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नरसिम्हा राव ने क्यों ठुकरा दी बेनजीर की चाय?

1991 में जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने, उनके सामने कश्मीर के मामले पर पाकिस्तान और अमेरिका की चुनौती थी.

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अपनी कुशल विदेश नीति के चलते नरसिम्हा राव कश्मीर और पंजाब में शांति बहाल करने में कामयाब हुए थे (तस्वीर: Getty)
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कमल
23 दिसंबर 2022 (Updated: 21 दिसंबर 2022, 17:18 IST)
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साल 1990 की बात है. इस्लामाबाद से कुछ 30 किलोमीटर दूर माणिक्यल में एक रैली चल रही थी. मई की महीना. सूरज आसमान से आग बरसा रहा था. इसके बावजूद लोग घंटों से इंतज़ार कर रहे थे. एक छोटे से शामियाने में बने स्टेज पर माइक लगा था. चंद मिनटों में आगमन हुआ वजीर-ए-आजम बेनजीर भुट्टो (Benazir Bhutto) का. बेनज़ीर कुछ देर तक इधर-उधर की कहती रहीं. मसलन, पाकिस्तान को आत्मनिर्भर होना होगा, हमारी किस्मत हमारे हाथ में है, इस तरह की बातें. लोगों के मुंह लटके हुए थे. उन्हें बेनजीर से कुछ और सुनना था. भीड़ का मायूस चेहरा देखते हुए बेनजीर ने स्थिति को भांपा और पब्लिक एकदम से जिन्दा हो गई. बेनजीर के मुंह पर अब एक ही नाम था, कश्मीर. पब्लिक नारे लगाने लगी थी, “कश्मीर हम लेके रहेंगे”.

1990 में बेनजीर जहां भी गई, लोग उनसे बस कश्मीर की बात सुनना चाहती थे. कश्मीर (Kashmir Issue) का मुद्दा पाकिस्तान के लिए हमेशा से हॉट टॉपिक रहा है. लेकिन उस साल ये आग लगी थी, बेनजीर की एक स्पीच से. पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर में मुजफ्फराबाद में उन्होंने एक रैली की. यहां गरजते हुए उन्होंने कहा, 

“हिंदुस्तान का वजीर-ए-आजम अगर कश्मीर जाए तो क्या कश्मीरी उनके स्वागत के लिए घरों से निकलेंगे? मैं चैलेंज करती हूं अगर वो समझते हैं कि जनमत संग्रह जरूरी नहीं है तो जाकर देख लें.. जगमोहन का जग-जग, मो-मो, हन-हन हो जाएगा”

उसी साल जगमोहन मल्होत्रा कश्मीर के गवर्नर नियुक्त हुए थे. और बेनजीर उनके टुकड़े टुकड़े करने की धमकी दे रही थीं. कश्मीर में हालात नाजुक थे. हजारों कश्मीरी पंडितों को घाटी से दरबदर कर दिया गया था. और इस मौके पर कश्मीर के बहाने बेनजीर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने की कोशिश कर रही थी. 1988 से 1990 तक प्रधानमंत्री के रूप में उनके पहले कार्यकाल के दौरान सिंध में बग़ावतें जोर मार रही थी. जिसके चलते विपक्ष खासकर नवाज शरीफ उन पर लगातार हमला कर रहे थे. बेनजीर को लग रहा था, कश्मीर के नाम पर वो दुबारा सत्ता हासिल करने में कामयाब होंगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अगस्त 1990 में हुए आम चुनावों में बेनजीर हार गई. लेकिन उनकी लगाई आग अब शोला बन चुकी थी. तमाम देशों में अपने दूत भेजकर और वहां के राजनयिकों को पाकिस्तान बुलाकर कश्मीर के खिलाफ माहौल तैयार किया जा रहा था.

