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24 अप्रैल, 1962 को दिनकर ने राजेंद्र प्रसाद और राधाकृष्णन को लेकर क्या लिखा था?

आज दिनकर की बरसी है. उनकी लिखी डायरी पढ़िए.

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24 अप्रैल 2021 (Updated: 23 अप्रैल 2021, 03:23 AM IST) कॉमेंट्स
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24 अप्रैल 1974 को रामधारी सिंह दिनकर का निधन हो गया था. समय को साधने वाला कवि. एक साथ ही जिन्हें ‘जनकवि’ और ‘राष्ट्रकवि’ दोनों कहा गया. देश के क्रांतिकारी आंदोलन को अपनी कविता से स्वर दिया. जितने सुगढ़ कवि, उतने ही सचेत गद्य लेखक भी. आज़ादी के बाद पंडित नेहरू और सत्ता के क़रीब रहे. लेकिन समय-समय पर सिंहासन के कान उमेठते रहे. आज दिनकर की बरसी है. उनकी लिखी डायरी पढ़िए.

दिनकर की डायरी

24 अप्रैल, 1962 (दिल्ली) राजेन्द्र बाबू राष्ट्रपति-पद से हट रहे हैं. राधाकृष्णन नये राष्ट्रपति होंगे. सेठ गोविन्ददास जी राजेन्द्र बाबू की विदाई का समारोह बड़े पैमाने पर करना चाहते हैं. सुना, परसों की कैबिनेट मीटिंग में इस समारोह की चर्चा हुई थी और इस व्यय को चिंत्य बताया गया था. जगजीवन बाबू से पूछा तो उन्होंने कहा, ऐसी कोई खास चर्चा नहीं थी. लेकिन डॉ. राधाकृष्णन ने सेठ साहब से कहा कि इस तरह की आलोचना चल रही है. आज शाम को राजेन्द्र अभिनन्दन-समिति की बैठक उपराष्ट्रपति के घर पर हुई. डॉक्टर राधाकृष्णन को मैंने अभिनन्दन-पत्रा का प्रारूप पढ़कर सुना दिया. उन्होंने अपना निर्णय दिया कि सभा में भी अभिनन्दन-पत्रा तुम्हीं पढ़ोंगे. अभिनन्दन के बारे में सेठ जी ने प्रधानमंत्राी को पत्रा लिखा था. आज पंडित जी का उत्तर सेठ साहब के पास आ गया. वे अभिनन्दन-समारोह में उपस्थित रहेंगे. 30 अप्रैल, 1962 (दिल्ली) संसद के सम्मिलित सत्रा को सम्बोधित करने के बाद संसद में राष्ट्रपति को धन्यवाद दिया जाता है. राज्य सभा में धन्यवाद का प्रस्ताव आज मैंने ही पेश किया. मैं जब तक बोलता रहा, राधाकृष्णन अपनी सीट पर बैठे रहे. भाषण खत्म होने के बाद श्री प्रकाश नारायण सप्रू मुझे बधाई देने को मेरी सीट पर आए. नस्कर, वाडिया, सत्यनारायण आदि सदस्यों ने भी बधाई दी. प्रो. हुमायूँ कबीर ने एक स्लिप भेजी, ‘आप कवि हैं, यह तो सबको मालूम है, मगर आप प्रबल वक्ता भी हैं, यह मुझे आज ही मालूम हुआ.’ शाम को दलीपसिंह के यहाँ पार्टी में आया. वहाँ डॉक्टर राधाकृष्णन भी आए हुए थे. मिलते ही उन्होंने कहा, ‘यू मेड ए ग्रेट स्पीच.’ भाषण से सबको प्रसन्नता हुई. लेकिन दयाभाई और दो-एक सोशलिस्ट उतने प्रसन्न नहीं थे. 3 मई, 1962 (दिल्ली) आज बहस का जवाब देने को पंडित जी सदन में आए. उन्होंने आरम्भ में ही मेरे भाषण का उल्लेख प्रशंसा के साथ किया. चूँकि पंडित जी ने मेरे भाषण की प्रशंसा की, इसलिए जयनारायण व्यास और जयरामदास दौलतराम ने मुझे फिर बधाई दी. 7 मई, 1962 (दिल्ली) आज नये राष्ट्रपति का चुनाव सम्पन्न हो गया. मैथिलीशरण जी के मुख से आज फिर एक कटु वाक्य निकल गया. ऐसी बात तो वही बोल सकता है, जिसका अन्तर्मन मेरे प्रति कुभावों से व्याप्त हो. न जाने, मुझे खीर खिलाते समय इनका प्रेम कहाँ से उमड़ आता है! 10 मई, 1962 (दिल्ली) भोर में 5-50 पर घूमने निकला और टहलते-टहलते दद्दा (मैथिलीशरण) के घर चला गया. चाय पीकर फिर अपने घर आ गया. आज राजेन्द्र बाबू का विदाई-समारोह रामलीला मैदान में मनाया गया. सभा में कोई दो लाख आदमी आए हुए थे. वर्षा होने से सबके सब भींग गए. मेरा भी कुर्ता थीह-थीह हो गया. जाकिर साहब नये उपराष्ट्रपति चुने गए हैं. उन्हें देखकर पंडित जी ने कहा, ‘आप तो दूल्हा हैं. अभी आपको परदे में रहना चाहिए.’ मैथिलीशरण जी ने, मैंने और रबिश सिद्दीकी ने राजेन्द्र बाबू पर कविताएँ लिखी थीं. मेरी कविता गीत में थी. उसे रेडियो के कलाकारों ने कोरस में गाकर सुनाया. वह गीत इस प्रकार है:

