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RAW का ये मिशन पूरा हो जाता तो परमाणु शक्ति न बनता पाकिस्तान

कहानी ऑपरेशन कहूता की, जब RAW ने सिर्फ़ बालों का न्यूक्लियर अड्डा ढूंढ निकाला.

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मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री बनने के बाद काओ ने RAW के निदेशक पड़ से इस्तीफ़ा दे दिया (तस्वीर: Andhrafriends.com और भारत सरकार)
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कमल
21 सितंबर 2021 (Updated: 21 सितंबर 2021, 10:45 AM IST)
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आज 21 सितम्बर है और आज की तारीख़ का संबंध है Espionage यानी जासूसी से.
बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना,तेरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है
पेच-ओ-ख़म यानी टेढ़े-मेढ़े, घुमावदार.
मज़ाज साहब का ये शेर आज के क़िस्से पर बिलकुल सटीक बैठता है. जिसमें महबूबा की ज़ुल्फ़ें तो नहीं, लेकिन कुछ बालों का ज़िक्र ज़रूर है. और इन बालों के पेच-ओ-ख़म (चक्करदार घुमाव) से 1970’s की दुनिया में इतनी जटिलता आ गई कि आज तक सुलझने का नाम नहीं है. तख्तापलट और सलून शुरुआत साल 1977 में जून की एक सुबह से. जगह: पाकिस्तान का रावलपिंडी शहर.
पहाड़ी इलाकों में ठंड का मौसम है लेकिन कुनकुनी धूप भी पड़ रही है. इसी पहाड़ी इलाक़े के एक बड़े सलून में बाल कटवाने के लिए लोगों की भीड़ लगी हुई है. आमतौर पर लोगों की गपशप और रेडियो पर गानों में डूबे रहने वाले सलून में आज माहौल कुछ बदला-बदला सा है. देश के राजनैतिक हालात में भारी उथल-पुथल मची हुई है. प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को नज़रबंद कर दिया गया है. और एक साल पहले ही आर्मी चीफ़ बने ज़िया उल हक़ ने तख्तापलट करते हुए देश में मार्शल लॉ लगा दिया है.
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जनरल ज़िया उल हक़ और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो (तस्वीर: AFP)


रेडियो पर इसी बात की खबरें चल रहीं हैं. और रेडियो की आवाज़ से लगभग रेसोनेट करते हुए लोग भी इसी गपशप में मशगूल हैं. कुछ लोग हैं, जो कुछ बोल नहीं रहे, चुपचाप अपनी जगह पर बैठे हैं. लेकिन इनके चेहरे पर पड़ी शिकन को देखकर साफ़ पता चल रहा है कि ये सरकारी अफ़सरान हैं. जिनके कंधों पर मानो किसी बड़ी ज़िम्मेदारी का बोझ हो.
ख़ैर, सलून वाले को राजनीति से उतना ही लेना-देना है जितने से उसकी दुकान चलती रहे. वो शाम को बालों का ढेर उठाकर कूड़े में डाल देता है और सलून बंद कर घर चला जाता है. उसके जाने के बाद कुछ लोग आते हैं. और कूड़े में कुछ तलाशने लगते हैं. और कटे हुए कुछ बाल लेकर वापस चले जाते हैं. कूड़े से बाल चुन रहे ये लोग कौन थे? और इस सब का भारत से क्या लेना-देना था? आइए जानते हैं. पाकिस्तान का न्यूक्लियर प्रोग्राम आज़ादी के बाद से ही भारत ने परमाणु शक्ति बनने के प्रयास करने शुरू कर दिए थे. 4 अगस्त के एपिसोड में हमने आपको बताया था कि भारत ने 1956 में ही पहला परमाणु रिएक्टर बना लिया था. और 1964 में भारत ने प्लूटोनियम संवर्धन की क़ाबिलियत भी हासिल कर ली थी. ये बात पाकिस्तान के लिए ख़तरे की घंटी थी. ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो तब पाकिस्तान के विदेश मंत्री हुआ करते थे. उन्होंने 1965 में गार्डियन अख़बार को दिए एक इंटरव्यू में इस मामले पर टिप्पणी करते हुए कहा,
“अगर भारत न्यूक्लियर बम बनाएगा, तो चाहे हमें घास-पत्ती खानी पड़े या भूखा ही क्यों ना रहना पड़े. हम भी न्यूक्लियर बम बनाएंगे”
बात साफ़ थी. पाकिस्तान किसी भी हालत में परमाणु शक्ति बनना चाहता था. इसलिए इसके ठीक बाद पाकिस्तान ने भी अपना न्यूक्लियर प्रोग्राम शुरू कर दिया. लेकिन अगले कुछ सालों तक उसे कोई ख़ास सफलता नहीं मिली. 1974 में जब भारत ने “ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्धा” के तहत अपना पहला परमाणु परीक्षण किया तो पाकिस्तानी हुक्मरानों के पसीने छूटने लगे.
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18 मई, 1974 को सुबह आठ बजकर 5 मिनट पर पोखरण में परमाणु परीक्षण किया गया (फ़ाइल फोटो)