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पाकिस्तान की [पूर्व वजीर-ए-आजम, बेनजीर भुट्टो (तस्वीर: इंडिया टुडे)  

कुछ ऐसी ही हालातों में पीवी नरसिम्हा राव (PV Narsimha Rao) भारत के नवें प्रधानमंत्री बने. राव की राजनैतिक पारी समाप्त मानी जा रही थी. लेकिन राजीव गांधी की हत्या और बदलते समीकरणों ने उन्हें सत्ता के शीर्ष पर पहुंचा दिया. आज उनकी पुण्य तिथि है. साल 2004 में 23 दिस्मबर के रोज़ राव का निधन हो गया था. राव ने 6 साल सत्ता में रहते हुए अल्पमत की सरकार चलाई थी. इसके बावजूद उन्हें भारतीय इतिहास के सबसे प्रभावी प्रधानमंत्रियों में एक माना जाता है. फिर चाहें वो 1991 के आर्थिक सुधारा हों, परमाणु प्रोग्राम को गति देना हो, या पंजाब में अलगाववाद का खात्मा हो.

इनके अलावा राव के कार्यकाल का एक पहलू ऐसा भी है, जिसकी कम बात की जाती है. वो है कश्मीर मुद्दा. ध्यान दें, राव जब प्रधानमंत्री बने कश्मीर मुद्दा विष्फोटक रूप अपना चुका था. अलगावादियों के हौसलें बुलंद हो रहे थे, वहीं पाकिस्तान और अमेरिका इस मुद्दे पर लगातार भारत को घेर रहे थे. उस दौर में राव ने कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान और अमेरिका दोनों को कैसे मात दी, चलिए जानते हैं.

कश्मीर में बेनजीर के बयान  

1989 में पाकिस्तान के हालात तेज़ी से बदल रहे थे. जिया की मौत से सालों बाद पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली हुई थी. वहीं सोवियत संघ अफ़ग़ानिस्तान से अपना बोरा बिस्तर बांध रहा था. अफ़ग़ान युद्ध के दौरान पाकिस्तानी मुजाहिदीनों को अमेरिका से जो ट्रेनिंग और रुपया हासिल हुआ था, वो अब कश्मीर में झोंका जाने लगा. कश्मीर में आतंकियों की आवभगत हुई, हालात बिगड़े और ‘आजाद कश्मीर’ से नारों से वादी गूजने लगी. फरवरी 1990 में बेनजीर ने इस मौके का फायदा उठाते हुए, कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के सरमायदारों की एक मीटिंग बुलाई और 5 फरवरी को ‘कश्मीर सॉलिडेरिटी डे’ घोषित कर दिया. 

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1990 में कश्मीर में बढ़ते अलगाववाद के चलते हजारों कश्मीरी पड़ितों को घाटी छोड़नी पड़ी थी (तस्वीर: हिन्दुस्तान टाइम्स)

बेनजीर इत्ते में ही नहीं रुकीं. पांच दिन के अंदर उन्होंने संसद में एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को नकार दिया. 
13 मार्च 1990 को भुट्टो में मुज़फ्फराबाद में एक रैली को सम्बोधित करते हुए भारत को जमकर कोसा. और अपने पिता की तरह भारत से एक हजार साल चलने वाले युद्ध की घोषणा कर डाली. इसके बावजूद उस साल हुए चुनावों में बेनजीर को हार मिली और नए वजीर-ए-आजम बने, नवाज़ शरीफ. शरीफ में भी कश्मीर पर हमलावर रखते हुए नारा दिया, “कश्मीर बनेगा पाकिस्तान”

इधर भारत में अब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बन चुके थे. शुरुआत में उन्होंने पाकिस्तान को द्विपक्षीय वार्ता का प्रस्ताव दिया. लेकिन नवाज शरीफ ने उसे नकार दिया. 1993 में बेनजीर की सत्ता में वापसी हुई. और उन्होंने कश्मीर पर अपने पुराने तेवर जारी रखे. राव ने पाकिस्तान को जवाब दने के लिए 22 फरवरी 1994 को संसद में एक प्रस्ताव पारित किया. जिसमें लिखा था,

“जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. उसे भारत से अलग करने की किसी भी कोशिश का माकूल जवाब दिया जाएगा”

इस प्रस्ताव में ये भी शामिल था कि पाकिस्तान अपने कब्ज़े वाले कश्मीर को जल्द से जल्द खाली करे. अब सवाल ये कि ये तो हमेशा से भारत की नीति रही है. तो राव को अलग से ये प्रस्ताव पारित करने की जरुरत क्यों पड़ी? इसका जवाब है अमेरिका. बेनजीर की अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट में काफी बनती थी, जिसके चलते अमेरिका लगातार इस मुद्दे पर पाकिस्तान का पक्ष लेता था . R&AW की काउंटर टेररिज्म डिवीजन के हेड रहे, बी. रमन अपनी किताब में इस बाबत एक किस्सा बताते हैं. 

