रेलवे स्टेशन पर बम नहीं फटता, तो ये नेता बिहार का मुख्यमंत्री होता
17 दिनों के लिए बिहार के मुख्यमंत्री रहे दीप नारायण सिंह की कहानी.
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चरणपादुका रख इंतजार कर किसी और के वास्ते सत्ता संभालना. हजारों वर्षों से हो रहा है. किसी रोज इंतजार करने वाला खुद सिंहासन पर बैठने की चाह कर ले तो.. कोई कार्यवाहक मुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री बनने की चाह रख ले तो.. और इसके वास्ते तांत्रिक की शरण में जाए. फिर जाए पुरानी दिल्ली के एक होटल में मुलाकात के वास्ते और आखिर में सपना पूरा होने को हो. मगर उससे 72 घंटे पहले हो जाता है रेलवे स्टेशन पर एक धमाका. और फिर सब स्वाहा.
अम्मा बोलीं, निशाचर न बनो और मुख्यमंत्री खाट पर पसर गए
हमने महापुरुषों की जीवनी में स्कूल इंस्पेक्टर के रौब के खूब किस्से सुने हैं. 25 दिसंबर, 1894 को मुजफ्फरपुर जिले के पुरनटांड गांव में जन्मे दीप यही नौकरी करते थे. लेकिन गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन के वास्ते उन्होंने नौकरी छोड़ दी. नेतागिरी शुरू कर दी. कई दफा जेल गए. और फिर जब देश गुलामी की जेल से मुक्त हुआ, चुनाव हुए तो उन्हें कांग्रेस का टिकट मिला. 1952 के पहले विधानसभा चुनाव में दीप नारायण सिंह तब के मुजफ्फरपुर जिले की महनार सीट से विधायक बने. मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने उन्हें अपनी कैबिनेट में बिजली और सिंचाई का मंत्रालय दिया. बाद के वर्षों में दीप नारायण ने लाल बत्ती का उपकार श्रीकृष्ण बाबू के प्रति राजनीतिक वफादारी दिखा चुकाया.कभी भी राजपूत खेमे के नेता और उपमुख्यमंत्री अनुग्रह नारायण सिंह के पाले में नहीं दिखे. इसी वजह से 1957 के विधायक दल चुनाव में श्रीबाबू अनुग्रह बाबू पर 21 साबित हुए. महनार की बजाय इस दफा लालगंज से विधायक बने दीप नारायण श्रीबाबू के साथ खड़े रहे. नेता पद की इस रस्साकशी के कुछ ही महीनों बाद अनुग्रह नारायण का निधन हो गया. उनकी जगह दीप नारायण सिंह को वित्त मंत्रालय मिला. कैबिनेट में ये नंबर 2 की हैसियत थी उस वक्त.
श्रीकृष्ण सिंह दीप नारायण सिंह की मां के कहने पर उनके घर पर रात में ठहरे.
श्रीकृष्ण सिंह का दीप नारायण पर कैसा भरोसा था, इसकी एक बानगी देखिए. हमें ये किस्सा लालगंज के पूर्व विधायक और दीप नारायण के करीबी रहे भरत प्रसाद सिंह ने सुनाया-
"एक बार मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह मुजफ्फरपुर में एक कार्यक्रम में शामिल होकर पटना लौट रहे थे. तभी उन्होंने तय किया कि रास्ते में वे पुरनटांड यानी दीप नारायण सिंह के गांव जाकर उनकी माताजी का आशीर्वाद लेंगे. श्रीबाबू जब पुरनटांड पहुंचे तब तक अंधेरा हो चुका था. उन्होंने अपने पूरे अमले के साथ दीपनारायण सिंह के घर खाना खाया. उसके बाद माताजी का आशीर्वाद लेकर चलने को हुए. तभी माता जी ने अपनी आंचलिक भाषा बज्जिका में कुछ कहा. उसका हिंदी रूपांतरण आपको बताते हैं : 'बाबू, रात में आदमी नहीं, बल्कि निशाचर चलते हैं, इसलिए रात में आप मत जाइए.'श्रीबाबू उनका आग्रह टाल नहीं सके और वहीं रुक गए. लेकिन उनके रुकने से दीप नारायण सिंह के सामने एक नई समस्या खड़ी हो गई. अब मुख्यमंत्री श्रीबाबू अकेले तो थे नहीं. उनके साथ पूरा प्रशासनिक अमला था. डीएम, एसपी, एसडीएम, आईजी, डीआईजी, सपोर्ट स्टाफ वगैरह-वगैरह. दीप नारायण सिंह अपने घर में इतने लोगों के सोने का इंतजाम करने में सक्षम नहीं थे. किसी तरह आसपास के घरों से खाट और चौकी मंगाकर सबके सोने का इंतजाम किया गया और जिन्हें जगह नहीं मिली वे जमीन पर ही सो गए. अगले दिन श्रीबाबू नाश्ता निपटा अमला समेत पटना रवाना हुए. मुख्यमंत्री का रात औचक खाट पर सोना, खूब खबरें बना गया. कुछ बरसों बाद मुख्यमंत्री फिर खबरों में आए. मेजबान और मेहमान दोनों.
