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हुक्का पिलाओ, बोलकर 931 लोगों का मर्डर करने वाले ठग की कहानी

असली ठगों का इतिहास जो काली की पूजा करते थे. और लोगों को मारकर लूटना अपना पेशा समझते थे. इशारों के लिए ठगों ने अपनी अलग भाषा बनाई हुई थी. जिसे रामसी कहा जाता था.

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behram khan
बहराम खां जो एक समय हत्याओं का गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज़ हो गया था (तस्वीर: Getty)
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17 जून 2022 (Updated: 17 जून 2022, 10:49 IST)
Updated: 17 जून 2022 10:49 IST
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1839 की गर्मियां. महारानी विक्टोरिया को पता चला कि एक किताब पब्लिश होने वाली है. खास बात ये थी कि इसमें भारत की कहानी थी. विक्टोरिया अपने साम्राज्य के सुदूर कोनों के बारे में बड़ी दिलचस्पी रखती थीं. इसलिए उन्होंने पब्लिशर को बुलाकर किताब के बारे में पूछा. तुरंत किताब के पहले दो चैप्टर महारानी के आगे पेश किए गए. 
 
सिर्फ दो चैप्टर पढ़के ही महारानी के होश फाख्ता थे. इसमें कहानी थी एक कातिल की, जिसने 900 से ज्यादा लोगों का बेहरमी से खून कर डाला था. साथ ही जिक्र था एक गिरोह का, जो एक देवी की पूजा किया करता था. और देवी को चढ़ावे में खून की भेंट दी जाती थी. अक्टूबर महीने में पूरी किताब छपी. और पहली एंग्लो इंडियन बेस्ट सेलर बन गई. इस किताब ने एक काम और किया. वो ये कि अंग्रेज़ी शब्द कोष में एक नया शब्द जोड़ दिया, ‘ठग’.

कौन थे ये ठग?

साल 1810 की बात है. विलियम बेंटिक मद्रास के गवर्नर हुआ करते थे. आए दिनों उनके पास खबर आती थी कि राहगीर गायब हो रहे थे. इक्का दुक्का घटनाएं होना आम थीं, लेकिन धीरे-धीरे ख़बरें आने लगी कि कारवां लुट रहे हैं. और मामला केवल लूट का नहीं था. जिन लोगों को लूटा जाता, उनका कुछ अता पता भी नहीं मिलता. ऐसे में उस साल ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को अपने सिपाहियों के लिए एक एडवाइजरी जारी करनी पड़ी कि रास्ते में डकैतों से सावधान रहें. लेकिन जैसे जैसे वक्त बीता, डकैती की वारदातें बढ़ती गयी. 

 विलियम हेनरी स्लीमैन और विलियम बेंटिक (तस्वीर : Wikimedia Commons)

 तब तक सूरत और बॉम्बे में अफीम के कारोबार के केंद्र बन चुके थे. अफीम का पैसा राजपुताना, मालवा तक पहुंच रहा था. लम्बी दूरी तक चांदी और सोने के सिक्के ले जाने के लिए ख़ास लोग होते थे. जो अक्सर भिखारी का भेष लेकर चलते, ताकि किसी को शक न हो. जब इन लोगों के गायब होने की ख़बरें आने लगी तो कंपनी बहादुर पर दबाब पड़ा कि कोई कदम उठाएं. साल 1828 में विलियम बेंटिक को भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया. उन्होंने भारत में सामजिक सुधार के लिए कुछ कदम उठाए, और सती प्रथा के खिलाफ पहली बार क़ानून बनाया.
 
इसके बाद बेंटिक ने राहगीरों के साथ होने वाली डकैती की तरफ ध्यान दिया. इस काम की जिम्मेदारी सौंपी गयी, विलियम हेनरी स्लीमैन को. 1835 में स्लीमैन के हाथ लगा इस डकैती गिरोह का एक शख्स. नाम था आमिर अली. आमिर ने स्लीमैन को ठगी के धंधे के बारे में बताया. ये लोग अपने नियम कानूनों के साथ एक गिरोह में रहते थे, और इन्हें ठग बुलाया जाता था. पहले पहल को स्लीमैन को विश्वास नहीं हुआ कि इतने बढ़े पैमाने पर व्यवस्थित तरीके से ये काम किया जा रहा था. तब आमिर अली स्लीमैन को एक गांव के पास ले गया. वहां करीब 100 लोगों को मार कर उनकी लाश को जमीन में गाढ़ दिया गया था. ये वही राहगीर थे जो पिछले कुछ वक्त में गायब हुए थे. इसके बाद आमिर ने स्लीमैन को ठगों की पूरी कहानी बताई. 

