तैसे मेरी मां, छोटे भाइयों और बहनों को वहां से निकाला, लेकिन मैं अपने पिता को नहीं बचा पाया. मेरे चाचा के परिवार का हाल और भी बुरा है, चाचा के परिवार के 12 सदस्य मारे गए. मैं भी भूकंप के समय उनकी मदद नहीं कर पाया.’

अफ़ग़ानिस्तान के हालात इतने ख़राब हैं कि मरनेवालों को सामूहिक क़ब्रों में दफ़नाया जा रहा है. लोगों के पास जो कुछ भी खाने का सामान था अब वो मलबे में दब गया है. उनके इलाके की हालत बहुत गंभीर है.
एक कहानी अहमद नूर की भी है. अहमद नूर की कहानी बीबीसी में छपी है. नूर ने बताया,

“रात के करीब 01:30 बजे भूकंप आया. सब सो रहे थे, भूकंप की आवाज़ से मैं डर गया. जब सब शांत हुआ मैंने अपने दोस्तों को ढूंढने की कोशिश की, जब मैं घर से बाहर निकला तो हर जगह सिर्फ एम्बुलेंस के सायरन सुनाई दे रहे थे. हर तरफ़ मनहूसी भरा आलम था, सब मायूस ही नज़र आ रहे थे. हर गली में मातम के निशान पसरे हैं.’

ये तो भूकंप के नुकसान का एक पहलू है, लेकिन एक सवाल जो काफी मौजू है, वो ये कि क्या भूकंप के बाद अफगानिस्तान में पर्याप्त राहत पहुंच रही है? तालिबान के अफगानिस्तान में सत्ता संभालने से क्या अंतरराष्ट्रीय मदद में फ़र्क पड़ा है? तालिबान के एक वरिष्ठ अधिकारी अनस हक्कानी ने ट्विटर पर कहा कि सरकार अपनी क्षमताओं के भीतर काम कर रही है. उनके इस ट्वीट से लोग ये आकलन कर रहे हैं कि इस आपदा के समय अफ़ग़ानिस्तान अकेला पड़ता जा रहा है.

अफगानिस्तान की आपात सेवा के अधिकारी सराफुद्दीन मुस्लिम ने कहा ,

‘किसी देश में जब इस तरह की कोई बड़ी आपदा आती है तब अन्य देशों की मदद की जरूरत पड़ती है.’

इस बीच, संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंतोनियो गुतेरेस ने कहा कि अफगानिस्तान में आए इस भूकंप में अंतरराष्ट्रीय संगठन, ज़रूरी टीमों की तैनाती में लगा हुआ है.

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी नज़र रखने और मदद पहुंचाने की बात कही है. लेकिन अफगानिस्तान की पिछली सरकार में काम करने वालों की अपनी अलग राय है. पिछली सरकार के आपदा प्रबंधन मंत्रालय के प्रवक्ता अहमद तमीम अज़ीमी का कहना है कि तालिबान के लिए आपदा प्रबंधन प्राथमिकता नहीं है. यदि आप धार्मिक मौलवियों को तकनीकी विभागों का प्रभारी बनाते हैं, तो आप संकट से निपटने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? यह केवल अफगानिस्तान को अराजकता की ओर धकेलेगा.

तालिबान शुरुआत से ही अपनी सरकार की वैधता की मांग अंतरराष्ट्रीय समुदाय से करता आया है. लेकिन उसे अभी तक किसी भी बड़े देश या संगठन ने आधिकारिक मान्यता नहीं दी है. इस वजह से अफ़दग़ानिस्तान के साथ डिप्लोमैटिक संबंध स्थापित नहीं हो सके हैं.

आज की दूसरी और अंतिम सुर्खी कोरोना महामारी से जुड़ी है. हम पोस्ट-कोविड वर्ल्ड में जीने की शुरुआत कर चुके हैं. आपदा से निपटने में जिस एक चीज़ ने सबसे अहम भूमिका निभाई, वो कोरोना की वैक्सीन थी.  ये सवाल अक्सर पूछा जाता है कि अगर वैक्सीन नहीं होती तो क्या होता? अब उसका वैज्ञानिक प्रमाण मिल गया है. लेंसेट में छपी एक स्टडी के मुताबिक, कोरोना के टीकों ने एक साल में करीब 2 करोड़ लोगों की जान बचाई है. ये अध्ययन लंदन के इम्पीरियल कॉलेज ऑफ़ में हुआ है. इसमें 185 देशों का डेटा इकठ्ठा किया गया. रिसर्च से निकले आकलन बताते हैं कि टीकों ने भारत में 42 लाख, अमेरिका में 19 लाख, ब्राजील में 10 लाख  फ्रांस में 6 लाख 30 हज़ार यूनाइटेड किंगडम में करीब 5 लाख लोगों की जान बचाई. 

स्टडी में एक और बात निकलकर आई कि अगर WHO ने 2021 के अंत तक 40% टीकाकरण का लक्ष्य पूरा कर लिया होता, तो 6 लाख और मौतों को रोका जा सकता था. रिसर्चर्स ने कहा कि हम संभावित मौतों की संख्या पर सहमत-असहमत हो सकते हैं. लेकिन हमें ये बात ज़रूर माननी पड़ेगी कि कोरोना के टीकों ने लाखों लोगों की जान बचाई है और इस दुनिया को महामारी के चंगुल से बाहर निकलने में मदद की है.

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