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नवरात्र में मांसाहार मना, ये कहां लिखा है?

नवरात्र में मांसाहार बैन करने वालों को हिन्दू परंपराओं-शास्त्रों की जानकारी है?

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नवरात्र में मांसाहार बैन करने वालों को हिन्दू परंपराओं-शास्त्रों की जानकारी है? (प्रतीकात्मक तस्वीर, क्रेडिट-इंडिया टुडे )
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निखिल
5 अप्रैल 2022 (Updated: 5 अप्रैल 2022, 08:30 PM IST) कॉमेंट्स
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बहस जब तक मांसाहार और शाकाहार के बीच थी, तब तक मामला बराबरी का था. लेकिन जिस तरह मांसाहार और शाकाहार को दो धर्मों के साथ नत्थी किया जा रहा है, वो हमारे समाज और देश के लिए कितनी समस्याएं पैदा कर रहा है, इसका अंदाज़ा फिलहाल किसी को नहीं है. मुकेश सुर्यान. दिल्ली के एक इलाके को छोड़ दें, तो शायद ही लोग ये नाम जानते थे. लेकिन अब मुकेश सुर्यान चर्चा में हैं क्योंकि उन्होंने दक्षिण दिल्ली नगर निगम के महापौर की हैसियत से नवरात्र के दौरान मांस की दुकानों पर प्रतिबंध लगा दिया है. दुकानदारों के लिए ये मुश्किल वक्त है. 9 दिन दुकान बंद रहने से जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई कैसे होगी, ये मुकेश सुर्यान द्वारा जारी नोटिस में नहीं लिखा है. और ये भी नहीं लिखा है कि अलग अलग परंपराओं के जिस विराट समुच्चय को हिंदू धर्म कहा जाता है, उसमें मांसाहार को हेय कहां बताया गया है. नवरात्र के दौरान अचानक शाकाहार और स्वच्छता के प्रति सचेत हो जाने वालों की सूची में मुकेश सुर्यान का नाम जुड़ तो गया है, लेकिन बहुत देर से. नवरात्र के दौरान अंडे या चिकन के ठेलों कों ''दूर रहने'' की हिदायत बहुत पहले से दी जा रही है. गली मुहल्लों में भागवत कथा या देवी-देवताओं की मूर्तियों की स्थापना के दौरान भी ऐसा होता रहा है. मालूम नहीं क्यों, इस चीज़ को लेकर एक मौन स्वीकृति पैदा हो गई थी. तभी तो जब नवंबर 2021 में गुजरात के पांच बड़े शहरों की नगर पालिकाओं ने बिलकुल एक जैसा फैसला लिया, तब किसी के कान नहीं खड़े हुए. सबसे पहले अहमदाबाद नगर निगम की टाउन प्लानिंग कमेटी ने फैसला लिया, कि सार्वजनिक सड़कों के साथ साथ स्कूल, कॉलेज और धर्मस्थलों के 100 मीटर के दायरे में नॉन वेज नहीं बिकेगा. अहमदाबाद के बाद वडोदरा, भावनगर, जूनागढ़ और राजकोट में यही किया गया. अहमदाबाद में तो नगर निगम ने नॉन वेज बेच रहे खोंमचे वालों के ठेले ज़ब्त कर लिए थे. ये मामला गुजरात हाईकोर्ट पहुंचा. 9 दिसंबर को गुजरात हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान जस्टिस बिरेन वैष्णव ने अहमदाबाद नगर निगम को लताड़ लगाते हुए पूछा था, ''समस्या आखिर है क्या? आप मांसाहार पसंद नहीं करते, ये आपका नज़रिया है. आप ये कैसे तय कर सकते हैं कि घर से बाहर मैं क्या खाउं? कल कोई मुझसे ये कह देगा कि मुझे गन्ने का रस नहीं पीना चाहिए क्योंकि इससे डायबीटीज़ हो जाएगा. या ये कि कॉफी सेहत के लिए खराब है!'' अहमदाबाद नगर निगम के वकीलों ने तब न्यायालय से कहा कि कार्रवाई इसलिए नहीं हुई कि ये लोग मांसाहार बेच रहे थे. बल्कि इसलिए हुई, कि ये लोग यातायात में बाधा बन रहे थे. तब न्यायालय ने कहा,
''अगर ये अतिक्रमण था, तो हटाया जाना चाहिए. लेकिन सिर्फ इसलिए कार्रवाई नहीं की जा सकती कि किसी ने सुबह उठकर कह दिया, मुझे अपने आसपास अंडे के ठेले नहीं चाहिए.''
