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ब्रेस्ट कैंसर को हराने वाली एक जुझारू औरत की कहानी, उसी की जुबानी

कैंसर के मरीजों को क्या-कुछ सहना पड़ता है.

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फोटो - thelallantop
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प्रतीक्षा पीपी
27 अक्तूबर 2016 (Updated: 27 अक्तूबर 2016, 02:00 PM IST) कॉमेंट्स
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ब्रेस्ट कैंसर का खतरा हर औरत को होता है. और  कैंसर कभी तूफ़ान सा नहीं आता, धीरे धीरे आपके शरीर में घर करता है. इसलिए हर साल अपना टेस्ट करवाएं. खासकर वो औरतें जो मां बन चुकी हैं. क्योंकि स्तन आपके अस्तित्व का हिस्सा हैं.  अक्टूबर ब्रेस्ट कैंसर अवेयरनेस मंथ है. यानी ब्रेस्ट कैंसर के बारे में बात करने वाला महीना. इसलिए हम आज ब्रेस्ट कैंसर पर बात करेंगे, विभा रानी की  कलम के जरिए.
विभा रानी एक कवि और थिएटर आर्टिस्ट हैं. और हां, अब एक कैंसर सर्वाइवर भी. 2013 में इनका ब्रेस्ट कैंसर डायग्नोज़ हुआ था. जिसके बाद इनके कीमोथेरेपी के सेशन हुए. आज विभा स्वस्थ हैं. आपको बता रही हैं कि कैंसर के मरीजों को क्या-कुछ सहना पड़ता है. और कैसे अपनी हिम्मत और इच्छाशक्ति से हर मुसीबत को हराया जा सकता है.


‘आपको क्यों लगता है कि आपको कैंसर है?’‘मुझे नहीं लगता.‘‘फिर क्यों आई मेरे पास?’‘भेजा गया है.‘‘किसने भेजा?’‘आपकी गायकोनोलिज्स्ट ने.‘
और छ्ह साल पुरानी केस-हिस्ट्री- ‘बाएँ ब्रेस्ट के ऊपरी हिस्से में चने के दाल के आकार की एक गांठ. अब भीगे छोले के आकार की. ....कोई दर्द नहीं, ग्रोथ भी बहुत स्लो. मुंबई-चेन्नै में दिखाया- आपके हॉस्पिटल में भी. लेडी डॉक्टर्स से भी. हंसी आती है, साइज की इस घरेलू तुलना से. हंसी आती है अपनी बेवकूफी पर भी कि ब्रेस्ट-यूट्रस की बात आने पर सबसे पहले हम गायनोकॉलॉजिस्ट के पास ही दौड़ती हैं.'
यह है हम आमजन का सामान्य मेडिकल ज्ञान- फिजीशियन, सर्जन, गायनोकॉलॉजिस्ट में अटके-भटके. छह साल मैं भी इस-उसको दिखाती रही. सखी-सहेलियों के संग गायनोकॉलॉजिस्ट भी बोलीं- ‘उम्र के साथ दो-चार ग्लैंड्स हो ही जाते हैं. डोंट वरी.‘ और मैं निश्चिंत अपनी नौकरी, लेखन, थिएटर, घर-परिवार में लगी रही.
धन्यवाद की पात्र रहीं गायनोकॉलॉजी विभाग की नर्स! डॉक्टर से मिलने की वजह जानकर बोली- ‘मैडम! आप सीधा ओंकोलोजी विभाग में जाइए. ये भी आपको वहीं भेजेंगी. आपका समय बचेगा’ दिल धड़का- "ओंकोलॉजी!" फिर खुद ही हंसी में उड़ा दिया- "विभा डार्लिंग! आज तक कभी तुझे कुछ हुआ है जो अब होगा."
