जब भारत-अमेरिका का परमाणु समझौता रोकने के लिए चीन ने बड़ी चाल चली?
2008 में लेफ्ट पार्टियों ने परमाणु डील के विरोध में मनमोहन सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था, इसे लेकर 13 साल बाद क्या बड़ा खुलासा हुआ?

70 के दशक के शुरूआती सालों की बात है, उस वक़्त भारत परमाणु अप्रसार संधि का पक्षधर था. इस संधि के तहत कुल पांच मुल्कों को ही परमाणु तकनीक विकसित करने की छूट थी. ये थे अमेरिका, सोवियत रूस, चीन, इंग्लैंड और फ्रांस. हालांकि, जवाहर लाल नेहरू के कहने के बाद डॉ होमी जहांगीर भाभा भी शांतिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु शक्ति विकसित करने लगे थे. साल 1966 में इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं, एक साल बाद ही उन्होंने परमाणु बम बनाने की दिशा में काम तेज़ कर दिया. कुछ वैज्ञानिकों को सोवियत रूस भेजा गया, जहां उन्होंने रूसी परमाणु क्षमताओं और रिएक्टरों को समझा. वहां से प्रेरित होकर भारतीय वैज्ञानिकों ने पूर्णिमा नाम से एक रिएक्टर विकसित किया, जो प्लूटोनियम यानी परमाणु बम बनाने में काम आने वाला रेडियोधर्मी पदार्थ का इस्तेमाल करता.
कुछ ही सालों में भारतीय वैज्ञानिकों ने अपनी तैयारी पूरी कर ली, लेकिन 1969 से लेकर 1971 तक समय ऐसा था, जब इंदिरा गांधी को कई मोर्चों पर लड़ाई लड़नी पड़ रही थी. इसी दौरान पार्टी में टूट हुई, बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ, राजाओं के प्रिवी पर्स बंद हुए और बांग्लादेश युद्ध हुआ. ऐसे में उन्होंने परमाणु परीक्षण को टाल दिया. हालांकि, 1971 की जंग के बाद वैज्ञानिक इंदिरा गांधी पर परमाणु परीक्षण करने के लिए ज़ोर डालने लगे.
परीक्षण करने के बाद भारत ने क्यों कहा बुद्ध मुस्कुरा रहे हैं?साल 1974 में दुनिया के कई देशों ने 37 परमाणु विस्फ़ोट किए थे. इनमें से 19 अकेले सोवियत रूस ने किए थे और 9 अमेरिका ने. फ्रांस, चीन और इंग्लैंड भी इस सूची में शामिल थे. अख़बारों में इनकी ताकत पर लेख लिखे जा रहे थे. इसी साल 18 मई के दिन, समय सुबह 8 बजकर 5 मिनट. जगह, पोखरण, जैसलमेर, राजस्थान. 107 मीटर नीचे ज़मीन में गड़ी 1400 किलो वजनी और 1.25 मीटर चौड़ी एक चीज़ तेज़ धमाके के साथ फटी और आसपास की धरती को हिला गई!

अमेरिका और बाकी मुल्कों ने कहा भारत ने परमाणु विस्फ़ोट कर दिया है. भारत ने कहा कि बुद्ध मुस्कुरा रहे हैं. दुनिया ने पूछा, कैसे? जवाब मिला कि यह शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए किया गया प्रयोग है और शांति और बुद्ध एक दूसरे के पर्यायवाची हैं, इसलिए. दुनिया ने मानने से इनकार कर दिया.
पोखरण में हुए परीक्षण से भारत अब गैर आधिकारिक रूप से उस समूह में शामिल हो गया था, जहां अब तक सिर्फ पांच देशों का राज था. ज़ाहिर है, उन्हें दिक्कत तो होनी ही थी. दुनिया भर में इस पर चर्चा होने लगी. परमाणु परीक्षण की निंदा हुई. अमेरिका ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए. कनाडा और अमेरिका ने भारत के परमाणु रिएक्टरों को दिए जाने वाले रेडियोएक्टिव ईंधन और भारी जल की सप्लाई रोक दी.