डॉ. अब्दुल क़दीर ख़ान को पाकिस्तान के नाभिकीय प्रोग्राम का पितामह कहा जाता है. 1974 में वो एम्स्टर्डम में मौजूद ‘फिज़िकल डायनमिक्स रीसर्च लेबोरेटरी’ में काम कर रहे थे. इस दौरान उन्होंने यूरेनिम प्रॉसेसिंग और न्यूक्लियर रिएक्टर बनाने की पूरी तकनीक सीख ली थी. जब उन्हें ‘ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्ध’ का पता चला, तो वो पाकिस्तान लौट गए. वहां पहुंचते ही उन्हें न्यूक्लियर प्रोग्राम की कमान सौंप दी गई.
पाकिस्तान फ़्रांस और चीन की मदद से इस न्यूक्लियर प्रोग्राम को आगे बढ़ा रहा था. अरब देशों और फ़िलिस्तीन से नज़दीकियों के कारण ऐतिहासिक तौर पर पाकिस्तान और इज़रायल के रिश्ते जगज़ाहिर थे. इसलिए इज़रायल की पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम में ख़ास दिलचस्पी थी. RAW का गठन पाकिस्तान के पड़ोसी देश भारत को भी इस मामले की जानकारी थी. लेकिन पाकिस्तान किस इलाक़े में परमाणु बम बना रहा था इसका ठीक-ठीक अंदाज़ा लगाना मुश्किल था. इसलिए इस पूरे घटनाक्रम में एंट्री हुई भारतीय ख़ुफ़िया इंटेलिजेंस एजेंसी की. जिसे हम आम बोलचाल की भाषा में रॉ के नाम से जानते हैं.
नोट: संस्था के अधिकारी इसे रॉ कहकर नहीं बुलाते. आपसी बातचीत में अधिकारी इसे 'आर एंड ए डब्लू' कहकर बुलाते हैं. इसका कारण शायद ये है कि रॉ का हिंदी में अर्थ होता है कच्चा. और इस शब्द में इन्कम्प्लीटनेस का भाव है. इंटेलिजेंस ऑपरेशन्स को अंजाम देने वाली कोई भी संस्था ऐसे शब्द को ज़ाहिर तौर से अवॉयड ही करेगी.
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1982 में फ्रांस की खुफिया एजेंसी एसडीईसीआई के प्रमुख काउंट एलेक्जांड्रे ने काओ को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खुफिया प्रमुखों में से एक बताया था (फ़ाइल फोटो)


