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भारतीय सैनिकों को जिन्दा काट कर खा जाते थे जापानी सैनिक?

द्वितीय विश्व युद्ध में जापान ने सिंगापुर जीतने के बाद 10 हजार भारतीयों को युद्धबंदी बना लिया था.

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Indian Prisoner of War world 2
जापानी कंसन्ट्रेशन कैम्प्स से बचाए गए भारतीय युद्धबंदी (तस्वीर: Australia War Museum)
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कमल
2 सितंबर 2022 (Updated: 2 सितंबर 2022, 07:37 PM IST) कॉमेंट्स
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एक ट्रिविया सुनिए. अंग्रेज़ी में जो डिजिट शब्द है, वो दरअसल लैटिन शब्द डिजिटस से आया है. डिजिटस का मतलब है उंगली, हाथ या पैर की उंगली. चूंकि उंगलियों का यूज़ गिनने के लिए किया जाता है, इसलिए डिजिट का एक मतलब नंबर से भी लगा लिया गया. ये ट्रिविया क्यों, ये आपको आगे की कहानी से समझ आएगा.  

साल 1945, मई का महीना. जर्मनी ने मित्र राष्ट्रों के आगे हथियार डाल दिए. द्वितीय विश्व युद्ध (World War 2) की आख़िरी गिनती शुरू हो चुकी थी. लेकिन सुदूर पूर्व में जापान अभी भी मैदान में डटा हुआ था. जर्मनी के हाथियार डालने पर यूरोप में लोग जश्न मना रहे थे. सिवाय एक आदमी के. विंस्टन चर्चिल को पता था जापान सालों तक उन्हें उलझाए रख सकता है. उसी महीने मित्र राष्ट्रों की सेना ने बर्मा में रंगून की तरफ कूच किया. इनमें ब्रिटिश इंडियन आर्मी (British Indian Army) की 40 हजार सिपाहियों की तीन डिवीजन भी शामिल थीं. मॉनसून कभी भी दस्तक दे सकता था. इसलिए जल्द से जल्द रंगून पहुंचना जरूरी था. आर्मी पहुंचती, इससे पहले रॉयल इंडियन एयर फ़ोर्स ने रीकॉनसेंस के लिए विमान भेजे.

Rangoon Jail
रंगून जेल में की छत पर लिखा सन्देश (तस्वीर: michaelsmithnews)

किस्सा यूं है कि जब वे विमान रेकी कर रहे थे तो उन्हें रंगून सेन्ट्रल जेल की छत पर कुछ लिखा हुआ दिखाई दिया. इस जेल में जापानी फौज ने युद्धबंदी रखे हुए थे. और उन्होंने सफ़ेद चूने से जेल की छत पर लिखा था, “Japs Gone. Extract Digit”. अब यहां जैप्स गॉन का अर्थ है ‘जापानी चले गए.’ लेकिन ये दूसरा हिस्सा, ‘Extract Digit’ बड़ा रोचक है. कहानी यूं है कि रॉयल एयर फ़ोर्स (RAF) के जवान WW2 में एक जुमले का इस्तेमाल करते थे, 'Pull Your Finger Out'. यानी उंगली बाहर निकालो. ये एक अभद्र तरीका था कहने का कि फालतू टाइम वेस्ट मत करो, अपना काम जल्दी करो. अब जेल में बंद युद्धबंदियों ने इसी बात को ‘Extract Digit’ लिखा. ताकि RAF को ‘Extract Digit’ का मतलब यानी Pull Your Finger भी समझ आ जाए. और ये भी न लगे कि ये जापानियों की कोई चाल है.

