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जब जापानी फौज ने सैकड़ों भारतीयों को समुद्र में फेंक दिया!

30 दिसंबर 1943 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अण्डमान में झंडा लहराकर आजाद हिन्द की पहली सरकार का गठन किया था.

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Japan occupation of Andaman
जापानी सेना अण्डमान में उतरते हुए (तस्वीर: Wikimedia Commons)
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19 अगस्त 2022 (Updated: 17 अगस्त 2022, 05:12 PM IST) कॉमेंट्स
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दूसरा विश्व युद्ध ख़त्म हो चुका था. ब्रिटिश फौज जब अण्डमान पहुंची तो नजारा हैरतअंगेज़ करने वाला था. पोर्ट ब्लेयर की जनता ब्रिटिश फौज के स्वागत में खड़ी थी. बात अजीब इसलिए है क्योंकि हमें पता है कि जापान ने अण्डमान-निकोबार को आजाद करवाया था (Japan Occupation of Andaman Nicobar Islands), और इसमें उन्होंने नेताजी बोस (Netaji Subhas Chandra Bose) और आजाद हिन्द फौज (Indian National Army) की मदद की थी. जबकि ब्रिटिशर्स ने तो भारत को गुलाम बनाया था. फिर इस स्वागत का कारण क्या था? 

दिसंबर की उस सुबह जब नेताजी ने भारत की जमीन पर सालों बाद कदम रखा तो वो एक वादा पूरा करने आए थे. वादा आजाद भारत का. पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना मैदान में आजाद हिन्द का झंडा फहराया गया और आजाद हिन्द की पहली सरकार का गठन हुआ. नेताजी ने अण्डमान और निकोबार का नया नामकरण किया. अण्डमान को शहीद और निकोबार को स्वराज नाम दिया गया.

30 दिसंबर 1943 को पोर्ट ब्लेयर में अर्ज़ी हुकूमत-ए-आज़ाद हिन्द नाम की सरकार बनी, जिसका प्रशासन भारतीयों के हाथ में था. तब इसे जर्मनी क्रोएशिया सहित कुछ देशों ने मान्यता भी दी थी. नेताजी ने आजाद हिन्द फौज के जनरल AD लोगनाथन को गवर्नर नियुक्त किया और कुछ दिनों बाद आइलैंड से चले गए.

पीछे रह गई एक कहानी, कहानी काले पानी के इतिहास के उस काले अध्याय की, जिसका कहीं कोई नामोनिशान नहीं है. 1942 से 1945 तक अण्डमान पर जापानी सेना का कब्ज़ा रहा. कहने को सरकार आजाद हिन्द की थी लेकिन सारी ताकत जापानी सेना के हाथ में थी. कड़वा सच ये है कि जापानी सेना ने अण्डमान में रह रहे लोगों पर जो अत्याचार किए, वो ब्रिटिश अत्याचारों के मुकाबले कहीं ज्यादा वहशी और क्रूर थे. आज जानेंगे कि अण्डमान निकोबार में 1942 से 1945 के बीच क्या-क्या हुआ? 

जापानी फौज ने अण्डमान पर कब्ज़ा किया  

बात शुरू होती है 23 मार्च 1942 से. जापान ने पोर्ट ब्लेयर पर हमला किया और कुछ ही घंटों में इसे अपने कब्ज़े में ले लिया. ये सब द्वितीय विश्व युद्ध के सन्दर्भ में हो रहा था. कुछ महीने पहले ही जापानी सेना ने रंगून पर हमला कर बर्मा को अपने अधिकार में ले लिया था. इसके चलते ब्रिटिश सेना ने पोर्ट ब्लेयर से भी अपनी सेना पीछे हटा ली. यहां सिर्फ एक गैरिसन बची थी. जिसमें 300 सिख सैनिक और 23 ब्रिटिश अफसर थे. ब्रिटिश अफसरों को युद्धबंदी बनाकर सिंगापोर भेज दिया गया. वहीं भारतीय सैनिक आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गए.