मई 1974 में ही आनन फानन परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों ने 'न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप' बनाया. और भारत को परमाणु सामग्री, उपकरण और परमाणु तकनीक निर्यात किए जाने पर रोक लगा दी. इस ग्रुप ने नियम बना दिया कि जो देश परमाणु अप्रसार संधि यानी एनपीटी पर साइन नहीं करेगा, उसके साथ परमाणु व्यापार नहीं किया जाएगा. यानी अब भारत के लिए असैन्य परमाणु सामग्री, उपकरण और तकनीक को लेकर भी दरवाजे बंद हो गए. क्योंकि उसने एनपीटी को भेदभाव पूर्ण बताते हुए उस पर साइन करने से इनकार कर दिया.
'न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप' द्वारा भारत पर लगाए गए बैन की वजह से उसे एक परमाणु शक्ति तो माना जाता था, मगर परमाणु से जुड़े बाकी मामलों में उसे अछूत माना जाता था. उसे एनपीटी का हवाला देकर परमाणु तकनीक से दूर कर दिया गया था. दरवाजे बिलकुल बंद थे, इस वजह से देश में बड़े स्तर पर बिजली का उत्पादन नहीं हो पा रहा था. भारत इस मौके की तलाश में था कि कहीं से भी इस मामले में कुछ बात बने.
अमेरिका के पास जाने से भारत क्यों डरता था?इसमें अमेरिका उसकी मदद कर सकता था, लेकिन अमेरिका को लेकर भारत का तजुर्बा कुछ ऐसा था कि सरकारें उससे हाथ मिलाने से डरती थीं. भारत के नेता उसे शक की निगाह से देखते थे. और इसी वजह से भारत से अमेरिकी की दूरियां थीं. संबंध कुछ ऐसे थे कि आज़ादी के बाद 53 साल तक अमेरिका के केवल तीन राष्ट्रपति ही भारत के दौरे पर आए.
दरअसल, अमेरिका लंबे समय से भारत को गुटनिरपेक्ष खेमे का नेता मानता था. उसका मनाना था कि भारत का झुकाव रूस की ओर है. भारत अपने अधिकांश हथियार भी रूस से खरीदता था. यही वजह थी कि शीत युद्ध के दौरान और उसके बाद के साल अमेरिका का झुकाव पाकिस्तान की ओर रहा. अमेरिका भारत की तरफ हाथ बढ़ाने से पहले पाकिस्तान से संबंधों पर पड़ने वाले असर को जरूर ध्यान में रखता था.

2004 में भारत में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन की सरकार बनी और मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने. 2005 के जुलाई महीने में उन्होंने अमेरिका का दौरा किया. इस दौरान मनमोहन सिंह ने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश की एक ऐसे मुद्दे पर सहमति ली, जिसने सभी को हैरान कर दिया. ये सहमति थी असैन्य परमाणु समझौते को लेकर. हालांकि, अमेरिका ने इसके लिए 2 बड़ी शर्तें रखीं. पहली कि भारत अपनी नागरिक और सैन्य परमाणु गतिविधियों को अलग-अलग स्थापित करेगा. दूसरी कि परमाणु तकनीक और सामग्री दिए जाने के बाद अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी यानी IAEA भारत के परमाणु केंद्रों की निगरानी करेगी.
एनपीटी पर साइन के बिना कैसे परमाणु डील हुईमनमोहन सिंह इन शर्तों पर तुरंत तैयार हो गए, होते भी क्यों न, परमाणु व्यापार को लेकर भारत का 30 साल का बनवास जो खत्म हो रहा था. लेकिन एक सवाल था कि ये सब होगा कैसे क्योंकि एनपीटी पर भारत साइन करने को तैयार नहीं था. ऐसे में 'न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप' द्वारा भारत के परमाणु व्यापार करने पर लगाया गया बैन कैसे हटागा.
अब अमेरिका का हाथ भारत के सर पर आ चुका था, जिसका लगभग हर अंतरराष्ट्रीय ग्रुप और संगठन में दबदबा बना हुआ था. 'न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप' ने अमेरिका के कहने पर भारत को परमाणु व्यापार के लिए विशेष छूट देने का ऐलान कर दिया. ये ऐलान आज ही के दिन 7 सितंबर, 2008 को हुआ था. 'न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप' से हरी झंडी मिलने के बाद 8 अक्टूबर 2008 को अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर की औपचारिकता पूरी की.

