The Lallantop
Advertisement

शेर-ओ-शायरी के चक्कर में मुग़लों ने दिल्ली गंवा दी

बहादुर शाह ज़फ़र की नुमाइश देखने अंग्रेज सैलानी आया करते थे.

Advertisement
Img The Lallantop
ऐ वाए इंक़लाब ज़माने के जौर से दिल्ली 'ज़फ़र' के हाथ से पल में निकल गई (पेंटिंग: ग़ुलाम अली खां)
pic
कमल
28 सितंबर 2021 (Updated: 28 सितंबर 2021, 05:59 AM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
आज 28 सितम्बर है और आज की तारीख़ का संबंध है एक बादशाह से. पहले एक सुबह का बयान-ए-हाल सुनिए. बादशाह का सपना  कुछ रातों से बादशाह को एक सपने ने परेशान कर रखा है. सपने में पुरखे रह-रह के चेतावनी दे रहे हैं,
“ज़फ़र उठ! प्लासी की जंग में मिली शिकस्त का बदला लेने का मौक़ा आ गया है.”
उठते ही ज़फ़र को अपने उस्ताद और दोस्त ग़ालिब का ख़याल आता है. वो उसका शेर याद करता है,
या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो, ये महशर-ए-ख़याल कि दुनिया कहें जिसे
महशर-ए-ख़याल- ऐसी जगह जो ख़याल के शोर से भरी हुई हो.
इन ख़्यालों की ज़ोर-आज़माइश से ज़फ़र के दिल में दबी ख्वाहिशें दुबारा ज़ोर मारने लगती हैं. कहां तो सोचा था कि दिन भर कलम और दवात में डूबा रहता, शाम को रेख्ता में शायरी की लौ जलाता. और कहां उसे दरबार और रियासत की मुश्किलें सम्भालनी पड़ रही हैं. बिस्तर से उठकर ज़फ़र अंगड़ाई लेता है. मानों दिल की ख़्वाहिशों को उंगलियों के पोरों से उड़ा देने की कोशिश कर रहा हो. ग़ालिब का एक और शेर उसकी ज़ुबान पर है,
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
शाही बिस्तर से कुछ दूर एक दोशीज़ा (लड़की) हाथ धोने का मर्तबान और पानी का जग लिए खड़ी है. एक दस्तरख़ान (मेज़पोश) बिछाकर उस पर सामान रख दिया जाता है. बादशाह अपनी आंख और बाजू गीली करने के बाद तौलिए के लिए हाथ बढ़ाता है.
Untitled Design (7)
बादशाह ज़फ़र की 'द ग्रांड मुग़ल' पेंटिंग (पेंटिंग: जोसेफ ऑगस्ट)

