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भारत में टेस्ट ट्यूब बेबी के जनक को क्यों मिली गुमनामी की मौत?

जिस डॉक्टर की कहानी पर बनी फ़िल्म को मिला नेशनल अवॉर्ड, उसने आत्महत्या क्यों कर ली?

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डॉक्टर सुभाष मुखर्जी (फ़ाइल फोटो)
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कमल
6 अगस्त 2021 (Updated: 6 अगस्त 2021, 08:28 AM IST) कॉमेंट्स
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आज है 6 अगस्त और आज की तारीख़ का संबंध है भारत में ‘इन विट्रो फर्टिलाइजेशन’ यानी IVF की शुरुआत से. IVF को आमतौर पर ‘टेस्ट ट्यूब बेबी’ बोला जाता है. और भारत में आज ही के दिन यानी 6 अगस्त, 1986 को भारत का फर्स्ट ‘साइंटिफिक्ली डॉक्युमेंटेड’ टेस्ट ट्यूब बेबी पैदा हुआ.
गौर कीजिए, यहां हमने फ़र्स्ट के साथ-साथ ‘साइंटिफिक्ली डॉक्युमेंटेड’ शब्दों का उपयोग भी किया. वो क्यों, ये बताने से पहले ये टंग ट्विस्टर सुनिए,
दुनिया का दूसरा टेस्ट ट्यूब बेबी दरअसल भारत का पहला टेस्ट ट्यूब बेबी था. और भारत का पहला टेस्ट ट्यूब बेबी असल में भारत का दूसरा टेस्ट ट्यूब बेबी था.
आप कहेंगे, क्या बकवास कर रहे हो भाई. क्या करें, सच यही है. आगे की कहानी पढ़कर आप पूरी बात समझ जाएंगे.
दुनिया का पहला टेस्ट ट्यूब बेबी 1978 में पैदा हुआ. ब्रिटिश वैज्ञानिक रॉबर्ट एडवर्ड्स ने Gynaecologist पैट्रिक स्टेपटो के साथ मिलकर IVF की शुरुआत की थी. जिसके लिए 2010 में रॉबर्ट को नोबेल प्राइज़ भी मिला. भारत में IVF की ऑफिशियल शुरुआत 1986 में हुई. जिसकी कहानी कुछ यूं है. 18वीं कोशिश श्याम और मणि, दोनों पत्नी-पत्नी मुम्बई में रहते थे. श्याम BMC में नौकरी किया करते थे. और उनकी पत्नी मणि एक पार्ट टाइम टीचर थी. शादी हुए 4 वर्ष बीत गए थे और कोई संतान नहीं थी. सब सुख होने के बावजूद एक कमी महसूस होती थी. बहुत से डॉक्टर्स को दिखाया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. तभी उनकी मुलाकात हुई डॉ. इंदिरा हिंदुजा से. डॉक्टर ने उन्हें एक नई तकनीक के बारे में बताया. ये तकनीक थी IVF. भारत में उस समय इस पर बस रिसर्च चल रही थी. डॉ. हिंदुजा 17 बार IVF का प्रयास कर चुकी थीं लेकिन हर बार कोशिश फेल रही थी. उन्होंने मणि और श्याम को बताया कि ये केवल एक्स्पेरिमेंटल प्रोसीजर है जिसकी सक्सेस के चान्सेस कम ही हैं. मणि और श्याम इस बारे में कुछ नहीं जानते थे. लेकिन बच्चे के लिए वो कुछ भी करने को तैयार थे.
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लैब में IVF सैम्पल की टेस्टिंग करती हुई डॉक्टर इंदिरा हिंदुजा (तस्वीर: Getty)


