बंगाल की सियासत में अधिकारी परिवार का कितना अधिकार?
सुवेंदु अधिकारी और उनके परिवार का कितनी विधानसभा सीटों पर है दबदबा.
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नंदीग्राम से विधायक सुवेंदु अधिकारी. पहले तृणमूल के साथ थे. अब आ गए बीजेपी में. पत्थर फेंकने वालों पर दे दिया है एक विवादित बयान. (फ़ोटो : PTI)
सिसिर अधिकारी को तृणमूल ने बुधवार (13 जनवरी) को पूर्वी मिदनापुर ज़िला अध्यक्ष के पद से हटाया था. उसके ठीक एक दिन पहले मंगलवार को उन्हें दिघा-शंकरपुर डेवलपमेंट अथॉरिटी के अध्यक्ष के पद से भी हटा दिया गया. सिसिर अधिकारी हाल ही में तृणमूल छोड़ बीजेपी का दामन थामने वाले नेता सुवेंदु अधिकारी (Suvendu Adhikari) के पिता है. दरसल सुवेंदु पिछले साल 19 दिसंबर को केंद्रीय मंत्री अमित शाह की मौजूदगी में बीजेपी में शामिल हुए थे. उनके शामिल होने के कुछ ही दिनों के बाद उनके छोटे भाई सोमेंदु अधिकारी (Soumendu Adhikari) भी बीजेपी में शामिल हो गए थे.
आपको बता दें कि सुवेंदु के एक और भाई हैं, दिब्येंदु अधिकारी (Dibyendu adhikari) जो तामलुक लोकसभा सीट से तृणमूल सांसद है, अब तक उन्होंने किसी भी घटनाक्रम पर कुछ भी नहीं कहा है.

क्या है अधिकारी परिवार का इतिहास सिसिर अधिकारी का नाता स्वतंत्रता सेनानी परिवार से है. उनका राजनीतिक सफ़र साल 1962 में उस वक्त शुरू हुआ जब वो पहली पूर्वी मिदनापुर के बसुदेबपुर ग्राम पंचायत के प्रधान चुने गए थे. कांग्रेस से ताल्लुक़ रखने वाले सिसिर जल्द ही कानटाई म्युनिसिपलिटी के कमिशनर चुने गए. 1971 से 1981 तक वो कानटाई (Contai) म्युनिसिपलिटी के चेयरमैन पद पर बने रहे. फिर साल 1986 से लेकर 2009 तक भी ये पद उन्हीं के पास रहा. इस कार्यकाल के दौरान ही वो अपना राजनीतिक कद भी बढ़ाते चले गए.
साल 1982 में सिसिर अधिकारी ने पहली बार कांग्रेस के टिकट पर कानटाई विधानसभा सीट से चुनाव जीता था, इसके बाद 2001 और 2006 में उन्होंने इसी सीट से टीएमसी के टिकट पर जीत दर्ज की. साल 2009 में वो पहली बार लोकसभा पहुंचे और उन्हें मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार में केंद्रीय राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया.
उनके बेटे सुवेंदु अधिकारी 1995 में कांग्रेस पार्टी के टिकट पर कानटाई म्युनिसिपलिटी से काउंसलर चुने गए. 2006 में सुवेंदु ने पहली बार तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर कानथी दक्षिण सीट से विधानसभा का चुनाव जीता. उस साल वो कानथी म्युनिसिपलिटी के चेयरमैन भी बने.
उनके राजनीतिक जीवन में बड़ा मोड़ तब आया जब उन्होंने 2007 में तत्कालीन सीपीएम सरकार के भूमि-अधिग्रहण के ख़िलाफ़ "भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति" के बैनर तले आंदोलन का नेतृत्व किया. राजनीतिक विश्लेषक इस घटना को ममता बनर्जी के सत्ता तक पहुंचने के सफर का सबसे अहम हिस्सा मानते हैं.इसके बाद साल 2009 के लोकसभा चुनाव में सुवेंदु ने सीपीएम के क़द्दावर नेता लक्ष्मण सेठ को तामलुक सीट से 1,73,000 वोटों से मात दी. 2014 में सुवेंदु दोबारा चुनाव जीते, लेकिन 2016 में उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया और विधानसभा पहुंच गए. राज्य में बनी ममता बनर्जी की दूसरी सरकार में उन्हें ट्रांसपोर्ट मंत्री का पद दिया गया. इसका अलावा उन्हें और भी कई महत्वपूर्ण पद दिए गए थे.