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इस कहानी का आज जिक्र इसलिए क्योंकि वो आज ही की यानी 2 सितम्बर की तारीख थी, जब 1945 में जापान ने सरेंडर के दस्तखत पर हस्ताक्षर किए. इस मौके पर हमने सोचा आपको कहानी बताई जाए उन भारतीय सैनिकों की जिन्हें युद्धबंदी बनाकर जापानी कंसन्ट्रेशन कैम्प्स में रखा गया. कंसन्ट्रेशन कैम्प्स का जिक्र आए तो नाजी जर्मनी की याद आती है. जहां यहूदियों और युद्धबंदियों को भीषण यातनाएं दी गईं. नाजी जर्मनी में इंसानियत को भुला दिया गया, लेकिन एक हद थी जिसे नाजियों ने भी पार नहीं किया. लेकिन जापानी इससे भी आगे बढ़ गए. एक शब्द में समझिए- कैनिबल (Cannibals) यानी नरभक्षी. 

INA ज्वाइन न करने वालों का क्या हुआ? 

1944 के सितम्बर महीने की बात है. US नेवी के कुछ पायलट जापान के चिचिजिमा द्वीप पर बमबारी कर रहे थे. इसी दौरान कुछ प्लेन जापानियों के निशाने पर आ गए और नीचे जा गिरे. इनमें सवार 9 में से आठ लोगों को पकड़ लिया गया. ये सभी लोग मारे गए. लेकिन युद्ध के बाद एक और बात सामने आई. इनमें से चार लोगों को गला काटकर मार दिया गया था. लेकिन बाकी चार की जांघों से 6 पाउंड मांस निकाला गया. उसे सोया सॉस और सब्जियों के साथ पकाया गया. और फिर ये इंसानी मांस जापानी सैनिकों ने खा लिया.

George WH Bush
द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिकी नेवी की ओर से लड़ने वाले जॉर्ज HW बुश आगे जाकर अमेरिका के राष्ट्रपति बने (तस्वीर: US navy)

1993 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज HW बुश ने जब ये रिपोर्ट देखी तो उन्हें अपनी खुशकिस्मती का अहसास हुआ. क्योंकि जो इकलौता व्यक्ति इस दौरान बच गया था वो जॉर्ज HW बुश ही थे. बुश राष्ट्रपति थे, इसलिए चिचिजिमा में कैनिबालिज़्म की घटना बहुत फेमस हुई. लेकिन ये इकलौती ऐसी घटना नहीं थी. पैसिफिक थियेटर में जहां-जहां जापान ने अपने वॉर कैम्प्स बनाए, उन सभी में इंसान का मांस खाया गया. शुरुआत सिंगापुर से हुई.

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15 फरवरी 1942 को सिंगापुर पर जापानियों का कब्ज़ा हो गया. 40 हजार भारतीय सैनिकों को युद्धबंदी बना लिया गया. इन्हें आजाद हिन्द फौज में शामिल होने का ऑप्शन दिया गया. 30 हजार सैनिक INA से जुड़ गए, लेकिन 10 हजार ने इनकार कर दिया. इन 10 हजार लोगों को मात्सुई मारु नाम के एक जहाज में लादा गया. और न्यू गिनी, न्यू ब्रिटेन जैसे पैसिफिक के द्वीपों में भेजा गया. यहां जापानी कंसन्ट्रेशन कैम्पस बने हुए थे. टाइम्स ऑफ इंडिया की 1944 की एक रिपोर्ट है जो इन लोगों का अनुभव बताती है,

युद्धबंदियों को ले जाने वाले इन जहाजों को एक खास नाम मिला था. ‘द हेल शिप’ यानी ‘नर्क का जहाज’. सिंगापुर से गिनी की यात्रा 56 दिन की थी. छोटी सी जगह में इतने लोगों को ठूस दिया जाता था कि सिर्फ 1/8 लोगों के सोने की जगह हो पाती थी. बाकी लोग रात भर खड़े रहते थे. शिप में एक आर्मी डॉक्टर थे, कैप्टन पिल्लई. उन्होंने जब पानी मांगा तो जापानी अफसर ने उनसे कहा, “पानी और हवा तुम्हारे लिए नहीं है”. 24 घंटे के दौरान सिर्फ दो कप पानी मिलता था. और इस दौरान प्यास के मारे कई लोग समंदर का नमकीन पानी पीने को मजबूर होते थे.