दुनिया में तब IVF की नई नई शुरुआत हुई थी और IVF को लेकर एथिक्स आदि की बहस खड़ी हो गई थी. लोगों का कहना था कि ये नेचर के साथ खिलवाड़ है. श्याम और मणि ने जब अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को बताया तो उन्हें भी ऐसी ही बातें सुनने को मिली. किसी ने कहा कि तुम्हारा बच्चा चार हाथों वाला होगा. किसी ने कहा कि तुम्हें कैसे पता कि ये बच्चा तुम्हारा ही है. ख़ैर डॉक्टर हिंदुजा की अट्ठारहवीं कोशिश कामयाब रही. और 6 अगस्त 1986 को टेस्ट ट्यूब बेबी पैदा हुआ. बच्ची का नाम रखा गया हर्षा. हर्ष की बात भी थी. क्योंकि सबको लगा कि भारत ने टेस्ट ट्यूब बेबी पैदा करने में सफलता पा ली है. पैदा होने से बाद काफ़ी वर्षों तक हर्षा लोगों के लिए कौतूहल का विषय बनी रही. लोगों को लगता था कि टेस्ट ट्यूब में बनाया गया बच्चा कुछ अलग ही होता होगा.
हर्षा इस मामले में कहती हैं,
‘मुझे बहुत अजीब महसूस होता था. मुझे लगता था कि टेस्ट ट्यूब तो साइंटिफिक एक्सपेरिमेंट में यूज़ होती है. तो क्या मैं भी एक एक्सपेरिमेंट ही हूं? ये सोचकर मैं बहुत उदास हो जाया करती थी.’
फिर डॉक्टर हिंदुजा ने उन्हें समझाया,
‘IVF से पैदा हुआ कोई भी बच्चा दूसरे सामान्य बच्चों की तरह ही होता है. अंतर बस पैदा होने के तरीक़े में है.’
तब शक्तिमान का दौर था. तो डॉक्टर हिंदुजा ने हर्षा को उसी का उदाहरण दिया.
उन्होंने हर्षा से कहा,
‘जैसे शक्तिमान को पांच तत्वों से शक्ति मिलती हैं. वैसे ही जब मेल शुक्राणु और फ़ीमेल एग मिलते हैं तो बच्चे का जन्म होता है. दुनिया का हर बच्चा ऐसे ही बनता है. तुम भी ऐसे ही बनी हो.’
हर्षा को बात समझ आ गई. लेकिन पहले टेस्ट ट्यूब बेबी होने के कारण वो हमेशा खबरों का हिस्सा बनी रही. फिर चाहे उनका पच्चीसवां जन्मदिन हो या उनकी शादी. 2018 में जब हर्षा मां बनी. तो उनके बच्चे की डिलीवरी भी डॉक्टर हिंदुजा ने ही की. इस पर भी आपको न्यूज़ साइट्स पे बहुत आर्टिकल दिखेंगे. इस स्टोरी के लिए जब हम रिसर्च कर रहे थे तो हमें कुछ अजीब दिखा. कुछ जगह भारत के फ़र्स्ट टेस्ट टयूब बेबी का नाम हर्षा बताया गया जबकि कई जगह कनुप्रिया लिखा गया है. पहले तो हमें लगा कि शायद हर्षा ही कनुप्रिया है. बचपन का नाम होगा. लेकिन थोड़ी खोजबीन के बाद एक नई कहानी पता लगी. हर्षा से पहले  जैसा हमने पहले बताया था. पहली ‘साइंटिफिक्ली डॉक्युमेंटेड’ टेस्ट ट्यूब बेबी तो हर्षा ही थी. लेकिन इससे पहले भी भारत में एक टेस्ट ट्यूब बेबी पैदा हो चुका था. साल 1978 में. इंग्लैंड वाले टेस्ट ट्यूब बेबी के जस्ट 6 महीने बाद. भारत दूसरा देश था जिसने टेस्ट ट्यूब बेबी पैदा करने में सफलता पाई थी. लेकिन इस बात का ज़िक्र ना किसी मेडिकल जर्नल में हुआ. ना कहीं कोई खबर छपी. कारण- कमबख़्त सिस्टम.
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इंग्लैंड में जन्मी पहली टेस्ट ट्यूब बेबी लूईज़ ब्राउन (तस्वीर: Getty)