रॉ का गठन आज ही दिन यानी 21 सितंबर 1968 को हुआ था. कैसे और क्यों? आइए जानते हैं,
1950 में ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ ने भारत का दौरा किया. मुम्बई में क्वीन के स्वागत का कार्यक्रम रखा गया था. इस दौरान भीड़ में से किसी ने एलिज़ाबेथ की तरफ़ एक गुलदस्ता उछाला. गुलदस्ते में बम भी हो सकता था. इसलिए इससे पहले की गुलदस्ता रानी तक पहुंचता, उनके सिक्योरिटी हेड ने अपनी जगह से बिलकुल डाइव लगाते हुए गुलदस्ता कैच कर लिया. महारानी एलिज़ाबेथ ने ये देखकर कहा,
‘गुड क्रिकेट’
गुलदस्ता पकड़ने वाला ये व्यक्ति था, काओ. पूरा नाम, रामेश्वर नाथ काओ. जो आगे चलकर रॉ के पहले निदेशक बने.
रॉ के गठन की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं. रॉ के गठन से पहले भारत के अंदर और बाहर इंटेलिजेंस इकट्ठा करने का काम इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी IB किया करती थी. लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध और 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान IB अपने मिशन में फ़ेल रही थी. ख़ासकर 1962 में जब चीन की तैयारियों को लेकर भारत बिलकुल ही अनजान था. इसी के चलते 1968 में आर.एन. काओ की पहल पर रॉ का गठन किया गया. इससे पहले काओ IB के डिप्टी डायरेक्टर हुआ करते थे. 1971 के बांग्लादेश क्राइसिस के दौरान और 1975 में सिक्किम को भारत से जोड़ने में रॉ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. काओबॉय्ज़ बी रमन, RAW के एक एजेंट हुआ करते थे. जो आगे जाकर RAW की काउंटर टेररिज़म डिविज़न के हेड बने. उन्होंने अपने संस्मरणों में बताया है कि एक बार काओ वाशिंगटन स्थित CIA के हेडक्वार्टर गए थे. वहां उनकी मुलाक़ात जॉर्ज बुश सीनियर से हुई. जो तब CIA के डायरेक्टर हुआ करते थे. मुलाक़ात के बाद बुश सीनियर ने उन्हें तोहफ़े में कांसे की एक मूर्ति दी. ये मूर्ति एक अमेरिकन कावबॉय की थी. अमेरिका में घोड़ों में बैठकर गाय हांकने वालों को कावबॉय बोला जाता है.
आर.एन. काओ खुद घोड़ों के बहुत शौक़ीन हुआ करते थे. वो कहते थे कि उनकी आधी तनख्वाह तो घोड़ों के चारे में ही चली जाती है. इसके घटना के बाद RAW के एजेंट्स को काओबॉय्ज़ बोला जाने लगा. ये जासूसों का ऐसा नेटवर्क था जो रॉ के ऑपरेशन्स को अंजाम दिया करता था. इस विषयांतर के बाद पाकिस्तान के मसले पर वापस चलते हैं.
1970 से 1976 तक पाकिस्तान में भी काओबॉय्ज़ का एक बड़ा नेटवर्क बन गया था. रॉ और इजराइल इंटेलिजेंस एजेंसी मोसाद मिलकर ये पता लगाने की कोशिश कर रहे थे कि पाकिस्तान का परमाणु संयंत्र किस जगह पर है.
1977 के शुरुआती हिस्से में रॉ के जासूसों को कहूता का पता लगा. कहूता पाकिस्तान के रावलपिंडी में एक पहाड़ी इलाक़ा है. यहां स्थित KRL यानी खान रिसर्च लैबोरेट्री में पाकिस्तान के बड़े वैज्ञानिकों का आना-जाना लगा रहता था. इसलिए इस बात की बहुत सम्भावना थी कि यहीं परमाणु प्रोग्राम की तैयारियां चल रही थीं. लेकिन इस बात को पक्का करने के लिए सबूत की ज़रूरत थी. और यहीं से पिक्चर में आया वो सलून और बाल जिनके बारे में हमने शुरुआत में बताया था. ऑपरेशन कहूता रॉ के एजेंट्स ने इस सलून से बालों के सैम्पल इकट्ठा किए और उन्हें जांच के लिए भेज दिया. बालों में जब न्यूक्लियर रेडियेशन के अंश पाए गए तो ये बात पुख़्ता हो गई. कहूता में ही परमाणु बम बनाने की तैयारी चल रही थी. रॉ की कोशिशों के चलते कहूता न्यूक्लियर प्लांट के ब्लू प्रिन्ट की जानकारी हाथ लगी. लेकिन जिस व्यक्ति के पास ये ब्लू प्रिन्ट था, वो बदले में 10 हज़ार डॉलर की मांग कर रहा था. आज के हिसाब से क़रीब 7.5 लाख रुपए. ये रक़म इतनी बड़ी थी कि बिना प्रधानमंत्री के हस्ताक्षर के सैंक्शन नहीं हो सकती थी.
काओ सारी जानकारी लेकर प्रधानमंत्री के पास पहुंचे. इंदिरा और उनके पिता नेहरू के साथ काओ के बहुत अच्छे संबंध थे. लेकिन 1977 में देश के राजनैतिक हालात बदल चुके थे. इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी और मोरारजी देसाई भारत के प्रधानमंत्री बन गए.
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कहूता, रावपिंडी स्थित ख़ान रिसर्च लैब (तस्वीर:. globalsecurity.org)