किसको निशाना बनाते थे ठग? 

स्लीमैन के अनुसार ठगों का एक गिरोह हुआ करता था. इन लोगों की अपनी धार्मिक मान्यताएं रीति रिवाज, पूजा पद्दति हुआ करती थी. ऐसा नहीं था कि ये गरीब लोग थे जो मजबूरी में ऐसा कर रहे थे. नहीं, ये लोग ठगी को अपना व्यवसाय मानते थे. गिरोह में हिन्दू-मुसलमान और अलग-अलग जातियों के लोग हुआ करते थे. कोई अमीर हुआ करता था, तो कोई खाना बदोश. सभी लेकिन एक ही देवी की पूजा किया करते थे. देवी काली की. 

1865 में पेशावर में ली गयी एक तस्वीर (तस्वीर:Getty)

ठगी की शुरुआत एक खास मौसम में हुआ करती थी. किसी शुभ संकेत को देखकर काम शुरू होता, मसलन बिल्लियों का झगड़ना, क़व्वे की आवाज़ आदि. एक गिरोह में 30 से लेकर 50 लोग तक होते. इन लोगों का निशाना अक्सर तीर्थयात्री होते. जैसे ही शिकार की पहचान होती, ये लोग उस कारवां के आगे पीछे हो लेते. और फिर धीरे-धीरे, एक-एक कर, उस कारवां से जुड़ते जाते. 

पोशाक आम लोगों जैसी होती, इसलिए किसी को कोई शक भी नहीं होता. एक बार कारवां से जुड़ जाने के बाद ये लोग उन्हें अपनी बातों में फंसकर मेलजोल बढ़ाते और उनका भरोसा जीत लेते.  कई कई दिन तक इंतज़ार किया जाता, ताकि लोगों को इन ठगों पर भरोसा हो जाए. उसके बाद कोई ठीक-ठाक जगह देखकर ये लोग अपने काम को अंजाम दे डालते.

क्या था ठगी का तरीका?

कारंवा के सबसे आगे ठगों का एक दस्ता रहता. एक बार निशाने की पहचान हो जाने पर कारवां में शामिल एक ठग आगे वाले दस्ते को बताता कि कितने लोगों के लिए कब्र खुदनी है. इसके बाद आगे वाला दस्ता खुदाई के काम में लग जाता. आपस में इशारे के लिए रामसी नाम एक खास कोडेड भाषा का इस्तेमाल किया जाता था. रामसी में कब्र को बेल कहा जाता था. और बेल खोदने के लिए एक खास कुदाल का इस्तेमाल होता, जिसे कस्सी कहा जाता था. ठग अपने साथ एक छोटा सा झोला लेकर चलते, जिसे लुटकुनिया कहते थे.

ठगी में इस्तेमाल होने वाला पीला रुमाल और सिक्का (तस्वीर: Getty)

बाक़ायदा कब्र खोदने से पहले एक पूजा भी होती थी. और इसके लिए कस्सी को गुड़, दही और शराब से बारी-बारी नहलाकर उसमें पान और फूल चढ़ाए जाते. इसके बाद कस्सी को टीका लगाकर एक नारियल फोड़ा जाता. और नारियल फूटने पर सभी ठग, चाहे हिंदू हों या मुसलमान 'जै देवी माई की' बोलते. इसके बाद सभी लोग बारी बारी कब्र खोदते. मरे हुए लोगों को एक ही कब्र में डाला जाता था, इसलिए क़ब्रें गहरी खोदी जाती. और वक्त आने पर आड़ा तिरछा कर उनमें लाशों को डाल दिया जाता. 
 
कारवां के सबसे पीछे भी एक गिरोह चलता था जिसका काम था ये देखना की पीछे से कोई आ तो नहीं रहा. कोई ख़तरा दिखा तो “लुचमुन सिंह आ गया”. इस कोड वर्ड का इस्तेमाल होता था. भागने के लिए ‘लोपी खान आ गया’ बोला जाता था. 