इसके बाद न्यायालय ने याचिका का निपटारा करते हुए निगम को आदेश दिया कि जो ठेले वाले अपने ठेले लेने निगम के पास आ रहे हैं, उनके मामलों पर कार्यवाही शुरू करे. आप सोच रहे होंगे कि हम दिल्ली की बात करते करते अहमदाबाद की गलियों में क्यों भटकने लगे? तो कारण ये है कि मांसाहार, परंपरा और शुचिता को जिस तरह गड्ड-मड्ड किया जाता है, उसमें पैटर्न एक ही देखने को मिलता है – एक शहर में सबकुछ ठीक चल रहा होता है. शाकाहारी और मांसाहारी दोनों शांति से जी रहे होते हैं. फिर अचानक किसी त्योहार से पहले मांसाहार को हेय, अशुद्ध या फिर धर्म में वर्जित बताया जाने लगता है. भावनाओं की बात होने लगती है. अगर मांसाहार को थोड़ी छूट दे भी दी जाए, तो हलाल और झटका वाली बहस आ जाती है. इसके बाद मामला पहुंचता है न्यायालय. न्यायालय में अदालतें जीने के हक और अपनी पसंद से खाने के अधिकार को तरज़ीह देती हैं. तब तर्क दिया जाता है कि आदेश का मकसद तो साफ-सफाई या किसी दूसरे नागरिक अधिकार का संरक्षण था. तर्क-कुतर्क के बीच बात आई गई हो जाती है. लेकिन बात के आने और जाने के बीच, माहौल खराब हो चुका होता है. अगर गुजरात उच्च न्यायालय की बातों पर किसी ने ज़रा भी ध्यान दिया होता, तो कर्नाटक में हिजाब विवाद के बाद से ही मुस्लिम दुकानदारों के बॉयकॉट और हलाल मीट पर बहस शुरू नहीं होती. इसीलिए हमने शुरूआत में कहा था कि मुकेश सुर्यान इस मैदान में थोड़ी देर से उतरे हैं. उनका साथ देने अब दिल्ली की बाकी निगमों के महापौर आगे आ रहे हैं. पूर्वी दिल्ली नगर निगम के महापौर श्याम सुंदर अग्रवाल ने भी मीट दुकानदारों से दुकान बंद करने की अपील की है. पूर्वी दिल्ली में पूरे नवरात्र के दौरान दुकानों को बंद करने का आदेश नहीं दिया गया है. यहां सप्तमी, अष्टमी और नवमी को दुकानें बंद रहेंगी क्योंकि स्लॉटर हाउस भी बंद रहेगा. और ये नियम पहले से चला आ रहा है. बाकी दिनों के लिए अपील जारी करते हुए महापौर प्याज-लहसुन पर आ जाते हैं. ये बात बहुत दिलचस्प है. महापौर कह रहे हैं कि नवरात्र में 99 फीसदी लोग प्याज लहसुन त्याग देते हैं. ये आंकड़ा कहां से आया, इस बारे में महापौर ने जानकारी नहीं दी. लोग क्या खाते पीते हैं, इसे लेकर सरकार जानकारी इकट्ठा करती है, ताकि पोषण आहार को लेकर नीतियां बन सकें. क्या तब सर्वे में प्याज लहसुन वाली बात सामने आई थी, इसका जवाब महापौर ही दे सकते हैं. दक्षिण दिल्ली नगर निगम के आधिकारिक लेटरहेड पर जारी आदेश में कई ऐसी चीज़ें हैं, जो लिख तो दी गई हैं, लेकिन उनका आधार स्पष्ट नहीं होता है. दूसरे पैराग्राफ में कहा गया है कि नवरात्र में मंदिरों की ओर जाने वाले श्रद्धालुओं की धार्मिक भावनाएं तब आहत होती हैं, जब वो मीट की दुकान के सामने से गुज़रते हैं और मीट की दुर्गंध से दो-चार होते हैं. आहत होने वाली बात को