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इज़रायल की असली कहानी!

इज़रायल की आगे की चुनौतियां क्या हैं?

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इज़रायली आर्मी के असफर 14 मई 1948 को इज़रायल का झंडा फहराते हुए (AFP)
इज़रायली आर्मी के असफर 14 मई 1948 को इज़रायल का झंडा फहराते हुए (AFP)
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14 मई 2024
Updated: 14 मई 2024 21:44 IST
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तारीख़, 14 मई 1948. शाम के 04 बजे. तेल अवीव आर्ट म्युजियम के बेसमेंट में ज्युइश एजेंसी के मुखिया डेविड बेन-गुरियन की आवाज़ गूंजी. उनके सामने लगभग 400 ख़ासमख़ास मेहमान बैठे थे. उन्हें सीक्रेट न्यौता भेजा गया था. वजह भी नहीं बताई गई थी. वे बेसब्री से पर्दा हटने का इंतज़ार कर रहे थे. जैसे ही बेन-गुरियन खड़े हुए, कमरे में चुप्पी छा गई. लोगों को सब्र का फल मिलने जा रहा था.

 

बेन-गुरियन बोले, इज़रायल यहूदियों की जन्मभूमि थी. यहीं पर उनकी आध्यात्मिक, धार्मिक और राष्ट्रीय पहचान बनी. यहीं पर उन्हें आज़ादी हासिल हुई और उन्होंने एक अलहदा संस्कृति का निर्माण किया. यहीं से उन्होंने दुनिया को बाइबल दिया. अपनी ज़मीन से निकाले जाने के बावजूद यहूदियों ने कभी वापसी की उम्मीद नहीं छोड़ी.

बेन-गुरियन ने आगे कहा, ब्रिटिश मेनडेट की समाप्ति के दिन और यूनाइटेड नेशंस जनरल असेंबली के प्रस्ताव के भरोसे पर, इज़रायल की धरती पर एक यहूदी राष्ट्र की स्थापना की घोषणा की जाती है. इस राष्ट्र को इज़रायल के नाम से जाना जाएगा.

इस तरह 14 मई 1948 को इज़रायल की स्थापना हुई. ये आज़ादी दशकों तक चले संघर्ष के बाद मिली थी. हालांगि, आगे की राह भी आसान नहीं थी. स्थापना के अगले ही दिन अरब देशों ने इज़रायल पर हमला कर दिया. ये पहले अरब-इज़रायल युद्ध की शुरुआत थी. उस घटना को 76 बरस पूरे हो गए हैं. मगर इज़रायल के अस्तित्व पर ख़तरा आज तक बरकरार है.

कट टू 2024. कई लोग नेता मानते हैं, कि इज़रायल की आज़ादी की लड़ाई कभी खत्म ही नहीं हुई. इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने भी इज़रायल बनने के 76 साल होने पर यही बात दोहराई

तो आइए जानते हैं,

- इज़रायल कैसे बना?
- जंग के बीच कैसे मनी आज़ादी?
- और, इज़रायल की आगे की चुनौतियां क्या हैं?

इज़रायल के प्राचीन इतिहास का सबसे बड़ा स्रोत हिब्रू बाइबल है. इसके मुताबिक़, जहां आज का इज़रायल बसा है, वहीं यहूदी धर्म की शुरुआत हुई थी. 12वीं सदी ईसापूर्व तक यहूदी लोग अलग-अलग कबीलों में बंटे हुए थे. 11वीं सदी ईसापूर्व में किंग सॉल ने कबीलों को एकजुट किया. फिर यूनाइटेड किंगडम ऑफ़ इज़रायल की स्थापना की. उन्हीं के वंशज हुए किंग डेविड. उन्होंने लगभग 1000 ईसा पूर्व में इस इलाके़ पर शासन किया. किंग डेविड के बेटे किंग सोलोमन ने जेरूसलम में फ़र्स्ट टेम्पल बनवाया था.