मैं दीपनारायण सिंह ईश्वर को साक्षी मानकर...
31 जनवरी 1961 को बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह का देहांत हो गया. उस वक्त बिहार के राज्यपाल थे शिक्षाविद डॉ. ज़ाकिर हुसैन, जो बाद में देश के राष्ट्रपति बने. उनके सामने अजब संकट था. देश में पहली दफा पद पर रहते हुए किसी मुख्यमंत्री का निधन हुआ था. संविधान में इसके बाद के विकल्पों को लेकर कुछ स्पष्टता नहीं थी. ऐसे में हुसैन ने श्रीकृष्ण कैबिनेट के सबसे सीनियर मिनिस्टर दीप नारायण सिंह को कार्यवाहक मुख्यमंत्री की शपथ दिलाने का फैसला किया. 1 फरवरी 1961 से लेकर 17 फरवरी 1961 तक दीप नारायण सिंह बिहार के मुख्यमंत्री रहे. विधायक दल के नए नेता के लिए इस बीच लामबंदियां चलती रहीं और विजेता बनकर उभरे विनोदानंद झा, जो 18 फरवरी को सीएम बने. झा की कैबिनेट में दीप नारायण को अपना पहला पोर्टफोलिया मिला, बिजली और सिंचाई का.बिहार के कार्यवाहक सीएम रहे दीप नारायण सिंह
सूबे की सियासत आगे बढ़ी, कांग्रेस का मस्तूल डावांडोल हुआ. लेकिन विधायक दीप नारायण सिंह. उन्होंने तीसरी दफा सीट बदली. 1967 का चुनाव हाजीपुर से लड़े और जीते. 1969 और 1972 में भी यहीं से जीत विधायक बने. 1967 से 1972 के बीच पटना में कई नेताओं की किस्मत बनी-बिगड़ी. मसलन, झा कामराज प्लान में निपटे. फिर केवी सहाय. और 67 की लहर में महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में बिहार में पहली गैरकांग्रेसी सरकार भी बन गई. जोड़-तोड़ से बनी ये सरकार सालभर न चली. कांग्रेसी सत्ता में लौटे, सतीश प्रसाद सिंह और बीपी मंडल के नाम की तख्तियां मुख्यमंत्री दफ्तर के बाहर टंगीं. मगर बिहार कांग्रेस के पुराने मठाधीश पिछलों की इस नई जातीय गोलबंदी से सामंजस्य नहीं बैठा पाए. 1968 में विनोदानंद झा ने 17 कांग्रेसी विधायकों समेत बगावत कर दी. उनके साथ पार्टी से जाने वाले दूसरे कद्दावर नेता थे, भोला पासवान शास्त्री, एलपी शाही और दीप नारायण सिंह. इनके गुट का नाम हुआ लोकतांत्रिक कांग्रेस.
