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अंग्रेजों से लड़ने के लिए हलवाइयों का हथियार थी ये बर्फी

इस मिठाई की कहानी आजादी की लड़ाई से जुड़ी है.

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तिरंगा बर्फी की ये कहानी आजादी हासिल होने से भी पहले के दौर की है. तब की, जब भारत गुलाम हुआ करता था.
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स्वाति
13 नवंबर 2017 (Updated: 15 नवंबर 2017, 05:52 AM IST) कॉमेंट्स
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भारत में इतने तरह की मिठाइयां बनाई और खाई जाती हैं कि कोई गिनती नहीं. खोया मिठाई. छेना मिठाई. मावे की मिठाई. फलों की मिठाई. सब्जियों की मिठाई. सूखी मिठाई. रस वाली मिठाई. आटे की मिठाई. चावल की मिठाई. गुड़ की मिठाई. चीनी की मिठाई. तरह-तरह की मिठाई. आज का ये किस्सा भी ऐसी ही एक मिठाई का है. खालिस हिंदुस्तानी मिठाई का किस्सा. ऐसी मिठाई जिसमें देशभक्ति भरी पड़ी है. उसकी पैदाइश में भी देशभक्ति है. उसके दिखने में भी देशभक्ति है. यहां तक कि वो पैदा भी उसी दौर में हुआ. तब, जब ये मुल्क अपनी आजादी का ख्वाब देख रहा था. ये मिठाई थी- तिरंगा बर्फी.
राष्ट्रीय झंडा राष्ट्रीयता का एक अहम प्रतीक है. एक ऐसा झंडा, जिसे देखकर और जिसे थामकर लोग खुद को देश के साथ जुड़ा हुआ महसूस कर सकें.
राष्ट्रीय झंडा राष्ट्रीयता का एक अहम प्रतीक है. एक ऐसा झंडा, जिसे देखकर और जिसे थामकर लोग खुद को देश के साथ जुड़ा हुआ महसूस कर सकें.

अंग्रेजों को ठेंगा दिखाने के लिए बनाई गई थी खास तिरंगा बर्फी ऊपर केसरिया. बीच में सफेद. नीचे हरा. ऐसा जैसा हमारा झंडा होता है. तिरंगा. तिरंगा बर्फी. अक्सर दिखती है दुकानों में. इसकी कहानी बहुत पहले शुरू हुई. करीब 80-85 साल पहले. अंग्रेजों से बगावत के कई तरीके थे उन दिनों. ये तिरंगा बर्फी भी उसी बगावत की एक निशानी है. अंग्रेजों के एक बैन को ठेंगा दिखाने के लिए बनाई गई. बनाने वाला शहर था बनारस. वैसे, और भी कई शहर थे. जहां अंग्रेजों से बगावत करने के लिए ये तिरंगा बर्फी बनाने की रस्म शुरू हुई.
बहुत सोचने-समझने के बाद तय हुआ था ये स्वराज झंडा हमारा झंडा एक दिन में तय नहीं हुआ. कई डिजाइन बने. इस्तेमाल हुए. फिर उनकी आलोचना हुई. उनकी जगह नए डिजाइन आए. कोशिश थी एक ऐसा डिजाइन खोजने की, जो हिंदुस्तान की आत्मा बन जाए. जिसके रंगों में हर धर्म, हर जाति का इंसान अपने लिए जगह खोज पाए. ताकि सारे लोग उस झंडे के साथ रिश्ता जोड़ सकें. काफी सारे 'ट्रायल ऐंड ऐरर' के बाद बना स्वराज झंडा. ऊपर केसरिया पट्टी, बीच में सफेद पट्टी. उसपर नीले रंग का चरखा. सबसे नीचे हरी पट्टी. स्वराज झंडे से पहले जितने भी झंडे आए, उन्हें इस्तेमाल करने वाले कम थे. सीमित थी. ये पहली बार था कि बहुत सारे लोगों को स्वराज झंडा अपना लगने लगा. हालांकि मुस्लिम बिरादरी शुरुआत में इसे लेकर थोड़ा हिचकिचा रही थी. मगर फिर बाद में कांग्रेस के मुस्लिम नेता भी बेहिचक इसे थामने लगे.
1931 में ये 'स्वराज झंडा' भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का आधिकारिक झंडा बन गया. लोगों के बीच इसकी बढ़ती लोकप्रियता के बाद अंग्रेजों ने इसके खिलाफ सख्ती दिखानी शुरू की.
1931 में ये 'स्वराज झंडा' भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का आधिकारिक झंडा बन गया. लोगों के बीच इसकी बढ़ती लोकप्रियता के बाद अंग्रेजों ने इसके खिलाफ सख्ती दिखानी शुरू की.