बादशाह की नब्ज तभी एक और नौकर बादशाह को इत्तिला करता है कि शाही डॉक्टर आ चुका है. ज़फ़र इशारे से डॉक्टर को अंदर बुला भेजता है. पर्दे चढ़ाए जाते हैं और डॉक्टर ज़फ़र की नब्ज टटोलता है. खून की रफ़्तार चंद दिनों से तेज चल रही है. लेकिन उससे भी तेज अंग्रेजों का क़ाफ़िला बढ़ा आ रहा है. ज़फ़र को इसकी खबर है. ग़ालिब एक और बार उसे याद आता है,
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल जब आंख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है.
उधर दरबार में लोगों का हुजूम अपने बादशाह का इंतज़ार कर रहा है. ज़फ़र को इस बात का अहसास है लेकिन इससे पहले कि वो दरबार को निकले, उसे हुक्के की तलब लगी है. कुछ ही दूर पर किमाम में रश्क किया हुआ तम्बाकू चढ़ाकर हुक्का तैयार किया जा रहा है.  हुक्का तैयार कर उसकी नली ज़फ़र की ओर बढ़ा दी जाती है. 80 की उम्र में भी ज़फ़र इतनी ज़ोर से कश भरता है कि हुक्के के अंगारे लाल हो जाते हैं.
ऐसे ही कुछ अंगारे ज़फ़र की आंख में भी हैं लेकिन वक्त की राख ने उन्हें ढक  दिया है. हुक्के के अंगारों से तहरीक पाकर ज़फ़र अपनी पालकी को बुलावा भेजता है. कहार आते हैं और पालकी में चढ़कर बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र दरबार की तरफ़ रुख़ करता है.
ऊपर जो आपने सुना वो आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की साल 1857 की एक सुबह का बयान है. उस दिन दरबार जाने से पहले बादशाह ज़फ़र इतनी कश्मकश में क्यों था और पूरी कहानी क्या है? अज़ दिल्ली ता पालम 23 सितम्बर के एपिसोड में हमने आपको असाये की लड़ाई के बारे में बताया था. असाये की लड़ाई दूसरी ऐंग्लो-मराठा वॉर का हिस्सा थी, जो 1805 में ख़त्म हुई. इसमें मराठाओं की बड़ी हार हुई और उन्हें रियासत के बड़े हिस्से से हाथ धोना पड़ा. 1819 में तीसरी ऐंग्लो-मराठा ख़त्म हुई और लगभग पूरे भारत पर अंग्रेजों का शासन हो गया.
यहां पढ़िए - असाये की लड़ाई में बड़ी सेना और ज्यादा तोपों के बावजूद अंग्रेज़ों से क्यों हार गए मराठे?

तब तक मुग़ल सल्तनत का सूरज भी अस्त होने की ओर बढ़ चुका था. 17वें मुग़ल बादशाह शाह आलम के दिनों से ही एक जुमला चल निकला था,
'सल्तनत-ए-शाह आलम, अज़ दिल्ली ता पालम' 
Untitled Design (6)
अकबर शाह-2 और उनके बेटे (पेंटिंग: ग़ुलाम मुर्तज़ा ख़ां)


यानी शाह आलम दिल्ली से पालम तक के ही बादशाह रह गए हैं. शाह आलम के बाद दिल्ली के तख़्त पर अकबर शाह-2 बैठे. 1837 में उनका इंतक़ाल हुआ था सवाल उठा कि गद्दी का वारिस कौन होगा. अकबर शाह-2 के सबसे बड़े बेटे का नाम था, अबु ज़फ़र. लेकिन अबु ज़फ़र का दिल कहीं और ही था. वो कहता था,
दौलत-ए-दुनिया नहीं जाने की हरगिज़ तेरे साथबाद तेरे सब यहीं ऐ बे-ख़बर बट जाएगी 
उसका दिल शेर-ओ-शायरी और ग़ज़ल में ही लगा रहता था. इसीलिए अकबर शाह-2 अपने दूसरे बेटे को बादशाह बनाना चाहता था. एक दिन किसी बात पर मिर्ज़ा जहांगीर ने लाल किले में एक अंग्रेज अधिकारी पर हाथ उठा दिया तो अंग्रेजों ने मिर्ज़ा जहांगीर को गिरफ़्तार करवा लिया. मजबूरी में ‘बहादुर शाह ज़फ़र’ उर्फ़ ‘मिर्ज़ा अबु ज़फ़र’ को दिल्ली की गद्दी पर बैठना पड़ा. उसकी ताजपोशी आज ही के दिन यानी 28 सितंबर 1837 को हुई थी. कौन जाए 'ज़ौक़'  हालांकि तब ना वो पुरानी दिल्ली बची थी ना ही मुग़ल दरबार की शान-ओ-शौक़त. 1857 में जब आज़ादी की पहली क्रांति शुरू हुई, तो उसकी आग दिल्ली तक भी पहुंची. दरबार में विद्रोहियों का हुजूम इकट्ठा हो गया. उनकी मांग थी कि बादशाह इस विद्रोह की कमान सम्भाले. 80 की उम्र पार कर चुके ज़फ़र के लिए ये एक कठिन फ़ैसला था. ये सच था कि उसे अंग्रेज हुकूमत के साये तले जीना पड़ता था. लेकिन दरबार में मिर्ज़ा ग़ालिब, इब्राहिम ज़ौक़ और मोमिन जैसे शायरों के रहते उसका दिल बहला रहता था. इससे ज़्यादा किसी चीज़ की ख्वाहिश उसे थी भी नहीं. नाम के लिए वो बादशाह था लेकिन दिल से सिर्फ़ एक शायर.
Untitled Design (2)
(बाएं से दाएं) मोमिन ख़ां ,इब्राहिम ज़ौक़ और मिर्ज़ा ग़ालिब (तस्वीर: wikimedia)