अभी के लिए छोड़ देते हैं. हमारा ध्यान दुर्गंध पर है. मांस बेचने के लिए भी नियम बने हुए हैं. और इनका पालन न करने पर लाइसेंस तक कैंसिल हो सकता है. अगर दुकानों से दुर्गंध उठ रही है, तो क्या इसका मतलब ये निकाला जाए कि वहां साफ-सफाई का अभाव रहता है. या सड़ रहा मांस बेचा जा रहा है. अगर ऐसा है, तो अब तक दक्षिण दिल्ली नगर निगम ने कितने लाइसेंस रद्द किए हैं? आदेश में ये भी लिखा है कि कुछ दुकानदार अपना कचरा सीधे सड़क के किनारे या गटर में फेंक देते हैं. वहां कुत्ते घूमने लगते हैं. ये एक वीभत्स दृष्य होता है. इसे रोका जा सकता है, अगर नवरात्र में दुकानें बंद रहें. अब ये समझ से बाहर है कि अगर कोई दुकानदार कचरा सड़क पर फेंकता है या गटर में डालता है, तो उसका समाधान 9 दिन दुकान बंद करने से कैसे मिलेगा. क्या बाकी दिन सफाई की ज़रूरत नहीं होती? वैसे सफाई की बात चल ही पड़ी है, तो आपको बता दें कि लुटियंस ज़ोन का काम देखने वाली नई दिल्ली नगर निगम को छोड़कर दिल्ली की बाकी तीन निगमों - उत्तर, पूर्वी और दक्षिण - तीनों का रिकॉर्ड सफाई में बेहद खराब रहा है. 2020 में जारी स्वच्छ सर्वेक्षण में 10 लाख से ऊपर की आबादी वाले शहरों की सूचि में ये तीनों निगम पहले 30 शहरों में भी नहीं थीं. पूर्वी दिल्ली तो 47 शहरों की सूची में 46 वें नंबर पर रही. इसके बाद इन तीनों निगमों को सफाई पर खास ध्यान देने को कहा गया था. क्योंकि मामला राष्ट्रीय राजधानी का था. 2019 की रैंकिंग सुनेंगे तो आपके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक जाएगी. तब लिस्ट में 425 शहर थे. दक्षिण दिल्ली रही 138 वें नंबर पर. उत्तर दिल्ली रही 282 वें नंबर पर. और पूर्वी दिल्ली रही 240 वें नंबर पर. 2021 में भी दिल्ली की तीनों निगमें पहले 10 शहरों की सूची से बाहर रहीं. ये सब हम आपको इसीलिए बता रहे हैं कि जब आपको सफाई का तर्क दिया जाए, तो आप समझ सकें कि बात में कितनी ईमानदारी होने की संभावना है. अब बात करते हैं एक दूसरे जटिल मसले पर. परंपरा और धार्मिक भावना. मसला हिंदू धर्म से जुड़ा हुआ है, और दर्शक जानते ही हैं कि ये धर्म परंपराओं का एक विराट समुच्चय है. कोई एक मत, किताब या राजनीति इस धर्म पर आधिपत्य नहीं रखती है. हज़ारों पंथ और संप्रदाय हैं, जिनकी अपनी अपनी मान्यताएं हैं. इन सब का अध्ययन करके एक दिन में निचोड़ पेश करना संभव नहीं है. फिर भी हमने कोशिश की है कि वेज-नॉन वेज वाली बहस पर तथ्य आपके सामने रखें. बिहार में एक इलाका है मिथिला. यहां रहने वाले कहलाते हैं मैथिल. यहां के हिंदू समाज में ज़्यादातर लोगों की कुलदेवी होती हैं दक्षिण कालिका. हर घर में एक मिट्टी का चबूतरा होता है जिसे भगवती का घर कहा जाता है. उनका कोई चहरा नहीं होता है. निराकार रूप में पूजा होती है. कुछ लोगों के कुलदेवता धर्मराज भी होते