अफगानिस्तान में आए भूकंप की पूरी कहानी
अफ़ग़ानिस्तान में हर साल इतने भूकंप आते क्यों है?

- अफ़ग़ानिस्तान में आए भूकंप की पूरी कहानी क्या है?
- अफ़ग़ानिस्तान में हर साल इतने भूकंप आते क्यों है?
- और, बहुत अधिक तीव्रता ना होने के बावजूद इतनी तबाही की वजह क्या है?
पकतिका राजधानी काबुल से लगभग 262 किलोमीटर दूर है. 22 जून की सुबह इस प्रांत के लिए बिलकुल अलहदा थी. पकतिका का चेहरा बदला-बदला सा दिख रहा था. धराशायी पड़े घर. चक्कर काटते हेलिकॉप्टर्स. हर तरफ़ मची चीख-पुकार. कंबलों में लिपटे शव. और, ये नज़ारा सिर्फ़ पकतिका तक सीमित नहीं था. इस तरह के दृश्य अफ़ग़ानिस्तान से लेकर पाकिस्तान के कई शहरों तक फैले हुए थे. ये विवरण सुनकर लोगों को पहला अंदाज़ा ये होगा कि अफ़ग़ानिस्तान में फिर से कोई आतंकी हमला हुआ है. लेकिन ये आपदा प्रकृति से उपजी थी. पाकिस्तान बॉर्डर के पास रात के डेढ़ बजे 6.1 तीव्रता का भूकंप आया. जिस समय भूकंप आया, उस समय अधिकतर लोग सो रहे थे. उन्हें संभलने का मौका तक नहीं मिला. इस तबाही में मरनेवालों की संख्या 900 के पार जा चुकी है. भूकंप से प्रभावित कई इलाके इतने सुदूर हैं कि वहां मदद पहुंचाने में भी मुश्किल आ रही है. आशंका है कि हताहतों की संख्या कई गुणा तक बढ़ सकती है.

वैसे, अफ़ग़ानिस्तान में भूकंप की घटना कोई नई बात नहीं है. कुछ बड़ी घटनाओं की लिस्ट देख लीजिए.
- 17 जनवरी 2022. पश्चिमी अफ़ग़ानिस्तान के बादग़ीस प्रांत में भूकंप आया. तीव्रता 5.3 थी. इसमें 30 लोगों की मौत हो गई. 49 घायल हो गए.
- 26 अक्टूबर 2015. हिंदूकुश इलाके में 7.5 तीव्रता का भूकंप आया. चार सौ लोगों की मौत हुई. ढाई हज़ार से अधिक लोग घायल हुए.
- मार्च 2002. इस महीने दो बड़े भूंकप आए. 03 मार्च को 7.4 की तीव्रता थी. 166 लोगों की मौत हुई. 25 मार्च को 6.1 की तीव्रता का भूकंप आया. इसमें लगभग एक हज़ार लोगों की जान गई.
- 30 मई 1998 को अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास का सबसे वीभत्स भूकंप आया था. तख़ार प्रांत में. इस भूकंप की तीव्रता 6.5 थी. इस घटना में चार हज़ार से अधिक लोगों की जान चली गई थी, जबकि 10 हज़ार से अधिक लोग घायल हो गए थे. भूकंप के झटके ताजिकिस्तान, उज़्बेकिस्तान और पाकिस्तान में भी महसूस किए गए थे. हालांकि, सबसे ज़्यादा तबाही अफ़ग़ानिस्तान में ही हुई थी.
- 20 फ़रवरी 1998. तख़ार प्रांत में 5.9 तीव्रता के भूकंप में दो हज़ार से अधिक लोगों की मौत हो गई थी.
- 16 दिसंबर 1982. बग़लान प्रांत में 6.6 तीव्रता के भूकंप ने 450 लोगों की जान ले ली थी.
- दर्ज़ रेकॉर्ड के मुताबिक, अफ़ग़ानिस्तान में पहले भूकंप का सिरा 818 ईसवी तक जाता है. इस आपदा में हताहत होने वालों की असली संख्या के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है.
अभी आपने जो लिस्ट देखी, इसमें उन घटनाओं का ज़िक़्र है, जिनमें भारी मात्रा में जानमाल की हानि हुई. यूएस जियोलॉजिकल सर्वे (USGS) की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले पांच दशकों में अफ़ग़ानिस्तान में 6 से अधिक तीव्रता के 50 से अधिक भूकंप आ चुके हैं. छोटे-मोटे भूकंप तो लगभग हर महीने आते रहते हैं. अब सवाल ये उठता है कि, अफ़ग़ानिस्तान में इतने भूकंप आते क्यों हैं? इसके लिए हमें समझना होगा कि भूकंप क्या है?