हैदराबाद के निजाम के भांजे कैप्टन मतीन अहमद अंसारी 

जब ये लोग कंसन्ट्रेशन कैम्पस में पहुंचे तो यहां हालत और भी खराब थी. हर रोज़ 12 से 14 घंटे काम करना होता था. और इस दौरान खाने के लिए सिर्फ थोड़ा चावल और नमक मिलता था. भूख के मारे लोग चोरी करते. और किसी पर शक भी जाता तो उसे गोली मार दी जाती. न्यू गिनी के वीवॉक कैम्प की कहानी सुनिए. यहां हवाई बमबारी होने पर प्रिजनर्स को बाहर ही छोड़ दिया जाता. जापानी सेना का कर्नल टाकानो यहां का हेड था. बमबारी में घायल हुए युद्धबंदियों पर वो रेत फेंक कर कहता, “चुपचाप रहो और अपने घावों पर रेत मलो. तुम्हारी इस हालत के लिए चर्चिल और रूजवेल्ट जिम्मेदार है.”

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कैप्टन मतीन अहमद अंसारी और  योशियो टाशिबाना (तस्वीर: vcgca.org)

14 पंजाब रेजिमेंट के कैप्टन निरपाल चंद भी इसी कैम्प में थे. उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी. अंततः उनकी मांगें स्वीकार कर ली गईं. लेकिन 22 अप्रैल 1944 को उन्हें विद्रोह भड़काने के लिए मौत की सजा दे दी गई. 7th राजपूत के कैप्टन मतीन अहमद अंसारी के साथ भी यही हुआ. अंसारी हैदराबाद के निजाम के भांजे थे. जापानियों को जब ये बात पता चली तो उन्होंने मतीन से कहा कि वो बाकी लोगों को जापानियों के साथ आने के लिए मना लें. लेकिन कैप्टन मतीन ने इनकार कर दिया. आखिरकार उन्हें भी मौत की सजा दे दी गई. शुरुआत हुई उनके राशन में कटौती से. अंत में कहा गया, “तुम्हारे पास दो चॉइस हैं, गोली या तलवार.” कैप्टन अंसारी ने जवाब दिया, “तलवार से सिर काटना, हैवानियत का तरीका है. लेकिन तुम लोगों के लिए दिल में चूंकि हैवानियत भरी है, इसलिए तुम्हें ही इसका निर्णय लेना होगा”. इसके बाद कैप्टन अंसारी का सिर तलवार से काट दिया गया.

इसके अलावा यातना देने के लिए धर्म का यूज़ भी किया जाता. हिन्दू सैनिकों को बीफ खाने पर मजबूर किया जाता. तो वहीं मुसलामानों को रोज़ा रखने नहीं दिया जाता. सिख सैनिकों की दाढ़ी नोची जाती. उनके हाथ बांध कर घुटनों पर रोटी रख दी जाती. और जब वो भूख से तड़पते हुए रोटी तक मुंह ले जाने की कोशिश करते तो जापानी सैनिक हंसते. किसी को पानी नहीं दिया जाता तो किसी को जबरदस्ती कई लीटर पानी पिलाया जाता. इसके बाद जापानी सैनिक उसके पेट पर कूदते, ताकि मुंह और नाक से पानी बाहर निकल जाए. ये सब दुर्दांत था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं जो अनसुना हो. नाजी जर्मनी के कंसन्ट्रेशन कैम्प्स में हालत इससे भी बदतर थी. लेकिन एक चीज जो जापानियों ने की, वो नाजी भी नहीं कर पाए.

