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सफ़दर हाशमी : जिन्हें नाटक करते वक्त मार डाला गया

जिनके हत्यारों को सज़ा दिलवाने में 14 साल लग गए.

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मुबारक
2 जनवरी 2021 (Updated: 1 जनवरी 2021, 04:50 AM IST) कॉमेंट्स
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उसे मार डाला गया.

वो दबे-कुचले लोगों की आवाज़ बनता था, वो राजनीति से नाक-भौं सिकोड़ने वाले लोगों को जगाने का काम करता था, वो नाटकों के माध्यम से समाज को विरोध का ककहरा सिखाने की प्रथा का शिल्पकार बना, वो, जिसने मुखालफ़त के लोकतांत्रिक लेकिन असरदार तरीके से लोगों को वाकिफ़ कराया, वो, जिसका नाम सफ़दर हाशमी था, वो जिसे मार डाला गया.

12 अप्रैल 1954 को पैदा हुए नाटककार, एक्टर, डायरेक्टर, गीतकार सफ़दर हाशमी का 2 जनवरी 1989 में एक प्ले करते वक़्त क़त्ल कर दिया गया था. भारत के थिएटर इतिहास में जिस शख्स का रुतबा ध्रुव तारे जैसा है, उन सफ़दर हाशमी की उम्र अपनी मौत के वक़्त महज़ 34 साल थी.

वो मनहूस दिन

सन 1989. साल का पहला दिन था. गाज़ियाबाद में जन नाट्य मंच (जनम), सीपीआई (एम) के उम्मीदवार रामानंद झा के समर्थन में नुक्कड़ नाटक कर रहा था. नाटक का नाम था, 'हल्ला बोल'. सुबह के 11 बज रहे थे. गाज़ियाबाद के झंडापुर में आंबेडकर पार्क के नज़दीक सड़क पर नाटक का मंचन हो रहा था. तभी एंट्री होती है मुकेश शर्मा की. मुकेश शर्मा कांग्रेस पार्टी से उम्मीदवार था. उसने सफ़दर से प्ले रोक कर रास्ता देने को कहा. सफ़दर ने बोला कि या तो वो कुछ देर रुक जाए या फिर किसी और रास्ते से निकल जाए.

गुंडों की गुंडई जाग गई. उन लोगों ने नाटक-मंडली पर रॉड और अन्य हथियारों से हमला कर दिया. राम बहादुर नाम के एक मजदूर की घटनास्थल पर ही मौत हो गई. सफ़दर को गंभीर चोटें आई. उन्हें सीटू (CITU) ऑफिस ले जाया गया. शर्मा और उसके गुंडे वहां भी घुस आए और दोबारा उन्हें मारा. दूसरे दिन सुबह, तकरीबन 10 बजे, भारत के जन-कला आंदोलन के अगुआ सफ़दर हाशमी ने अंतिम सांस ली.

शुरुआती दौर

दिल्ली के हनीफ़ और कमर हाशमी की औलाद सफ़दर हाशमी अपने स्कूली दिनों में ही मार्क्सवाद की तरफ आकर्षित हो गए थे. दिल्ली यूनिवर्सिटी से इंग्लिश में मास्टर्स करते वक़्त सफ़दर को स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (SFI) के साथ काम करने का मौका मिला. जहां वो प्ले लिखने से लेकर उसके मंचन तक की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे. जब वो उन्नीस साल के थे, उन्होंने जन नाट्य मंच की स्थापना की जो मुख्यतः नुक्कड़ नाटक आयोजित करता था. 'जनम' के माध्यम से उन्होंने नुक्कड़ नाटकों को जन-विरोध का एक प्रभावी हथियार बनाया.

'कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी' उनके शुरूआती कुछ नाटकों में से था, जिसने उन्हें शोहरत और बदनामी दोनों दिलाई. ये नाटक उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अलोकतांत्रिक हरकतों पर तंज था. 1976 के आते आते उन्होंने सीपीआई की सदस्यता ले ली. आपातकाल के कहरबरपा दौर में, जब नुक्कड़ नाटक जैसी चीज़ का नाम लेना भी घातक था, उन्होंने अलग-अलग यूनिवर्सिटीज में लेक्चरर के तौर पर काम किया.

पहला नुक्कड़ नाटक

आपातकाल में जब ट्रेड-यूनियंस की कमर टूट गई थी, तब सफ़दर को महसूस हुआ कि उनमें जोशो-खरोश भरने के लिए 'जनम' जैसे ग्रुप की ज़रूरत है. लेकिन उस वक़्त वो किसी थिएटर ग्रुप को चलाने के लिए ज़रूरी फंड्स को मुहैया कराने में असमर्थ थे. वक़्त की ज़रूरत थी ऐसे प्ले जो कम खर्चीले हो, असरदार हो और घूमते-फिरते किए जा सकें. उस ज़रूरत का नतीजा निकला नुक्कड़ नाटक 'मशीन' की सूरत में. महज़ 6 एक्टर और सिर्फ तेरह मिनट की स्टोरी. नाटक की प्रेरणा एक केमिकल फैक्ट्री के मजदूरों पर गार्ड्स द्वारा किया गया क्रूर हमला था. मजदूर अपनी साइकिलों के लिए पार्किंग स्पेस और एक ठीक-ठाक से कैंटीन की मांग कर रहे थे. उनपर फैक्ट्री के सुरक्षकर्मियों ने बेरहमी से हमला बोला. 6 मजदूर मारे गए.