नन्दिदग्राम के भरत, राजसर के निष्कलुष कमल हे,

जय चिरायु भारत-परम्परा के नवीन सम्बल हे.

राजदंडधर यती, तपोधन, संन्यासी मधुवन के;

जय अभंगव्रत, सिंहासन-शोभित वैराग्य विमस हे.

जनकवंश की विभा, रत्नदीपक अशोक के कुल के,

जय पुनीत गांधी-गंगा के परम स्रोत उज्ज्वल हे.

अनल-मुक्त-मन, वर वैष्णव-जन, पर-पीड़न-भयहारी,

जय शीतल, जय निरभिमान, जय-जय निरीह, निश्छल हे!

डॉक्टर राधाकृष्णन ने राजेन्द्र बाबू की तुलना जनक से की और कहा, ‘मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किंचन.’ इस आधे श्लोक में राजेन्द्र बाबू के व्यक्तित्व का सार आ गया. जवाहरलाल जी ने कहा, ‘ये बारह वर्ष भारत के इतिहास में राजेन्द्र-युग के नाम से समझे जाएँगे.’ अभिनन्दन-पत्रा सुनकर जनता बाग-बाग हो गई थी, लेकिन रेडियो के न्यूज रील में उसका कोई जिक्र नहीं आया. मैंने फोन पर डी.जी. और डी.एन.एस. से इसकी शिकायत की. आवेश में आकर मैंने मंत्राी श्री गोपाल रेड्डी को भी फोन किया. लेकिन मेरी आवाज को गर्म पाकर रेड्डी साहब ने दो-एक वाक्य बोलकर ही फोन को काट दिया. 12 मई, 1962 (दिल्ली) सन्ध्या समय मैथिलीशरण जी और नगेन्द्र मेरे घर पर आए. आज राजेन्द्र बाबू के कार्यकाल की आखिरी रात है, सो हम लोग उनसे मिलने को राष्ट्रपति भवन चले गए. भीड़ तो बहुत बड़ी थी, फिर भी राजेन्द्र बाबू खिसककर हम लोगों के पास आ गए और मुझसे बोले, ‘अच्छा बानी नू?’ 13 मई, 1962 (दिल्ली) आठ बजे भोर में संसद गया. सेंट्रल हॉल में सभी सदस्य जमा हुए. राजेन्द्र प्रसाद, राधाकृष्णन और जाकिर हुसैन का आगमन हुआ. मुख्य कुर्सी पर राजेन्द्र बाबू बैठे, बगल वाली पर राधाकृष्णन. फिर राजेन्द्र बाबू ने अपनी कुर्सी छोड़कर उस पर राधाकृष्णन को बिठा दिया और राधाकृष्णन वाली कुर्सी पर जाकिर हुसैन को. खुद वे तीसरी कुर्सी पर जा बैठे और अदना हो गए. राधाकृष्णन जी का भाषण तेजस्विता के साथ हुआ. राजेन्द्र बाबू जब बोलने को खड़े हुए, उन्होंने जेब से एक मुड़ा हुआ कागज निकाला और उसी को पढ़ा. शायद वह टंकित भी नहीं था. शाम को जब स्टेशन जाने को राजेन्द्र बाबू की सवारी निकली, जनता दोनों ओर खड़ी रो रही थी और राजेन्द्र बाबू बीच से जाते हुए सबको हाथ जोड़ रहे थे. मुझसे यह दृश्य देखा नहीं गया. मैं वहीं सड़क के किनारे लॉन में लेट गया. जिस तरह की विदाई राजेन्द्र बाबू को मिली है, उस तरह की विदाई आगे किसी और राष्ट्रपति को मिलेगी या नहीं, इसका अनुमान लगाना मुश्किल काम है. 5 जून, 1962 (कलकत्ता) बड़ा बाजार पुस्तकालय के उत्सव में गया. केशवन बोले, चन्द्रगुप्त बोले और कुछ मैं भी बोला. बच्चू प्रसाद सिंह ने ‘उर्वशी’ पर वैले तैयार करवाया है. सन्ध्या समय उस वैले को देखने गया. अन्त तक बैठा भी. लड़कों ने पूछा, ‘कैसा उतरा है?’ मैंने कहा, ‘नृत्य तो बहुत अच्छा था, काव्यपाठ में सजीवता नहीं थी.’ लड़कों से पूछना था कि, ‘इसमें उर्वशी कहाँ है?’ मगर यह सोचकर नहीं पूछा कि बच्चों का दिल टूट जाएगा. 