डॉक्टर मुझसे भी महान! बोला- ‘मुझे फायब्रोइड लगता है. डजंट मैटर. आप जिंदगी भर इसके साथ रह सकती हैं." मेरा खुला या भौंचक चेहरा देखकर टालू अंदाज में कहा- "फिर भी, गो फॉर मैमोग्राफी, मैमो-सोनोग्राफी, बायप्सी एंड कम विथ रिपोर्ट.‘ मेरे लिए हर क्षेत्र अनुभव का नया जखीरा. इसके लुत्फ के लिए मैं हमेशा तैयार! मेरे शैड्यूल में एक महीने, यानि दीवाली तक मेरे पास समय नहीं. आज संयोग से कोई मीटिंग, रिहर्सल नहीं- सो काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब’. मैमोग्राफी विभाग ने कहा, ‘बिना अपॉइंटमेंटन वाले पेशेंट को वेट करना होता है. मैं तैयार, पर अकेली, अजीब घबराहट और बेफिक्री का भाव लिए. अपने किसी काम के लिए किसी को साथ ले जाना मुझे उस व्यक्ति के समय की बरबादी लगती. अस्पताल जाना भी उनमें से एक था. अजय (पति) को फोन कर दिया कि कुछ टेस्ट के लिए रुक गई हूँ. करवाकर आऊँगी. मैंने ही इसे गंभीरता से नहीं लिया था तो वे क्या लेते!
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मजाक में कहती रहती थी- "मेरा ब्रेस्ट! रोलर प्रेस्ड!!" इस रोलर प्रेस्ड ब्रेस्ट ने मैमोग्राफी की तकलीफ को चौगुना कर दिया. टेक्नीशियनों की भी उलझन चुनौती की तरह मुंह बाए थी-" करो इस सपाट छाती की मैमोग्राफी.“ चुनौती स्वीकारी गयी और मेरी तकलीफ कई गुना बढ़ा गई. मैंने लिखा-
यह स्तन है या नींबू या नारंगी!यह मशीन है या किसी आतताई के हाथ,जिसकी नजर में स्तन हैंमांस का लोथड़ा भर!चक्की के ये दो पाट!आओ, और भर दो इन दो पाटों के बीचअपने जीते-जागते बदन को-खुद ही!भरो चीख भरी सिसकारियाँ,कोई नहीं आएगा इन बड़े बड़े डैनेवाले गिद्धों सेतुम्हें बचाने!स्त्रियों का यह अंग किस-किस रूप में छलता हैखुद को!
बायप्सी की तकलीफ का भी अंदाजा था नहीं. डॉक्टर ने कहा था- "एक इंजेक्शन देकर फ्लूइड का सैम्पल लेंगे. बस!” लेकिन जब सुई चारों कोनों से कट कट मांस काटती गई तब बायोप्सी के दर्द का पता चला. ट्रे में खून से लिथड़ी रुई ने नर्वसनेस को और बढ़ा दिया. तन-मन से कमजोर अब मैं घर जाने के लिए अस्पताल से बाहर आई. गाड़ी लेकर गई नहीं थी. ऑटोवाले रुक नहीं रहे थे. एक रुका, पर जाने से मना कर दिया. मैंने कहा, ‘भैया, अस्पताल से आई हूँ. चक्कर आ रहा है, ले चलो.‘ उसने फटाक से कहा- “तो अस्पताल से लेना था न!” मैं बोली- “वहाँ कोई ऑटो रुक नहीं रहा था, इसलिए रोड तक आई हूँ. देख नहीं रहे, गाड़ी का सहारा लिए खड़ी हूँ.“ उसने फिर से एक पल देखा, बेमन से बिठाया, घर छोड़ा. लेकिन, जबतक मैं लिफ्ट में चली नहीं गई, रुका रहा. छोटे-छोटे मानवीय संवेदना के पल मन को छूते हैं.
चेक-अप करवाकर मैं भोपाल चली गई- ऑफिस के काम से. ऑफिस और मेरी व्यस्तता का चोली दामन का साथ है. उसमें भी तब, जब आपके कार्यालय का निरीक्षण हो और सारी जिम्मेदारी आप पर हो. लिहाजा, व्यस्तता में भूल गई सब. चार दिन बाद अचानक याद आने पर अजय को फोन किया. वे बोले- ‘रिपोर्ट पोजिटिव है, तुम आ जाओ, फिर देखते हैं.' यह 18 अक्तूबर, 2013 की रात थी. ऑफिस के काम से चूर इस रिपोर्ट से दिल एकबारगी फिर ज़ोर से धड़का. रात थी. पार्टी चल रही थी. मैं भी पार्टी में शामिल हुई. मन न होते हुए भी खा रही थी, हंस-बोल रही थी. दिन रात कुछ न कुछ तकलीफ़ों के बावजूद आज तक मेरी सभी रिपोर्ट्स ठीक-ठाक आती थीं. मन हंसा- ‘कुछ तो निकला.‘ दूसरा मन कह रहा था, गलत होगी रिपोर्ट! फिर भी अजय से कहा, "मेरे पहुँचने तक फैमिली डॉक्टर से दिखा लो." दूसरे दिन फ़ैमिली डॉक्टर ने भी कन्फ़र्म कर दिया. मतलब, "वेलकम टु द वर्ल्ड ऑफ कैंसर!"
