मोरक्को और इज़रायल में समझौते के पीछे की पूरी कहानी
इस समझौते से सहरवी समुदाय के लोग क्यों नाराज़ हैं?
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इज़रायली पीएम बेंजामिन नेतन्याहू, अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और मोरक्को के किंग मोहम्मद VI. (एएफपी)
इस पूरे डिवेलपमेंट में सबसे दिलचस्प है इज़रायल और मोरक्को की क्यूरियस हिस्ट्री. वो पिछले करीब छह दशकों से दुश्मन होकर भी चुपके-चुपके दोस्ती निभाते आ रहे थे. कभी इज़रायल मोरक्को को अपने एक विपक्षी नेता की हत्या करवाने में मदद देता. कभी मोरक्को इज़रायल के लिए अरब देशों की जासूसी करता. यहां तक कि मोरक्को की ही दी हुई सीक्रेट रिकॉर्डिंग्स की मदद से इज़रायल एक युद्ध भी जीता. ये पूरा मामला क्या है, विस्तार से बताते हैं आपको.
शुरुआत करते हैं 1956 से. वो साल, जब मोरक्को फ्रांस से आज़ाद हुआ. मोरक्को की आइडेंटिटी बड़ी दिलचस्प है. उसकी बसाहट तो है नॉर्थ अफ्ऱीका में, मगर पहचान अरब से जुड़ी है. इसकी वजह ये है कि वहां अरब मेजॉरिटी में हैं. चूंकि अरब का दुश्मन था इज़रायल, सो मोरक्को पर भी इज़रायल से दुश्मनी निभाने का पीयर-प्रेशर था. यहां यहूदियों की एक बड़ी आबादी थी. उन्हें करना था, आलिया. माने, यहूदियों के अपने वतन इज़रायल जाकर बसने की प्रक्रिया. शुरू में तो मोरक्को ने इन यहूदियों को नहीं रोका. मगर फिर अरब मुल्कों के दबाव में उसने इस इमिग्रेशन पर रोक लगा दी.

मोरक्को और इज़रायल (गूगल मैप्स)
ऑपरेशन याचिन
उधर इज़रायल तो दुनियाभर के यहूदियों को उनका प्रॉमिस्ड लैंड देना चाहता था. ऐसे में इज़रायली खुफ़िया एजेंसी मोसाद ने मोरक्कन यहूदियों की घर वापसी के लिए चलाया एक सीक्रेट ऑपरेशन. इसका नाम था, ऑपरेशन याचिन. सबकुछ ठीक चल रहा था कि 1961 के साल मोरक्कन यहूदियों को लेकर आ रहा मोसाद का एक जहाज़ समंदर में डूब गया. जहाज़ पर सवार ज़्यादातर लोग मारे गए. इसके साथ ही मोसाद का ये ऑपरेशन भी एक्सपोज़ हो गया. अब मोसाद के लिए ये काम चुपके-चुपके करना मुमकिन नहीं रहा. सो उसने एक दूसरा रास्ता चुना.

ऑपरेशन याचिन.
इन दिनों मोरक्को में एक नेता थे- मेहदी बेन बरका. वो गद्दी पर बैठे नए राजा किंग हसन द्वितीय को सत्ता से हटाना चाहते थे. ये काम आसान नहीं था. मेहदी को ठोस बैकिंग चाहिए थी. बहुत गुणा-भाग करके मेहदी ने इस काम के लिए मोसाद से मदद मांगी. अब यहां मोसाद ने किया खेल. उसने किंग हसन को मेहदी की प्लानिंग बता दी. यहां से शुरू हुआ किंग हसन और इज़रायल के सीक्रेट संबंधों का सिलसिला. मोसाद की दी हुई टिप के बदले न केवल किंग हसन ने मोरक्कन यहूदियों को इज़रायल पहुंचवाने में मदद की. बल्कि मोसाद को मोरक्को के भीतर एक सीक्रेट स्टेशन भी खोलने दिया. ताकि वो यहां रहकर इज़िप्ट और अरब मुल्कों की जासूसी कर सके.