किंग सोलोमन ने फर्स्ट टेम्पल बनवाया था (Getty)

722 ईसा पूर्व में असीरियन साम्राज्य का हमला हुआ. उन्होंने इज़रायल के उत्तरी साम्राज्य को नष्ट कर दिया. 568 ईसापूर्व में, बेबीलोन के राजा नेबूचंद्रज़ार का हमला हुआ. बेबीलोन आज के समय में इराक़ में है. उसने फ़र्स्ट टेम्पल तुड़वा दिया और यहूदियों को निकाल दिया.

बेबीलोन का पतन हुआ तो पर्शियन साम्राज्य आया. उन्होंने यहूदियों के लिए दूसरा मंदिर बनवाया. कालांतर में कई और आक्रमणकारी आए और गए. मसलन, 332 ईसापूर्व में सिकंदर ने हमला किया. फिर ईजिप्ट और सीरिया के शासकों का राज रहा. पहली शताब्दी शुरू होने से पहले फ़िलिस्तीन रोमन साम्राज्य के नियंत्रण में चला गया. रोमनों के शासन में सेकेंड टेम्पल को तोड़ दिया गया. उसकी बस एक दीवार बची है. जिसको आज वेस्टर्न वॉल के नाम से जाना जाता है. ये यहूदियों की सबसे पवित्र जगह है.

फिलहाल, हम इज़रायल के इतिहास की तरफ़ चलते हैं. रोमनों ने यहूदियों को निर्वासित कर दिया. वे अफ़्रीका, यूरोप और एशिया के अलग-अलग देशों में चले गए. सबसे अधिक यहूदी यूरोप में बसे. मगर यूरोप में ईसाई धर्म का बोलबाला था. उनके कुछ पूर्वाग्रह थे. वे यहूदियों को दोयम दर्ज़े का मानते थे. उनको नागरिकता का अधिकार नहीं दिया गया था. सेना और सरकार में शामिल होने की इजाज़त नहीं थी. यहूदियों के अलग गांव हुआ करते थे. उन्हें सिर्फ़ विशेष परिस्थितियों में बाहर निकलने दिया जाता था. कई जगहों पर उन्हें ख़ून पीने वाला बताया गया. 

अफवाहों के आधार पर उनका नरसंहार किया गया. इन ज़्यादतियों के बावजूद यहूदियों ने अपनी पहचान बनाई. बिजनेस, बैंकिंग और कॉमर्स की फ़ील्ड में उनका बोलबाला था. इससे बहुसंख्यक आबादी को ख़तरा महसूस हुआ. उन्होंने यहूदियों के ख़िलाफ़ भावनाएं भड़काईं. नतीजतन, यूरोप के कई देशों ने उनको अपने यहां से निकाल दिया. हालांकि, जो ईसाई धर्म क़बूल कर लेते थे, उन्हें इससे छूट मिल जाती थी. ये समूचे यूरोप में चल रहा था. इसके चलते यहूदियों की ज़िंदगी ख़ानाबदोशों सी हो गई थी. उनका कोई अपना देश नहीं था. और, कोई दूसरा देश उन्हें अपना समझने के लिए तैयार नहीं था.

फिर 18वीं सदी के अंत में एक बड़ी घटना घटी. 1789 में फ़्रांस में क्रांति हुई. राजशाही खत्म हो गई. फिर यहूदियों को बुनियादी अधिकार मिले. सदियों तक अत्याचार झेलने के बाद उन्हें बराबर का इंसान समझा गया था. फ़़ांस वाली घटना का असर धीरे-धीरे बाकी देशों में भी हुआ. वहां भी यहूदियों को अधिकार मिलने लगे. मगर शंका का भाव बना रहा. इसलिए, यहूदियों के अंदर अपना देश बनाने की भावना बनी रही. 19वीं सदी की दो घटनाओं ने इस भावना को और विस्तार दिया.

- पहली घटना रूस में घटी थी.

