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जब भारतीय वैज्ञानिक को हार्वर्ड में मिला धोखा!

येल्लाप्रगद सुब्बाराव एक महान भारतीय वैज्ञानिक थे जिनके द्वारा ईजाद की गई कीमोथेरेपी की दवा का इस्तेमाल २१ वीं सदी में भी होता है.

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Yellapragada subbarao
येल्लाप्रगद सुब्बाराव ऐसी शख्सियत जिनका नाम कम ही लोग जानते हैं लेकिन मेडिसिन के क्षेत्र में उनका महान योगदान रहा है (तस्वीर: madrascourier)
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कमल
12 जनवरी 2023 (Updated: 11 जनवरी 2023, 09:25 PM IST) कॉमेंट्स
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इंसानी सभ्यता ने जितनी भी खोजें की हैं. उनमें से अधिकतर युद्धकाल में हुईं. ऐसी ही एक कहानी है कैंसर के इलाज की. 2 दिसंबर 1943 की बात है. द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था. जर्मनी के विमानों ने इटली के एक पोर्ट पर बमबारी की. जिसमें मित्र राष्ट्रों के करीब हजार से ज्यादा सैनिक मारे गए. हालांकि असली भयावता अभी बाकी थी. इस पोर्ट पर खड़ा एक जहाज, जॉन हार्वी एक सीक्रेट कंटेनर लेकर चल रहा था. जिसमें 2000 मस्टर्ड बॉम्ब रखे हुए थे. मित्र राष्ट्रों को डर था कि हिटलर कहीं केमिकल युद्ध की शुरुआत न कर दे. उस स्थिति में जवाब देने के लिए ये केमिकल बम लाए गए थे. जर्मनी के हमले में मस्टर्ड गैस का तरल पदार्थ आसपास के पानी में फ़ैल गया. हमले से बचने के लिए जब सैनिक पानी में कूदे वो इस गैस के संपर्क में आए. और अगले 24 घंटों के भीतर उन पर मस्टर्ड गैस के ज़हर का असर दिखने लगा. कई सैनिकों को दर्दनाक मौत नसीब हुई. 

ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल और अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रेंक्लिन रूजवेल्ट ने ऐसे किसी भी हादसे से इंकार कर दिया. उन्हें डर था कि अगर ये खबर बाहर आई तो जर्मनी इसका फायदा उठाकर केमिकल वारफेयर शुरू कर देगा. मस्टर्ड गैस के असर से 83 लोगों की मौत हुई थी. वहीं 617 गंभीर रूप से बीमार हो गए थे. इन बीमार लोगों का सीक्रेट में इलाज किया गया. इस दौरान डॉक्टर्स ने पाया कि मस्टर्ड गैस से कोशिकाओं के बंटवारे पर असर पड़ता है. ये डॉक्टरों के लिए यूरेका मोमेंट था. क्योंकि ये तरीका कैंसर कोशिकाओं के फैलने को रोक सकता था. तो इस तरह पहली बार कैंसर के उस इलाज की शुरुआत हुई जिसे हम आज कीमोथेरेपी के नाम से जानते हैं. 

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द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इटली के पोर्ट पर जर्मन विमानों की बमबारी से मस्टर्ड गैस रिलीज हो गई थी (तस्वीर: Wikimedia Commons)