लेकिन पिछले कुछ सालों में अंग्रेजों ने इस पर भी पाबंदियां बढ़ा दी थीं. सरकारी ख़ज़ाने की चाबी भी अंग्रेज हुक्मरानों के पास थी. नतीजतन दरबार के शायरों को मिलने वाला वज़ीफ़ा बंद कर दिया गया था. कई बड़े शायर दक्षिण की ओर चले गए थे. वहां नवाबों का रुतबा कुछ बरकरार था और वजीफ़े और पेंशन की व्यवस्था हो जाती थी. फिर भी दरबार से प्रमुख शायर इब्राहिम ज़ौक़ ने 1854 में अपनी मौत तक दिल्ली में ही रहना चुना. कोई पूछता तो वो फ़रमाते,
इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़नकौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियां छोड़ कर
यानी दकन यानी दक्षिण में इन दिनों शायरों की बहुत इज्जत है. लेकिन दिल्ली छोड़कर जाने को दिल नहीं करता. 1854 में ज़ौक़ की मौत के बाद ग़ालिब को दिल्ली दरबार का प्रमुख शायर नियुक्त किया गया. ग़ालिब ने इस मौक़े पर अर्ज़ किया.
ग़ालिब वज़ीफ़ा खवार हो, दो शाह को दुआ वो दिन गए कि कहते थे, नौकर नहीं हूं मैं 
दरबार के एक और बड़े शायर मोमिन भी 1852 तक चल बसे थे. और ग़ालिब जिन्होंने कभी मोमिन के शेर,
तुम मेरे पास होते हो गोया कोई दूसरा नहीं होता 
पर कहा था कि मोमिन मेरा पूरा दीवान रखवा लें, बस ये एक शेर मेरे नाम कर दें, उन्होंने भी 1857 तक बल्लीमारां (पुरानी दिल्ली) के अपने घर में खुद को कैद कर लिया था.
ख़ैर बाग़ियों की दरख़्वास्त पर 11 मई 1857 की शाम बादशाह ज़फ़र ने क्रांति का रहनुमा होना स्वीकार कर लिया. लेकिन इसके तीन दिन बाद जब अंग्रेजों की तोपों ने आग बरसाना शुरू किया तो दिल्ली से बाग़ियों के पैर उखड़ गए. नहीं हाले-दिल्ली सुनाने के क़ाबिल बादशाह को जब लगा कि हार पक्की तो उसने अपनी जान की सलामती की कोशिशें शुरू कर दीं. उसने अपने ख़ास दरबारियों के साथ हुमायूं के मकबरे में शरण ली. हुमायूं को भी कभी ऐसे ही तख़्त से बेदख़ल होकर दर-दर भटकना पड़ा था. लेकिन ज़फ़र ना तो हुमायूं था और ना ही ये तब का हिन्दोस्तान था. अंग्रेज़ों ने जब मक़बरे को चारों तरफ़ से घेर लिया तो उसने सरेंडर करने में ही अपनी ख़ैरियत समझी.
Untitled Design (1)
न था शहर देहली, ये था चमन, कहो किस तरह का था यां अमन

जो ख़िताब था वो मिटा दिया, फ़क़त अब तो उजड़ा दयार है

(तस्वीर: wikimedia )


यहां पढ़े- 'फिरंगी मारो' कहने वाले मंगल पांडे को फांसी देने के लिए कलकत्ता से क्यों बुलाए गए जल्लाद?