जिस वैज्ञानिक ने ऐसा किया था वो गुमनामी के अंधेरे में खो गया. जिसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिलने चाहिए थे, उसे मिली एक गुमनामी की मौत. इस वैज्ञानिक का नाम था डॉ. सुभाष मुखर्जी. साल 1990 में डॉक्टर मुखर्जी की कहानी पर एक फ़िल्म भी बनी. नाम था ‘एक डॉक्टर की मौत'. फ़िल्म में थे पंकज कपूर, शबाना आज़मी और इरफ़ान खान. फ़िल्म को तो नेशनल अवार्ड मिल गया. लेकिन इस कहानी का असली नायक डॉ. सुभाष 2003 तक गुमनामी के अंधेरे में खोया रहा. साल 2003 में जाकर ICMR ने माना कि भारत के पहले टेस्ट ट्यूब बेबी का श्रेय डॉक्टर सुभाष को मिलना चाहिए. और ये सब हुआ एक दूसरे वैज्ञानिक के कारण. जिनका नाम है TC आनंद कुमार. 1986 में हुए टेस्ट ट्यूब बेबी का श्रेय उन्हीं को जाता है. जब हर्षा पैदा हुई तो आनंद कुमार का बहुत नाम हुआ. आनंद इस बात से अनजान थे कि इससे पहले भी कोई टेस्ट ट्यूब बेबी पैदा हुआ था.
1997 में जब कुमार साइंस कांग्रेस में भाग लेने कोलकाता गए, उन्हें वहां डॉक्टर सुभाष के कुछ नोट्स मिले. ये नोट्स क़रीब 20 साल से धूल ख़ा रहे थे. कुमार ने पाया कि नोट्स में IVF तकनीक और टेस्ट ट्यूब बेबी ‘दुर्गा’ का ज़िक्र था. ये देखकर कुमार हैरान रह गए कि आठ साल पहले भारत को IVF में सफलता मिल चुकी थी. कुमार ने इस मामले में तहक़ीक़ात शुरू की. इसके लिए वो दुर्गा के माता पिता से मिले. और इस नतीजे पर पहुंचे कि भारत की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी दुर्गा ही थी.
उन्हें आश्चर्य हुआ कि इस काम को अब तक साइंटिफिक कम्यूनिटी में कोई स्वीकृति नहीं मिली थी. कुमार ने तय किया कि वो इस महान काम को दुनिया के सामने लाएंगे. फ़रवरी 3, 1997 को 'Assisted Reproductive Technology' की नेशनल कांग्रेस में उन्होंने एक स्पीच दी. जिसमें उन्होंने कहा कि डॉक्टर सुभाष को भारत के पहले टेस्ट ट्यूब बेबी का क्रेडिट दिया जाना चाहिए. इसके दो महीने बाद उन्होंने साइंस जर्नल, ‘करंट साइंस’ में एक रिसर्च पेपर सबमिट किया. पेपर का टाइटल था,
‘भारत के पहले टेस्ट ट्यूब बेबी के आर्किटेक्ट: डॉ. सुभाष मुखर्जी.'
डॉ. सुभाष मुखर्जी की कहानी. 16, जनवरी 1931 में पैदा हुए सुभाष ने नेशनल मेडिकल कॉलेज कोलकाता से अपनी पढ़ाई पूरी की. उन दिनों gynaecological सर्जरी में नई-नई रीसर्च सामने आ रही थी. डॉक्टर सुभाष भी इस सब्जेक्ट में बहुत इंट्रेस्टेड थे. इसलिए वो reproductive endocrinology में PHD करने के लिए UK चले गए.
1967 में वो भारत लौटे और उन्होंने Ovolution और ’Sperm Genesis’ पर शोध करना शुरू किया. बेला अग्रवाल, जो आगे चलकर भारत के पहले टेस्ट टयूब बेबी की मां बनीं. उनकी ही पेशेंट थीं. बेला की फैलोपियन ट्यूब डैमेज हो चुकी थी. और वो मां नहीं बन पा रही थीं. इसलिए डॉक्टर सुभाष ने अपनी टीम के साथ मिलकर इन-विट्रो यानी लैब में फर्टिलाइजेशन की मेथड पर काम करना शुरू किया.
3 अक्टूबर, 1978 को सुभाष और उनकी टीम को इसमें सफलता मिली. उन्होंने अनाउंस किया कि भारत ने दुनिया का दूसरा टेस्ट ट्यूब बेबी पैदा कर लिया है. जैसा आज भी कई जगह होता है, तब भी लड़कियों को पैदा होने से पहले ही मार दिया जाता था. इसके अलावा बच्चा पैदा करने को लेकर लड़कियों पर प्रेशर भी बहुत हुआ करता था. इसको देखते हुए डॉक्टर सुभाष ने बच्ची का नाम रखा ‘दुर्गा’. यानी ‘शक्ति के देवी’.
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भारत की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी कनुप्रिया दुर्गा उर्फ़ दुर्गा (फ़ाइल फोटो)