इस टूट के चलते मंडल सरकार गिरी. एक बार फिर गैरकांग्रेसी विपक्षी एकजुट हुए और बिहार को पहला दलित मुख्यमंत्री मिला, भोला पासवान शास्त्री के रूप में. एक टूट और हुई. अगले बरस. और भी बड़ी. दिल्ली और देश के स्तर पर. कांग्रेस पार्टी में. इंदिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी से निकाले जाने के बाद अपनी पार्टी बना ली, कांग्रेस आर के नाम से. प्रदेश के स्तर पर भी प्रो इंदिरा और प्रो संगठन धड़े बंटने लगे. लोकतांत्रिक कांग्रेस का धड़ा इंदिरा के साथ गया. मुख्यमंत्री भोला पासवान को छोड़कर. इस मर्जर का भी एक दिलचस्प वाकया है.
बिहार के पहले दलित मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री.
लोकतांत्रिक कांग्रेस के कांग्रेस आर में विलय के बाद इस धडे़ को क्या मिलता. इस राजनीतिक नफा-नुकसान पर चर्चा होनी थी. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पटना दौरे पर थीं, राजभवन में रुकी थीं. वहीं मुलाकात तय हुई. मैडम प्राइम मिनिस्टर से बातचीत का जिम्मा मृदुभाषी दीप बाबू को मिला. मीटिंग 10 मिनट चली. वापसी में दीप नारायण एकदम चुप्प. आवास पर गाड़ी रुकी तो बैठकखाने में विनोदानंद झा और दूसरे नेता इंतजार कर रहे थे. तब दीप नारायण ने चुप्पी तोड़ी और अपनी मातृभाषा बज्जिका में जो बोले, उसका आशय ये था कि इन्दिरा गांधी चाहती हैं कि हर राजनीतिक प्रस्ताव सामने वाला रखे और उसे वो स्वीकृत करें, गोया कोई ऐहसान कर रही हों. इधर-उधर की बात हुई, कोई काम की बात नहीं, क्योंकि उन्होंने ये विषय ही नहीं उठाया. विनोदानंद के माथे पर ये सुनकर शिकन आ गई. फिर उन्होंने खुद इंदिरा से बात की और मर्जर हुआ. कुछ बरसों बाद दीपनारायण फिर इंदिरा से मुखातिब हुए, मगर इस दफा में बात नहीं बनी.
मस्ताना बाबा तुम्हें मुख्यमंत्री बनाएगा
1972 के बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस (आर) की जीत हुई और पहले केदार पांडे, फिर अब्दुल गफुर मुख्यमंत्री बने. हाजीपुर के विधायक दीप नारायण दोनों ही सरकारों में मंत्री नहीं बनाए गए. 1974 में अब्दुल गफूर सरकार के खिलाफ छात्रों का बड़ा आंदोलन शुरू हो गया. फिर जेपी में भी इसमें शामिल हो गए और मुख्यमंत्री को हटाने की बात चलने लगी. और ये बात चलते ही कई पुराने दावेदार सक्रिय हो गए. दिल्ली दरबार में उन दिनों बिहार के सबसे ताकतवर नेता थे रेल मंत्री और कांग्रेस के सबसे बड़े फंड मैनेजर ललित नारायण मिश्र. उन्होंने दीप नारायण पर दांव लगाया. लेकिन इस सियासी गठबंधन को कराने वाला था एक तांत्रिक. मस्ताना बाबा.मस्ताना बाबा का असली नाम वैद्यनाथ तिवारी था. कहा जाता है कि उनका दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह, कैबिनेट मंत्री ललित नारायण मिश्र, यहां तक की इंदिरा गांधी तक पर असर था. इन्हीं मस्ताना बाबा का एक जमीन विवाद पर मामला अटक गया. महुआ प्रखंड की एक जमीन थी, जिसको लेकर बाबा का स्थानीय लोगों से विवाद हो गया. मामला पहुंचा, नए बने जिले वैशाली के डीएम प्रभाकर झा के पास. प्रभाकर झा दीप नारायण सिंह के बेहद करीबी थे. सलाहकारों ने मस्ताना बाबा से कहा, दीप नारायण को साधो, तो सब सध जाएगा. मस्ताना बाबा पहुंचे ललित नारायण के पास. और ललित को लगा कि यही वो मोहरा है, जिसे आगे वो अब्दूल गफूर को मात दे सकते हैं.