हमारी धरती के चार मुख्य लेयर हैं. सबसे नीचे है, इनर कोर. उसके बाद अपर कोर आता है. फिर आता है मेंटल और सबसे ऊपरी लेयर को क्रस्ट कहते हैं. क्रस्ट की मोटाई लगभग 15 किलोमीटर है. जबकि मेंटल लगभग 29 सौ किलोमीटर मोटा है. मेंटल की ऊपरी सतह और क्रस्ट मिलकर परत बनाते हैं. दिक़्क़त ये है कि इन परतों में कोई एकरुपता नहीं है. ये अलग-अलग टुकड़ों में बंटे हुए हैं. ये हमेशा मूव करती रहतीं है. इनका आपस में संघर्ष चलता रहता है. इन टुकड़ों को टेक्टॉनिक प्लेट्स के नाम से जाना जाता है. इन प्लेट्स की सीमाओं को प्लेट बाउंड्रीज़ कहा जाता है. प्लेट बाउंड्रीज़ फ़ॉल्ट्स से मिलकर बनतीं है. चलते-चलते कई बार प्लेट बाउंड्रीज़ दूसरी प्लेट्स के साथ उलझ जातीं है. जब वे अलग होने की कोशिश करतीं है, तब दबाव बनता है और फिर भूकंप की घटना होती है.
पूरी धरती 12 टेक्टॉनिक प्लेट्स के ऊपर टिकी हुई है. अफ़ग़ानिस्तान इंडियन प्लेट और यूरेशियन प्लेट के बीच में है. इस इलाके में टेक्टॉनिक प्लेट्स ऐक्टिव हैं. इसी वजह से अफ़ग़ानिस्तान भूकंप के लिहाज से सबसे संवेदनशील इलाकों में से एक है. यूएन की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले एक दशक में अफ़ग़ानिस्तान में भूकंप से सात हज़ार से अधिक लोगों की जान गई है.
अब समझते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में भूकंप इतने विकराल क्यों होते हैं? कम तीव्रता के बावजूद जानमाल की हानि इतनी ज़्यादा क्यों होती है?
इसकी कई वजहें है. अफ़ग़ानिस्तान पिछले चार दशकों से सिविल वॉर झेल रहा है. यहां लगातार विस्थापन होता रहता है. लोगों का ठिकाना तय नहीं है. इस वजह से अधिकतर घर अस्थायी हैं. ये घर भूकंप की मार झेलने के लायक नहीं हैं. कम तीव्रता वाले झटके में भी ये धराशायी हो जाते हैं.
दूसरी वजह है, इंफ़्रास्ट्रक्चर की कमी. अफ़ग़ानिस्तान में बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी है. जिन इलाकों में भूकंप ने सबसे ज़्यादा तबाही मचाई है, वहां काफ़ी देर तक रेस्क्यू टीम भी नहीं पहुंची थी. बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, आस-पड़ोस के गांव में रहने वालों ने आकर हताहतों को बाहर निकाला. जो कुछ मदद उपलब्ध है, वो इंसानियत पर टिकी है. सरकारी मदद नहीं के बराबर पहुंच पाई है. अकेले पकतिका प्रांत में 250 से अधिक लोगों की मौत हुई. इस इलाके में सिर्फ़ एक अस्पताल है. ये अस्पताल आपदा से निपटने में कतई सक्षम नहीं है.
तीसरी वजह अफ़ग़ानिस्तान की दूसरी समस्याओं से जुड़ी है. अगस्त 2021 में तालिबान के क़ब्ज़े के बाद से अफ़ग़ानिस्तान की परेशानियां बढ़ीं है. अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने काम करना लगभग बंद कर दिया है. उन्होंने अपने स्टाफ़्स को बाहर निकाल लिया है. जो कुछ विदेशी एजेंसियां काम कर रहीं है, उनके स्टाफ़्स के साथ मारपीट की घटनाएं होतीं है. इसके अलावा, अफ़ग़ानिस्तान पहले से ही अकाल और भुखमरी जैसी आपदा से भी जूझ रहा है. सरकारी खज़ाने में पैसा नहीं है. तालिबान सरकार को अभी तक अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मान्यता नहीं मिल सकी है. अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था काफ़ी हद तक विदेशी मदद पर निर्भर थी. तालिबान की वापसी के बाद विदेश से मिलने वाला पैसा लगभग बंद हो गया है. इसके चलते सरकारी एजेंसियों का कामकाज बुरी तरह प्रभावित हुआ है.