ये विज्ञान की दुनिया में हलचल मचा देने वाली खबर थी. उन्होंने भ्रूण को 53 दिनों तक शरीर के बाहर प्रिज़र्व करने में सफलता पाई थी. ये कितनी बड़ी बात थी, इसे ऐसे समझिए कि इसके पांच साल बाद तक दुनिया में ऐसा कोई नहीं कर पाया. आनंद कुमार बताते हैं,
‘सुभाष अपने समय से बहुत आगे थे. IVF की जिस तकनीक को उन्होंने डेवेलप किया था, ये तकनीक बहुत आसान थी. और इससे पहले दुनिया में किसी और ने इसके बारे में सोचा भी नहीं था.’
इंग्लैंड में पैदा हुए पहले टेस्ट ट्यूब बेबी की तकनीक इससे कहीं जटिल थी. और आज जो तकनीक इस्तेमाल में लाई जाती हैं, वो भी डॉक्टर सुभाष की मेथड का विकसित वर्जन है. इंग्लैंड के वैज्ञानिकों को तो IVF तकनीक ईजाद करने के लिए नोबेल मिला. सुभाष को मिली तो बस ज़िल्लत. भारत की साइंटिफिक कम्यूनिटी तक ने इस पर विश्वास नहीं किया. उनके क्लेम को बोगस कहकर उन्हें नकार दिया गया.
साइंटिफिक कम्यूनिटी का कहना था कि जब तक हम बच्चे से मिल नहीं लेते, हम इस बात पर यक़ीन नहीं कर सकते. लेकिन सुभाष ने ऐसा नहीं किया. उन्होंने किसी को दुर्गा की असली पहचान नहीं बताई. क्योंकि दुर्गा के माता- पिता ऐसा नहीं चाहते थे. एक तो बच्चा ना होने को लेकर समाज का दबाव. ऊपर से उन्हें डर था कि अगर ये बात सबके सामने आ गई तो उनकी बेटी सर्कस का नमूना न बन जाए.
रीसर्च फ़ाइंडिंग पेश करने के बावजूद सुभाष पर किसी ने विश्वास नहीं किया. फिर सरकार ने इसके वेरिफ़िकेशन के लिए एक कमिटी बनाई. जिसमें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जो इस फ़ील्ड का जानकार हो. नतीजा हुआ कि सुभाष को धोखेबाज़ कहकर उनकी रिसर्च रोक दी गई. 1979 में अपनी फ़ाइंडिंग पेश करने सुभाष जापान जाना चाहते थे. सरकार ने इसकी भी इजाज़त नहीं दी. उनका ट्रान्स्फ़र दूसरे डिपार्टमेंट में कर दिया गया.
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2021 में डॉक्टर मुखर्जी के 90वें जन्मदिन पर ICMR द्वारा एक गोष्ठी का आयोजन किया गया (तस्वीर: ICMR)


बहुत कोशिशों बाद भी जब कुछ हाथ ना लगा. तो वो हताश और निराश हो गए. अंत में थक हारकर उन्होंने 19 जून, 1981 को कोलकाता के अपने फ़्लैट में आत्महत्या कर ली. 2002 में जाकर उनके काम को मान्यता तब मिली, जब ICRM ने एक विशेष समारोह में कनुप्रिया को ये कहते हुए इंट्रोड्यूस किया कि वो भारत की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी हैं. इस मौक़े पर कनुप्रिया ने कहा,
“मैं कोई ट्रॉफी नहीं जिसे किसी जीनियस के काम की मिसाल के तौर पर पेश किया जाए, लेकिन मैं खुश हूं कि मेरे साइंटिफिक पिता को आज न्याय मिला है.”
आज हज़ारों लोग मां-बाप नहीं बन पाते तो IVF का ही इस्तेमाल करते हैं. ये डॉक्टर सुभाष की ही देन है. और एक देश के तौर पर ना हम उन्हें जीते जी इज्जत दे पाए. और आज भी उनका नाम गिनती के लोगों को ही पता है.
हम 20 हज़ार का फ़ोन ख़रीद कर सोचते हैं कि ये ही इस फ़ोन की क़ीमत है. लेकिन सच ये है कि हमें करोड़ों रूपये दे दिए जाएं तो भी हम एक मोबाइल फ़ोन खुद नहीं बना सकते. उसमें किसी वैज्ञानिक, किसी इंजीनियर की सालों की मेहनत है. और वैज्ञानिक किसी निर्वात में नहीं तैयार होते. वो तैयार होते हैं एक देश के तौर पर हमारी प्राथमिकताओं से. इस बात से कि हम किन लोगों को मान और सम्मान देते हैं. जब तक हम अपने वैज्ञानिकों को, अपने इंजीनियर्स को इज़्ज़त देना नहीं सीखेंगे. एक देश के तौर पर हम कंगाल ही रहेंगे. किसी कल्पना चावला, किसी सत्य नडेला को देखकर ही खुश होते रहेंगे कि वो भारत के हैं.

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