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सिख साम्राज्य के आखिरी महाराजा को क्यों कहा गया ‘द ब्लैक प्रिन्स’?

महाराजा रणजीत सिंह के सबसे छोटे बेटे दिलीप सिंह को पांच साल की उम्र में सिख साम्राज्य की गद्दी पर बिठा दिया गया

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सिख साम्राज्य के आखिरी राजा दिलीप सिंह जिन्हें लंदन भेज़ दिया गया (तस्वीर: getty)
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29 मार्च 2022 (Updated: 29 मार्च 2022, 11:42 IST)
Updated: 29 मार्च 2022 11:42 IST
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अंग्रेज़ों ने जब सिख साम्राज्य को अपने कब्ज़े में किया तो एक ख़ास चीज पर उनकी नज़र थी. कोहिनूर हीरे पर. जिसके किस्से महारानी विक्टोरिया तक भी पहुंचे थे. 29 अक्टूबर के तारीख के एपिसोड में हमने आपको कोहिनूर की कहानी सुनाई थी. 1849 में सिख साम्राज्य के खात्मे के बाद ही कोहिनूर अंग्रेज़ों के हाथ आ गया था. लेकिन रानी विक्टोरिया के पास ये पहुंचा साल 1852 में. कोहिनूर को तराश कर उसकी कटिंग की गई. ताकि उसे ताज में पिरोया जा सके. उसकी नुमाइश लगाई गयी ताकि ब्रिटेन के उच्च घराने उसे देख सकें. लेकिन अगले 2 साल तक रानी कोहिनूर को पहनने से इंकार करती रही.
सिख साम्राज्य के आख़िरी महाराज दिलीप सिंह की कहानी. जिन्हें छोटी सी उम्र में अपनी मां से अलग कर दिया गया. अपने धर्म अपने, इतिहास से अलग कर दिया गया. ब्रिटिश तौर तरीकों की ट्रेनिंग दी गयी ताकि दुनिया में शाही परिवार की दरियादिली दिखाई जा सके. लेकिन अपनी मां से सिर्फ डेढ़ मिनट की मुलाक़ात ने दिलीप को वो सब कुछ याद दिला दिया, जिसे ब्रिटिश चाहते थे कि वो भूल जाएं. महाराज रणजीत सिंह के बाद 19 वीं सदी के पूर्वार्ध तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का लगभग पूरे भारत पर कब्ज़ा हो चुका था. सिवाय उत्तर में सिख साम्राज्य के. वहां महाराजा रणजीत सिंह का राज था. और उन्हें शेर--ए-पंजाब के नाम से जाना जाता था. अपने काल में उन्होंने सिख साम्राज्य को काबुल तक फैलाया था. और अंग्रेज़ चाहकर भी इस हिस्से पर कब्ज़ा नहीं जमा पा रहे थे. साल 1839 में उनकी मृत्यु के बाद सिख साम्राज्य कमजोर हुआ.
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1849 में 10 साल के महाराजा दिलीप सिंह को गद्दी से हटाकर अंग्रेजों ने सिख साम्राज्य पर एकाधिकार जमा लिया (तस्वीर: getty)


