'करीमदाद अपनी औलाद को सुअर का बच्चा कहता था'
मई यानी महीना मंटो का: आज पढ़िए मंटो की कहानी यज़ीद.
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फोटो - thelallantop
यज़ीद
सन् सैंतालीस के हंगामे आए और गुज़र गए. बिलकुल उसी तरह, जैसे मौसम में सहसा चन्द ख़राब दिन आयें और चले जायें. यह नहीं कि करीमदाद, मौला की मर्ज़ी समझ कर, चुपचाप बैठा रहा. उसने बड़ी मर्दानगी से उस तूफ़ान का मुक़ाबला किया था; विरोधी शक्तियों के साथ कई बार भिड़ा था-पराजित करने के लिए नहीं, सिर्फ़ मुक़ाबिला करने के लिए. उसे मालूम था कि दुश्मनों की ताक़त बहुत ज़्यादा है, पर हथियार डाल देना, वह अपनी ही नहीं, हर मर्द की तौहीन समझता था. सच पूछिए तो उसके बारे में यह सिर्फ़ दूसरों का ख़याल था-उनका, जिन्होंने उसे वहशी-नुमा इन्सानों से, बड़ी जांबाज़ी से लड़ते देखा था. वरना अगर करीमदाद से इस बारे में पूछा जाता कि विरोधी शक्तियों के मुक़ाबिले में हथियार डाल देना क्या वह अपनी या हर मर्द की तौहीन समझता है तो निश्चय ही वह सोच में पड़ जाता, मानो आपने उससे हिसाब का कोई बहुत ही मुश्किल सवाल पूछ लिया है.करीमदाद जोड़-घटाने और गुणा-भाग से बिलकुल उदासीन था. सन् सैंतालीस के हंगामे आये और गुज़र गये. लोगों ने बैठ कर हिसाब लगाना शुरू किया कि कितना जानी नुकसान हुआ है, कितना माली. पर करीमदाद इससे बिलकुल अलग-थलग रहा. उसको सिर्फ़ इतना मालूम था कि उसका बाप, रहीमदाद, उस जंग में काम आया है. उस की लाश करीमदाद ने ख़ुद अपने कन्धों पर उठायी थी और एक कुएं के पास गड्ढा खोद कर दफ़नाई थी.गांव में और भी कई वारदातें हुई थीं. सैकड़ों जवान और बूढ़े कत्ल हुए थे. कई लड़कियां ग़ायब हो गयी थीं. कुछ की, बहुत ही ज़ालिमाना ढंग से, बेइज़ती हुई थी. जिसको भी ये घाव लगे थे, रोता था-अपने फूटे नसीबों पर और दुश्मनों की बेरहमी पर; लेकिन क़रीमदाद की आंख से एक आंसू भी न निकला. अपने बाप रहीमदाद की शहजोरी पर उसे नाज़ था. जब बर्छियों और कुल्हाड़ियों से लैस पच्चीस-तीस बलवाइयों का मुकाबिला करते-करते वह निढाल हो कर गिर पड़ा था और करीमदाद को उसकी मौत की ख़बर मिली थी तो उसने उसकी रूह को मुख़ातिब करके सिर्फ़ इतना कहा था, ‘यार, तुमने यह ठीक न किया. मैंने तुमसे कहा था कि एक हथियार अपने पास ज़रूर रखा करो.’