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डॉक्टर भी रिपोर्ट देख चकरा गया- ‘कभी-कभी गट फीलिंग्स भी धोखा दे देती है.' डॉक्टर ने बड़े साफ और संक्षिप्त शब्दों में बीमारी, इलाज और इलाज के पहले की जांच- प्रक्रिया बता दी. कैंसर के सेल बड़ी तेजी से बदन में फैलते हैं, इसलिए, शुभस्य शीघ्रम! इस बीच मुझे ऑफिस के महत्वपूर्ण काम निपटाने थे, एक दिन के लिए दिल्ली जाना था- ऑफिस के एक टेस्ट में भाग लेने. लौटकर विभागीय मीटिंग करनी थी, क्योंकि छुट्टी लंबी लेनी थी. डॉक्टर ने 30 अक्तूबर की डेट दी. ना! इस दिन कैसे करा सकती हूँ! चेन्नै-प्रवास के कारण तीन साल से अजय के जन्म दिन पर नहीं रह पा रही थी. इसबार तो रह लूँ. तो 1 नवंबर, 2013 तय हुआ- ऑपरेशन के लिए.
अभी तक केवल ऑफिस वालों को बताया था. रिशतेदारों की घबराहट का अंदाजा हमें था. वर्षों पहले कैंसर से मामा जी को खोने के बाद दो साल पहले ही अपने बड़े भाई और बड़ी जिठानी को कैंसर से खो चुकी थी. घाव ताजा थे, दोनों ही पक्षों से. इसलिए दोनों ही ओर के लोगों को संभालना और उनके सवालों के जवाब देना...बड़ी कठिन स्थिति थी. हमने निर्णय लिया कि इलाज का प्रोटोकॉल तय होने के बाद ही घरवालों या हित-मित्रों को बताया जाए.
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आशंका के अनुरूप छोटी जिठानी और दीदियों के हाल-बेहाल! मैं हंस रही थी, वे रो रही थीं. मैंने ही कहा- ‘मुझे हिम्मत देने के बजाय आपलोग ही हिम्मत हार बैठेंगी तो मेरा क्या होगा?” मैंने तय किया था, बीमारी की तकलीफ से भले आँसू आएँ, बीमारी के कारण नही रोऊंगी. जब भी हालात से विचलित होती, सोचती, मुझसे भी खराब स्थिति में लोग हैं. मन को ताकत मिलती. यहाँ भी सोचा, ब्रेस्ट कैंसर से भी खतरनाक और आगे की स्टेज के रोगी हैं. वे भी तो जीते हैं. उनका भी तो इलाज होता है. पहली बार मैंने अपने बाबत सोचा- मुझे मजबूत बने रहना है. अपने लिए, पति के लिए, बेटियों के लिए.
शहर में जब चर्चा चली तो किस्से-आम होने लगे. हम कैंसर या किसी भी बीमारी पर बात करते डरते- कतराते हैं. इससे दूसरों को जानकारी नहीं मिल पाती. मुझे लगता है, हमें अपनी बीमारी पर जरूर बातचीत करनी चाहिए, ताकि हमारे अनुभवों से लोग सीख-समझ सकें और बीमारी से लड़ने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो सकें. याद रखिए, धन तो आप कहीं से भी जुटा लेंगे, लेकिन मन की ताकत सिर्फ आप अपने से ही जुटा सकते हैं. आपके हालात पर जेनुइनली रोनेवाले भी बहुत मिलेंगे, लेकिन आपको ही उन्हें बताना है कि ऐसे समय में आपको उनके आँसू नहीं, उनके मजबूत मन चाहिए.