1931 में कांग्रेस पार्टी ने इसे अपना आधिकारिक झंडा बनाया जैसे-जैसे स्वराज झंडा लोकप्रिय होता गया, वैसे-वैसे अंग्रेजों की इससे चिढ़ बढ़ती गई. पहले किसी झंडे पर उन्होंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया था. मगर स्वराज झंडा अंग्रेजों की आंखों में चढ़ गया. 1931 में ये झंडा कांग्रेस पार्टी का आधिकारिक झंडा बन गया. आधिकारिक, माने मुहर लग गई. मगर इससे क्या होता है? अब तक तो एक बड़ी आबादी इसे अपना झंडा, अपने आजाद मुल्क का झंडा मानने भी लग गई थी. अंग्रेज हम हिंदुस्तानियों के अंदर पैठ बना रहे राष्ट्रवाद को कोड़े मारना चाहती थी. ये झंडा और राष्ट्रगान वगैरह क्या होता है? देश के लोगों को एक कॉमन चीज से जोड़कर लोगों के अंदर राष्ट्रवाद जगाना. तो अंग्रेजों ने इस स्वराज झंडे पर बैन लगा दिया. यहीं पर आई तिरंगा बर्फी.
जब देश आजाद हुआ, तो पूरे शहर में बंटी तिरंगा मिठाई बनारस के मिठाइवालों ने अंग्रेजों के फरमान को अंगूठा दिखाने का फैसला किया. कहा, तुम डाल-डाल, मैं पात-पात. मिठाइवालों ने तिरंगा रंग की बर्फी बना दी. खूब चलन में आ गई ये बर्फी. फिर जब भारत आजाद हुआ, तब आजादी का जश्न मनाने के लिए पूरे बनारस शहर में ये ही तिरंगा मिठाई बंटवाई गई. आजाद होने के बाद भी इस मिठाई को बनाने की परंपरा जारी रही. अब ज्यादातर लोगों को तिरंगा बर्फी का ये इतिहास नहीं मालूम. बर्फी फिर भी खूब बिकती है.
कबीर को समझने गई थी, बर्फी की कहानी हाथ लगी मैं अभी हाल ही में बनारस गई थी. महिंद्रा कंपनी ने वहां कबीर पर एक फेस्टिवल का आयोजन किया था. महिंद्रा कबीर फेस्टिवल. इस कार्यक्रम के दौरान शहर को करीब से देखने का मौका मिला. बनारस को पहले भी देखा था. कई बार. मगर अपनी नजरों से. उस नजर में मजा और सुकून ज्यादा था, जानकारी थोड़ी कम. वो कसर इस फेस्टिवल ने पूरी कर दी. महिंद्रा कबीर फेस्टिवल वालों ने हमें इस शहर को बेहद करीब से जानने वाले एक शख्स के हवाले कर दिया. उन सज्जन का नाम था अजय पाण्डेय. परिवार शायद कन्नौज का रहने वाला था उनका. पिता का ट्रांसफर हुआ बनारस शहर में. फिर पूरा परिवार हमेशा-हमेशा के लिए बनारसी हो गया. अजय जी की पैदाइश भी बनारस की ही है. चौक इलाके में बहुत अंदर की ओर एक दुकान है. रसमंजरी. शायद बनारस की सबसे उम्दा मिठाइयों का पता है ये. वहीं पर अजय जी के मुंह से पहली बार सुना मैंने. तिरंगा बर्फी की कहानी. फिर कुछ और लोगों से भी पूछा. तफ्तीश की, तो मालूम चला बात तो सही है. सही है न. कबीर को थोड़ा और पास से जानने निकली थी, बोनस में ये बर्फी की कहानी मिल गई.


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