गांव के लोग अभी शोक में ही डूबे हुए थे कि करीमदाद ने शादी कर ली. उसी मुटियार के साथ, जिस पर एक अर्से से उसकी निगाह थी. जिनां बहुत दुखी थी. उसका शहतीर-जैसा कड़ियल जवान भाई दंगों में मारा गया था. मां-बाप की मौत के बाद सिर्फ़ वही उसका एक सहारा था. इसमें कोई शक नहीं कि ज़ीनाँ को करीमदाद से बेपनाह मुहब्बत थी, पर भाई की मौत के ग़म ने उसके मन में इस मुहब्बत को भी मातमी बना दिया था; अब हर समय उसकी सदा मुस्कराती आंखें गीली रहती थीं.करीमदाद को रोने-धोने से बड़ी चिढ़ थी. जब भी वह ज़ीनां को दुख की हालत में देखता, मन-ही-मन बहुत कुढ़ता. पर वह उससे इस बारे में कुछ कहता नहीं था, यह सोच कर कि औरत-ज़ात है. हो सकता है, उसके मन को और भी दुख पहुंचे. पर एक दिन उससे न रहा गया. खेत में उसने ज़ीनाँ को पकड़ लिया और कहा-”मुर्दों को कफनाये-दफ़नाये पूरा एक साल हो गया है. अब तो वो भी इस सोक से घबरा गये होंगे. छोड़ मेरी जान! अभी ज़िन्दगी में जाने और कितनी मौतें देखनी हैं. कुछ आंसू तो अपनी आंखों में जमा रहने दे. 'ज़ीनां को उसकी ये बातें बहुत बुरी लगी थीं. पर वह उससे प्यार करती थी, इसलिए अकेले में उसने कई घंटे सोच-सोच कर उसकी इन बातों में मानी पैदा किये और आख़िर यह समझने पर ख़ुद को तैयार कर लिया कि करीमदाद जो कुछ कहता है, ठीक है. शादी का सवाल आया तो बड़े-बूढ़ों ने विरोध किया. पर यह विरोध बहुत ही कमज़ोर था. वे लोग शोक मना-मना कर इतना थक गये थे कि ऐसे मामलों में सौ फ़ीसदी सफल होने वाले विरोधों पर भी ज़्यादा देर तक न जमे रह सके.... चुनांचे करीमदाद का ब्याह हो गया. बाजे-गाजे आये, हर रस्म पूरी हुई और करीमदाद अपनी महबूबा ज़ीनां को दुल्हन बना कर घर ले आया. दंगों के बाद क़रीब-क़रीब एक बरस से सारा गांव कब्रिस्तान-सा बना था. जब करीमदाद की बारात चली और ख़ूब धूम-धड़क्का हुआ तो गांव में कई आदमी सहम-सहम गये. उनको ऐसा महसूस हुआ कि यह करीमदाद की नहीं, किसी भूत-प्रेत की बारात है. करीमदाद के दोस्तों ने जब उसको यह बात बतायी तो वह ख़ूब हंसा. हंसते-हंसते ही उसने एक दिन इसका ज़िक्र अपनी नयी-नवेली दुल्हन से किया तो वह डर के मारे कांप उठी. करीमदाद ने ज़ीनां की लाल चूड़ी वाली कलाई अपने हाथ में ली और कहा-"यह भूत तो अब सारी उम्र तुम्हारे साथ चिपटा रहेगा...रहमान साईं की झाड़फूँक भी उतार नहीं सकेगी."