हैं. इन दोनों मान्यताओं वाले लोगों के यहां हर शुभ अवसर पर बलि की परंपरा है. बकरे की बलि के बाद प्राप्त मांस को प्रसाद माना जाता है. अगर बच्चे का मुंडन है, तो उसे खून से टीका भी लगाया जाता है. ये सारा काम घर के आंगन में ही होता है. और घर के पुरुष ही मांस बनाते हैं. कई बार बलि गांव में स्थित भगवती स्थान पर होती है. सीधी सी बात है, जैसा देस, उस हिसाब से रहने खाने की परंपराएं विकसित हुईं और धर्म में स्थान पा गईं. इन परंपराओं से छेड़छाड़ का नतीजा अपनी प्रकृति में सिर्फ राजनैतिक या धार्मिक ही नहीं होता. ये पोषण आहार का भी मसला है. मिथिला से अब हम जाएंगे असम. यहां भी हिंदू बहुसंख्यक हैं. और इनके बीच मांसाहार की लंबी परंपरा रही है. इसे समझने के लिए हमने शेफ अतुल लखार से बात की. अतुल बीते 24 साल से असम के दूर दराज़ के इलाकों की यात्राएं कर रहे हैं. हर जगह जाकर वो पारंपरिक खाने की रेसिपी को डॉक्यूमेंट करते हैं. जल्द ही उनकी एक किताब भी आने वाली है. हमने शेफ से पूछा कि असमिया लोग क्या खाते हैं और क्या वो भी त्योहारों के वक्त मांसाहार से परहेज़ करते हैं?
हमारा खाना वेदर के साथ बदलता रहता है. चावल हमारे खाने में सबसे अहम रहता है. इसके अलावा कबूतर भी हमारे यहां चाव से खाया जाता है. असम की अलग अलग कम्युनिटी मछली को अलग अलग तरह से खाती हैं.  चिकन तो इतना खाया जाता है कि उसको पूजा में भी इस्तेमाल किया जाता है.
अतुल लखार से बात करते हुए हमें एक दिलचस्प जानकारी मिली. असम के पारंपरिक खाने में मांसाहार तो है, लेकिन अदरक लहसुन पर उतना ज़ोर नहीं है. कई पकवान हैं, जिनमें मांस पड़ता है, लेकिन अदरक लहसुन नहीं. और वो खाना त्योहारों में परोसा भी जाता है. इस उदाहरण से हमें ये समझ आता है कि प्याज लहसुन वाले तर्क से मांसाहार को सही या गलत बताने में वाकई समस्या है. क्योंकि ऐसे हिंदू भी हैं, जो मांस तो खाते हैं, लेकिन प्याज़ लहसुन नहीं. मिथिला में भी नवरात्र में मांसाहार किया जाता है, लेकिन उसमें प्याज लहसुन नहीं पड़ता. मिथिला और असम के उदाहरण से ये स्थापित होता है कि मांसाहार के लिए हिंदू धर्म में पर्याप्त स्थान है, वो भी त्योहारों के दौरान. आप पश्चिम बंगाल जाएंगे, तो आपको यही चीज़ वहां भी देखने को मिलेगी. रही बात सही और गलत की बहस की, तो हमने इसपर बात की धर्मायण पत्रिका के संपादक पंडित भावनाथ झा से. धर्मायण, धर्म और संस्कृति से जुड़े मसलों पर लेख प्रकाशित करती है. और पटना के महावीर मंदिर से पत्रिका का काम होता है. पंडित जी ने दी लल्लनटॉप को बताया कि नवरात्र का महत्व वैष्णव परंपरा में भी है और शाक्त परंपरा में भी. वैष्णव परंपरा में मांसाहार वर्जित है और शाक्त में मान्य है, मांसभक्षण का वैदिक स्रोत भी है. इनमें से किसी को भी खारिज नहीं किया जा सकता. अब इनमें से सही कौन है, इसपर बहुत बहस हुई है. लेकिन कोई भी बहस ये नहीं बता पाई कि मांसाहार या शाकाहार में से क्या उचित है, क्या अनुचित. जिन लोगों ने इन बहसों पर शोध किया है, उन्होंने भी वैष्णव और शाक्त मतों को संकलित करके रख दिया है. ऐसे में सवाल उठता है कि एक आम आदमी क्या करे. इस सवाल का जवाब पंडित भावनाथ झा ने दिया जो धर्मायण के संपादक हैं, उन्होंने हमें बताया