16 जून, 1962 (दिल्ली) गांधी शान्ति प्रतिष्ठान ने अणु बम के विरोध में विश्व-सम्मेलन आयोजित किया है. उसका उद्घाटन करने को राजेन्द्र बाबू पटना से आए हैं. उनका भाषण मुद्रित था और बड़े परिश्रम से तैयार किया गया था. उन्होंने राय दी है कि भारत को चाहिए कि वह एकतरफा निःशस्त्राीकरण कर दे. सम्मेलन में राजा गोपालाचारी भी आए हैं. उनका भाषण छपा हुआ नहीं था, लेकिन मजेदार था. 17 जून, 1962 (दिल्ली) आज सम्मेलन में राजा जी बोले, कृपलानी बोले, जयप्रकाश और ढेबर भाई बोले और चूँकि मेरा नाम पुकार दिया गया, इसलिए मैं भी बोला. मंच पर राजा जी, जवाहरलाल और राजेन्द्र बाबू बैठे थे. मैंने कहा, ‘आप लोग चाहे जितना भी पवित्रा प्रस्ताव पास कीजिए, घातक शस्त्रों का आविष्कार नहीं रुकेगा. आप आविष्कर्ता वैज्ञानिकों पर रोक क्यों नहीं लगाते हैं? असली अपराधी वे वैज्ञानिक हैं, जो ऐसी ताकतों की ईजाद करते हैं, जिन्हें सँभालने की नैतिकता मनुष्य में नहीं है. विज्ञान पर रोक लगाए बिना दुनिया में शान्ति नहीं होगी.’ मैंने लक्ष्य किया कि राजा जी जवाहरलाल जी से कुछ पूछ रहे हैं. शायद यह बात कि यह आदमी कौन है. सभा के बाद हीरेन मुखर्जी ने मुझसे कहा, ‘व्हेन यू वेयर स्पीकिंग, आइ फेल्ट लाइक हिटिंग यू. तुम विज्ञान के खिलाफ बोलोगे, यह मैंने नहीं सोचा था.’ आज फिर अंग्रेजी में बोल गया हूँ. क्या पता, भटनागर जी फिर एक नोट खिलाफ लिख दें. राजा जी, पंडित जी और राजेन्द्र बाबूदृये एक मंच पर बैठे हैं. यह दृश्य सुहावना लगता है. 20 जून, 1962 (दिल्ली) जब से श्री गोपाल रेड्डी सूचना मंत्राी हुए हैं, उन्होंने हिन्दी के सरलीकरण की चर्चा चला दी है. नतीजा यह हुआ है कि संस्कृत के जो शब्द सर्वत्रा प्रचलित हैं, उनका भी रेडियो में बहिष्कार किया जा रहा है और जो भाषा गढ़ी जा रही है, वह नकली है. आज सूचना मंत्राी की भाषा-नीति पर राज्य सभा में मेरा भाषण हुआ. मेरी दलील यह थी कि रेडियो में हिन्दी सही दिशा में विकसित हो रही है. आप ऐसी योजना अवश्य बनाइए, जिससे उर्दू का विकास हो, वह इस देश में कायम रहे और फूले-फले. लेकिन हिन्दी को उर्दू बनाने की कोशिश मत कीजिए. हिन्दी संस्कृतनिष्ठ नहीं हुई, तो वह सारे देश में फैल नहीं सकेगी. लगे हाथों मैंने उन लोगों की आलोचना की, जो दिन-रात कहते रहते हैं कि हिन्दी अविकसित भाषा है, उसका साहित्य श्रेष्ठ नहीं है, उसकी तुलना में देश की अनेक भाषाएँ बहुत अच्छी हैं. इस प्रसंग में मेरे मुँह से यह बात भी निकल गई कि हिन्दी की निन्दा करने की यह प्रवृत्ति प्रधानमंत्राी की देखा-देखी बढ़ी है, क्योंकि अन्य भाषा-भाषियों को खुश करने के लिए वे बराबर हिन्दी का मजाक उड़ाते रहते हैं. मोरार जी भाषण ध्यान से सुन रहे थे, मगर मुस्लिम सदस्य उदास थे. गोविन्द रेड्डी को प्रधानमंत्राी की आलोचना अच्छी नहीं लगी. डॉ. नीहार रंजन रे प्रसन्न थे और दक्षिण के सदस्य भी खुश थे कि मैंने संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का समर्थन किया है. मथुरा ने पूरा भाषण गैलरी में बैठकर सुना. भाषण उसे पसन्द भी आया. श्री जगदीश चतुर्वेदी भी गैलरी में बैठे भाषण सुन रहे थे. लगता है, आज मैंने प्रधानमंत्राी को अप्रसन्न कर दिया. लेकिन आग जिस रूप में सुलगाई गई है, उसे हम बर्दाश्त भी कैसे करें?
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