बादशाहत जा चुकी थी लेकिन कलम में स्याही और रगों में खून बचा था. उसने अपना दर्द काग़ज़ पर उतारा,
नहीं हाले-दिल्ली सुनाने के क़ाबिलये क़िस्सा है रोने रुलाने के क़ाबिल
उजाड़े लुटेरों ने वो क़स्र उसकेजो थे देखने और दिखाने के क़ाबिल
न घर है न दर है, रहा इक ज़फ़र हैफ़क़त हाले-देहली सुनाने के क़ाबिल 
(क़स्र- महल)
बहादुरशाह ज़फ़र की जान बख़्श दी गई थी लेकिन उसे जहालत में रखा गया. जिस दरबार में वो कभी राजगद्दी पर बैठा करता था. वहीं उसे एक कोठरी में बंद कर दिया गया. अंग्रेज सैलानी लाल क़िला देखने आते और ज़फ़र की आख़िरी मुग़ल बादशाह का नमूना बताकर नुमाइश की जाती. दिल्ली पर क़ब्ज़े के बाद अंग्रेजों ने उसके तीन बेटों को गोली मार दी और ज़फ़र को रंगून भेज दिया. वहां 5 साल गुज़ारने के बाद 7 नवंबर, 1862 को गले में लकवा पड़ने से उसकी मौत हो गई
मरते-मरते भी ज़हन में एक आख़िरी शेर बाकी था,
कितना है बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिए,दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में.
(कू-ए-यार - प्रेमी/प्रेमिका की गली ) दिल्ली नाम का शहर हुआ करता था कभी ज़फ़र की ख्वाहिश थी कि मौत के बाद उसे दिल्ली में दफ़नाया जाए. पहले तो अंग्रेज भारत से मुग़ल सल्तनत का नामोनिशान मिटाने पे तुले थे, वो उसे दिल्ली क्यों ही भिजवाते. दूसरा कि वो दिल्ली अब अब बची भी नहीं थी कि ज़फ़र उसे पहचान पाता. जब ज़फ़र रंगून में सज़ायाफ़्ता था, दिल्ली में अंग्रेज शहर की पूरी सूरत बदल चुके थे. उन दिनों ग़ालिब के लिखे एक ख़त में इसका बयान मिलता है. जिसका अर्थ कुछ इस तरह है,
Untitled Design (4)
रंगून में बहादुर शाह ज़फ़र की एक दुर्लभ तस्वीर (तस्वीर: wikimedia)

“दिल्ली को दिल्ली बनाने वाली 5 चीजें थी. बाज़ार जामा मस्जिद का, चांदनी चौक, लाल क़िला, फूल वालों का सालाना मेला, और जमुना पुल. इनमें से कुछ भी तो बचा नहीं, सो दिल्ली भी नहीं बची. हां, इस नाम का एक शहर हुआ करता था कभी.”
1857 की क्रांति असफल रही और उसके बाद मुग़ल सल्तनत और मराठा साम्राज्य की सारी निशानियां मिटा दी गईं. मुग़लों को पानी पी-पीकर कोसने के बाद, इस पर ज़रूर गौर करिएगा कि मुग़ल विदेश से आए और हिंदुस्तानी होकर रह गए. उनके वंशज आज भी यहीं है, इसके मुक़ाबले आपको अंग्रेजों का कोई वंशज बमुश्किल ही भारत में मिलेगा. 1857 के बाद उनका एक ही उद्देश्य रहा. विक्टोरिया के ताज में लगे कोहिनूर को कैसे और पोलिश कर उसकी चमक बढ़ाई जाए.

Subscribe

to our Newsletter

NOTE: By entering your email ID, you authorise thelallantop.com to send newsletters to your email.

Advertisement