सत्ता के लिए शुरुआती खींचतान के बाद रणजीत सिंह के सबसे छोटे बेटे दिलीप सिंह को गद्दी पर बिठाया गया. उनकी मां महारानी जिन्द कौर राजकाज का काम संभालने लगी. अंग्रेज़ों ने सिख साम्राज्य के कमजोर होने का फायदा उठाया और 1845 में शुरुआत हुई पहली एंग्लो सिख वॉर की. इस जंग में हार के बाद जम्मू कश्मीर सहित सिख साम्राज्य का एक बड़ा हिस्सा अंग्रेज़ों के अधीन हो गया.
साल 1848 में शेर सिंह और छत्तर सिंह के नेतृत्व में सिखों ने विद्रोह की कोशिश की. ब्रिटिश कम्पनी और सिख सेना के बीच 1849 में चिल्लियां वाला का युद्ध हुआ. इसके बारे में हमने आपको 13 जनवरी के एपिसोड में बताया था. इस जंग के बाद सिखों ने पकड़े गए अंग्रेज़ सिपाहियों को 10-10 रूपये देकर घर भेजा था. जंग की पूरी कहानी सुनने के लिए डिस्क्रिप्शन में दिए लिंक पर जाकर क्लिक करें. चिलियांवाला के बाद ब्रिटिश और सिख फौज आमने सामने आई गुजरात में. लेकिन इस जंग में सिखों को निर्णायक हार मिली और सिख साम्राज्य का अंत हो गया. द ब्लैक प्रिन्स आज ही की तारीख थी, 29 मार्च 1849 जब 10 साल के महाराजा दलीप सिंह को साम्राज्य के सिंहासन से उतार दिया गया. शीश महल में उनसे एक कागज़ पर दस्तखत करवाए गए. लाहौर के किले से खालसा झंडा उतार कर यूनियन जैक फहराया गया. और सिख साम्राज्य पूरी तरह से अंग्रेज़ों के कब्ज़े में चला गया.
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महारानी विक्टोरिया और कोहिनूर (तस्वीर: विकिपीडिया कामंस)


सिख साम्राज्य और कोहिनूर दोनों अंग्रेज़ों के हाथ आ चुके थे. लेकिन वे इतने से ही संतुष्ट न हुए. दिलीप सिंह छोटे थे, लेकिन सम्भावना था कि वो बड़े होकर सिख साम्राज्य को दुबारा हासिल करने की कोशिश करेंगे. इसलिए दिलीप सिंह को उनकी मां जिन्द कौर से अलग कर दिया गया.
इसके बाद उन्हें लाहौर से दूर फतेहगढ़ भेज दिया और आर्मी के सर्जन जॉन स्पेंसर लोगन और उनकी पत्नी के सुपुर्द कर दिया गया. ये निर्देश दिया गया कि वो इन दोनों को ही अपने माता-पिता की तरह समझे. ये इलाका तब ब्रिटिश परिवार के रहने की जगह होती थी. इसलिए सुनिश्चित किया गया कि दिलीप सिंह अपनी परंपरा, अपना इतिहास भूलकर पूरी तरह से ब्रिटिश तौर तरीको में ढल जाएं. इसी दौरान उन्होंने ईसाई धर्म भी अपनाया जब उनकी उम्र सिर्फ 15 साल थी.
साल 1854 में दिलीप सिंह को ब्रिटेन भेजा गया. महरानी विक्टोरिया के पास. वहां लोगों ने उन्हें नाम दिया 'द ब्लैक प्रिन्स'. कोहिनूर जुलाई की उस शाम बकिंघम पैलेस में रानी विक्टोरिया अपने ड्राइंग रूम में बैठी हुई थी. रानी को उस रोज़ किसी ख़ास मेहमान का इंतज़ार था. सामने ब्रश लेकर खड़ा था एक पेंटर. नाम था फ़्रांज ज़ेवर विंटरहाल्टर. विंटरहाल्टर को खास बेल्जियम की रानी के रेकमेंडेशन पर नौकरी पर रखा गया था. राजमहल की सभी आधिकारिक तस्वीर विंटरहाल्टर ही बनाया करता था. उस रोज़ जब विंटरहाल्टर को बुलाया गया तो उसे लगा राजपरिवार के किसी मेंबर की तस्वीर बनानी होगी.
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फ़्रांज ज़ेवर विंटरहाल्टर द्वारा बनाई गई पेंटिंग (तस्वीर: Getty)