राजा किंग हसन द्वितीय
इस स्पाइंग चैप्टर का सबसे बड़ा इवेंट आया सितंबर 1965 में
मोरक्को का सबसे बड़ा शहर है- कासाब्लांका. यहां अरब लीडर्स और मिलिटरी कमांडर्स की एक सीक्रेट मीटिंग हुई. मीटिंग में शामिल हुए लोगों को ठहराने और सम्मेलन के बाकी सभी इंतज़ामों का जिम्मा मोरक्को के पास था. उसने मोसाद को होटल के कमरों और मीटिंग रूम्स के भीतर सीक्रेट माइक लगाने की परमिशन दी. इसकी वजह से उस सीक्रेट समिट में हुई तमाम बातें मोसाद ने सुनीं. ये ही वो रिकॉर्डिंग्स थीं, जिनकी मदद से इज़रायल ने 5 जून, 1967 की अल-सुबह इज़िप्ट पर सप्राइज़ अटैक किया था. इज़रायल की मिलिटरी इंटेलिजेंस के चीफ जनरल शोलमो गाज़ित ने 2016 के अपने एक इंटरव्यू में ये बात स्वीकार भी की थी. कहा था कि वो रिकॉर्डिंग्स मोसाद के लिए एक असाधारण उपलब्धि थी.

मोरक्को के नेता मेहदी बेन बरका (एएफपी)
और इस मीटिंग के बाद भी इज़रायल और मोरक्को के बीच फेवर्स के आदान-प्रदान का सिलसिला चलता रहा. इससे जुड़ी एक कहानी हमें फिर से मेहदी बेन बरका पर ले जाएगी. मेहदी 1963 में मोरक्को से भागकर यूरोप चले गए थे. मोरक्को उन्हें लोकेट करके रास्ते से हटाना चाहता था. उसने इस काम में मोसाद से हेल्प मांगी. उन दिनों यूरोप में मोसाद के चीफ़ थे, राफ़ी ऐटान. उन्हें मोसाद का सबसे सेलिब्रेटेड, सबसे कामयाब जासूस माना जाता है. मानते हैं कि इन्हीं राफ़ी ऐटान की देखरेख में मोसाद ने मेहदी बेन बरका से कॉन्टैक्ट किया. उन्हें झांसा देकर पैरिस बुलाया. 29 अक्टूबर, 1965 को इसी पैरिस में एक रेस्तरां के बाहर दो फ्रेंच पुलिसकर्मी मेहदी को अपनी कार में बिठाकर कहीं ले गए.
उस मोमेंट के बाद मेहदी को किसी ने नहीं देखा. उनकी लाश तक नहीं मिली. मानते हैं कि मेहदी के अपहरण और उनकी हत्या के पीछे मोसाद इन्वॉल्व था. उसने ही फ्रेंच एजेंट्स की मदद से मेहदी को अगवा करके मोरक्कन सिक्यॉरिटी एजेंसी तक पहुंचवाया. उन्होंने टॉर्चर करके मेहदी की हत्या की और मोसाद के एजेंट्स ने मेहदी की लाश को ठिकाने लगाया. अगर आप इस केस के बारे में विस्तार से जानना चाहते हैं, तो एक क़िताब है- राइज़ ऐंड किल फर्स्ट: द सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ इज़रायल्स टारगेटेड असेसिनेशन्स. इसे लिखा है इज़रायल के जाने-माने इन्वेस्टिगेटिव पत्रकार रोनेन बर्गमैन ने.

मोसाद के पूर्व यूरोप चीफ़ राफ़ी ऐटान (एएफपी)
वो मोरक्को ही था, जिसने इज़िप्ट और इज़रायल के बीच दूत की भूमिका निभाई थी. 1979 में हुए इज़रायल-इज़िप्ट शांति समझौते से पहले दोनों देशों के लीडर्स मोरक्को में ही सीक्रेट मीटिंग्स किया करते थे. वो मोरक्को ही था, जिसने 1995 में मोसाद के साथ मिलकर ओसामा बिन लादेन के सेक्रेटरी को अपनी तरफ मिलाने का ऑपरेशन चलाया था. ताकि ओसामा को मारा जा सके. हालांकि ये ऑपरेशन कामयाब नहीं रहा.