अब सवाल ये कि हम आज इसकी चर्चा क्यों कर रहे हैं. वो इसलिए क्योंकि 12 तारीख को पड़ता है जन्मदिन, एक ऐसे वैज्ञानिक का जिसने कीमोथेरेपी में इस्तेमाल होने वाली उस दवा की खोज की थी, जिसका इस्तेमाल उनकी मौत के 70 साल बाद भी किया जा रहा है. इनका नाम था येल्लाप्रगद सुब्बाराव (Yellapragada Subbarow). सुब्बाराव भारतीय वैज्ञानिक थे. सुब्बाराव के साथ काम कर चुके जॉर्ज हिचिंग्स, जिन्हें 1988 में मेडिसिन का संयुक्त नोबल दिया गया, उनका कहना था. “सुब्बाराव की कई खोजें सामने नहीं आ पाई, उन्हें दोबारा खोजा गया, क्योंकि उनके एक साथी ने ईर्ष्यावश उनकी खोजों को सामने आने न दिया”. इत्तेफाक की बात देखिए कि हिचिंग्स को कीमोथेरेपी में ही नोबल पुरूस्कार मिला था. जबकि सुब्बाराव की जिंदगी गुमनामी में ही बीत गई. दुनिया छोड़िए, भारत में भी कुछ ही लोगों ने उनका नाम सुना है. क्या थी इस महान भारतीय वैज्ञानिक की कहानी, चलिए जानते हैं. 

बनारस में केले बेचने का प्लान बिगड़ा 

आंध्र प्रदेश में पश्चिमी गोदावरी के नजदीक एक स्थान है, भीमा वरम. यहीं साल 1895 में 12 जनवरी को येल्लाप्रगद सुब्बाराव का जन्म हुआ. उनके पिता का नाम जगन्नाथम सुब्बाराव था. जो रेवेन्यू सर्विस में काम किया करते थे. घटनाएं ऐसी घटीं कि जगन्नाथम सुब्बाराव को अर्ली रिटायरमेन्ट लेना पड़ा. इसके बाद पेंशन से घर का गुजारा चलता था. इसी बीच जगन्नाथम को बेरी बेरी नाम का रोग भी लग गया. जिससे घर की हालत और खस्ता हो गई. 7 भाई बहनों में से चौथे नंबर के सुब्बाराव का मन पढ़ाई में नहीं था. एक बार अपने भाई के साथ वो घर से भाग गए. ताकि बनारस जाकर केले बेच सकें. लेकिन नाव वाले ने सुब्बाराव की माताजी को ये प्लान बता दिया और उनका बनारस जाने का प्लान फेल हो गया. 

सुब्बाराव ने दो बार दसवीं की परीक्षा दी लेकिन दोनों बार फेल रहे. उनकी माताजी ने तब अपने गहने बेचकर उन्हें मद्रास भेजा. मद्रास में रहते हुए सुब्बाराव रामकृष्ण मिशन के प्रभाव में आए, और उनकी जिंदगी पटरी पर आने लगी. मद्रास में रहते हुए उन्होंने हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी की. और इसके बाद मद्रास मेडिकल कॉलेज में दाखिला ले लिया. इस दौरान कस्तूरी सूर्यनारायण मूर्ति नाम की एक महिला ने उन्हें आर्थिक मदद दी. बाद में इन्हीं कस्तूरी अम्मा की बेटी से उनका विवाह भी हुआ. 

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साल १९९५ में भारत सरकार ने येल्लाप्रगद सुब्बाराव के नाम पर एक डाक टिकट जारी किया (तस्वीर: Wikimedia Commons)

पढ़ाई के दौरान वो महात्मा गांधी से इतने प्रभावित हुए कि विदेशी चीजों का त्याग कर दिया. सर्जरी के एक प्रोफ़ेसर हुआ करते थे, एमसी ब्रैडफील्ड. ब्रैडफील्ड ने एक रोज़ देखा कि सर्जरी की ट्रेनिंग के दौरान एक लड़का खादी पहन कर आया है. जो कि नियमों के खिलाफ था. ब्रैडफील्ड इतने खफा हुए कि उन्होंने सुब्बाराव को सर्जरी रूम से बाहर निकाल दिया. इतना ही नहीं इसके कारण उन्हें MBBS की डिग्री भी नहीं मिल पाई. और उन्हें LMS की डिग्री से संतोष करना पड़ा. सुब्बाराव ने आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका जाने का निश्चय किया. 1921 में उन्हें हार्वड में दाखिला भी मिल गया, लेकिन ऐन मौके पर पैसों की कमी ने उनका जाना कैंसिल कर दिया. इसी दौरान उनके दो भाई भी पेट की बीमारी से चल बसे. जिस बीमारी से उनकी भाइयों की मौत हुई थी उसे ट्रॉपिकल स्प्रू कहकर बुलाते थे. आगे चलकर इस बीमारी के लिए दवा की खोज सुब्बाराव ने ही की थी. 