निस्संदेह कैंसर भयावह रोग है. यह इंसान को तन-मन-धन तीनों से तोड़ता है और अंत में एक खालीपन छोड़ जाता है. लेकिन इसके साथ ही यह भी बड़ा सच है कि हम मेडिकल या अन्य क्षेत्रों के प्रति जागरूक नही होते. जबतक बात अपने पर नहीं आती, तबतक अपने काम के अलावा किसी भी विषय पर सोचते नहीं. इससे भ्रांतियाँ अधिक पैदा होती हैं. कैंसर के बारे में भी लोग बहुत कम जानते हैं. इसलिए इसके पता चलते ही रोगी सहित घर के लोग नर्वस हो जाते हैं. हम भी नर्वस थे. मेरा एक मन कर रहा था, हम सभी एक-दूसरे के गले लगकर खूब रोएँ. लेकिन हम सभी- मैं, अजय, मेरी दोनों बेटियाँ- तोषी और कोशी – अपने-अपने स्तर पर मजबूत बने हुए थे.
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मेरा कैंसर भी डॉक्टर से शायद आँख-मिचौनी खेल रहा था. ऑपरेशन के समय डॉक्टर ने मुझे केमो पोर्ट नहीं लगाया- ‘आपका केस बहुत फेयर है. सैंपल रिपोर्ट आने के बाद हो सकता है, आपको केमो की जरूरत ही न पड़े. केवल रेडिएशन देकर छुट्टी.‘ किसी भी मरीज के लिए इससे अच्छी खबर और क्या हो सकती है!
ऑपरेशन के बाद अलग अलग कोंप्लीकशंस के बाद आईसीयू की यात्रा करती एक्यूट यूरिन इन्फेक्शन से जूझने के अलावा हालत बहुत सुधर चुकी थी. मेरे मित्र रवि शेखर एक म्यूजिक बॉक्स छोड़ गए. सुबह से शाम तक धीमे स्वर में वह मुझे अपने से जोड़े रखता. नर्स ने एक्सरसाइज़ बता दिए. दस दिन बाद घर पहुंची, एक पूर्णकालिक मरीज बनकर. अजय और बच्चे मेरे कमरे, खाने, दवाई के प्रबंध में जुट गए. मुझे सख्त ताकीद, कोई काम न करने की, खासकर प्रत्यक्ष हीट से बचने के लिए किचन में न जाने की. पूरे जीवन जितना नहीं खाया-पिया, आराम नहीं किया, अब मैं कर रही थी. शायद आपकी अपने ऊपर की ज्यादती प्रकृति भी नहीं सहती. उससे उबरने के इंतज़ाम वह कर देती है. तो क्या मेरा कैंसर प्रकृति का दिया इलाज है? या जीवन और नौकरी में आए वे पल और झंझावात, जिन्हें समझनेवाला कोई नहीं और जो गहरे जाकर गाँठ बना गया? या मैंने ही किसी के साथ नहीं बांटा- "रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय. सुनि इठलैन्हि लोग सब, बाँटि न लैंहे कोय."