इमरजेंसी के दौरान सरकारी संस्थाओं का जमकर दुरुपयोग हुआ था. मोरारजी देसाई को शक था कि इंदिरा गांधी ने रॉ की मदद से जनता पार्टी के नेताओं की जासूसी करवाई थी. इसलिए उन्होंने आते ही रॉ के पर कतरने शुरू कर दिए. और रॉ का बजट 40% तकि घटा दिया.
काओ ने जब उन्हें कहूता में बन रहे परमाणु बम की जानकारी दी तो मोरारजी देसाई ने पैसे देने से साफ़ मना कर दिया. इतना ही नहीं देसाई ने काओ से कहा कि वो पाकिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करें. काओ ने तब निदेशक के पद से ये कहते हुए इस्तीफ़ा दे दिया कि जब प्रधानमंत्री को ही संस्था पर कोई भरोसा नहीं तो रॉ का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता. बात इतनी ही होती तो भी ठीक था. लेकिन मोरारजी देसाई ने इस बात की जानकारी पाकिस्तान को भी दे दी. यूरीन थेरेपी और ज़िया उल हक़ दरअसल देसाई और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल ज़िया उल हक़ की अक्सर फ़ोन पर बातचीत होती रहती थी. तब देसाई का ‘यूरिन थेरेपी’ प्रेम वर्ल्ड फ़ेमस हुआ करता था. बी. रमन अपने संस्मरणों में बताते हैं कि ज़िया फ़ोन कर देसाई से पूछते,
देसाई जी, दिन में कितनी बार यूरीन पी जा सकती है?
या
देसाई जी, इसे सुबह उठते ही करें या दिन में कभी भी ले सकते हैं?
ऐसी ही एक चर्चा के दौरान बातों-बातों में देसाई ने ज़िया से कहा, जनरल साहब, हमें आपके सीक्रेट मिशन के बारे में पता लग चुका है. ज़िया को इशारे से ही समझ आ गया कि परमाणु संयंत्र की बात हो रही है. उन्होंने रॉ के के एजेंट्स का पता लगाया और ISI की मदद से रॉ का पूरा नेटवर्क खतम कर डाला. जो 10 साल की कड़ी मेहनत से तैयार हुआ था. और इस तरह ऑपरेशन कहूता का दर्दनाक अंत हो गया.
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रॉ के एक पूर्व अतिरिक्त सचिव बी रमन ने अपनी किताब 'द काऊ बॉयज़ ऑफ़ रॉ' में रॉ के गठन और उसके विभिन्न ऑपरेशंस का ब्योरा दिया है (तस्वीर : Amazon.in)


हालांकि आप ज़िया पर अहसान फ़रामोशी का इल्ज़ाम नहीं लगा सकते. 1988 में उन्होंने मोरारजी देसाई को पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, निशान-ए-पाकिस्तान से सम्मानित किया. देसाई ये सम्मान पाने वाले पहले और 2020 तक तो इकलौते भारतीय थे. 2020 में हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी को भी इस सम्मान से नवाज़ गया.
इस मामले में एक नया मोड़ आया 1981 में जब इंदिरा गांधी एक बार फिर प्रधानमंत्री बनी. इराक़ में हुई एक घटना ने दुबारा ऑपरेशन कहूता को जीवनदान दे दिया. हुआ यूं कि 7 जून, 1981 को इज़रायल ने इराक में बन रहे परमाणु रिएक्टर पर हमला कर उन्हें नष्ट कर दिया. इज़रायल के इस साहसिक मिशन से इंस्पायर होकर भारत ने कहूता में हवाई हमले की योजना बनाई. प्लान के मुताबिक़ ये काम इज़रायल फाइटर जेट को करना था. लेकिन इससे पहले CIA को इस प्लान की भनक लग गई. और इस प्लान को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा.
1984 में एक और बार दुबारा ये योजना बनाई गई. लेकिन अमेरिका के इशारे पर पाकिस्तान ने कहूता की सुरक्षा बड़ा दी. प्लान का सर्प्राइज़ फ़ैक्टर ख़त्म हो चुका था. इसके बाद ऑपरेशन कहूता को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.

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