इज़रायल के पत्रकार रोनेन बर्गमैन और उनकी किताब राइज़ ऐंड किल फर्स्ट: द सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ इज़रायल्स टारगेटेड असेसिनेशन्स.
ये तमाम हिस्ट्री बताने के बाद अब लौटते हैं मौजूदा प्रसंग पर
मोरक्को और इज़रायल दशकों से एक-दूसरे संग रिश्ता निभा रहे थे. मगर उनके बीच आधिकारिक तौर पर कोई डिप्लोमैटिक रिश्ता नहीं था. वजह वही, अरब और इज़रायल की शत्रुता. फिर 2020 में ये तस्वीर बदलने लगी. बहरीन और UAE ने इज़रायल से फॉर्मल रिश्ते जोड़ने की पहल की. उम्मीद थी कि धीरे-धीरे बाकी अरब मुल्क भी इसी राह आगे बढ़ेंगे. इस लिस्ट में अगला देश कौन होगा, इस सवाल पर मोरक्को का नाम भी लिया जा रहा था. मोरक्को और इज़रायल, दोनों में अंडरस्टैंडिंग भी थी. बस एक पेच था सामने- वेस्टर्न सहारा.
वेस्टर्न सहारा का क्या मसला है?
अफ़्रीका के उत्तर-पश्चिमी तट पर है वेस्टर्न सहारा. जैसा कि नाम से ज़ाहिर है, ये सहारा मरुस्थल का पश्चिमी हिस्सा है. एक जमाने में इसपर स्पेन का कब्ज़ा था. स्पेन गया, तो 1975 में वेस्टर्न सहारा के पड़ोस में बसे मोरक्को ने इसपर कब्ज़ा कर लिया. तब से इस इलाके पर अधिकार को लेकर विवाद चल रहा है. इस विवाद में दो पार्टियां हैं. एक, मोरक्को. दूसरा, सहरवी समुदाय. सहरवी वेस्टर्न सहारा के मूल निवासी हैं. इनका संगठन है, पोलिसारियो फ्रंट. ये मोरक्को से आज़ादी चाहते हैं. जबकि मोरक्को कहता है कि ये इलाका ऐतिहासिक तौर पर उसका दक्षिणी प्रांत है.

सहरवी समुदाय के लोग मोरक्को के खिलाफ़ विरोध प्रदर्श करते रहते हैं. (एएफपी)
1976 में पोलिसारियो फ्रंट ने अपने इलाके को आज़ाद देश भी घोषित कर दिया. इसका नाम रखा- सहरवी अरब डेमोक्रैटिक रिपब्लिक. अल्जीरिया समेत कुछ देश इसे मान्यता भी देते हैं. मगर मोरक्को इसे अवैध कहता है. इसी सवाल पर दोनों में युद्ध भी हुआ. 1991 में बहुत बीच-बचाव के बाद दोनों में संघर्षविराम हुआ. इस वक़्त तक मोरक्को के कब्ज़े में तीन चौथाई हिस्सा और पोलिसारियो के पास बाकी 25 पर्सेंट हिस्सा बचा.
UN ने विवाद ख़त्म करने के लिए 1992 में यहां रेफरेंडम करवाने की बात कही. मगर मोरक्को को इससे दिक्कत थी. उसका कहना था कि रेफरेंडम में आज़ाद होने का कोई विकल्प नहीं हो सकता. इसी बात पर उसने रेफरेंडम का बहिष्कार किया. नतीजा ये हुआ कि न तो कभी जनमत संग्रह हो सका, न ही दावेदारी ही तय हो सकी. अभी नवंबर 2020 में मोरक्को ने यहां लागू एक दशक पुराना संघर्षविराम भी तोड़ दिया.

सहरवी अरब डेमोक्रैटिक रिपब्लिक के सैनिक. (एएफपी)
इस मामले पर इंटरनैशनल कम्यूनिटी क्या कहती है?
यूरोप और अफ्रीकन यूनियन समेत दुनिया के ज़्यादातर देश वेस्टर्न सहारा को मोरक्को का संप्रभु हिस्सा नहीं मानते. वो आपसी बातचीत से हल निकालने की बात करते हैं. मगर मोरक्को चाहता था कि कोई बड़ा देश उसके दावे को वैध मान ले. ताकि सिक्यॉरिटी काउंसिल में उसको एक मददगार मिल जाए. इसमें मोरक्को की मदद कर रहा था इज़रायल. वो अमेरिका को वेस्टर्न सहारा पर मोरक्को की दावेदारी मानने के लिए तैयार कर रहा था. जबकि इस मसले पर अमेरिका की विदेश नीति न्यूट्रल थी.
फिर 10 दिसंबर को ख़बर आई. पता चला कि इज़रायल और मोरक्को डिप्लोमैटिक रिश्ता बनाने के लिए राज़ी हो गए हैं. उनकी सुलह करवाई है अमेरिका ने. वाइट हाउस के मुताबिक, ट्रंप ने फोन पर ये डील करवाई. साथ ही, ये भी बताया गया कि अमेरिका ने वेस्टर्न सहारा पर मोरक्को की संप्रभुता भी मान ली है. ऐसा करने वाला पहला वेस्टर्न देश है अमेरिका.
अब सवाल है कि अमेरिका ने मोरक्को की शर्त मानी क्यों?
जानकारों के मुताबिक, इसकी वजह है अमेरिकी चुनाव का रिज़ल्ट. डॉनल्ड ट्रंप हार गए हैं. जनवरी 2021 में उनकी जगह लेने वाले हैं जो बाइडन. ट्रंप इससे पहले ही मिडिल-ईस्ट में सुलह-मशविरे की अपनी सारी प्लानिंग पर अमल कर लेना चाहते हैं. वो बहरीन और UAE का इज़रायल से गठजोड़ करवा चुके हैं. यानी, बड़ी चुनौती पार हो गई. ट्रंप को लग रहा है कि अब जितने ज़्यादा-से-ज़्यादा देश इज़रायल से पीस डील करेंगे, उतनी ही उनकी लीगेसी मज़बूत हो जाएगी. मोरक्को की शर्त मानने के पीछे उनकी यही लालसा है.
ऊपरी तौर पर देखने से लग रहा है कि इज़रायल और मोरक्को के बीच अमेरिका ने डील करवाई. मगर असलियत में इस डील के पीछे है इज़रायल. वो जानता था कि बाइडन अडमिनिस्ट्रेशन वेस्टर्न सहारा पर मोरक्को का दावा नहीं मानेगा. इसीलिए मोरक्को की तरह उसे भी इस डील की जल्दी थी. टिप्पणीकारों के मुताबिक, इज़रायल के ही दबाव में ट्रंप ने ये शर्त मानी है.

अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के साथ ओकलाहोमा के सेनेटर जेम्स इनहोफे. (एएफपी)
ट्रंप के इस फैसले पर कैसी प्रतिक्रियाएं आई हैं?
लोगों ने डील का तो स्वागत किया है, मगर वेस्टर्न सहारा वाली बात पर कई लोग काफी नाराज़ हैं. इनमें से ही एक हैं ओकलाहोमा के सेनेटर जेम्स इनहोफे. वो ट्रंप के सहयोगी हैं. सेनेट की आर्म्ड सर्विसेज़ कमिटी के चेयरमैन भी हैं. वो पिछले कई सालों से सहरवी समुदाय के अधिकारों का समर्थन करते आए हैं. उन्होंने ट्रंप की आलोचना करते हुए सेनेट में कहा-
उन बेज़ुबान निरीह लोगों के अधिकारों का सौदा किए बिना भी ट्रंप ये डील करवा सकते थे.इस मामले पर UN का भी बयान आया. उसने कहा है कि अमेरिका ने भले स्टैंड बदला हो, मगर वेस्टर्न सहारा पर उसका स्टैंड पहले जैसा ही है. इसके अलावा पोलिसारियो फ्रंट का भी रिऐक्शन आया. उन्होंने एक बयान जारी करके ट्रंप के इस फैसले की निंदा की. कहा कि जो चीज मोरक्को की है ही नहीं, वो ट्रंप उसे कैसे दे सकते हैं. पोलिसारियो फ्रंट ने ये भी कहा कि ट्रंप के फैसले की कोई क़ानूनी और अंतरराष्ट्रीय वैधता नहीं है.
इस डील को ट्रंप ऐतिहासिक बता रहे हैं. नेतन्याहू का कहना है कि मिडिल ईस्ट में शांति की इतनी चमक उन्होंने पहले कभी नहीं देखी. वहीं डील का तीसरा पार्टनर मोरक्को संभलकर बोल रहा है. उसने इज़रायल को मान्यता देने पर एक शब्द भी नहीं कहा. मगर वेस्टर्न सहारा की दावेदारी माने जाने पर खुशी जरूर जताई. मोरक्को इज़रायली डील पर क्यों चुप है? इस चुप्पी का कारण है, जनता. वो इज़रायल से दोस्ती नहीं चाहती. ख़बरों के मुताबिक, ट्रंप के ऐलान के बाद वहां प्रोटेस्ट शुरू भी हो गए हैं. राजधानी रबात स्थित अमेरिकी दूतावास के बाहर भी प्रदर्शनकारियों के जमा होने की ख़बर है. इन प्रदर्शनों के मद्देनज़र देश के कई शहरों में सुरक्षा बढ़ा दी गई है.
इस सबके बीच सबसे निराश है सहरवी समुदाय. वो दशकों से सेल्फ गवर्नेंस के लिए लड़ रहे हैं. ये सच है कि उन्होंने हथियार उठाया. मगर मोरक्को ने भी उनपर कम ज़्यादतियां नहीं की हैं. वेस्टर्न सहारा ट्रंप की संपत्ति नहीं है. ये अमेरिका की भी प्रॉपर्टी नहीं. जाने फिर किस अधिकार से ट्रंप ने उसपर मोरक्को के नाम की मुहर लगा दी.