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ऐसा फंगस मिला जिसे न तो हवा चाहिए न रोशनी, बस खाने के लिए प्लास्टिक मिल जाए

अमेजन के जंगलों में वैज्ञानिकों को एक ऐसा फंगस मिला, जो प्लास्टिक खाकर पचा लेता है. यह खोज दुनिया को प्लास्टिक कचरे से मुक्ति दिलाने में अहम भूमिका निभा सकती है.

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Amazon plastic eating fungus
अमेजन के जंगल में वैज्ञानिकों को अनोखा फंगस मिला (India Today)
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राघवेंद्र शुक्ला
18 जुलाई 2025 (Published: 08:33 PM IST) कॉमेंट्स
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प्लास्टिक के बारे में हम सभी जानते हैं कि यह न तो सड़ता है न गलता है. आज जैसा है, सालों बाद भी वैसा ही मिलेगा. जमीन से लेकर समंदर तक में प्लास्टिक का कचरा इंसानों और जानवरों के लिए मुसीबत बना हुआ है लेकिन क्या आप ये जानते हैं कि इस 'अक्षय' प्रदूषण से निजात पाने की दिशा में इंसानों को बड़ी सफलता हाथ लगी है. अमेजन के जंगलों में एक फंगस मिला है, जो प्लास्टिक खाता है. यानी उसका ‘भोजन’ ही प्लास्टिक है.

लेकिन ये कैसे संभव है? 

हम तो यही जानते हैं कि प्लास्टिक के एटम बहुत मजबूत पॉलीमर चेन (polymer chains) होते हैं. बहुत ज्यादा स्थिर (stable), जिन्हें तोड़ना न तो किसी केमिकल के बस का है और न बैक्टीरिया के. न पानी से ये नष्ट होते हैं और न ही आग से. इनके अणुओं को तोड़ना जैसे ‘मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी हो.’ फिर ये कौन से फंगस हैं, जो प्लास्टिक पचा जाते हैं. 

पहले तो यही जान लेते हैं, ये फंगस होते क्या चीज हैं? 

फंगस को हिंदी में कवक कह देते हैं, जो होते हैं पेड़ों के 'बड़े भाई'. यानी अरबों साल पहले जब धरती पर पेड़ भी नहीं आए थे, तब भी ये थे. पृथ्वीलोक पर फंगस का ‘एकछत्र राज’ था. पूरी धरती पर यही छाए थे. पेड़ तो आए 70 करोड़ साल पहले.

फंगस से हम सभी खूब परिचित हैं. जो मशरूम हम बड़े चाव से खाते हैं, वह भी एक फंगस ही है. आसान भाषा में इसको ऐसे समझिए कि ये ऐसी चीज होते हैं, जो न तो पेड़ हैं न जानवर. अलग ही ‘प्रजाति’ है और अक्सर नमी वाली जगहों पर उग आते हैं. सड़ी-गली चीजों को खाकर जिंदा रहते हैं. इतना ही नहीं, ये अपने एंजाइम से ‘कूड़े को भी पौष्टिक बनाने की क्षमता रखते हैं’.

ऐसा ही एक फंगस अमेरिका के येल यूनिवर्सिटी के कुछ छात्रों ने इक्वाडोर में खोज निकाला. इक्वाडोर दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप का एक छोटा सा देश है, जो पेरू, कोलंबिया, ब्राजील और समुंदर से घिरा है. अमेजन के विशाल जंगल का कुछ हिस्सा इस देश में भी पड़ता है. इन्हीं जंगलों में रिसर्च के दौरान येल यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स को एक अजीबो-गरीब फंगस मिला. वह इसे अपने लैब में लेकर आए. एक्सपेरिमेंट के दौरान उन्होंने पाया कि यह फंगस तो प्लास्टिक खाता है. 

वैज्ञानिकों ने इस फंगस को नाम दिया- Pestalotiopsis microspora यानी पेस्टालोटिओप्सिस माइक्रोस्पोरा. रिसर्च करने वाले लोग तो तब हैरान रह गए जब उन्होंने देखा कि ये फंगस सबसे हार्ड प्लास्टिक को भी पचा जाता है. सिर्फ दो हफ्ते लगेंगे. यह ऐसे प्लास्टिकों की परत को डेढ़ से 3 सेमी तक खा जाएगा. 