फिलहाल, तालिबान सरकार उपलब्ध संसाधनों के ज़रिए मदद पहुंचा रहीं है. लेकिन कई इलाकों तक सड़क और कम्युनिकेशन की पहुंच भी नहीं है. जो कुछ बचा-खुचा था, वो भूकंप ने तबाह कर दिया है. आशंका जताई जा रही है कि जब पूरा दायरा पता चलेगा, नुकसान का आंकड़ा कई गुणा ऊपर जा चुका होगा.
अब सुर्खियों की बारी.
पहली सुर्खी सुर्खी रूस-यूक्रेन युद्ध से है. दो बड़े अपडेट्स हैं. एक-एक कर जान लेते हैं.
- पहली अपडेट आज की तारीख़ से जुड़ी है. 22 जून. रूस इस दिन को नाज़ी हमले की दुखद याद के तौर पर मना रहा है. नाज़ी हमले की कहानी क्या है? सेकेंड वर्ल्ड वॉर शुरू होने से ठीक पहले जर्मनी और सोवियत संघ ने एक संधि की थी. इस संधि को मोलोटोव-रिबेनट्रॉप समझौते के तौर पर जाना जाता है. इसके तहत, दोनों देश इस बात के लिए राज़ी हो गए कि वे एक-दूसरे के मामले में ना तो दखल देंगे और ना ही एक-दूसरे के इलाके में हमला करेंगे. 21 जून 1941 तक संधि के हिसाब से काम चलता रहा. उस समय तक सोवियत संघ नाज़ी जर्मनी को गेहूं की सप्लाई भी कर रहा था. 21 जून की आधी रात को गेहूं से लदी ट्रेन जैसे ही जर्मनी की सीमा में घुसी, एडोल्फ़ हिटलर ने सोवियत संघ पर हमले का आदेश दे दिया. जर्मनी ने इस हमले को जायज ठहराने के लिए काफ़ी प्रोपेगैंडा फैलाया था. उसने साबित करने की कोशिश की कि सोवियत संघ चर्च और क़ब्रिस्तानों को निशाना बना रहा है. उनको बचाने के लिए हमला करना ज़रूरी था. जर्मनी के इस कैंपेन को ऑपरेशन बार्बारोसा के नाम से जाना जाता है. इसी ऑपरेशन के चलते जर्मनी सोवियत संघ में फंसा और अंत में उसे हारकर वापस लौटना पड़ा. इस घटना को हिटलर के जीवन की सबसे बड़ी भूल बताया जाता है.
इस चैप्टर की चर्चा आज क्यों?क्योंकि, इस साल 22 जून की तारीख़ रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच में आई है. रूस ने हमले की वजह बताई थी कि वो यूक्रेन को नाज़ियों से मुक्त कराने जा रहा है. रूस इतिहास का इस्तेमाल यूक्रेन कैंपेन को सही ठहराने के लिए करता है. 22 जून उसके प्रोपेगैंडा वाले खांचे में फ़िट बैठता है. इसी वजह से, इस बार का आयोजन काफ़ी अहम माना जा रहा है. लेकिन इस घटना का एक पहलू ये भी है कि जिस समय नाज़ी जर्मनी का हमला हुआ था, उस समय यूक्रेन भी सोवियत संघ का हिस्सा था. उसने भी उसी अनुपात में बर्बादी झेली थी.
दूसरी अपडेट का संबंध एक धमकी से है.रूस ने लिथुआनिया को गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी है. रूस की सिक्योरिटी काउंसिल के सचिव निकोलाई पेत्रुसोव ने कहा कि रूस करारा जवाब देगा. लिथुआनिया के लोगों को इसका दंश झेलना पड़ेगा. इस धमकी की वजह क्या है? दरअसल, लिथुआनिया और पोलैंड के बीच में एक छोटा सा इलाका है. कालिनिग्राद. सोवियत संघ ने अप्रैल 1945 में इसको नाज़ी जर्मनी से जीता था. सोवियत संघ के विघटन के बाद ये इलाका रूस के नियंत्रण में आ गया. कालिनिग्राद में रूस की बाल्टिक फ़्लीट भी है. दावा किया जाता है कि रूस ने यहां पर परमाणु मिसाइलें तैनात कर रखीं है. दिलचस्प ये है कि कालिनिग्राद की रूस के साथ कोई ज़मीनी सीमा नहीं है. इसी बाबत 2002 में यूरोपियन यूनियन और रूस के बीच एक समझौता हुआ. इसके तहत, रूसी नागरिकों और बाकी सामानों को EU की ज़मीन से ले जाने की छूट दी गई. समझौते के दो बरस बाद पोलैंड और लिथुआनिया ने यूरोपियन यूनियन की सदस्यता ले ली. इससे कालिनिग्राद तीन तरफ़ से EU से घिर गया. हालांकि, लिथुआनिया ने रूस का सामान पहुंचाना जारी रखा. रूस से कालिनिग्राद तक जाने वाली सप्लाई का बड़ा हिस्सा ट्रेन से लिथुआनिया होकर जाता है.