19वीं सदी में सबसे ज़्यादा यहूदी रूस में रहते थे. वहां अलेक्ज़ेंडर द्वितीय का शासन था. वो यहूदियों के प्रति उदार माने जाते थे. मगर 13 मार्च 1881 को उनकी हत्या कर दी गई. उनकी मौत के बाद उनका बेटा अलेक्ज़ेंडर तृतीय गद्दी पर बैठा. वो यहूदियों के ख़िलाफ़ हीन भावना से भरा था. उसी समय ये अफ़वाह भी फैली, कि उसके पिता की हत्या में यहूदियों का हाथ था. लिहाजा, उसने उनको दिए अधिकार छीन लिए. यहूदियों के ख़िलाफ़ हिंसा को शह दिया. 1882 में उसने नियमों की एक सीरीज़ जारी की. इसको मई क़ानून के नाम से जाना जाता है. इसके तहत, यहूदियों के बिजनेस पर कई तरह की पाबंदियां लगा दी गईं. यहूदी छात्रों को स्कूलों और कॉलेजों से बैन करने की कोशिशें हुईं. इसके चलते लगभग 20 लाख यहूदियों ने पलायन किया. अधिकांश लोग अमेरिका और ब्रिटेन गए. कुछ लोग फ़िलिस्तीन भी पहुंचे. जिसे वे अपने पुरखों की ज़मीन मानते थे.

अलेक्ज़ेंडर द्वितीय (Getty)
- दूसरी घटना फ़्रांस में हुई.

साल 1894 की बात है. अल्फ़्रेड ड्रेफ़स फ़्रेंच आर्मी में अफ़सर हुआ करते थे. उनपर जर्मनी को गुप्त जानकारियां बेचने का इल्ज़ाम लगा. अल्फ़्रेड यहूदी थे. इसके चलते पूरे यहूदी समुदाय को निशाना बनाया गया. उन्हें गद्दार बताया गया. ये विरोध पूरे यूरोप में फैल गया. उनके ख़िलाफ़ हिंसक प्रोटेस्ट हुए. बाद में अल्फ़्रेड निर्दोष साबित हुए. मगर इस घटना ने थियोडोर हर्ज़ल नाम के एक पत्रकार को हमेशा के लिए बदल दिया. हर्ज़ल भी यहूदी थे. वो ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य में रह रहे थे. 1896 में उन्होंने एक छोटी किताब लिखी. द ज्युइश स्टेट के नाम से. इसमें तर्क दिया, कि यहूदियों को अपने देश की सख़्त ज़रूरत है. तभी यहूदी-विरोध खत्म हो सकता है और वे शांतिपूर्वक और स्वतंत्र तरीक़े से अपनी ज़मीन पर रह सकते हैं. इस विचार को ज़ायनिज़्म का नाम दिया गया.

अल्फ़्रेड ड्रेफ़स फ़्रेंच आर्मी में 1894 में अफ़सर थे (Getty)

1897 में हर्ज़ल ने स्विट्ज़रलैंड में फ़र्स्ट ज़ायनिस्ट कांग्रेस बुलाई. वहां वर्ल्ड ज़ायनिस्ट ऑर्गनाइज़ेशन (WZO) की नींव रखी गई. इसने यहूदी राष्ट्र की स्थापना का प्रण लिया. इसके लिए पहले अर्जेंटीना और ईस्ट अफ़्रीका के विकल्प पर चर्चा हुई थी. अंत में उन्होंने फ़िलिस्तीन का विकल्प चुना. 

जब ज़ायनिस्ट आंदोलन आकार ले रहा था, उस वक़्त फ़िलिस्तीन पर ऑटोमन साम्राज्य का शासन था. उनका राज 1917 तक चला. 1917 में ब्रिटिश फ़ौज ने जेरूसलम पर क़ब्ज़ा कर लिया. उसी बरस नवंबर में ब्रिटेन के विदेश मंत्री आर्थर बाल्फ़ॉर ने ब्रिटिश यहूदी उद्योगपति लॉर्ड रॉथ्सचाइल्ड को एक चिट्ठी लिखी. इसमें 67 शब्दों में यहूदियों के लिए अलग देश का वादा किया गया था. यही आगे चलकर इज़रायल की स्थापना का आधार बना. जिस समय वो बाल्फ़र ये घोषणा कर रहे थे, फ़िलिस्तीन में यहूदियों की संख्या 10 फीसदी के आसपास थी. बाकी 90 फीसदी आबादी की राय तक नहीं पूछी गई थी.