सैंपल रिपोर्ट आ गई- पहला स्टेज, ग्रेड III! डॉक्टर ने समझाया- "चोरी होने पर पुलिस को बुलाते हैं, आतंकवादी के मामले में कमांडोज़. ग्रेड 3 यही आतंकवादी हैं, जो आपके ब्रेस्ट और आर्मपिट नोड्स में आ चुके हैं. इसलिए केमो अनिवार्य!" केमो स्पेशलिस्ट ने एक संभावित तारीख और निर्देश दे दिए- 23 नवम्बर- ‘सर्जरी के तीन से चार सप्ताह के भीतर केमो शुरू हो जाना चाहिए. चूंकि, केमो कैंसर सेल के साथ-साथ शरीर के स्वस्थ सेल को भी मारता है, इसलिए इसके साइड इफ़ेक्ट्स हैं- भूख न लगना, कमजोरी, चक्कर आना, बाल गिरना आदि.‘
तीसरा सप्ताह चढ़ा कि नहाने के समय हाथ में मुट्ठी-मुट्ठी बाल आने लगे. केमो की तैयारी के लिए पहले ही मैंने बाल एकदम छोटे करा लिए थे-पिक्सी कट. लंबे बालों के गिरने से बेहतर है छोटे बालों का गिरना. फिर भी बालों के प्रति एक अजीब से भावात्मक लगाव के कारण और बाल गिरेंगे, यह जानते हुए भी मैं अपने-आपको रोक ना सकी और फूट-फूटकर रोने लगी. अजय और कोशी भागे-भागे आए. कारण जानकर दिलासे देने लगे. कोशी ने अवांछित बाल हटाकर खोपड़ी को समरूप-सा कर दिया. लेकिन, आईना देख खुद को ही नहीं सह पाई. झट सर पर दुपट्टा लपेट लिया. रात में तोषी के आने पर मैंने कहा कि मेरा चेहरा बहुत भयावना लग रहा है. उसने मुझे अपने गले से लगाते हुए कहा, ‘ऐसा कुछ नहीं है, तुम अभी भी वैसी ही प्यारी लग रही हो.‘
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एक-दो दिन बाद स्थिर होकर खुद को देखा- नाटक ‘मि. जिन्ना’ करते समय अक्सर गांधी की भूमिका की सोचती. तब हिम्मत नहीं थी. लेकिन अब मुझे अपनी टकली खोपड़ी से प्यार हो गया. उसे ढंकती नहीं, न घर में न बाहर में. यह अपना आत्म-विश्वास है. मुझे देखनेवाले कहते हैं- ‘यह ‘कट’ आप पर बहुत सूट कर रहा है.‘ किसी ने मौंक कहा, किसी ने कहा, "आप बिलकुल वाटरवाली शबाना आज़मी लग रही हैं." शबाना से मेरी तुलना शुरू से की जाती रही है. लेकिन अब मैंने कहना शुरू कर दिया था, "मैं नहीं, वो मुझसे मिलती हैं." (आखिरकार अब मेरी भी एक हैसियत है-लेखक, कवि, ट्रेनर, थिएटर एक्टर.)
केमो पोर्ट न लगाने के कारण इंट्रावेनस केमो दिया गया. लेकिन तीसरे केमो तक आते-आते सारी नसें फायर कर गईं. नसें काली पड़ गईँ और काफी दर्द रहने लगा. डॉक्टर बोले- ‘आपकी नसें काफी सेंसिटिव हैं. आमतौर पर ऐसा छह महीने बाद होता है, आपके साथ डेढ़ महीने में ही हो गया. अभी 13 केमो बाकी हैं, सो केमो पोर्ट लगाना होगा. इसके लिए और मार्जिन टेस्ट के लिए फिर से ऑपरेशन!
मेडिकल और शिक्षा- दो ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ आप डॉक्टर और शिक्षालयों के गुलाम हो जाते हैं. मार्जिन टेस्ट में ऑपरेशनवाली जगह से ही वहाँ का सैंपल लेकर टेस्ट के लिए भेजा गया, ताकि कैंसर –सेल्स की स्थिति का पता चल सके. रिपोर्ट आ गई. डॉक्टर ने बताया कि आप अब खतरे से बाहर हैं. लेकिन केमो, रेडिएशन, खाना-पीना, आराम- शिड्यूल के मुताबिक! पहले 4 केमो के एक सेट के बाद दूसरे सेट में 12 केमो- साप्ताहिक. केमो से भूख बहुत लगती और अस्पताल का खाना! केमो में दिन भर लगता. चुराकर घर से खाना ले जाती. हर केमो की अपनी दुश्वारियां. कभी सबकुछ सामान्य रहता. कभी एकदम कंप्लीकेटेड. एक साइकिल में ज़बान ऐंठ गई तो एक में शरीर में जर्क आने लगा.
इसी बीच इंफेक्शन हो गया और फिर 10 दिन अस्पताल में. जांच पर जांच और बिल पर बिल. मैं सोचती रहती, “क्या ये सभी जांच जरूरी भी थे?” फिर से वही बात आने लगी दिमाग में, “शिक्षा और चिकित्सा- ये दो क्षेत्र ऐसे हैं, जहां आप कुछ नहीं कर सकते.“ इंफेक्शन और इसके इलाज के कारण मेरा केमो 15 दिन आगे टल गया. मेरे साथ की दूसरी महिलाओं का आखिरी केमो आता. केमो से निकलने की ख़ुशी चहरे पर साफ़ नज़र आती. वे बाकियों को दिलासे देतीं. मुझे भी मिले और मैंने भी दिए.