हालिया विवाद क्या है? रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से EU ने रूस पर कई आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं. इसी को आधार बनाकर पिछले हफ़्ते लिथुआनिया की रेल कंपनी ने एक फ़ैसला लिया. उसने कहा कि हम रूस का सामान अपनी गाड़ी में नहीं ले जाएंगे. अगर ऐसा हुआ तो कालिनिग्राद तक सप्लाई का सबसे बड़ा रास्ता बंद हो जाएगा. रिपोर्ट्स हैं कि इससे 50 प्रतिशत आयात घट सकता है. EU का कहना है कि लिथुआनिया बस EU के प्रतिबंधों पर अमल कर रहा है. रूस इस फ़ैसले से काफ़ी नाराज़ है. उसने अभी ये नहीं बताया है कि वो किस तरह से जवाब देगा. जानकारों की मानें तो कालिनिग्राद पूरे युद्ध का नया फ़ोकल पॉइंट बनता जा रहा है. लिथुआनिया EU के साथ-साथ नेटो का सदस्य भी है. पश्चिमी देश जिस आग से ख़ुद को बचाने की कोशिश कर रहे थे, उसकी लपटें अब उनके दरवाज़े तक पहुंच गईं है. देखना दिलचस्प होगा कि इसकी चपेट में कौन और कब आता है!
आज की दूसरी और अंतिम सुर्खी कनाडा से है. कनाडा में सांसदों को पैनिक बटन दिया जा रहा है. इसके ज़रिए वे इमरजेंसी में पुलिस को अलर्ट भेज सकेंगे. इसकी वजह क्या है? दरअसल, कनाडा में सांसदों को लगातार धमकियां मिल रहीं है. पब्लिक सेफ़्टी मिनिस्टर मार्को मेरडिसिनो ने कहा कि उन्हें भी सोशल मीडिया पर कई बार हत्या की धमकी मिल चुकी है. पुलिस को सांसदों की सुरक्षा बढ़ाने के लिए कहा गया है. लिबरल पार्टी के एक सांसद हैं, क्रिस बिटल. उन्हें 20 से अधिक बार धमकी मिल चुकी है. उन्होंने इन धमकियों की रिपोर्ट पुलिस को दी. कुछ संदिग्धों को पकड़ा भी गया है.
इसके अलावा, कई मंत्रियों को सरेआम सड़क पर चलते-चलते धमकियां मिल चुकीं है. महिला सांसदों को रेप थ्रेट्स की घटनाएं तो आम हो गईं है. हालात इतने बुरे हैं कि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिस ट्रूडो के ऊपर भी पत्थरबाजी हो चुकी है. फ़रवरी 2022 में एंटी-वैक्सीन रैली के दौरान ट्रूडो को परिवार सहित सीक्रेट लोकेशन पर ले जाना पड़ा था.
जिस सांसद को सबसे अधिक निशाना बनाया जाता है, वो न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के जगमीत सिंह हैं. पिछले महीने ओन्टेरियो में एक रैली के दौरान उनको गालियां दी गईं थी. उन्हें गद्दार तक कहा गया था. उन्हें पगड़ी और बाल-दाढ़ी रखने के लिए भी दुर्व्यवहार झेलना पड़ा है.
कनाडा में पिछले कुछ सालों में इनटॉलरेंस काफ़ी बढ़ा है. ऑनलाइन हैरेसमेंट अब धरातल पर भी दिखने लगा है. 2022 की शुरुआत में ट्रक ड्राइवर्स ने वैक्सीन मेनडेट के ख़िलाफ़ ओट्टावा शहर को जाम कर दिया था. इसके बाद से सांसदों के ख़िलाफ़ विरोध कई गुणा बढ़ गया है. पैनिक बटन से नीति-निर्माताओं की सुरक्षा तो बढ़ जाएगी. लेकिन कनाडा का जो चरित्र तैयार हो रहा है, उसका हिसाब कौन करेगा?