ज़ीनां ने अपनी मेंहदी से रची हुई उंगली दांतों-तले दबा कर और ज़रा शरमा कर सिर्फ़ इतना कहा-”कीमे, तुझे तो किसी से भी डर नहीं लगता!“ करीमदाद ने अपनी हल्की-हल्की, कालापन-लिए-भूरी मूंछों पर ज़बान की नोक फेरी और मुस्करा दिया, ”डर भी कोई लगने की चीज़ है!“ जीनां का ग़म अब बहुत हद तक दूर हो चुका था. वह मां बनने वाली थी. करीमदाद उसकी जवानी का निखार देखता तो बहुत ख़ुश होता और ज़ीनां से कहता-"ख़ुदा की क़सम ज़ीनां, तू पहले कभी इतनी ख़ूबसूरत नहीं थी. अगर तू इतनी ख़ूबसूरत अपने होने वाले बच्चे के लिए बनी है तो मेरी उससे लड़ाई हो जायेगी."यह सुन कर ज़ीनां, शरमा कर, अपना ठिलिया-सा पेट चादर से छिपा लेती. करीमदाद हंसता और उसे छेड़ता, 'छिपाती क्यों हो इस चोर को.... मैं क्या नहीं जानता कि यह सब बनाव-श्रृंगार तुमने सिर्फ़ इसी सूअर के बच्चे के लिए किया है.“ज़ीनां एकदम संजीदा हो जाती, ”क्यों गाली देते हो अपने को? “करीमदाद की कालापन-लिए-भूरी मूंछें हंसी से थरथराने लगतीं- "करीमदाद बहुत बड़ा सूअर है." छोटी ईद आयी. बड़ी ईद आयी. करीमदाद ने ये दोनों त्योहार बड़े ठाठ से मनाये. बड़ी ईद से बारह दिन पहले उसके गांव पर बलवाइयों ने हमला किया था और उसका बाप-रहीमदाद और ज़ीनां का भाई-फ़ज़ल इलाही मारे गये थे. ज़ीनां उन दोनों की मौत को याद करके बहुत रोई थी. पर दुखों को याद न रखने वाली करीमदाद की तबियत की मौजूदगी में उतना ग़म न कर सकी, जितना उसे ख़ुद अपनी तबियत के मुताबिक करना चाहिए था. ज़ीनां कभी सोचती थी तो उसको बड़ी हैरत होती थी कि वह इतनी जल्दी अपनी ज़िन्दगी का इतना बड़ा दुख कैसे भूलती जा रही है. मां-बाप की मौत उसको बिलकुल याद नहीं थी. फ़ज़ल इलाही उससे छह साल बड़ा था. वही उसका बाप था, वही उसकी मां और वही उसका भाई. ज़ीनां अच्छी तरह जानती थी कि सिर्फ़ उसी की ख़ातिर उसने शादी नहीं की. और यह तो सारे गांव को मालूम था कि ज़ीनां की ही अस्मत बचाने के लिए उसने अपनी जान दी थी. उसकी मौत, ज़ीनां की ज़िन्दगी में निश्चय ही बहुत बड़ा हादसा थी. एक क़यामत थी, जो बड़ी ईद से ठीक बारह दिन पहले उस पर एकाएक टूट पड़ी थी. अब वह उसके बारे में सोचती थी तो उसको बड़ी हैरत होती थी कि वह उसके असर से कितनी दूर होती जा रही है. मुहर्रम क़रीब आया तो ज़ीनां ने करीमदाद से अपनी पहली फ़रमाईश ज़ाहिर की. उसे मुहर्रम का घोड़ा और ताज़िये देखने का बहुत शौक था. अपनी सहेलियों से वह उनके बारे में बहुत कुछ सुन चुकी थी. चुनांचे, उसने करीमदाद से कहा-"मैं ठीक हुई तो ले चलोगे मुझे घोड़ा दिखाने?" करीमदाद ने मुस्करा कर जवाब दिया-"तुम ठीक न भी हुईं तो भी ले चलूंगा.... इस सुअर के बच्चे को भी! “ज़ीनां को यह गाली बहुत ही बुरी लगती थी, चुनांचे वह अकसर बिगड़ जाती थी. पर करीमदाद के बात करने का ढंग कुछ ऐसा ख़ुलूस-भरा था कि ज़ीनां की कटुता फ़ौरन ही एक अकथनीय मिठास में बदल जाती थी और वह सोचती थी कि ‘सुअर के बच्चे’ में कितना प्यार कूट-कूट के भरा है.