कुछ देर बाद जब एक 16 साल का लड़का ड्राइंग रूम में दाखिल हुआ तो विंटरहाल्टर को बड़ा अचरज हुआ. ऐसे नैन-नक्श पूरे यूरोप में उसने कभी नहीं देखे थे. सर पर पगड़ी धरे सिख साम्राज्य के आख़िरी महाराजा दिलीप सिंह रानी विक्टोरिया से मुखातिब हुए. विक्टोरिया दिलीप की एक तस्वीर बनवाना चाहती थी. ताकि उसे अपने महल में लगा सकें.
अगले दो घंटे के लिए दिलीप सिंह एक ही पोज में खड़े रहे. और विंटरहाल्टर तस्वीर बनाता रहा. ऐसा मौका उसे दुबारा न मिलने वाला था. इसलिए अपनी कल्पना से उसने दिलीप सिंह को एक काल्पनिक बैकग्राउंड में भारतीय पोशाक पहने हुए पेंट किया.
तस्वीर बनकर तैयार हुई. और दिलीप दुबारा रानी के पास पहुंचे. उन्होंने देखा विक्टोरिया के बगल में एक बक्सा रखा हुआ है. विक्टोरिया ने बक्सा खोला तो अंदर कोहीनूर था. विक्टोरिया को उम्मीद थी कि कोहीनूर देखकर दिलीप खुश होंगे. लेकिन खुश होने के बजाय दिलीप का चेहरा उतर गया. कोहीनूर अब पहले जैसा नहीं रह गया था. उसे काटा जा चुका था.
दिलीप ने कोहीनूर उठाया, उसे खिड़की के पास ले गए और धूप में देखा. रॉयल कलेक्शन ट्रस्ट की वेबसाइट के अनुसार इसके बाद उन्होंने रानी को कोहीनूर भेंट किया और बोले, यॉर मेजेस्टी, मेरे लिए ये बहुत सम्मान की बात है कि मैं ये हीरा आपको तोहफ़े में दूं.
दरअसल दिलीप की छोटी उम्र में मां के बिछड़ने का गिल्ट विक्टोरिया को हमेशा सालता रहा. दो साल पहले ही कोहिनूर उनके पास आ चुका था. लेकिन उन्होंने कभी भी उसे पहना नहीं. कम से कम सार्वजानिक तौर पर. ये सोचकर कि दिलीप सिंह को देखकर दुःख होगा कि उसके पिता का हीरा रानी ने पहन रखा है. उस रोज़ जब दिलीप सिंह ने खुद कोहिनूर तोहफे में दिया तो विक्टोरिया ने सावर्जनिक तौर पर कोहिनूर पहनना शुरू किया और अंतिम दिनों तक उसे पहने रखा. कोलकाता में मां से मुलाक़ात कुछ साल लन्दन में रहने के बाद साल 1857 में दिलीप सिंह ने भारत वापस जाकर अपनी मां से मिलने की इच्छा जाहिर की. पहले तो दिलीप को मजूरी मिल गयी लेकिन फिर उसी साल भारत में क्रांति हो गयी. और इस डर से कि दिलीप के जाने से पंजाब में क्रांति और भड़क जाएगी. दिलीप का जाना कैंसिल कर दिया गया.
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महारानी जिंद कौर (तस्वीर: Getty)