सिंचाई मंत्री जगन्नाथ मिश्र के साथ दीप नारायण दिल्ली पहुंचे. पुराने दिल्ली के एक होटल में ठहरे. यहीं पर उनसे मिलने रेल मंत्री ललित बाबू और इंदिरा के निजी सचिव आरके धवन पहुंचे.
कुछ महीनों में दोनों नेताओं में खूब छनने लगी. उन दिनों के विधायक भरत सिंह बताते हैं कि अक्टूबर 1974 में 'ऑपरेशन परिवर्तन' शुरू हुआ. ललित नारायण के छोटे भाई और गफूर सरकार में सिंचाई मंत्री जगन्नाथ मिश्र के साथ दीप नारायण दिल्ली पहुंचे. पुराने दिल्ली के एक होटल में ठहरे. यहीं पर उनसे मिलने रेल मंत्री ललित बाबू और इंदिरा के निजी सचिव आरके धवन पहुंचे. सारा इंतजाम मस्ताना बाबा का था. तय हुआ कि कुछ दिनों के बाद प्रधानमंत्री गफूर को इस्तीफा का निर्देश देंगी और दीप नारायण शपथ लेंगे. लेकिन इन सबमें कुछ दिन की बजाय कुछ महीने लग गए. मस्ताना बाबा दूसरे विकल्प तौलने में लगे थे. फिर तय हुआ कि जनवरी 1975 में ये बदलाव होगा. अब तक जेपी के नेतृत्व में आंदोलन और फैल चुका था और इंदिरा पर दबाव बढ़ गया था. इस सबके बीच ललित बाबू का पटना ट्रंक कॉल आया. रेल मंत्री 2 जनवरी को समस्तीपुर पहुंच रहे थे. बड़ी लाइन के उदघाटन के लिए. फिर तीन दिन का गृह जिले सहरसा का दौरा. 6 जनवरी को पटना और उसके बाद गफूर इस्तीफा, दीप नारायण शपथ का प्रसंग घटता.
ललित नारायण पटना आए, मगर तयशुदा कार्यक्रम के तहत नहीं. लाल की बजाय नीली बत्ती में. दरअसल 2 जनवरी को समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर उद्घाटन के सरकारी कार्यक्रम के दौरान बम धमाका हुआ. ललित बाबू बुरी तरह घायल और फिर कुछ रोज बाद पटना के रेलवे अस्पताल में उनकी मौत हो गई. नेतृत्व परिवर्तन का प्रसंग फिर टल गया और जब ये हुआ, जून 1975 में तो नाम घोषित हुआ जगन्नाथ मिश्र का. बदली राजनीतिक परिस्थिति और संजय गांधी के दखल ने सब मंज़र बदल दिए. कांग्रेस महासचिव पीवी नरसिम्हा राव पटना आए और आलाकमान की इच्छा बता जगन्नाथ को शपथ दिला चले गए.
आगे की कहानी कई दफा सुनी-सुनाई जा चुकी है. इमरजेंसी का लगना और हटना और फिर जनता पार्टी की सत्ता में एंट्री. मगर कहानी तो दीप नारायण की चल रही थी. वो 1977 का चुनाव नहीं लड़े. नए निज़ाम के पहले बरस में ही 7 दिसंबर 1977 को हाजीपुर में उनका निधन हो गया.
दीप नारायण सिंह म्यूजियम.
क्या ये शहर उनको याद रखता है. एक इमारत तो याद करती है, जो उनके नाम पर है. दीप नारायण सिंह म्यूजियम. दरअसल दीप बाबू को इतिहास की समझ थी. वो अपने सहयोगी रामपुकार सिंह के साथ मिलकर हाजीपुर के नजदीक के चेचर गांव जाते थे. वहां पुरातात्विक धरोहरें मिल रही थीं, खुदाई में. एक अनुमान के मुताबिक, करीब 500 सोने के सिक्के और अन्य चीजों को इकट्ठा कर उन्होंने पुरातत्व विभाग में जमा करवाया. और इसी के चलते विभाग ने अपने भवन का नाम उनके नाम पर रखा.
सब लड़ाई नाम की रहती है. जीते-जी पट्टियों पर. मरने पर भी पट्टियों पर.