सुवेंदु के भाई दिब्येंदु अधिकारी तामलुक लोकसभा सीट से तृणमूल सांसद है. उनका भी राजनीतिक पदार्पण कानटाई म्युनिसिपलिटी से काउंसलर पद से हुआ. 2009 में वो अपने भाई सुवेंदु की छोड़ी हुई कानथी दक्षिण सीट पर हुए उपचुनाव में जीते. फिर 2016 में तामलुक सीट पर हुए उप चुनाव में जीत दर्ज कर वो लोकसभा पहुंचे और 2019 में भी अपनी सीट बचाने में कामयाब हुए.
सुवेंदु के एक और भाई सोमेंदु अधिकारी भी कानथी म्यूनिसिपल कॉर्परेशन के चेयरमैन रह चुके हैं.

बीजेपी नेता सुवेंदु अधिकारी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ
ममता के बेहद करीबी माने जाते थे सुवेंदु और सिसिर सिंगूर और नंदीग्राम के आंदोलन की बदौलत ही ममता बनर्जी को भारी बहुमत से जीत हासिल हुई थी. नंदीग्राम आंदोलन के नेता रहे सुवेंदु ज़ाहिर तौर पर दीदी के ख़ास थे. इस वजह से उन्हें मंत्रालय और संगठन दोनों में अहम भूमिका दी गई थी. उनके पिता सिसिर और वो (सुवेंदु) तृणमूल के संस्थापक सदस्यों में से थे. सिसिर अधिकारी तो तृणमूल के उन चंद नेताओं में से थे जिन्हें मनमोहन सरकार में केंद्रीय राज्य मंत्री का पद मिला था. क्यों हुआ ममता से मोह-भंग पार्टी में इतना कद और पद दोनों मिलने के बाद भी ममता बनर्जी से मोह भंग होने के पीछे जानकर ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी को बड़ी वजह मानते हैं. पार्टी के कई नेताओं का आरोप है की अभिषेक बनर्जी को ममता का उत्तराधिकारी बनाने की सारी कोशिशें की जा रही हैं. हाल ही बीजेपी में शामिल हुए पूर्व वरिष्ठ तृणमूल नेता मिहिर गोस्वामी ने भी पार्टी छोड़ने से पहले इस बात की तरफ़ इशारा किया था. कई बाग़ी नेताओं ने तो चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर को भी इसका ज़िम्मेदार ठहराया है. उनके मुताबिक़ प्रशांत किशोर ममता के उत्तराधिकारी के तौर पर अभिषेक बनर्जी की जगह पक्की करने के लिए लाए गए हैं. कितनी सीटों पर है इनका प्रभाव? पूर्वी मिदनापुर ज़िले में अधिकारी परिवार का प्रभाव सबसे ज़्यादा है. इस ज़िले में कुल 16 विधान सभा सीटें हैं. साल 2016 के विधानसभा चुनाव में इन 16 में से 13 सीटें तृणमूल ने जीते थे, बाक़ी की तीन सीटों पर सीपीएम (CPIM) को जीत हासिल हुई थी. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल ने इस ज़िले की दोनों लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज़ की थी. यह दोनों ही सीटें अधिकारी परिवार के लोगों ने जीतीं थीं.
पूर्वी मिदनापुर से जुड़ा राज्य का पश्चिम मिदनापुर ज़िला है. इसमें कुल 13 सीटें हैं. 2016 के विधानसभा चुनाव 13 में से 12 सीट तृणमूल ने जीतीं थीं और एक सीट पर बीजेपी ने जीत दर्ज़ की थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल को भारी नुक़सान का सामना करना पड़ा था. तृणमूल के उम्मीदवार और पार्टी के वरिष्ठ नेता मानस भुइयां को बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष दिलीप के हाथों हार का सामना करना पड़ा था. हार का अंतर 88 हजार 952 वोटों का था. ऐसे में बीजेपी ने यहां अपनी पकड़ कुछ हद तक मज़बूत की है और सुवेंदु के बीजेपी में शामिल होने से तृणमूल को इन सीटों में भारी नुक़सान का सामना करना पड़ सकता है. इन दोनों ज़िलों में कुल 29 सीट हैं. अधिकारी परिवार का ममता से मोह-भंग दीदी को सत्ता पर दोबारा क़ाबिज़ होने से रोक सकता है.