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राजपूत राइफल्स के जवान सैनिक दल दिलवाड़ा में सवार होकर अंडमान द्वीप समूह के लिए रवाना होते हुए (तस्वीर: Wikimedia Commons)

उसी शाम जापानी सेना के कुछ फौजियों ने शहर में लूटपाट मचाना शुरू कर दिया. इसके बाद ये लोग पोर्ट ब्लेयर के अबरदीन इलाके में पहुंचने और वहां औरतों को छेड़ने लगे. जुल्फिकार नाम का एक लड़का था. उसने ये हरकतें देखी तो घर से अपनी बीबी गन ले आया. उसने हवा में कुछ फायर किए ताकि जापानी अपनी हरकतें बंद कर दें. जापानी भाग गए. लेकिन कुछ ही देर में पूरी जापानी फौज ने शहर पर घेरा डाल दिया. उनकी मांग थी कि उस लड़के को उनके सामने लाया जाए. ज़ुल्फ़िकार भाग खड़ा हुआ. इसके बाद जापानी सेना ने लोगों को टॉर्चर करना शुरू किया. धमकी दी कि लड़के को पेश नहीं किया तो पूरा शहर जला देंगे.

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अगली सुबह लड़के को पेश किया गया. उसे बेरहमी से मारा गया. उसके हाथ-पांव तोड़कर उसकी हत्या कर दी गई. पोर्ट ब्लेयर जाएं तो एबरडीन बाजार के पीछे आज भी ज़ुल्फ़िकार की मजार मौजूद है. ज़ुल्फ़िकार की मौत से पूरा शहर सहमा हुआ था. इस दरिंदगी से बचने के लिए पीस कमिटी का गठन हुआ, जिसे लीड कर रहे थे डॉक्टर दीवान सिंह. दीवान सिंह हिमांचल के सोलन के रहने वाले थे. आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के चलते अंग्रेज़ों ने उन्हें रंगून भेज दिया था. जहां से वो अण्डमान आ गए. यहां उन्हें इंडिया इंडिपेंडेंस लीग (IIL), जिसका गठन रास बिहारी बोस ने किया था, उसके अण्डमान चैप्टर का अध्यक्ष बनाया गया. उन्होंने लोगों के हकों के लिए आवाज उठाई लेकिन कोई असर नहीं हुआ.

सरेआम तलवार से सर काट डाला 

 AG बर्ड नाम का एक अंग्रेज़ अधिकारी जेल में बंद था. उस पर जासूसी का इल्जाम लगा तो जापानी सेना के कर्नल बुको के सरेआम अपनी तलवार से उसका सर काट डाला. नजीर पेश करने के लिए बर्ड का सर एक पेड़ से लटका दिया गया. डॉक्टर दीवान सिंह ने उसका सर उतरवा कर ईसाई तरीके से उसका अंतिम संस्कार करवाया. ये बात जापानियों को नागवार गुजरी.

Netaji bose
अण्डमान जेल में नेताजी सुभाष चंद्र बोस (तस्वीर : Netaji Research Bureau)

300 स्थानीय लोगों को जेल में डाल दिया गया. इन पर भी जासूसी का इल्जाम था. नारायण राव जिन्हें शहर का नया SP बनाया गया था, DSP इत्तर सिंह समेत सात लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी. इंडियन इंडिपेंडेंस लीग जो अब तक देश की आजादी के लिए काम कर रही थी, डरकर उन्होंने भी अपने सम्मलेन बंद कर दिए. 1943 में जापानी सेना ने एक नए कमांडर को अण्डमान भेजा, कर्नल जोकी रेनूसाकाई. रेनुसाकाई इससे पहले नानकिंग में तैनात था, जहां उसने कोरियाई लोगों पर भयंकर अत्याचार किया था.

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बहरहाल कर्नल जोकी रेनूसाकाई के आने के बाद जापानी सेना के अत्याचारों में और बढ़ोतरी हो गई. शहर में एक लैंडिंग पोर्ट बनना था. इसके लिए स्थानीय लोगों से बंधुआ मजदूरी कराई जाती जो इंकार करता उसे जेल में डाल दिया जाता. इस तरह रेनूसाकाई के आने के तीन महीनों के अंदर 600 लोगों को जेल में डाल दिया गया. जिनमें से एक डॉक्टर दीवान सिंह भी थे.

डॉक्टर दीवान सिंह की हत्या 

डॉक्टर दीवान के बेटे मोहिंदर सिंह ने अपने पिता की याद में द ट्रिब्यून में एक लेख लिखा है. इसमें मोहिंदर सिंह लिखते हैं कि झूठा कन्फेशन निकलवाने के लिए लोगों को टॉर्चर किया गया. इसके बाद उनसे खुद अपनी कब्र खुदवा कर उन्हें कमर तक जमीन में गाड़ दिया जाता. जापानी सैनिक अपनी बन्दूक से उनकी आंखों, गर्दन, पीठ पर वार करते, और आखिर में उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया जाता.

