जब जादू टोना करने वाली भैरवी मिली एक ऐक्टर से
हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्मदिन 19 अगस्त को होता है. पढ़िए उनके चर्चित उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा का अंश.
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फोटो - thelallantop
हजारी प्रसाद द्विवेदी यानी हिंदी का हरफनमौला साहित्यकार. कब उनकी मारी गप्प, उसमें जरा सा कल्प यानी कल्पना जोड़कर अच्छी-खासी गल्प बन जाएगी कोई नहीं जानता. बाणभट्ट की आत्मकथा उनका एक बहुचर्चित उपन्यास है. हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्मदिन 19 अगस्त को होता है. पढ़िए उनके उपन्यास का प्रमुख अंश-
भैरवी ने एक बार मुझे नीचे से ऊपर तक ध्यान से देखा. बोली, ‘‘तू ब्राह्मण है?’’ ‘‘मेरा जन्म ब्राह्मण-वंश में ही हुआ है, मातः!’’ ‘‘वैदिक क्रिया का अभ्यास है?’’ ‘‘बहुत थोड़ा.’’ ‘‘इस साधना-गृह में तूने क्या किया है?’’ मैं ठीक समझ नहीं सका कि भैरवी मुझसे क्या जानना चाहती हैं. कोई वैदिक क्रिया मैंने यहां नहीं की है; पर प्रांगण-गृह में एक गीली मिट्टी की वेदी अब भी है, मुझे उसकी सफाई तो देनी ही होगी. फिर प्रसंगवश भट्टिनी की बात भी चल सकती है. इस समय तक वाममार्गी साधकों के सम्बन्ध में मेरे मन में श्रद्धा का भाव नहीं था. विशेषकर इन भैरवियों के सम्बन्ध में मैंने ऐसी बातें सुन रखी थीं, जिनसे उनके विषय में श्रद्धा नहीं बढ़ सकती. इसलिए मैंने अपने को दबाया. बोला, ‘‘इस गृह में मैं बहुत थोड़ी देर ही रहा हूं, देवि! यहां मैंने कोई वैदिक या अवैदिक अनुष्ठान नहीं किया.’’ भैरवी भी मेरे मुख को देखकर समझ गई कि मैं कुछ छिपा रहा हूं. बोलीं, ‘‘ठीक-ठीक बता, नहीं तो अमंगल होगा.’’ इस बार मैं डरा. इन भैरवियों से मंगल चाहे न हो, अमंगल अवश्य होता है. मेरा ऐसा विश्वास था. हाथ जोड़कर बोला, ‘‘अज्ञ जन के ऊपर दया होनी चाहिए, मातः!’’ भैरवी ने स्मित हास्य किया. यह हंसी नारी-जनोचित बिलकुल नहीं थी. उसमें किसी प्रकार के शील, विनय, लज्जा या माधुर्य का एकदम अभाव था. वह रूखी नहीं थी, रहस्यपूर्ण थी. उल्का के क्षणभंगुर प्रकाश की भांति वह हंसी मेरे मन में आशंका को दीप्त कर गई. मैंने फिर भीत-भीत भाव से कहा, ‘‘अपराध क्षमा हो, मातः!’’ भैरवी ने कहा, ‘‘इधर आओ.’’ और फिर ज़रा ज़ोर से पुकारकर कहा, ‘‘आर्य, यह देखो कौन है?’’ भैरवी मुझे टूटी दीर्घिका (तालाब) के घाट पर ले गईं. यहां पहले से ही तीन व्यक्ति उपस्थित थे. दो तो कोई साधक भैरव और भैरवी थे, पर एक महात्मा उनमें विशेष थे. वे व्याघ्र-चर्म पर अर्द्धशायित अवस्था में लेटे हुए थे. उनके शरीर से एक प्रकार का तेज निकल रहा था. सिर पर केश नहीं के समान थे; पर कान की शष्कुलियां श्वेत केशों से आच्छादित थीं. ललाट-मंडल की सहज वलियां कूर्चप्रदेश तक व्याप्त हो गई थीं. आंखों के ऊपर की दोनों भ्रूलताएं मिल गई थीं और सारा मुखमंडल छोटे-छोटे श्मश्रु-लोमों से परिव्याप्त था. उनकी आंखें बहुत ही आकर्षक थीं. उन्हें देखकर बड़ी-बड़ी समुद्री कौड़ियों का