अमेरिका में युरिनल्स की सफाई की 

अमेरिका न जा पाने से निराश सुब्बाराव ने मद्रास मेडिकल सेवा में प्रवेश की कोशिश की. जब ये जतन भी काम न आया तो उन्होंने मद्रास आयुर्वेदिक कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी कर ली. यहां सुब्बाराव ने आयुर्वेद पर शोध किया. सुब्बाराव ट्रॉपिकल मेडिसिन पर रिसर्च करना चाहते थे. इसलिए कुछ साल मद्रास में काम करने के बाद उन्होंने एक और दोबारा अमेरिका जाने का प्रयास किया. उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के नाम एक खत लिखा. जिसमें उन्होंने अपनी अब तक की रिसर्च का लेखा-जोखा लिखा था. हार्वड में ट्रॉपिकल मेडीसिन के डीन रिचर्ड स्ट्रॉन्ग ने जब देखा कि सुब्बाराव का काम आयुर्वेद में है, उन्होंने दाखिले से इंकार कर दिया. 

सुब्बाराव हताश न हुए. उन्होंने दोबारा कोशिश की. कोशिश रंग लाई और उन्हें ट्रॉपिकल मेडिसिन में दाखिला मिल गया. हालांकि एक बड़ी दिक्कत थी पैसे की. कुछ दोस्तों और उनके ससुर ने उनकी मदद की. किसी तरह 2500 रूपये जमा कर सुब्बाराव अमेरिका के लिए रवाना हुए. हालांकि तब अमेरिका पहुंचने का किराया ही 1300 रूपये हुआ करता था. अगले एक साल तक पढ़ाई करते हुए उन्होंने पीटर ब्रेंट ब्रिघम अस्पताल में नौकरी की और उससे कमाए पैसों से काम चलाया. इस दौरान उन्हें रात में यूरिनल्स की सफाई करनी पड़ती थी.

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अमेरिकी लैब में कार्यरत रहते हुए द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान येल्लाप्रगद सुब्बाराव ने एंटीबायोटिक और कैंसर दवाओं के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया (तस्वीर : onlinelibrary.wiley.com)

जून 1924 में उन्हें ट्रॉपिकल मेडिसिन में डिप्लोमा मिला. इसके बाद  उन्होंने बायोकेमिस्ट्री डिपार्टमेंट ज्वाइन करते हुए साइरिस फ़िस्क़ नाम के एक वैज्ञानिक के अंतर्गत काम करना शुरू कर दिया. इस दौरान उन्होंने शरीर में फॉस्फोरस का पता लगाने की एक विधि ईजाद की, जिसे उसी समय जीव रसायन के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया. हार्वर्ड में रहते हुए उन्होंने लगभग एक दशक तक रिसर्च की. हालांकि उन्हें वहां सीनियर फैकल्टी प्रोग्राम में शामिल नहीं किया गया. सुब्बाराव के कलीग नोबेल पुरस्कार विजेता जॉर्ज हिचिंग्स का कहना था कि सुब्बाराव की हार्वर्ड में की गई कई खोजों को साइरिस फ़िस्क़ ने ईर्ष्यावश बाहर नहीं आने दिया. 