Subhas Chandra bose
अण्डमान में आजाद हिन्द फौज का अवलोकन करते हुए (तस्वीर:  Netaji Research Bureau)

जब 7 लोगों की इस प्रकार हत्या हुई तो दीवान सिंह स्थानीय गवर्नर और जापानी सेना के वाइस एडमिरल से मिले. लेकिन शिकायत सुनने के बजाय जापानियों ने पीस कमिटी को ही भंग कर दिया. और दीवान सिंह को भी जेल में डाल दिया. एक हफ्ते के भीतर उनके 200 साथी, जो INA, IIL और पीस कमिटी से जुड़े थे उन्ही भी जेल में ठूस दिया गया.

टॉर्चर से कई की मौत जेल में ही हो गयी. खुद दीवान सिंह 82 दिनों तक टॉर्चर झेलते रहे. टॉर्चर का तरीका वीभस्त था. जेल में उन्हें बिजली के झटके दिए गए. उल्टा लटककर पीटा गया. लोगों को उलटा लटकार नीचे से आग जला दी जाती, नाखून उखाड़े जाते और आग पर बैठने को कहा जाता. उनकी आखें फोड़ दी जाती. ये सब टॉर्चर झेलते-झेलते 14 जनवरी 1944 को डॉक्टर दीवान सिंह की जेल में ही मौत हो गयी.

नेताजी बोस को जापानी बर्बरता का पता नहीं था? 

दीवान सिंह और उनके साथी जब जेल में बंद थे, उसी दौरान नेताजी भी पोर्ट ब्लेयर आए. वो दो दिन यहां रुके लेकिन न उन्हें जेल में किसी से मिलने दिया गया, न स्थानीय लोगों से बात करने दी गई. नेताजी इस बात से अनजान थे या उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया, कहना मुश्किल है. क्योंकि इन तीन सालों में जापानी सेना ने जो कुछ किया, जाते-जाते उन्होंने वो सारे दस्तावेज़ जला डाले. इस दौर की आपबीती का जिक्र सिर्फ कुछ किताबों में मिलता है. इनमें से एक है, द अण्डमान इंटरल्यूड जिसे एक अंग्रेज़ अफसर ने लिखा था. इसके अलावा एक स्थानीय निवासी रामा कृष्ण ने अपनी किताब में इस दौर का लेखा-जोखा दिया है.

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अंडमान द्वीप समूह में पोर्ट ब्लेयर में उतरने वाले मित्र देशों की सेना के पहले सदस्यों का स्थानीय आबादी द्वारा स्वागत किया गया (तस्वीर: Wikimedia Commons)

मोहिंदर सिंह ने सालों बाद जब अपने पिता की कहानी जानने की कोशिश की तो उन्हें इन वारदातों का पता चला. मोहिंदर सिंह लिखते हैं कि स्थानीय लोग नेताजी से नाराज थे, और उन्हें लगता था उनके लीडर ने उनका साथ नहीं दिया. बहरहाल नेताजी के जाने के बाद भी जापानियों की बर्बरता कायम रही. जवान लड़कियों और औरतों को अफसरों के पास जिस्म फरोशी के लिए भेजा जाता. इसके अलावा कोरिया से जहाज में भरकर औरतें जाई जाती, जिन्हें कम्फर्ट वूमेन कहा जाता था. जापानी सरकार को इसकी पूरी जानकारी थी, मतलब असल में ये स्टेट पालिसी थी कि सैनिक औरतों को अपनी हवस के लिए इस्तेमाल करें.

दिसंबर 1943 के बाद आधिकारिक रूप से आजाद हिन्द सरकार का गठन हो चुका था. लेकिन असली ताकत जापानियों के हाथ में थी. आजाद हिन्द सरकार में अण्डमान के गवर्नर रहे AD लोगनाथन ने इस बात की तस्कीद भी की. WW2 के खात्मे के बाद जब उनसे पूछताछ की गई तो उन्होंने बताया कि उनके पास सिर्फ शिक्षा का जिम्मा था. पुलिस बल और सरकार के दूसरे डिपार्टमेंट्स पर पूरी तरह जापानियों का कंट्रोल था. और उन्होंने INA या IIL की कोई परवाह नहीं थी.