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की जंग की अफ़वाहें एक अर्से से उड़ रही थीं. असल में तो पाकिस्तान बनते ही, यह बात जैसे एक तरह से तय हो गयी थी कि जंग होगी और ज़रूर होगी. कब होगी, इसके बारे में गांव में किसी को मालूम नहीं था. करीमदाद से जब कोई इस बारे में सवाल करता तो वह यह छोटा-सा जवाब देता-"जब होनी होगी, हो जायेगी. फ़िज़ूल सोचने से क्या फ़ायदा?“ज़ीनां जब इस होने वाली लड़ाई-भिड़ाई के बारे में सुनती थी तो उसके होश उड़ जाते थे. वह अपने स्वभाव से बहुत ही अमनपसन्द थी. मामूली ‘तू-तू, मैं-मैं’ से भी बहुत घबराती थी. इसके अलावा, पिछले दंगों में उसने बहुत मार-काट देखी थी और उन्हीं में उसका प्यारा भाई फ़ज़ल इलाही काम आया था. बेहद सहम कर वह करीमदाद से सिर्फ़ इतना कहती-"कीमे, क्या होगा? “करीमदाद मुस्करा देता, 'मुझे क्या पता. लड़का होगा या लड़की.' यह सुन कर ज़ीनां बहुत ही ज़िच-बिच होती, पर फ़ौरन ही करीमदाद की बातों में लग कर, होने वाली जंग के बारे सब कुछ भूल जाती. करीमदाद ताकतवर था. ज़ीनां से उसको बेहद मुहब्बत थी. बन्दूक ख़रीदने के बाद वह थोड़े ही अर्से में निशाने का बहुत पक्का हो गया था. ये सब बातें ज़ीनां को हौसला दिलाती थीं. लेकिन इसके बावजूद, त्रिंजनों में जब वह अपनी किसी डरी हुई सहेली से जंग के बारे में, गांव के आदमियों की उड़ायी हुई, डरावनी अफ़वाहें सुनती तो एकदम सुन्न-सी हो जाती. बख़्तो दायी, जो हर रोज़ ज़ीनां को देखने आती थी, एक दिन यह ख़बर लायी कि हिन्दुस्तान वाले दरिया बन्द करने वाले हैं. ज़ीनां इसका मतलब न समझी. विस्तार से जानने के लिए उसने बख़्तो दायी से पूछा-"दरिया बन्द करने वाले हैं?... कौन-से दरिया बन्द करने वाले हैं?“ बख़्तो दायी ने जवाब दिया- "वो, जो हमारे खेतों को पानी देते हैं." ज़ीनां ने कुछ देर सोचा और हंस कर कहा-"मौसी, तुम भी क्या पागलों की-सी बातें करती हो? दरिया कौन बन्द कर सकता है...वो भी कोई मोरियां हैं? 'बख़्तो ने ज़ीनां के पेट पर हौले-हौले मालिश करते हुए कहा-"बीबी, मुझे मालूम नहीं.... जो कुछ मैंने सुना, तुम्हें बता दिया. यह बात तो अब अ़खबारों में भी आ गयी है.' कौन-सी बात? ज़ीनां को यकीन नहीं होता था. ब़ख्तो ने अपने झुरियों वाले हाथ से ज़ीनां का पेट टटोलते हुए कहा-"यही कि वो दरिया बन्द करने वाले हैं." फिर उसने ज़ीनां के पेट पर उसकी कमीज़ खींची और उठ कर बड़े माहिराना अंदाज़ में कहा-"अल्लाह ख़ैर रखे तो बच्चा आज से पूरे दस दिन के बाद हो जाना चाहिए. “करीमदाद घर आया तो सबसे पहले ज़ीनां ने उससे दरियाओं के बारे में पूछा. उसने पहले बात टालनी चाही, पर ज़ीनाँ ने जब कई बार अपना सवाल दोहराया तो करीमदाद ने कहा-"हां, कुछ ऐसा ही सुना है." ज़ीनां ने पूछा- "क्या?" "यही कि हिन्दुस्तान वाले हमारे दरिया बन्द कर देंगे." "क्यों?" करीमदाद ने जवाब दिया, ”ताकि हमारी फ़सलें तबाह हो जायें." यह सुन कर ज़ीनां को विश्वास हो गया कि दरिया बन्द किये जा सकते हैं. चुनांचे, बड़ी बेचारगी की हालत में उसने सिर्फ़ इतना कहा-"कितने ज़ालिम हैं ये लोग. "करीमदाद इस बार कुछ देर के बाद मुस्कराया, ”हटाओ इसको. यह बताओ मौसी बख़्तो आयी थी?