1940 में सुब्बाराव ने लेडरले प्रयोगशाला ज्वाइन की. यहां उन्हें रिर्सच निदेशक का पद मिला. और आठ साल तक वो इस पद पर कार्यरत रहे. इस दौरान उन्होंने विश्व युद्ध में लड़ रहे अमेरिकी सैनिकों के लिए मलेरिया की नई दवाएं खोजीं. वहीं एक खतरनाक बीमारी फाइलेरिया के लिए हेट्राजन नामक दवा ईजाद की. इसके अलावा उन्होंने डॉक्टर बेंजामिन ड्रगर के साथ मिलकर औरियोमाइसिन नामक एक एंटीबायोटिक की खोज की. खास बात ये कि जब 1995 में भारत महाराष्ट्र और गुजरात के इलाकों में प्लेग फैला तो डॉक्टर सुब्बाराव की दवाओं ने ही लोगों की जान बचाई थी. 

कैंसर की दवा बनाई 

इसके और इसके अलावा अपनी तमाम खोजों के बावजूद डॉक्टर सुब्बाराव और वैज्ञानिकों की तरह मशहूर नहीं हुए. उस दौर में एक भारतीय लेखक हुआ करते थे. गोबिंद बिहारी लाल, जो विज्ञान के विषयों पर लिखा करते थे. आगे चलकर वो पुलित्ज़र प्राइज जीतने वाले पहले हिन्दुस्तानी बने. 1944 में उन्होंने अख़बार में एक कॉलम लिखा, जिसमें न्यू यॉर्क के एक अस्पताल में लुकेमिया की बीमारी से जूझ रहे एक मरीज़ की कहानी लिखी थी. लुकेमिया यानी एक प्रकार का कैंसर. मरीज़ का इलाज़ टेरोप्टेरिन नाम की एक दवाई से किया जा रहा था. जिससे दर्द में कुछ राहत मिल रही थी. लाल ने लिखा कि इस दवाई को बनाने वाल शख्स भी इत्तेफाक से हिन्दुस्तानी था. यानी येल्लाप्रगद सुब्बाराव. 

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न्यू यॉर्क में डॉक्टर सुब्बाराव की याद में लगाई गयी तख्ती (तस्वीर: स्क्रॉल/ अनु कुमार)

इसके दो साल बाद लाल ने एक और आर्टिकल लिखा. इस बार कहानी थी एक आठ साल के बच्चे की. जिसे लुकेमिया हो गया था. लेकिन इस बार दवाई कुछ और दी जा रही थी. इस दवाई का नाम था एमिनोप्टेरिन. ये दवा पिछली दवा से ज्यादा कारगर थी. हालांकि इसके ठीक कि कुछ महीने बाद बच्चे को एक बैक्टेरियल इंफेक्शन हो गया. अबकी उसे ओरियोमाइसिन नाम की दवा दी गई. जिससे इंफेक्शन सही हो गया. लाल ने लिखा कि टेरोप्टेरिन की ही तरह एमिनोप्टेरिन और ओरियोमाइसिन दवाएं भी सुब्बाराव की देन थीं. 

एमिनोप्टेरिन के बाद डॉक्टर सुब्बाराव ने एक और दवा ईजाद की, मेथोट्रेक्सेट नाम की. इस दवा का इस्तेमाल तब से लेकर 21 वीं सदी तक कीमोथेरेपी में किया जाता है. इसके अलावा डॉक्टर सुब्बाराव ने फोलिक एसिड, यानी विटामिन बी को लैब में सिंथेसाइज़ करने की विधि भी ईजाद की. डॉक्टर सुब्बराव की रिसर्च का महत्त्व आप इसी से समझ सकते हैं कि साल 2016 तक 25 हजार मेडिकल रिसर्च पेपर्स में उनके काम को बतौर रिफ्रेंस यूज़ किया गया. अगस्त 1948 में हार्ट अटैक पड़ने से उनका निधन हो गया था. उनकी मृत्यु पर एक अमेरिकी लेखक ने लिखा, 

'आपने डॉ. येल्लाप्रगद सुब्बाराव के बारे में संभवत: कभी नहीं सुना होगा. लेकिन यदि आप एक स्वस्थ जीवन जी  रहे हैं , तो उसमें उनका ही योगदान है. और उनकी ही बदौलत आप और अधिक दिनों तक जिंदगी जी पाएंगे”. 

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