पहले विश्व युद्ध के पहले फ़िलिस्तीन पर ऑटोमन साम्राज्य का शासन था (Getty)

ख़ैर, 1918 में पहला विश्वयुद्ध खत्म हो गया. फिर विजेता देश मेनडेट सिस्टम लेकर आए. इसके तहत, जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, ऑटोमन और बुल्गारिया के नियंत्रण वाले इलाक़ों पर विजेता देशों ने क़ब्ज़ा कर लिया. आज़ादी मिलने तक वे इन इलाक़ों पर शासन करने वाले थे. फ़िलिस्तीन का मेनडेट ब्रिटेन को मिला. जेरूसलम को फ़िलिस्तीन की राजधानी बनाया गया. इसी बीच यूरोप में यहूदियों पर अत्याचार बढ़ने लगा. सबसे ज़्यादा तबाही जर्मनी में एडोल्फ़ हिटलर ने मचाई. उसने 60 लाख से अधिक यहूदियों की हत्या कराई. जो बच गए, वे जान बचाकर भागे. बड़ी संख्या में लोग फ़िलिस्तीन आए. जब उनकी संख्या बढ़ी, तो अरब मुस्लिम नाराज़ होने लगे. उन्हें लगा, हमारी ज़मीन पर अतिक्रमण हो रहा है. फिर दंगे शुरू हो गए. ब्रिटेन के लिए शासन चलाना मुश्किल हो गया. 1947 में वो फ़िलिस्तीन का मामला यूनाइटेड नेशंस (UN) में ले गया. 

UN में क्या हुआ?

UN ने समाधान ढूंढने के लिए एक स्पेशल कमिटी बनाई. यूनाइटेड नेशंस स्पेशल कमिटी ऑन फ़िलिस्तीन (UNSCOP) के नाम से. इसमें 11 देशों के प्रतिनिधि थे. उन्होंने फ़िलिस्तीन और अमेरिका में यहूदी गुटों और नेताओं से बात की. अरब लोगों ने इसका बायकॉट किया. 03 सितंबर 1947 को UNSCOP ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी. उन्होंने दो विकल्प सुझाए.

- पहला विकल्प था, फ़िलिस्तीन को बांटकर दो अलग देशों की स्थापना की जाए. सात देशों ने इसका समर्थन किया.
- दूसरा विकल्प था, यहूदी और अरब आबादी के लिए अलग-अलग प्रांतों की स्थापना हो. सेंटर में एक शासन हो. भारत, ईरान और युगोस्लाविया इसके पक्ष में थे. ऑस्ट्रेलिया ने वोटिंग ही नहीं की. इस तरह पहले विकल्प पर सहमति बनी.

फ़ाइनल प्रस्ताव पर नवंबर 1947 में UN की जनरल असेंबली में वोटिंग हुई. 33 देशों ने इसका समर्थन किया. 13 ने विरोध में वोट डाला. 10 देशों ने किसी को वोट नहीं किया. इस तरह फ़िलिस्तीन पार्टीशन प्लान पास हो गया. 45 फीसदी ज़मीन इज़रायल के लिए दी गई. 55 फीसदी पर फ़िलिस्तीन बनने वाला था.