“ ज़ीनां ने बेदिली से जवाब दिया-"आयी थी." "क्या कहती थी?" "कहती थी-आज से पूरे दस दिन के बाद बच्चा हो जायेगा." करीमदाद ने जशेर का नारा लगाया-"ज़िन्दाबाद!“ ज़ीनां ने इसे पसन्द न किया और बड़बड़ायी-"तुम्हें ख़ुशी सूझती है. यहाँ जाने कैसी करबला आने वाली है." करीमदाद चौपाल चला गया. वहां क़रीब-क़रीब सब मर्द जमा थे और चौधरी नत्थू को घेरे, उससे दरिया बन्द करने वाली ख़बर के बारे में पूछ रहे थे. कोई पंडित नेहरू को पेट भर के गालियां दे रहा था, कोई बद-दुआयें मांग रहा था; कोई यह मानने से ही एकदम इनकार कर रहा था कि दरियाओं का रु़ख बदला जा सकता है. कुछ ऐसे भी थे, जिनका यह ख़याल था कि जो कुछ होने वाला है, वह हमारे गुनाहों की सज़ा है; इसे टालने के लिए सबसे अच्छा तरीका यही है कि मिल कर मस्जिद में दुआ मांगी जाय. करीमदाद एक कोने में, चुपचाप बैठा, सुनता रहा. हिन्दुस्तान वालों को गालियां देने में चौधरी नत्थू सबसे आगे था. करीमदाद कुछ इस तरह बार-बार पहलू बदल रहा था, जैसे उसे बहुत कोफ़्त हो रही हो. सब एक-ज़बान हो कर कह रहे थे कि दरिया बन्द करना बहुत ही ओछा हथियार है; इन्तहाई कमीनापन है, नीचता है, बेपनाह ज़ुल्म है, बद-तरीन गुनाह है-यज़ीदपन है. करीमदाद दो-तीन बार इस तरह खांसा, जैसे वह कुछ कहने के लिए ख़ुद को तैयार कर रहा हो. चौधरी नत्थू के मुंह से जब मोटी-मोटी गालियों की एक और लहर उठी तो करीमदाद चीख़ पड़ा-"गाली न दे चौधरी किसी को!“ मां की एक बहुत बड़ी गाली, चौधरी नत्थू के हलक में फँसी-की-फँसी रह गयी. उसने पलट कर एक अजीब अंदाज़ से करीमदाद की तरफ़ देखा, जो सिर पर अपना साफ़ ठीक कर रहा था. "क्या कहा?" करीमदाद ने धीमी, लेकिन मज़बूत आवाज़ में कहा-"मैंने कहा, गाली न दे किसी को!“ हलक में फंसी हुई मां की गाली बड़ी ज़ोर से बाहर निकाल कर, चौधरी नत्थू ने बड़े तीखे लहजे में करीमदाद से कहा-"किसी को? क्या लगते हैं वो तुम्हारे?“ इसके बाद वह चौपाल में जमा लोगों से मुखातिब हुआ, ”सुना तुम लोगों ने...कहता है, गाली न दो किसी को.... पूछो इससे, वो क्या लगते हैं इसके? करीमदाद ने बड़े धीरज से जवाब दिया-"मेरे क्या लगते हैं? मेरे दुश्मन लगते हैं." चौधरी के हलक से फटा-फटा-सा कहकहा बुलन्द हुआ-इस क़दर ज़ोर से कि उसकी मूंछों के बाल बिखर गये, ”सुना तुम लोगों ने. दुश्मन लगते हैं. और दुश्मन को प्यार करना चाहिए, क्यों बरखुरदार? “करीमदाद ने बड़े बरखुरदाराना अंदाज़ में जवाब दिया-"नहीं चौधरी. मैं यह नहीं कहता कि प्यार करना चाहिए. मैंने सिर्फ़ यह कहा है कि गाली नहीं देनी चाहिए." करीमदाद के साथ ही उसका लंगोटिया यार, मीरां बख़्श बैठा था. उसने पूछा- क्यों? करीमदाद सिर्फ़ मीरां बख़्श से मुख़ातिब हुआ, "क्या फायदा है यार...वो पानी बन्द करके तुम्हारी ज़मीनें बंजर बनाना चाहते हैं और तुम उन्हें गाली दे कर यह समझते हो कि हिसाब बेबाक हुआ. यह कहां की अकलमन्दी है. गाली तो उस वक़्त दी जाती है, जब और कोई जवाब पास न हो. मीरां बख़्श ने पूछा- "तुम्हारे पास कोई जवाब है?'