'मशीन' नाटक ने सांकेतिक तौर पर दिखाया कि कैसे फैक्ट्री मालिक, गार्ड्स और मजदूर सभी पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा हैं. इस नाटक ने महज़ तेरह मिनटों में वंचितों के शोषण को प्रभावी तरीके से पेश कर के पूंजीवादी व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दी. आसान, काव्यात्मक भाषा और अपील करने वाली थीम की वजह से इस नाटक ने भारत के कामकाजी तबके में फ़ौरन लोकप्रियता हासिल कर ली. 'मशीन' को रिकॉर्ड किया गया और भारत की अन्य भाषाओँ में इसको बनाया गया.

यहां से 'जनम' ने और सफ़दर हाशमी ने पीछे मुड कर नहीं देखा. उनकी सक्रियता का आलम ये था कि जब दिल्ली परिवहन निगम ने किराए में बढ़ोतरी की घोषणा की, उसके पांच घंटों के अंदर-अंदर 'जनम' ने 'डीटीसी की धांधली' के नाम से प्ले लिख कर उसका मंचन भी कर डाला.

मल्टी-टैलेंटेड सफ़दर

अपनी तमाम राजनितिक सक्रियता के बावजूद सफ़दर की असली पहचान एक थिएटर आर्टिस्ट के तौर पर ही रही. उन्होंने नाटक लिखे, बच्चों के लिए गीत लिखे, प्रगतीशील मुद्दों के लिए पोस्टर्स बनाए, फिल्म फेस्टिवल्स आयोजित किए, लेख लिखे, मजदूर संगठनों की हडतालों को समर्थन दिया. कुल मिलाकर लोकतंत्र को सच्चे मायनों में जिया.

जब उनकी अंतिम यात्रा निकाली गई, दिल्ली की सड़कों पर मौजूद जनता उसमे शामिल हो गई. आज़ादी के बाद के भारत में ये ऐसी दुर्लभ शवयात्रा थी, जिसमे बिना किसी पूर्वसूचना के इतने ज़्यादा लोगों ने हिस्सा लिया था. सफ़दर हाशमी नाम के एक सच्चे रंगकर्मी को जनता द्वारा दी गई ये एक सच्ची श्रद्धांजलि थी.

उनकी मौत के तीसरे ही दिन उनकी पत्नी मल्यश्री हाशमी अपने साथियों के साथ गाज़ियाबाद में उसी जगह पहुंची, जहां उनको क़त्ल किया गया था. वो नाटक जिसके मंचन में गुंडों की दख़लअंदाज़ी से व्यवधान आया था, उन्होंने पूरा किया.

सफ़दर हाशमी की मां क़मर हाशमी ने अपनी किताब, 'दी फिफ्थ फ्लेम: दी स्टोरी ऑफ़ सफ़दर हाशमी' में लिखा कि, "कॉमरेड सफ़दर, हम आपका मातम नहीं करते, हम आपकी याद का जश्न मनाते हैं."

एक महीने बाद सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (SAHMAT) का गठन हुआ. उस साल सफ़दर के जन्मदिवस 12 अप्रैल को 'नेशनल स्ट्रीट थिएटर डे' मनाया गया.

विरासत

सफ़दर के हत्यारों को सज़ा दिलवाने में 14 साल लग गए. सभी दस आरोपियों को कोर्ट ने दोषी करार दिया. सफ़दर की मृत्यु तक उनका उपक्रम 'जनम' करीब 24 नुक्कड़ नाटकों के 4000 शो कर चुका था. उनकी मृत्यु के बाद से हर साल झंडापुर, गाज़ियाबाद में उसी दिन 'जनम' एक कार्यक्रम आयोजित करता है जिसकी ऑडियंस आसपास के इंडस्ट्रियल क्षेत्र का मजदूर तबका होता है.

सफ़दर हाशमी प्रतिरोध की वो ज़िंदा आवाज़ थी जिसे मिटाने की कोशिश पूरी तरह नाकामयाब रही. अपनी मौत के बाद से इस आवाज़ को और भी मुखरता हासिल हुई. शोषितों, वंचितों के हक-हुकूक की जहां-जहां बात चलेगी, सफ़दर हाशमी का नाम वहां-वहां पूरी धमक के साथ मौजूद मिलेगा.

लाल सलाम कॉमरेड!


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