यहूदी नेताओं ने इसको तुरंत मान लिया. मगर अरब देशों ने प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया. उन्होंने धमकी दी, कि अगर यहूदी देश बना तो हम उसको नक़्शे से ग़ायब कर देंगे. यहूदियों को अब इंटरनैशनल सपोर्ट की दरकार थी. उन्हें अमेरिका से उम्मीद दिखी. उस वक़्त हैरी एस. ट्रूमैन अमेरिका के राष्ट्रपति हुआ करते थे. इतिहासकारों के मुताबिक़, ट्रूमैन यहूदियों को लेकर बहुत उदार नहीं थे. निजी बातचीत में वे गालियां भी बकते थे. अमेरिका अरब देशों की नाराज़गी मोल लेने से भी बचना चाहता था. इसलिए, उसने दूरी बनाने की कोशिश की. ट्रूमैन ने यहूदी नेताओं से मिलने से साफ़ इनकार कर दिया था. तब ज्युइश एजेंसी ने ख़ाइम वाइख़मैन को अमेरिका भेजा. वाइख़मैन वर्ल्ड ज़ायनिस्ट ऑर्गनाइज़ेशन (WZO) के मुखिया रह चुके थे. उन्हें ज़ायनिस्ट मूवमेंट का आध्यात्मिक नेता कहा जाता था. बाद में वो इज़रायल के पहले राष्ट्रपति बने.

वाइख़मैन ने ट्रूमैन से मिलने की पूरी कोशिश की. मगर नाकाम रहे. तब उन्होंने एडी जैकबसन का रुख किया. एडी, ट्रूमैन के साथ फ़ौज में रह चुके थे. उन्होंने साथ में बिजनेस भी किया था. वे बिना किसी रोक-टोक के वाइट हाउस में जा सकते थे.

गैरी गिन्सबर्ग अपनी किताब ‘फ़र्स्ट फ़्रेंड्स: द पावरफ़ुल, अनसंग (एंड अनइलेक्टेड) पीपल हू शेप्ड आवर प्रेसिडेंट्स’ में एक दिलचस्प क़िस्सा बताते हैं.

वो 13 मार्च 1948 की तारीख़ थी. ट्रूमैन ओवल ऑफ़िस में बैठे फ़ाइलें देख रहे थे. तभी सेक्रेटरी ने बताया कि एडी बाहर बैठे हैं. उनको तुरंत अंदर बुलाया गया. अंदर पहुंचते ही उन्होंने कहा, हैरी, पहली बार मैं तुमसे एक फ़ेवर मांग रहा हूं. तुम्हें एक बार वाइख़मैन से मिलना चाहिए. इतना सुनते ही ट्रूमैन भड़क गए. उन्होंने अपनी कुर्सी घुमा ली.
एडी को लगा, उनकी बात नहीं सुनी जाएगी. तभी उनकी नज़र कमरे में लगी एंड्र जैक्सन की मूर्ति पर पड़ी. एंड्रू जैक्सन 1829 से 1837 तक अमेरिका के राष्ट्रपति थे. ट्रूमैन उनको अपना हीरो मानते थे.

ट्रूमैन लाइब्रेरी इंस्टिट्यूट की वेबसाइट पर उस घटना का ज़िक्र मिलता है. एडी ने उनसे कहा, हैरी, तुम एंड्रू जैक्सन को अपना हीरो मानते हो. मेरा भी एक हीरो है. उसका नाम हाइम वाइख़मैन है. वो इस धरती पर मौजूद सबसे महान यहूदी है. वो बूढ़ा और बीमार हो चुका है. फिर भी इतनी दूर तुमसे मिलने आया है. तुम उसे देखना तक नहीं चाहते हो. तुम ऐसे तो नहीं थे.

इतना सुनने के बाद ट्रूमैन ने हार मान ली. वो वाइख़मैन से मिलने के लिए राज़ी हो गए. मीटिंग में वाइख़मैन ने ट्रूमैन को सपोर्ट देने के लिए मना लिया. जब 14 मई 1948 को डेविड बेन-गुरियन ने आज़ादी की घोषणा की, उसके महज 11 मिनट बाद अमेरिका ने उसको मान्यता दे दी. 15 मई को ब्रिटेन का मेनडेट खत्म हो गया. वो चुपचाप निकल गया. उस समय तक अरब देशों ने इज़रायल पर हमला कर दिया था. पहला अरब-इज़रायल युद्ध 1949 तक चला. इज़रायल इसमें बीस साबित हुआ. उसने फ़िलिस्तीन को मिली ज़मीन के बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया. लाखों फ़िलिस्तीनियों को अपना घरबार छोड़कर भागना पड़ा. वे इसको नक़बा का नाम देते हैं. इसका मतलब होता है, बड़ी आपदा. एक अनुमान के मुताबिक़, नक़बा में लगभग साढ़े सात लाख लोग विस्थापित हुए. उनमें से अधिकतर कभी वापस नहीं लौट पाए.