करीमदाद ने ज़रा ठहर कर कहा- "सवाल मेरा नहीं, हज़ारों और लाखों आदमियों का है. अकेला मेरा जवाब, सब का जवाब नहीं हो सकता.... ऐसे मामलों में सोच-समझ कर ही कोई पक्का जवाब तैयार किया जा सकता है. वो एक दिन में दरियाओं का रुख नहीं बदल सकते. कई साल लगेंगे. लेकिन यहाँ तो तुम लोग गालियां देकर एक मिनट में अपनी भड़ास निकाल बाहर कर रहे हो." फिर उसने मीरां बख़्श के कन्धे पर हाथ रखा और बड़े ख़ुलूस के साथ कहा- "मैं तो इतना जानता हूँ यार कि हिन्दुस्तान को कमीना, नीच और ज़ालिम कहना भी ग़लत है."मीरां बख़्श की बजाय चौधरी नत्थू चिल्लाया, ”लो, और सुनो!“ करीमदाद मीरां बख़्श से ही कहता रहा-"दुश्मन से मेरे भाई, रहम-करम की उम्मीद रखना बेवकूफ़ी है. लड़ाई शुरू हो और यह रोना रोया जाय कि दुश्मन बड़े बोर की राइफ़लें इस्तेमाल कर रहा है; हम छोटे बम गिराते हैं, वो बड़े बम गिराता है. तुम अपने ईमान से कहो, यह शिकायत भी कोई शिकायत है! छोटा चाकू भी मारने के लिए इस्तेमाल होता है और बड़ा चाकू भी. क्या मैं झूठ कहता हूं? 'मीरां बख़्श की जगह चौधरी नत्थू ने सोचना शुरू किया, पर फ़ौरन ही झुंझला गया, ”लेकिन सवाल यह है कि वो पानी बन्द कर रहे हैं...हमें भूखा और प्यासा मारना चाहते हैं.' करीमदाद ने मीरां ब़ख्श के कन्धे से अपना हाथ अलग किया और चौधरी नत्थू से मुख़ातिब हुआ, 'चौधरी, जब किसी को दुश्मन कह दिया तो फिर यह गिला कैसा कि वो हमें भूखा-प्यासा मारना चाहता है. वो तुम्हें भूखा-प्यासा नहीं मारेगा, तुम्हारी हरी-भरी ज़मीनें वीरान और बंजर नहीं बनाएगा तो क्या वो तुम्हारे लिए पुलाव की थाली देंगे और शरबत के मटके वहाँ से भेजेगा; तुम्हारी सैर-तफ़रीह के लिए यहां बाग़-बगीचे लगाएगा?' चौधरी नत्थू भन्ना गया, 'यह तू क्या बकवास कर रहा है?' मीरां बख़्श ने भी हौले से करीमदाद से पूछा- "हां यार, यह क्या बकवास है?" "बकवास नहीं, मीरां बख़्शा!“ करीमदाद ने समझाने के अंदाज़ में मीरां बख़्श से कहा- "तू ज़रा सोच तो सही कि लड़ाई में दोनों फ़रीक़ एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए क्या कुछ नहीं करते. पहलवान जब लंगर-लंगोटे कस कर अखाड़े में उतर आये तो उसे हर दाँव इस्तेमाल करने का हक होता है..."मीराँ बख़्श ने अपना घुटा हुआ सिर हिलाया, ”यह तो ठीक है." करीमदाद मुस्कराया, तो फिर दरिया बन्द करना भी ठीक है. हमारे लिए यह ज़ुल्म है, पर उनके लिए रवा है. "रवा क्या है...जब तेरी जीभ, प्यास के मारे, लटक कर ज़मीन तक आ जायगी, तब मैं पूछूंगा कि ज़ुल्म रवा है या नारवा...जब तेरे बाल-बच्चे अनाज के एक-एक दाने को तरसेंगे, तब भी तू यही कहना कि दरिया बन्द करना बिलकुल ठीक था!''