लोगों को अपनी पारिवारिक परंपरा का पालन करना चाहिए. हम किसी भी परंपरा को ग़लत नहीं कह सकते हैं. क्योंकि धर्म वही है जिसके रास्ते हमारे पूर्वज गए हैं. धर्म यही है. किसी शास्त्र को पढ़कर सुनकर या किसी दूसरे के कहने पर ना आएं.
जो रास्ता पूर्वजों ने बताया, उसपर ही ज़्यादातर लोग चले. तभी तो जब 2015-16 में नेशनल फैलमी हेल्थ सर्वे-4 तैयार किया गया, तो उसके डेटा में सामने आया कि भारत में 10 में से 7 लोग नॉन वेजीटेरियन हैं. 70 फीसदी महिलाएं और 78 फीसदी पुरुष किसी ना किसी तरह का मांस खाते हैं. तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल,तमिलनाडु, ओडिशा और झारखंड जैसे राज्यों में 97% लोग नॉन वेजीटेरियन हैं. पूर्वोत्तर के राज्यों में बहुतायत संख्या में लोग मांसाहारी हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पंजाब, हरियाणा, गुजरात और राजस्थान ही ऐसे राज्य हैं जहां 40 फीसदी से कम लोग मांसाहारी हैं. अधिकतर राज्यों में नॉनवेजीटेरियन की संख्या वेजीटेरियन से ज्यादा है. आंकड़े कहते हैं कि राजधानी दिल्ली में ही 63%  से ज्यादा लोग मांस खाते हैं. तथ्य ये भी है कि दिल्ली में 12% आबादी मुस्लिमों की है. जाहिर है 63% की संख्या 12 फीसदी से कहीं ज्यादा है. दक्षिण दिल्ली में लगे मीट बैन का धर्म से उतना लेना देना नहीं है, जितना राजनीति से है. तभी तो इस मुद्दे पर नेता दिन रात बाइटें दे रहे हैं. सबकी बात हमने आपको सुनाई, आखिर में अपनी बात. भारत एक विशाल देश है. और इस विशाल देश में अलग अलग जगहों का अपना अहलदा मौसम है. अलहदा खान-पान है. हर तरफ का खान पान परिवेष के चलते हज़ारों सालों में तय हुआ. और इसीलिए परंपरा का, धर्म का हिस्सा भी बन गया. इसीलिए धर्म या खानपान की एक व्याख्या को दूसरे से ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता. खाड़ी के कुछ देशों में रमज़ान के दौरान खुले में खानपान बैन रहता है. वहां भी वो यही गलती कर रहे होते हैं. एक धार्मिक मान्यता को, दूसरी मान्यता पर तरज़ीह दे रहे होते हैं. अब हमें तय करना है, कि हम अपना व्यवहार एक धार्मिक कट्टर सरकार की तरह रखना चाहते हैं, या फिर एक लोकतंत्र की तरह, जहां किसी को किसी से डरने या दबने की ज़रूरत नहीं है. सभी एक दूसरे का आदर करते हैं. और किसी के रोज़गार पर 9-9 दिन के लिए आंच नहीं आती.

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