इसके बाद दिलीप ने अपनी मां को खत लिखने की कई कोशिशें की. लेकिन अंगेज़ों ने ये खत उन तक पहुँचने नहीं दिए. आखिरकार साल 1961 में दिलीप को भारत आने की मंज़ूरी मिली. जिन्द कौर तब तक बूढ़ी और कमजोर हो चुकी थीं और अंग्रेज़ों को लगा अब उनसे कोई खतरा नहीं है. दिलीप के आने के लिए एक और शर्त जोड़ी गयी. वो ये कि वो पंजाब नहीं जा सकेंगे.
दिलीप कोलकाता पहुंचे. जिन्द कौर तब नेपाल में रह रही थीं. उन्हें भी कोलकाता लाया गया. कोलकाता के बंदरगाह पर कई साल बाद मां बेटे की मुलाक़ात हुई. जिन्द कौर ने जब देखा कि उनका बेटा एकदम अंग्रेज़ बन गया है तो उन्हें बढ़ा दुःख हुआ. इसी वक्त पर चीन में ओपियम वॉर चल रही थी. जिसमें भाग लेकर कुछ सिख फौजी भारत लौट रहे थे. दिलीप और जिन्द कौर जब स्टेशन पर मिले तो वहां मौजूद इन फौजियों ने जोर से नारा लगाया, जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल.
जिन्द कौर को दिलीप के साथ वापस लन्दन भेज दिया गया. 2 साल लंदन में रहने के बाद 1863 में महारानी जिन्द कौर की मृत्यु हो गयी. इन दो सालों में उन्होंने अपने बेटे को सिख इतिहास और सिख साम्राज्य के बारे में बताया . कुछ लोग मानते हैं कि अपनी मां से मिलने के बाद दिलीप सिंह ने दुबारा सिख धर्म अपना लिया था.
लंदन के अभिजात्य वर्ग के साथ रहने वाले दिलीप का मन इसके बाद लन्दन से उचट गया. उन्हें अहसास हुआ कि अंग्रेज़ों ने उन्हें अगवा किया था. और उनके पिता का साम्राज्य छीन लिया था. 1886 में उन्होंने अपने परिवार सहित भारत लौटने की कोशिश की. लेकिन अंग्रेज़ों ने उन्हें अदन में ही रोक लिया. दिलीप का परिवार इसके बाद लन्दन लौट गया. लेकिन दिलीप ने कभी ब्रिटेन की धरती पर कदम न रखने की ठानी. और वहां से सीधे पेरिस चले गए. रूस के ज़ार से मुलाक़ात और भारत लौटने की कोशिश पेरिस से उन्होंने अपने चचेरे भाई ठकर सिंह को कांटेक्ट कर पांडिचेरी जाने को कहा. दोनों की मुलाक़ात इससे पहले लन्दन में भी हो चुकी थी. ठकर सिंह पांडिचेरी पहुंचे. ये इलाका तब ब्रिटिश अधिकार में नहीं आता था. और यहां फ्रेंच कंपनी का शासन था.
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16 साल की उम्र में दिलीप सिंह (तस्वीर: Getty)


दिलीप सिंह ने ठकर सिंह को अपनी 'निर्वासित सरकार' का प्रधानमंत्री घोषित कर प्लान बनाया कि वो एक बार फिर से अपना साम्राज्य हासिल करेंगे. दिलीप सिंह ने ठकर सिंह से कहा कि वो ग्वालियर सिंधिया घराने, पटियाला के महाराज, फरीदकोद, जींद, कपूरथला के राजाओं से कांटेक्ट कर मदद मांगे. साथ ही दिलीप सिंह को उम्मीद थी कि उन्हें रूस से मदद मिलेगी. इसलिए वो सेंट पीटर्स बर्ग पहुंचे और वहां के ज़ार एलेग्जेंडर थर्ड से मुलाक़ात की.
उनसे मिलिट्री और वित्तीय सहायता मांगी. वहां से वापस लौटकर उन्होंने जार को एक पात्र भी लिखा. 10 मई, 1886 को लिखे इस पत्र में वो लिखते है “मैं 25 करोड़ भारतीयों को अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्त कराना चाहता हूं. भारत की कई रियासतें मेरे साथ हैं. मुझे 2 लाख फौज और 20 हजार मशीन गन चाहिए ताकि मैं अपने मकसद में कामयाब हो सकूं. और इसके लिए मैं आपसे मदद की उम्मीद करता हूं”
जार की तरफ से कोई जवाब नहीं आया. दूसरी तरफ पांडिचेरी में भी ठकर सिंह की हत्या कर दी गयी. जिसके पीछे ब्रिटिश जासूसों का हाथ था. जब ये खबर मिली तो दिलीप सिंह निराश हो गए. ब्रिटेन की तरफ से उन्हें मिलने वाला सालाना भत्ता भी रोक दिया गया था. इसलिए पेरिस के एक मामूली होटल में उन्हें रहना पड़ा. 21 अक्टूबर 1893 को इसी होटल के कमरे में वो मृत पाए गए. उस वक्त उनके परिवार का कोई व्यक्ति उनके साथ नहीं था. मृत्यु के बाद उन्हें ईसाई रीति-रिवाजों के साथ सेंट एंड्यूज एंड सेंट पैट्रिक चर्च लंदन में दफ़ना दिया गया.

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