नेताजी के जाने के सिर्फ एक महीने बाद की बात है. जब कुछ लोगों ने जापानी बर्बरता के खिलाफ आवाज उठाई तो हम्फ्रीगंज में 44 लोगों को एक साथ खड़ा कर भून डाला गया. उन पर जासूसी का आरोप था. और ये सभी लोग IIL के मेंबर थे.

सैकड़ों भारतीयों को समंदर में डाल दिया 

इस बीच मार्च 1944 में जापानी फौज ने मणिपुर के रास्ते भारत में घुसने की कोशिश की. इस लड़ाई को बैटल ऑफ़ इम्फाल के नाम से जाना जाता है. इस युद्ध में जापानी सेना की हार हुई. और आज ही के दिन यानी 19 अगस्त को उत्तर पूर्व भारत से जापान की सेना को पूरी तरह खदेड़ दिया गया. अण्डमान अब भारत में जापान का आख़िरी स्टेशन था. और द्वितीय विश्व युद्ध भी अपने अंतिम चरण की और बढ़ने लगा था.

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जापानी फौज सरेंडर करते हुए (तस्वीर: Wikimedia Commons)

1945 आते-आते अण्डमान में अनाज की कमी होने लगी थी. सेना के लिए अनाज कम पड़ने लगा तो जापानियों ने एक रास्ता निकाला. उन्होंने करीब 500 से 1500 लोगों को एक नाव में बिठाया और उन्हें दक्षिणी अण्डमान के लिए रवाना कर दिया. उनसे कहा गया कि वहां जाकर वो खेती करें और आराम से रहें. इसके बाद उन्हें हेवलॉक नाम के एक द्वीप तक ले जाया गया. जब ये लोग अण्डमान से 70 किलोमीटर की दूरी पर थे, इन्हें समुन्द्र में कूदने के लिए कहा गया. जो नहीं माने उन्हें तलवार और बन्दूक से मारकर, समुन्द्र में डाल दिया गया. कुल 250 लोग तैरकर किनारे तक पहुंचे. बाकी डूब कर मर गए. जो बचे, वो भी भूख और प्यास से मारे गए. 4 दिन बाद इनमें से एक आदमी वापिस लौटने में सफल हुआ. मुहम्मद सौदागर ने वापिस आकर पूरी कहानी बताई.

इसके बाद भी जापानी सेना का अत्याचार लगातार जारी रहा. उन्होंने 900 लोगों को एक दूसरे द्वीप पर ले जाकर पेड़ से बांध दिया. इन पर गोलियां चलाई गई, और बाद में उन पर पेट्रोल छिड़ककर जला डाला. नरसंहार की इन घटनाओं के अलावा गावों, सड़कों पर हजारों लोग मारे गए. मोहिंदर सिंह लिखते हैं की तब अण्डमान की जनसंख्या 40 हजार के करीब थी. और जब तक जापानी शासन ख़त्म हुआ, इनमें से सिर्फ 10 हजार बचे थे. यानी 30 हजार लोगों को 3 सालों में मार डाला गया था.

इस सब के चलते अण्डमान की जनता में जापानियों के प्रति के भयंकर गुस्सा था. इसलिए 15 अगस्त 1945 को जब HMS सैंडबार नाम का ब्रिटिश युद्धपोत पोर्ट ब्लेयर पहुंचा तो लोगों ने उसका स्वागत किया. द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था. 15 अगस्त 1945 को वाइस एडमिरल टीज़ो हारा और मेजर जनरल टमेनोरी साटो ने 1/7 राजपूत राइफल्स के कर्नल नाथू सिंह के सामने हथियार डाल दिए. इसके तीन महीने बाद 116 इंडियन इन्फेंट्री ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर JA सलोमोन्स और ICS अफसर ‘के पैटरसन’ अण्डमान पहुंचे. और 7 अक्टूबर 1945 को उन्होंने जिमखाना ग्राउंड में जापानी फौज का आत्मसमर्पण स्वीकार किया. 

वीडियो देखें- फ्रेंच सरकार पॉन्डिचेरी छोड़ने के लिए क्यों तैयार नहीं थी?

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