और तो और जिंदा रहने के लिए इसे न तो हवा चाहिए न रोशनी. बस अंधेरा और प्लास्टिक मिले तो भी यह मस्त जीवन जी लेगा.

लेकिन फंगस ये सब कैसे कर पाता है?

अपने शोध में वैज्ञानिकों ने पाया कि पेस्टालोटिओप्सिस माइक्रोस्पोरा फंगस ‘सिरीन हाइड्रोलेस’ नाम का एंजाइम रिलीज करते हैं. यह 'अखंड' प्लास्टिक के अणुओं को भी तोड़कर रख देता है और देखते-देखते पूरा प्लास्टिक डिकंपोज हो जाता है. इस प्रॉसेस को ‘मायकोरिमेडिएशन’ कहते हैं. ‘ये नाम कहां से आया’ का सवाल मन में उठ रहा है तो इसका जवाब है, 

फंगस के नीचे जमीन में फैले रेशों जैसे हिस्से को ‘मायसिलियम’ कहते हैं. यहीं से फंगस एंजाइम छोड़ते हैं. इसी मायसिलियम से ‘मायकोरिमेडिएशन’ बना है.

लेकिन हां, पेस्टालोटिओप्सिस माइक्रोस्पोरा अकेले ऐसे फंगस नहीं हैं, जो प्लास्टिक खा लेते हैं. पिछले साल अगस्त में जर्मनी के वैज्ञानिकों ने भी ऐसा ही एक फंगस खोजा था. 

जर्मनी के उत्तर-पूर्वी हिस्से में एक झील है- स्टेखलिन. यहां वैज्ञानिकों को कुछ छोटे फंगस (microfungi) दिखे जो सिर्फ प्लास्टिक खाकर जिंदा रह सकते थे. वैज्ञानिकों ने ऐसे 18 तरह के फंगस पर प्रयोग किया, जिनमें से 4 ने सबसे ज्यादा तेजी से प्लास्टिक खाया. पॉलीयूरेथेन जिससे फोम बनता है, उसे खाने में ये फंगस बहुत तेज निकले. लेकिन, जिनसे प्लास्टिक बैग बनता है, ऐसे पॉलीएथिलीन को खाने में उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ी. 

एक बात और. ऐसा नहीं है कि ये फंगस हमेशा से ही प्लास्टिक खाते थे. 

जर्मनी के वैज्ञानिक हांस-पीटर ग्रोसार्ट बताते हैं कि आजकल पर्यावरण में इतना ज्यादा प्लास्टिक हो गया है कि इन फंगसों ने अब वही खाना सीख लिया है. 

तो अब देर किस बात की है? 

प्लास्टिक प्रदूषण ने पूरी दुनिया की नाक में दम कर रखा है. वेस्टडायरेक्ट की रिपोर्ट कहती है कि दुनिया में हर साल करीब 380 मिलियन टन प्लास्टिक बनता है, जिसमें से 40% सिर्फ एक बार इस्तेमाल किए जाते हैं और फिर फेंक दिए जाते हैं. प्लास्टिक कचरे का 91% हिस्सा कभी रीसायकल नहीं होता. यह कचरे के ढेरों में या फिर समुद्र में चला जाता है. फिर सरकार ऐसा क्यों नहीं करती कि प्लास्टिक खाने वाले फंगसों का उत्पादन बढ़ाए और ‘सुरसा-मुख’ की तरह बढ़ते प्लास्टिक कचरे का खात्मा तेज करे.

ग्रोसार्ट इसका जवाब भी देते हैं. वह कहते हैं कि ऐसे फंगस का इस्तेमाल सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट जैसी जगहों पर तो किया जा सकता है, जहां हालात काबू में होते हैं लेकिन ये पूरी दुनिया में फैले प्लास्टिक कचरे को रोकने का कोई बड़ा हल नहीं हैं. इसके लिए जरूरी है कि हम कोशिश करें कि जितना हो सके उतना कम प्लास्टिक पर्यावरण में छोड़ें.

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