अमेरिका और बेनजीर की दोस्ती 

31 अगस्त 1994 की बात है. रमन उस रोज़ रिटायर हो रहे थे. रात को उनके सम्मान के एक पार्टी दी गई थी. पार्टी से लौटने के बाद रमन अपने कमरे में लौटे और गुस्से में उनके मुंह से निकला ‘बास्टर्ड्स’. रमन लिखते हैं कि ये गुस्सा न R&AW के प्रति था, न अपने प्रधानमंत्री और न ही अपने कलीग्स के प्रति. उनके मुंह से गाली निकली थी US स्टेट डिपार्टमेंट के अधिकारियों के लिए. रमन लिखते हैं कि एक देश के तौर पर वो हमेशा से अमेरिका को पसंद करते थे. लेकिन अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट के अफसरों की जमात से उन्हें सख्त नफरत थी. इस नफरत का कारण?

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अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन (तस्वीर: US state department)

रमन बताते हैं कि उनके रिटायर होने से कुछ दिन पहले उनके पास R&AW के निदेशक का कॉल आया. एक संवेदनशील मुद्दे पर चर्चा के लिए प्रधानमंत्री का बुलावा आया था. और निदेशक रमन को अपने साथ ले जाना चाहते थे. मुलाक़ात के दौरान रमन को पता चला कि वाशिंगटन डी सी में भारतीय दूतावास से एक चिट्ठी आई है. रमन लिखते हैं कि चिट्ठी पढ़ते ही उनका मन हुआ कि वो स्टेट डिपार्टमेंट के अफसरों पर थूक दें. उसमें लिखा था कि भारतीय राजदूत को स्टेट डिपार्टमेंट द्वारा बुलाकर कहा गया है कि R&AW पाकिस्तान में कोवर्ट ऑपरेशन चला रहा है. और अगर ये बंद नहीं हुआ, तो अमेरिका कड़ी कार्यवाही करेगा. इसके बाद राव पूछते हैं “आप लोग पाकिस्तान में कौन सा ऑपरेशन कर रहे हो?”

रमन ने जवाब दिया कि पाकिस्तान में भारत से हमदर्दी रखने वाले लोगों के संपर्क में हैं, और उन्हें जितनी हो सके मदद मुहैया करा रहे हैं. रमन आगे बताते हैं कि 1988 में ISI ने बब्बर खालसा के आतंकी तलविंदर सिंह परमार को अपने यहां शरण दी थी. तब राजीव गांधी ने उनसे कहा था कि भारत केवल पाकिस्तान के राजनैतिक सर्कल्स तक सीमित नहीं रह सकता. इसके बाद उन्होंने भारत से हमदर्दी रखने वाले लोगों से कांटेक्ट करना शुरू कर दिया. राव ने पूछा, ये सब तो सही है, लेकिन अमेरिका इसे आतंकवाद क्यों कह रहा है? 
रमन जवाब देते हैं, हम ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं जिसे आतंकवाद कहा जा सके. 

राव रमन से अपना ऑपरेशन जारी रखने को कहते हैं, और बताते हैं कि अमेरिका से वो खुद निपट लेंगे. 

इसके बाद राव और रमन की मुलाक़ात सीधे रमन के रिटायरमेंट के बाद ही हुई. राव चाहते थे कि रमन दिल्ली में ही रहकर कुछ और जिम्मेदारियां संभाले. लेकिन रमन मद्रास लौटने के इच्छुक थे, इसलिए उन्होंने इंकार कर दिया. अंत में राव ने उनसे कहा, अच्छा जाते-जाते, मुझे तुमसे एक मदद चाहिए. राव उन्हें एक तस्वीर दिखाते हैं. तस्वीर US स्टेट डिपार्टमेंट की एक अधिकारी की थी. राव पूछते हैं, इस पर तुम्हारी क्या राय है?रमन जवाब देते हुए कहते हैं,