16 केमो के बाद रेडिएशन. फिर से उसका पूरा प्रोटोकॉल. 35 सिटिंग. सोमवार से शुक्रवार. प्रतिदिन. उसके लिए अलग से काउन्सिलिंग. अलग से बचाव के उपाय! प्रभावित जगह पर पानी, साबुन, क्रीम का प्रयोग वर्जित. ब्रेस्ट के कारण गले पर भी असर पड़ा. आवाज़ फट सी गई. धीरे धीरे रेडियेशन से जगह झुलसकर काली पड़ने लगी. साइकिल पूरा होने पर एक महीने का पूर्ण आराम.
ये सब तो शिड्यूल में था. जो नहीं था और जिसे मैंने अपने लिए तय किया था, वह था खुद को बिजी रखना. केमो के दो सप्ताह तक मैं उठने की हालत में नहीं रहती. उसके बाद एक सप्ताह “बेहतर” रहती. साप्ताहिक केमो मे तो और भी मुश्किल थी. जबतक तबीयत थोड़ी संभलती, फिर से नए केमो का दिन आ जाता. लेकिन अपने इन तथाकथित ‘बेहतर’ दिनों को मैंने तीन भागों में बाँट दिया- लिखना, पढ़ना और वीडियो बनाना. खूब किताबें पढ़ीं- हिन्दी, अँग्रेजी, मैथिली की. लिखा भी- कई कहानियाँ, कविताएँ और नाटक "मटन मसाला चिकन चिली." उसे प्रोड्यूस किया. CAN शीर्षक से इस मौके पर लिखी कविताओं का संग्रह तैयार है-अँग्रेजी और हिन्दी में- द्विभाषी. “सेलेब्रेटिंग कैंसर” नाम से ही आत्मकथात्मक किताब लिख रही हूँ. यह एक प्रयास है रचनात्मक तरीके से लोगों को कैंसर के बारे में बताने का, कैंसर से न डरने का, इससे लड़ने का साहस और इसके प्रति सकारात्मकता तैयार करने का. इंस्टाग्राम पर 15 सेकेण्ड के वीडियो बनाने की सुविधा है. चुनौतियों में जीना स्वभाव में है. भोजपुरी गीतों और बच्चों की बातों को लेकर वीडियो बनाने और यूट्यूब पर पोस्ट करने लगी. फिर उन्हें एडिट करके कई फ़िल्में बनाकर पोस्ट कीं. हर रोज खूब फल खाना पड़ता. ‘सत्यमेव जयते’ प्रोग्राम में घर में खाद बनाने की विधि बताई गई. मैंने फलों के छिलके से खाद बनाना शुरू कर दिया. थोड़ी बहुत बागवानी भी कर लेती. पोए साग की पहली फसल मेरी खुशी कई गुना बढ़ा गई.
इसी समय शुरू किया- “अवितोको क्रिएटिव इवानिंग” कार्यक्रम! “रूम थिएटर” की अवधारणा पर आधारित! चूंकि इन्फेक्शन के डर से घर से निकलने की इजाज़त नहीं थी, इसलिए इसे घर पर ही शुरू किया. शनिवार को केमो लेती. केमो के बाद रात भर नींद नहीं आती. पर, इतवार को ‘रूम थिएटर’ के लिए तैयार हो जाती. अमूमन 36 घंटे के बाद मैं सो पाती. सभी ने मेरा बहुत साथ दिया और घर पर ही हमने ‘एक्सपेरिमेंटिंग थिएटर’ से लेकर ‘मंटो’ पर नाटक की कई प्रस्तुतियाँ कीं. 25-30 लोगों के बैठने की क्षमतावाले घर में 60-70 लोग आए.