लेकिन, इस सब के बीच एक सवाल ये कि अमेरिका की भारत को लेकर कूटनीति में अचानक से 180 डिग्री का टर्न क्यों आया? कहा जाता है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में न कोई स्थायी मित्र होता है और न ही कोई स्थायी शत्रु. कुछ स्थाई होता है तो वो हैं 'हित'. हित पूरे होने चाहिए. अमेरिका भी यहां अपने कुछ हितों को साध रहा था.
अमेरिका की सबसे बड़ी चिंता थी चीन की बढ़ती हुई सैन्य ताकत. भारत के जरिए वह भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन के करीब अपनी पैठ बढ़ाना चाहता था. इसके अलावा उसने भारत के सामने जो 2 शर्तें रखीं थीं, उससे अमेरिका का ही नहीं, बल्कि दुनिया का भारत के परमाणु कार्यक्रम को लेकर डर खत्म हो रहा था.
जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु करार का तगड़ा विरोध कर रहा था, वहीं भारत के अंदर विपक्षी पार्टी बीजेपी. लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार के लिए परेशानी बीजेपी नहीं, लेफ्ट पार्टियां थीं. वही लेफ्ट पार्टियां जो यूपीए गठबंधन में शामिल थीं.
लेफ्ट सरकार से किस बात पर समर्थन वापस ले लियालेफ्ट पार्टियों का कहना था कि ये समझौता भारत की ऊर्जा सुरक्षा की ज़रूरतों पर ख़रा नहीं उतरता. इस समझौते पर अमल करने से देश की स्वतंत्र विदेश नीति पर असर पड़ेगा और देश की कूटनीतिक स्वायत्तता पर अमेरिका की छाप पड़ेगी. ये समझौता भारत की संप्रभुता और सामरिक आजादी के लिए भी खतरा है. वामपंथी पार्टियों के मुताबिक ये अमेरिका की तरफ से फेंका गया एक जाल है, जिसका मेन मकसद भारत को सैन्य और रणनीतिक स्तर पर खुद से बांधना है.

लेफ्ट ने इस डील का इतना तीखा विरोध किया कि सरकार से समर्थन तक वापस ले लिया. उस समय लेफ्ट के पास तकरीबन 60 सासंद थे. ऐसे में लेफ्ट पार्टियों के इस निर्णय ने मनमोहन सिंह के आगे बड़ी परेशानी खड़ी कर दी. सरकार को सदन में विश्वास मत से गुजरना पड़ा, जहां बीजेपी और लेफ्ट पार्टियों ने मिलकर सरकार के विरोध में वोट किया. हालांकि, मनमोहन सिंह की सरकार ने 19 वोटों से यह विश्वासमत जीत लिया.
13 साल बाद हुआ बड़ा खुलासा!इस घटना के 13 साल बाद पूर्व विदेश सचिव और चीन में लम्बा समय गुजारने वाले विजय गोखले ने अपनी एक किताब - ‘द लॉन्ग गेम: हाउ द चाइनीज निगोशिएट विद इंडिया’ लॉन्च की. लॉन्चिंग के बाद इस किताब पर जमकर बवाल हुआ. दरअसल, इसमें लेफ्ट पार्टियों के मनमोहन सरकार से समर्थन वापस लेने को लेकर काफी कुछ लिखा गया था. विजय गोखले ने लिखा था,
वामपंथियों ने परमाणु डील का विरोध करने का फैसला चीन की वजह से लिया. 2008 में चीन ने भारत में लेफ्ट पार्टियों के साथ अपने करीबी संबंधों का इस्तेमाल किया. उसने भारत-अमेरिका परमाणु समझौते को तोड़ने के लिए भारत के अंदर राजनीतिक विरोध शुरू करवाया.

विजय गोखले के अनुसार, भारत की वामपंथी पार्टियां - सीपीएम और सीपीआई - के शीर्ष नेताओं ने चीनी अधिकारियों के साथ बैठक या इलाज के लिए चीन की यात्रा की, और इस यात्रा के दौरान इन्होंने चीनी अधिकारियों के साथ एक सौदे पर चर्चा की. हालांकि, लेफ्ट पार्टियों ने विजय गोखले के इन आरोपों को गलत बताकर खारिज कर दिया.
परमाणु डील से भारत को क्या फायदा मिलाअगर आज देखें तो इस पूरे मामले पर लेफ्ट पार्टियों की एक बात कुछ हद तक सच साबित हुई. वो ये कि इस डील से भारत को परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में फायदा नहीं मिलेगा. भारत-अमेरिका की इस डील को अब 14 साल बीत चुके हैं. लेकिन असैन्य परमाणु सहयोग आगे नहीं बढ़ा है. इसके बाद जो नए रिएक्टर लगाने को लेकर समझौते हुए थे, उनमें से अब तक कोई भी नहीं लग सका है. हालांकि, इस डील ने भारत के लिए दुनियाभर का परमाणु बाजार खोल दिया, जिससे उसे जरूर फायदा हुआ.
कहते हैं कि 1980 के दशक में राजीव गांधी और अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के निजी संबंध बेहद शानदार थे. लेकिन इसके बाद भी मौसम की जानकारी देने वाला सुपर कंप्यूटर तक भारत को बेचने में अमेरिका उस पर पूरा भरोसा नहीं कर पा रहा था. लेकिन, आज 2022 में न केवल भारत अमेरिका का स्ट्रैटेजिक पार्टनर है, बल्कि अमेरिका ने उसे 'नाटो' देशों जैसा दर्जा भी दे रखा है. अब तक शायद यही 2008 के समझौते का सबसे बड़ा हासिल है.
वीडियो देखें : इमरजेंसी के बाद प्रसार भारती बनाने की मांग क्यों उठी?