भ्रम होता था. ऐसा जान पड़ता था कि वे आंखें पूरी-पूरी कभी खुली ही नहीं थीं. सदा आधी ही खुलती रहने के कारण उनके नीचे मांस-खंड फूल उठे थे और कोनों में एक प्रकार की स्थायी सिकुड़न आ गई थी. उनके वेश में कोई विशेष साम्प्रदायिक चिह्न नहीं था; केवल दाहिनी ओर रखा हुआ पान-पात्र देखकर अनुमान होता था कि वे कोई वाममार्गी अवधूत होंगे. उनके पहनावे में एक छोटा-सा वस्त्रा-खंड था, जो लाल नहीं था और तन ढकने के लिए पर्याप्त तो किसी प्रकार नहीं था. उनकी तोंद कुछ ज्यादा निकली दिखती थी, यद्यपि वह उतनी अधिक निकली हुई थी नहीं. भैरवी ने उनके पास आकर कहा, ‘‘बाबा, यह देखो, यह व्यक्ति साधना-गृह को भ्रष्ट कर आया है.’’ बाबा की आंखें मुंदी हुई थीं. भैरवी की वाणी सुनकर वे ज़रा सचेत हुए और उन्होंने अपनी आधी खुली आंखों से क्षण-भर के लिए मेरी ओर ताका. वह दृष्टि बहुत ही पवित्र जान पड़ी. बाबा ने फिर आंखें बन्द कर लीं. थोड़ी देर तक उसी अवस्था में रहने के बाद बोले, ‘‘मायाविनी! मायाविनी! मायाविनी!!’’ मुझे ऐसा लगा, मानो वे प्रत्यक्ष सबकुछ देख रहे हैं, जैसे त्रिकाल उनके हाथ में आमलक फल के समान सुदर्श है. भैरवी ने फिर एक बार मेरे विरुद्ध अभियोग किया. बाबा ने बच्चे की भांति हंसते हुए कहा, ‘‘क्यों रे, वहां क्यों गया था? पगले, वह मायाविनी है, उसके जाल में फंस गया.’’ यह कहकर उन्होंने चंडी मंडप की मूर्ति की ओर इशारा किया. फिर बोले, ‘‘अकेला था?’’ मुझे ऐसा लगा कि बाबा जान गए हैं, उनसे कुछ छिपाना व्यर्थ है. परन्तु बाबा का अभिप्राय कुछ और ही था. मैं समझ नहीं सका और गिड़गिड़ाकर बोल उठा, ‘‘कल रात को दो दुखिनी स्त्रिायों को लेकर इस गृह में आश्रय लिया था, बाबा! इस गृह में हमने खाया-पिया है और जूठन से इसे अपवित्र किया है. मैं जिस दुखिनी कन्या को आश्रय देने के लिए यहां ले आया था, उसने महावराह की पूजा भी की है.पर सबकुछ अनजान में हुआ है. अपराध क्षमा हो, आर्य!’’ यह कहकर मैंने भयपूर्वक प्रणिपात किया. बाबा बोले, ‘‘डरता है रे!’’ मैंने संक्षेप में उत्तर दिया, ‘‘हां बाबा!’’ बाबा कुछ इस प्रकार सजग हो गए, जैसे किसी बच्चे को कोई तमाशा देखने को मिल गया हो. उठकर सीधे बैठ गए और कौतूहल के साथ बोले, ‘‘इधर आ!’’ मैं जब उनके पास गया, तो उन्होंने मेरा ललाट छू दिया. मेरे दोनों भ्रुओं के मध्यभाग को उन्होंने अपने अंगुष्ठ से दबाया और फिर हटा लिया. मेरा सिर चकरा गया. क्षण-भर में मेरे सामने एक भयंकर दृश्य उपस्थित हो गया. मैंने देखा कि भट्टिनी और निपुणिका नाव में बैठी पूरब की ओर जा रही हैं. उधर पूर्वी आकाश काले बादलों से छा गया है. बादलों के आगे-आगे पिंगल वर्ण की धूलि दौड़ रही है और उसके भी आगे छोटे-छोटे तालचंचु पक्षियों का एक दल धूल और बादलों के साथ खेलता हुआ भागा जा रहा है. मैं किनारे पर खड़ा हूं. बादल और घने हो गए. वायुमंडल में थोड़ी सर्दी का आभास मिला. फिर भयंकर प्रभंजन के साथ-ही-साथ आकाश-मंडल में विकट विद्युत्-स्फोट हुआ. गंगा की लहरें एक-दूसरे से क्रुद्ध भाव से भिड़ गईं. आकाश धूलि