करीमदाद ने अपने सूखे होंठों पर ज़बान फेरी और कहा-"मैं तब भी यही कहूंगा चौधरी...तुम यह क्यों भूल जाते हो कि सिर्फ़ वह हमारा दुश्मन नहीं, हम भी उसके दुश्मन हैं. अगर हमारे बस में होता तो हमने भी उसका दाना-पानी बन्द किया होता...लेकिन अब, जब कि वह कर सकता है और करने वाला है तो हम ज़रूर उसका कोई तोड़ सोचेंगे. ...बेकार गालियाँ देने से क्या होता है...दुश्मन तुम्हारे लिए दूध की नहरें नहीं जारी करेगा चौधरी नत्थू! उससे अगर हो सका तो वह तुम्हारे पानी की हर बूँद में ज़हर मिला देगा. तुम इसे ज़ुल्म कहोगे, वहशीपन कहोगे, इसलिए कि मारने का यह तरीका तुम्हें पसन्द नहीं...अजीब-सी बात है कि लड़ाई शुरू करने से पहले दुश्मन से निकाह की-सी शर्तें मनवायी जायँ... उससे कहा जाय कि देखो, मुझे भूखा-प्यासा न मारना; अलबत्ता बन्दूक से, और वह भी इतने बोर की बन्दूक से, तुम मुझे शौक से मार सकते हो. असल बकवास तो यह है...ज़रा ठण्डे दिल से सोचो."चौधरी नत्थू झुंझलाहट की आख़िरी हद तक पहुंच गया, ”बर्फ़ ला के रख मेरे दिल पर!“ "यह भी मैं ही लाऊं?“ यह कह कर करीमदाद हँसा. फिर मीराँ ब़ख्श के कन्धे पर थपकी दे कर वह उठा और चौपाल से चला गया. घर की ड्योढ़ी में दाख़िल हो ही रहा था कि अन्दर से ब़ख्तो दायी बाहर निकली. करीमदाद को देख कर उसके होंटों पर एक पोपली-सी मुस्कराहट पैदा हुई. "मुबारक हो कीमे. चांद-सा बेटा हुआ है. अब कोई अच्छा-सा नाम सोच उसका." "नाम?" करीमदाद ने पल भर के लिए सोचा, ”यज़ीद-यज़ीद! “बख़्तो दायी का मुंह हैरत से खुला-का-खुला रह गया. करीमदाद, नारे लगाता, अन्दर घर में घुसा. ज़ीनाँ चारपाई पर लेटी थी. पहले से किसी क़दर ज़र्द. उसके पहलू में एक गुलगोथना-सा बच्चा, चपड़-चपड़ अपना अंगूठा चूस रहा था. करीमदाद ने उसकी तरफ़ प्यार और गर्व-भरी नज़रों से देखा और उसके एक गाल को उंगली से छेड़ते हुए कहा-"ओय मेरे यज़ीद!'' ज़ीनां के मुंह से हल्की-सी, अचरज-भरी चीख़ निकली- "यज़ीद?
करीमदाद ने ग़ौर से अपने बेटे का नाक-नक़्शा देखते हुए कहा-"हां, यज़ीद!... यह इसका नाम है." ज़ीनां की आवाज़ बहुत मद्धिम हो गयी, ”यह तुम क्या कह रहे हो कीमे?...यज़ीद? करीमदाद मुस्कराया, 'क्या है इसमें? नाम ही तो है!“ जीनां सिर्फ़ इस क़दर कह सकी, ”मगर किसका नाम?“ करीमदाद ने संजीदगी से जवाब दिया-"ज़रूरी नहीं कि यह वही यज़ीद हो. उसने दरिया का पानी बन्द किया था...यह खोलेगा!'