जापानी सेना के काले कारनामे 

4/9 जाट रेजिमेंट के जमादार अब्दुल लतीफ़ VCO हुआ करते थे. उन्हें न्यू गिनी में जापानी कंसन्ट्रेशन कैम्प्स में रखा गया था. लतीफ़ को ऑस्ट्रेलियाई फौज ने बचाया. और तब उन्होंने जो दास्तान सुनाई उसे सुनकर सब भौचक्के रह गए.

Jemadar Abdul Lateef

लतीफ़ ने बताया कि एक जापानी मेडिकल अफसर रोज़ इंडियन कम्पाउंड में आता था. और सबसे तगड़े लोगों को छांट के अपने साथ ले जाता था. और वो लोग कभी दोबारा दिखाई नहीं देते थे. इन लोगों के दिल और गुर्दे निकालकर उन्हें पकाया जाता और फिर जापानी सैनिक उसे खा लेते. लतीफ़ के अलावा सूबेदार डॉ गुरुचरण और कैप्टेन आर पीरज़ाई बताते हैं कि वीवॉक कैम्प में 19 भारतीय सैनिकों को खा लिया गया था. ऐसे ही कहानी दूसरे कैम्प्स की थी.

जापानी सरकार और जनता लगातार इस सच्चाई को हमेशा नकारती रही. फिर 1992 में एक जापानी इतिहासकार टोशीयूकी टनाका ने ऑस्ट्रेलिया में द्वितीय विश्व युद्ध के दस्तावेज़ इकठ्ठा किए. उन्होंने ये कहानियां जापान टाइम्स में छपवाईं. 1997 में उन्होंने एक किताब भी लिखी, “हिडन हॉरर: जापानी वॉर क्राइम्स इन वर्ल्ड वॉर 2”. इस किताब में जापानी सेना के एक ऑर्डर का उल्लेख है, जिसे 18 नवम्बर 1944 को जारी किया गया था. इस ऑर्डर में ट्रुप्स को चेतावनी दी गई थी कि ऐसा कोई व्यक्ति, जो दुश्मन नहीं है, उसका मांस नहीं खाया जा सकता. और ऐसा करने वाले को मौत की सजा होगी.

ये स्पष्ट ऑर्डर बताता है कि इंसानी मांस खाने की ये घटनाएं सेना के ऊपर लेवल तक पता थीं. इसी किताब में आगे जाकर पाकिस्तानी फौज के कोर्पोरल बने हातम अली का बयान भी दर्ज़ है, जो बताता है कि न्यू गिनी में हर दिन एक युद्धबंदी को मारकर खा लिया जाता था. एक गवाही के अनुसार जिन्हें मांस खाने के लिए चुना जाता, उनके शरीर का एक हिस्सा काटकर उन्हें जिन्दा ही गड्ढे में फेंक दिया जाता था.

प्रोटीन का सोर्स 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब जापानी अधिकारियों पर युद्ध अपराध का केस चला तो योशियो टाशिबाना नाम के एक ल्यूटिनेंट जनरल को फांसी की सजा दी गई. योशियो टाशिबाना ने अपने सैनिकों को 14 लोगों का मांस खाने का ऑर्डर दिया था. मांस खाने के लिए जापानी फौज की एक यूनिट कुख्यात थी. सुजुकी यूनिट नाम के इस दल के एक मेंबर ने युद्ध के बाद बताया,

“हम लोग डिनर में इंसानी मांस खाने के आदी थे. मांस को कई बार सुखा कर भी रखा जाता था, ताकि वो ज्यादा दिन चल सके. इंसानी मांस को साधारण मीट की ही तरह सब्जियां डालकर पकाया जाता था, और ये हमारे लिए प्रोटीन का मुख्य सोर्स हुआ करता था.”

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 10 हजार भारतीय फौज़ियों को जापानी कैम्प्स में रखा गया था. इनमें से आधे से ज्यादा की मौत हो गई. जो वापस लौटे उनमें से कई बाद में भारत और पाकिस्तान की फौज में शामिल हुए. 

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