“सर जम्मू कश्मीर में हमारी सारी मुसीबतों का कारण यही मोहतरमा है. ये बेनजीर की खास दोस्त है. और मुझे शक है कि इसने हमारी कुछ खुफिया जानकारियां भी बेनजीर तक पहुंचाई हैं ”

राव ने अटल को संयुक्त राष्ट्र में भेजा 

इस किस्से से आप समझ सकते हैं कि तब अमेरिका का भारत के प्रति क्या नजरिया था. मई 1993 में अमेरिकी अधिकारी जॉन मलॉट और रोबिन राफ़ाएल ने भारत का दौरा किए. और इस दौरान उन्होंने कश्मीर को विवादित जमीन बता दिया. अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने सितम्बर 1993 में अपने अभिभाषण के दौरान भी कश्मीर के साथ विवादित शब्द का इस्तेमाल किया. भारत के लिए ये सब घटनाएं, खतरे की घंटी थीं. पाकिस्तान अमेरिका के साथ मिलकर भारत पर लगातार दबाव बढ़ाता जा रहा था. और इससे उकसाए हुए, OIC (Organisation of Islamic Countries) समूह ने भी कश्मीर जाकर एक फैक्ट फाइंडिंग मिशन शुरू करने की मांग उठा दी. पाकिस्तान खुद भी OIC का सदस्य था. 

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नरसिम्हा राव और अटल बिहारी बाजपेयी (तस्वीर: गेटी )

27 फरवरी 1994 को पाकिस्तान ने OIC के जरिए UN मानवधिकार कमीशन के सामने एक प्रस्ताव पेश किया, जिसमें भारत पर कश्मीर में जेनेवा कन्वेशन के उल्लंघन का आरोप लगाया गया था. अगर ये प्रस्ताव पास हो जाता तो इसका मतलब था, भारत पर UN सुरक्षा परिषद से आर्थिक प्रतिबन्ध लग सकते थे. राव इस वक्त आर्थिक सुधारों के बाद आए बदलावों से जूझ रहे थे. इसके बावजूद उन्होंने खुद मोर्चा संभालते हुए जर्मनी का दौरा किया. UN में पाकिस्तान को जवाब देने के लिए उन्होंने एक विशेष टीम नियुक्त की, जिसमें पार्टी लाइंस से परे जाकर लोगों को नियुक्त किया गया. 

इस टीम में अटल बिहारी वाजपेयी, सलमान खुर्शीद, फारुख अब्दुल्ला, हामिद अंसारी जैसे नेता शामिल थे. मुस्लिम नेताओं को चुनने के पीछे राव् का विशेष मकसद पाकिस्तान के इस दावे को काउंटर करना था कि वो कश्मीर के मुसलामानों के एकमात्र प्रतिनिधि हैं. इसके अलावा उन्होंने मनमोहन सिंह को भी विशेष रूप से इस डेलिगेशन का हिस्सा बनाया, क्योंकि मनमोहन सिंह का UN में काम करने का लम्बा अनुभव था. 

राव इतने में ही संतुष्ट नहीं हुए. उन्होंने विदेश मंत्री दिनेश सिंह को तुरंत ईरान के दौरे पर भेजा. दिनेश सिंह तबीयत ख़राब होने के चलते छुट्टी पर थे. फिर भी राव ने उनके लिए एक विशेष चार्टर विमान का इंतज़ाम किया. ईरान के विदेश मंत्री, अली अकबर विलायती राव के दोस्त हुआ करते थे. उन्होंने दिनेश सिंह के हाथों भेजा गया राव का खत, राष्ट्रपति हाश्मी रअफ़्शांजानी तक पहुंचाया. 

आधुनिक चाणक्य 

इत्तेफाक से चीन के विदेश मंत्री एयान किचेन भी इस वक्त तेहरान में मौजूद थे. दिनेश सिंह से उनसे भी मुलाक़ात की. इस दौरान दिनेश सिंह की तबीयत इतनी ख़राब थी, कि तेहरान से लौटते ही उन्होंने सीधे हॉस्पिटल का बिस्तर पकड़ लिया. उधर जेनेवा में इस दौरान वाजपेयी एक नई जमीन तैयार कर रहे थे. उन्होंने UK बेस्ड औद्योगिक घराने के मालिक, हिंदुजा परिवार से मुलाक़ात की. हिंदुजा ग्रुप के ईरान से नजदीकी रिश्ते थे. 