अप्रैल, 2013 के गीताश्री के संपादकत्व में निकलनेवाली हिन्दी पत्रिका ‘बिंदिया’ में मेरा एक लेख छपा. दरअसल, उन्होने ही मुझे इस पर लिखने के लिए प्रेरित किया, जबकि मैं उसके छपने के बाद के परिणाम को लेकर थोड़ी परेशान थी. अंतत: वही हुआ. उसके छपते और उसे फेसबुक पर पोस्ट करते ही जैसे भूचाल आ गया. फोन, मेल, फेसबुक मेसेज! सभी मुझे इस तरह दिलासे देने और रोने लगे, जैसे मैं सचमुच मर गई होऊँ! उनके फोन दिलासे के बदले हतोत्साहित करते. अजय ने कड़े शब्दों में मुझे किसी का फोन लेने या किसी से बात करने से मना कर दिया. कुछ मेरे पास आना चाहते थे. मुझे पता था, वे मुझसे मिलने के बहाने मेरी और भी कुरूप पड़ गई सूरत को देखना चाहते हैं. उन सबने कैंसर के बारे में सुन भर रखा था, उसे नजदीक से देखा नहीं था और मैं उनके लिए एक रेडीमेड उपकरण बनकर आ गई थी. वे सब आए. मैं उनसे मिली- अपनी गंजी खोपड़ी, सूनी पलकों और भौंहों, लेकिन जीवंत मुस्कान और जीवन की एक नई आस के साथ- उन्हें ही दिलासे देती और खूब मुसकुराती हुई.

आज इन सबसे निकल आई हूँ. केमो, रेडिएशन का प्रोटोकॉल पूरा करने और एक महीना आराम करने के बाद ऑफिस आना शुरू किया. मेरे साथ मेरा काम मेरा इंतज़ार करते रहते हैं या मैं काम के बगैर जी नहीं सकती, पता नहीं. दफ्तर के दौरे के साथ-साथ साहित्यिक और नाट्य दौरे शुरू हो चुके हैं. सितंबर, 2014 में एसआरएम, चेन्नै का पहला दौरा- विशिष्ट अतिथि के रूप में! दिसंबर, 2014 में आजमगढ़ में नाटक ‘भिखारिन’ का पहला शो. रायपुर साहित्य महोत्सव का संयोजन और इन सबसे ऊपर ऑफिस की तमाम जिम्मेदारियाँ. जीवन की दूसरी पारी का व्यस्ततम दौर शुरू हो चुका है. दवा और फॉलो- अप चल रहा है. खान-पान और आराम अभी भी बहुत ज़रूरी है. कमजोरी अभी भी है. लेकिन, खुद को व्यस्त रखना बहुत सी परेशानियों से निजात दिलाता है. अजय, तोषी, कोशी सभी मुझे समझाते रहते हैं. मैं थोड़ा उनको और थोड़ा खुद को समझाती-समझती रहती हूँ.
कुछ दिन लगते हैं, अपने-आपसे लड़ने में, खुद को तैयार करने में. लेकिन, अपना मानसिक संबल और घरवालों का संग-साथ कैंसर क्या, किसी भी दुश्वारियों से निजात की संजीवनी है. यह आपको कई रास्ते देता है- आत्म मंथन, आत्म-चिंतन, आराम, खाने-पीने और सबकी सहानुभूति भी बटोरने का (हाहाहा). यह ना सोचें कि आप डिसफिगर हो रही हैं. यह सोचें कि आपको जीवन जीने का एक और मौका मिला है, जो शत-प्रतिशत आपका है. इसे जिएँ- भरपूर ऊर्जा और आत्म-विश्वास से और बता दीजिये कैंसर को कि आपमें उससे लड़ने का माद्दा है. सो, कम एंड लेट्स सेलेब्रेट कैंसर!
क्या फर्क पड़ता है किसीना सपाट है या उभराचेहरा सुंदर है या बिगड़ासर पर बाल हैं या है यह टकलाजीवन इससे बढ़कर हैयौवनमय, स्फूर्त और ताज़ा,आइये, मनाएँ इसे भरपूर,जिएं इसे भरपूर !



यह लेख पहले स्त्रीकाल में छपा था. हम इसे लेखिका की इजाज़त से आपको द लल्लनटॉप पर पढ़वा रहे हैं.


 
 
 
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