'हुक्का पी लो' 

कुछ दिन बाद जब एक अकेली सुनसान जगह मिलती तो ये लोग हमला करते. जब शिकार का वक्त आता तो उसे झिरनी कहा जाता था. झिरनी के लिए अक्सर ‘सुरती ख़ा लो’, ‘हुक्का पिलाओ’, ऐसे इशारों का इस्तेमाल होता. जैसे ही ठगों का सरदार ये वाक्य बोलता, शिकार पर हमला हो जाता. हमले के लिए ये लोग एक पीले रूमाल का इस्तेमाल करते. जिसमें गांठ बांधकर एक सिक्का लगा होता था. रूमाल को शिकार के गले में डालकर मरोड़ा जाता, जिससे दम घुटने से उसकी मौत हो जाती. 

ठगों का लोगों को मारने का तरीका (तस्वीर: Wikimedia Commons)

ये लोग किसी और हथियार का इस्तेमाल नहीं करते थे. इसकी एक वजह थी एक पुराना मुग़ल क़ानून. जिसके तहत खून बहाने पर मौत की सजा मिलती थी. एक और कारण ये था कि ठग यूं ही खून बहाकर देवी काली को नाराज़ नहीं करना चाहते थे. 
 
ख़ैर, मुसाफ़िरों की हत्या कर ये लोग उनका सब कुछ लूट लेते. इसके बाद लाशों को एक के ऊपर एक कब्र में डाल दिया जाता. कब्र को मिट्टी से ढककर उसके ऊपर झाड़ियां लगा दी जातीं. इस तरह ये लोग एक पूरा कारवां ग़ायब कर देते. फिर खुद भी ग़ायब हो जाते और किसी को भनक तक नहीं लगती. 
 
ठगों में सबसे कुख्यात जिस ठग का नाम था, वो था, बहराम ख़ां. जिसका पता स्लीमैन को आमिर अली से चला था. 1790 में बहराम ख़ां ने ठगी की दुनिया में कदम रखा और अगले के दशक में उसने 2 हजार ठगों का एक ग्रुप बना लिया था. आमीर अली की शिनाख्त पर 1838 में बहराम ख़ां को पकड़ा गया. तब तक वो 936 लोगों का क़त्ल कर चुका था. हालांकि कुछ रिकॉर्ड में ये भी दर्ज़ है कि उसने सिर्फ 140 लोगों की हत्या की थी और बाकी हत्याओं में वो सिर्फ मौजूद था. इन हत्याओं के चलते उसका नाम दुनिया के सबसे खूंखार सीरियल किलर के रूप में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज़ हुआ.

कैसे हुआ ठगी का खात्मा? 

गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक ने ठगों से निपटने के लिए एक नया डिपार्टमेंट बनाया, ठगी और डकैती डिपार्टमेंट. डकैत इस मामले में अलग थे कि वो लोगों को जान से नहीं मारते थे. 1835 में विलियम स्लीमैन को इस डिपार्टमेंट का हेड बनाया गया. स्लीमैन ने ठगों को पकड़कर, यातना या लालच देकर जानकारी इकठ्ठा की. कुछ ठगों को मुखबिर बना लिया गया. अगले दो सालों में ठगों के पूरे नेटवर्क का पता लगाकर उनमें से अधिकतर को जेल में डाल दिया गया. 

काली की पूजा करता ठगों का एक समूह (तस्वीर: Wikimedia Commons)

1837 में 412 ठगों को फांसी दी गयी. और 87 को आजीवन कारावास. इसके अलावा हजार के करीब ऐसे थे जिसमें दूर टापू पर ले जाकर छोड़ दिया गया. ताकि वो भारत न लौट सकें. साल 1939 में बहराम खां को फांसी दे दी गई. इसी साल आज ही के दिन यानी 17 जून को विलियम बेंटिक का भी निधन हो गया. 
 
1870 तक ठगों का नामों निशान ख़त्म हो चुका था. लेकिन ठगी के चलते ब्रिटिश सरकार एक काला क़ानून भी लाई. क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट, जिसमें कुछ विशेष जातियों को पहले ही मुजरिम घोषित कर दिया गया. इस क़ानून के बारे में हमने आपको 12 अक्टूबर के एपिसोड में बताया था. ठगी और डकैती डिपार्टमेंट को 1904 में बदलकर सेंट्रल क्रिमिनल इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट यानी CID बना दिया गया. पॉपुलर कल्चर में ठग शब्द अंग्रेज़ी भाषा से भी जुड़ा और 21 वीं सदी में ये ठग लाइफ के नाम से हम सबसे सामने मौजूद है. 

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