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नरसिम्हा राव ने तत्कालीन वित्तमंत्री और अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के साथ मिलकर आर्थिक सुधारों की नींव डाली थी (तस्वीर: India Today)

राव ने चीन को साधने की कवायद भी शुरू कर दी. 1993 और 1996 में भारत और चीन के बीच सीमा को लेकर दो समझौते हुए. जिसके तहत दोनों देश सीमा पर शांति की बहाली को लेकर राजी हो गए. इन समझौतों से दो फायदे हुए. चीन सीमा पर तैनात भारतीय ट्रुप्स को कश्मीर में मिलिटेंसी रोकने के लिए लगा दिया गया. वहीं UN में भी चीन ने भारत के विरोध में मतदान करने से इंकार कर दिया. प्रस्ताव पास होने वाले दिन, इंडोनिशया और लीबिया जैसे देशों ने प्रस्ताव से हाथ वापस खींच लिए. वहीं सीरिया ने कहा कि वो एक रिवाइज्ड ड्राफ्ट पर गौर करेगा. 9 मार्च 1994 को हुई आखिरी वोटिंग में ईरान और चीन ने प्रस्ताव के पक्ष में वोटिंग नहीं की. जिसके चलते शाम पांच बजे प्रस्ताव रद्द हो गया. 

अर्थशास्त्र की छठी किताब में कौटिल्य लिखते हैं, एक राजा जिसका राज्य, एक दूसरे आक्रामक राज्य की सीमा से मिलता है, वो शत्रु है. वहीं जो राजा शत्रु के निकट है, लेकिन उससे अलग है , उसे मित्र कहा जाता है”. आम भाषा में हम इसे ऐसे कह देते हैं कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है. 1994 के साल में नरसिम्हा राव ने इस कहावत को पलटते हुए पाकिस्तान के दोस्त चीन को उसके ही खिलाफ इस्तेमाल करते हुए कश्मीर मुद्दे पर एक बड़ी जीत दर्ज़ की. राव की इन कोशिशों का ही नतीजा था कि 1996 में कश्मीर एक एक बार दुबारा चुनाव हो पाए. और राव ने साबित किया कि क्यों उन्हें भारतीय राजनीति का आधुनिक चाणक्य कहा जाता था. 

राव ने ठंडी छोड़ी बेनजीर की चाय 

अंत में आपको वो किस्सा सुनाते हैं जब राव ने बेनजीर की चाय ठंडी कर दी. बात 1996 की है. कश्मीर मुद्दे पर हाथ जला चुकीं बेनजीर ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉन मेजर को एक खत लिखा. और कहा कि वो चाहती हैं मेजर उनके और राव के बीच एक ‘चाय पर चर्चा’ अरेंज करवाएं. साल 2020 में नेशनल आर्काइव्स द्वारा डीक्लासिफाइड किए गए कुछ दस्तावेज़ से इस वाकये का पता चला था. दरअसल भुट्टो सीधे तौर पर राव को खत नहीं लिख सकती थीं. ऐसा करना पाकिस्तान में उनकी सेहत के लिए हानिकारक साबित होता. इसलिए उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमंत्री से दरख्वास्त करी कि वो राव को इसके लिए मनाएं. इतना ही नहीं बेनजीर चाहती थी, ऐसा न लगे कि मुलाकात अंरेज़ करवाई गयी है. बल्कि वो इस मुलाकात को इत्तेफाकन हुई मुलाक़ात का रूप देना चाहती थीं. 

ब्रिटिश हाई कमीशन के अनुसार, राव ने मेजर का खत दो बार गौर से पढ़ा और ये कहते हुए किनारे रख दिया कि बेनजीर को अभी चाय के बारे में भूल जाना चाहिए क्योंकि भारत में जल्द ही इलेक्शन होने वाले हैं. साथ ही राव ने कहा, वक्त आने पर ऐसी सलाहें काम की हो सकती हैं, हालांकि छुपछुपकार चाय पीना काफी मुश्किल काम है. उस साल हुए चुनावों में राव की रुखसती हो गई. वहीं भुट्टो की सरकार भी बर्खास्त कर दी गई. इस तरह जो चाय बेनजीर राव को पिलाना चाहती थी, वो ठंडी की ठंडी ही रह गई. \

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