दूसरा अरब-इज़रायल युद्ध 1967 में हुआ. इज़रायल ने छह दिनों के भीतर गाज़ा पट्टी, वेस्ट बैंक, सीरिया के गोलन हाइट्स और ईजिप्ट के सिनाइ पेनिनसुला पर क़ब्ज़ा कर लिया. आज भी जब कभी टू-स्टेट सॉल्यूशन की मांग उठती है, 1967 वॉर से पहले वाली सीमा का ज़िक्र ज़रूर होता है. 

1967 के बाद अगली बड़ी जंग छह बरस बाद हुई. 1973 में ईजिप्ट और सीरिया ने यौम किपुर के दिन सरप्राइज़ अटैक किया. इज़रायल को बड़ा झटका लगा. मगर उसने जल्दी ही पलटवार भी किया. अंत में डिप्लोमेसी से लड़ाई खत्म हो गई. इसी जंग के बाद ईजिप्ट ने डिप्लोमेटिक संबंध स्थापित किए. ईजिप्ट के बाद जॉर्डन और जॉर्डन के बाद बहरीन, यूएई, मोरक्को और सूडान ने इज़रायल को मान्यता दी. 

इज़रायल को अरब देशों के साथ-साथ फ़िलिस्तीनी गुटों से भी समझौते करने पड़े हैं. 1990 के दशक में फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजे़शन (PLO) के साथ ओस्लो अकॉर्ड्स किया. इसके लिए इज़रायल के दो नेताओं यित्हाक राबिन और शिमोन पेरेज़ और PLO के लीडर यासिर अराफ़ात को नोबेल पीस प्राइज़ मिला. इसके बावजूद ये पीस डील पूरी तरह सफल नहीं हो पाई. हालांकि, PLO ने हिंसा का रास्ता ज़रूर छोड़ दिया. फिर भी इज़रायल की चुनौती खत्म नहीं हुई. हमास, फ़िलिस्तीन इस्लामिक जिहाद (PIJ) जैसे कई गुट अभी भी सक्रिय हैं. वे इज़रायल के खात्मे की बात करते हैं. इसके लिए समय-समय पर हमले भी करते रहते हैं. 07 अक्टूबर 2023 को इसका वीभत्स रूप दिखा. जब हमास ने 11 सौ से अधिक लोगों की हत्या कर दी. और, 250 से अधिक को बंधक बनाकर ले गए. हमास के ख़िलाफ़ इज़रायल की लड़ाई अभी भी जारी है.

ये तो हुआ इज़रायल का इतिहास. अब वर्तमान पर लौटते हैं. जान लेते हैं कि आज़ादी के मौके पर क्या-क्या हुआ?

- हमास के साथ जारी जंग के चलते स्वतंत्रता दिवस समारोह का आयोजन फीका रहा.
- प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने रमात गान में एक अस्पताल का दौरा किया. वहां घायल सैनिकों से मुलाक़ात की.
- राष्ट्रपति इसाक हर्ज़ोग के घर पर शहीद सैनिकों की याद में कार्यक्रम रखा गया.
- अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने हर्ज़ोग को चिट्ठी लिखी. स्थापना दिवस की शुभकामनाएं भेजी.

 

वीडियो: दुनियादारी: क्या गाज़ा पर इज़रायल का कब्ज़ा हो जाएगा? अमेरिका साथ छोड़ रहा?

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