से, दिङ्मंडल अन्धकार से और गंगा का प्रवाह फेन-पुंज से आच्छादित हो गया. देखते-देखते भट्टिनी की नौका अन्धकार में अदृश्य हो गई. मेरे हृदय और मस्तिष्क निष्क्रिय-निश्चेष्ट हो गए. मुंह से आवाज नहीं निकली. पैरों के नीचे पृथ्वी कुम्भकार के चक्र की भांति घूमने लगी. इसी समय बिजली चमकी. नाव धारा में बैठ गई. निपुणिका और भट्टिनी पानी में कूद पड़ीं. फिर अन्धकार, गर्जन, फूत्कार! मेरा मस्तक झनझना उठा. शिराएं इस प्रकार स्फीत हो उठीं, जैसे वे रक्त के दबाव को अधिक नहीं सह सकेंगी. बादल फैलते गए, आंधी का वेग बढ़ता गया, गर्जन का शब्द ऊंचा होता गया, फूत्कार का विकट विराव दिङ्मंडल में व्याप्त होता गया. मैं चिल्ला उठा, ‘‘त्रहि आर्य, त्रहि!’’ इस समय मेरे ललाट में फिर एक बार अंगुलि-स्पर्श का अनुभव हुआ. गंगा की धारा शान्त हो गई, आकाश स्वच्छ हो गया और भुवन-मंडल प्रसन्न जान पड़ा. मैंने देखा, भट्टिनी नौका में आराम कर रही हैं. निपुणिका उनके पैरों के पास बैठी हुई कुछ कह रही है. भट्टिनी का मुख प्रसन्न है, आंखें उत्सुकता से भरी हैं और कपोलपालि विकसित है. फिर मैंने बाबा की ओर देखा, उनकी अधखुली आंखों में मीठी-मीठी हंसी है. मैंने भीत-भीत भाव से कहा, ‘‘बाबा, यह क्या देखा मैंने? ऐसा ही होनेवाला है क्या?’’ बाबा बच्चों के समान विनोद करते हुए बोले, ‘‘मैं क्या जानूं?’’ फिर उनकी आंखें मुंद गईं. कुछ भावावेश की-सी अवस्था में बोले, ‘‘कितनी माया जानती है, पगली!’’ फिर मुझे लक्ष्य करके बोले, ‘‘क्यों रे, डरता है क्या?’’ ‘‘मेरा अपराध क्षमा करें, आर्य!’’ ‘‘तूने कोई अपराध किया है रे?’’ ‘‘मैं साधारण मनुष्य हूं, आर्य! अपराध करता ही रहता हूं; किन्तु जान-बूझकर कभी किसी का अनिष्ट नहीं किया है. मैं अमंगल से डरता हूं.’’ ‘‘ब्राह्मण है?’’ ‘‘हां, आर्य!’’ ‘‘तेरी जाति ही डरपोक है. क्यों रे, महावराह पर तेरा विश्वास नहीं है?’’ ‘‘है, आर्य!’’ ‘‘झूठा! तेरी जाति ही झूठी है! क्यों रे, तू आत्मा को नित्य मानता है?’’ ‘‘मानता हूं, आर्य!’’ ‘‘पाखंडी! तेरे सब शास्त्रा पाखंड सिखाते हैं! क्यों रे, कर्मफल मानता है?’’ बाबा के इस प्रश्न का उत्तर अब सहज ही मैं नहीं दे सका. फिर न जाने मेरी जाति पर कौन-सा विशेषण बैठा दिया जाए. ज़रा-सा वक्रभंगी से कतरा जाने की चेष्टा करते हुए मैंने कहा, ‘‘कैसे कहूं बाबा!’’ बाबा हंसे. बोले, ‘‘बता न, तू कर्मफल मानता है या नहीं?’’ ‘‘मानता हूं, आर्य!’’ ‘‘तो अमंगल से क्यों डरता है? मिथ्याचारी है तू!’’ ‘‘हां, आर्य, सो तो हूं.’’ ‘‘तो कुछ सच्ची बात सीख न!’’ ‘‘क्या आर्य?’’ ‘‘यही कि डरना नहीं चाहिए. जिस पर विश्वास करना चाहिए, उस पर पूरा विश्वास करना चाहिए, चाहे परिणाम जो हो. जिसे मानना चाहिए, उसे अन्त तक मानना चाहिए.’’ ‘‘माया-पंक में डूबा हुआ संसार-कीट हूं, आर्य! बहुत-कुछ समझता हूं; पर कर नहीं पाता.’’ ‘‘प्रपंची! तेरी जाति ही प्रपंची है. सौ बात क्यों समझता फिरता है? एक को समझ और उसी को कर. क्यों रे, उस लड़की पर तेरी ममता है न?’’ यह अजीब प्रश्न है. क्या जवाब दूं? चुप रहना ही ठीक समझा. बाबा ने इसी समय उस भैरवी से कहा, ‘‘महामाया! सब ठीक है न?’’ भैरवी ने कहा, ‘‘अभी ठीक हो जाता है.’’ यह कहकर वे और दोनों अन्य साधक भी उठ पड़े. मैं अकेला रह गया. बाबा ने मुझसे फिर पूछा, ‘‘क्यों रे, बताता क्यों नहीं?’’ मैंने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘उस कन्या का सेवक होना गौरव का विषय है, आर्य! मैं उसके मंगल के लिए प्राण तक दे सकता हूं.’’ बाबा हंसते रहे. बोले, ‘‘ना रे पागल, प्राण मैं नहीं मांगता. मैं जानना चाहता हूं कि उस कन्या पर तेरी ममता है या नहीं. सीधा क्यों नहीं कहता कि है. तेरी जाति ही टेढ़ी है. हां रे, और महावराह पर तेरी ममता है?’’ ‘‘है आर्य!’’ ‘‘मान ले कि एक निशाचर अचानक आकर तुझे धर दबाए और अपने बाएं हाथ में तेरी स्वामिनी को और दाहिने हाथ में महावराह की मूर्ति को लेकर बोले कि तू अपना प्राण देकर किसी एक को बचा सकता है, तो तू किसे बचाने के लिए प्राण देना पसन्द करेगा?’’ बाबा बेढब जीव हैं. ऐसा भी प्रश्न किया जाता है! मैं चुप हो रहा. थोड़ी देर तक सोचकर बोला, ‘‘मैं दोनों को बचाना चाहूंगा.’’ बाबा क्रोध से कांप उठे, ‘‘फिर झूठ बोलता है, जन्म का पातकी, कर्म का अभागा, मिथ्यावादी, पाषंड!! महावराह को बचाएगा तू, दम्भी!’’ मैं हतचेष्ट, निर्वाक् स्तब्ध! बाबा का क्रोध वास्तविक नहीं था. मेरी परीक्षा लेने के लिए ही उन्होंने यह रूप धारण किया था. मैं विचलित हो गया. मेरी इच्छा के विरुद्ध जैसे किसी ने मुझसे कहलवा लिया, ‘‘प्राण देकर मैं भट्टिनी को बचाऊंगा.’’ बाबा हंसने लगे. उनकी अर्द्धमुद्रित आंखें चमक उठीं. बोले, ‘‘अभागा, सारी जिन्दगी में तूने यही एक बात सच कही है. क्यों रे, लजाता है? दुत् पगले, उस मायाविनी के जाल में फंस रहा है? क्या बुरा है रे, त्रिपुर-सुन्दरी ने जिस रूप में तेरे मन को लुभाया है, उसे साहसपूर्वक स्वीकार क्यों नहीं करता? तू अभागा ही बना रहेगा, भोले! तेरे मन में महावराह से अधिक पूज्य भावना उस लड़की के प्रति है. है न रे? फिर झूठ बोलेगा भाग्यहीन?’’ ‘‘ना बाबा, झूठ क्या मैं समझ-बूझकर बोल रहा हूं, कोई बुलवा रहा है. भट्टिनी के प्रति मेरी पूज्य भावना है, यह ठीक बात है.’’ ‘‘हां, तू अब ठीक कह रहा है. भुवनमोहिनी का साक्षात्कार पाकर भी तू भटकता फिर रहा है पागल! देख रे, तेरे शास्त्रा तुझे धोखा देते हैं. जो तेरे भीतर सत्य है, उसे दबाने को कहते हैं; जो तेरे भीतर मोहन है, उसे भुलाने को कहते हैं; जिसे तू पूजता है, उसे छोड़ने को कहते हैं. मायाविनी है यह मायाविनी, तू इसके जाल में न फंस. समस्त पुरुषों को भरमा रही है, स्त्रिायों को सता रही है, माया का दर्पण पसारे है. तू उसे नहीं देखता, मैं देख रहा हूं. तुझे देखकर वह हंस रही है.’’ मैं मुग्ध-सा बना बाबा की ओर देख रहा था. उनका प्रत्येक वाक्य मेरे अन्तस्तल में उथल-पुथल मचा देता था जैसे वर्षों की गंदगी साफ हो रही हो. बाबा की बातें जितनी विचित्र थीं, उतनी ही भेदक भी. थोड़ी देर तक अभिभूत-सा बना रहने के बाद मैंने हाथ जोड़कर पूछा, ‘‘क्यों बाबा, मैंने जो कुछ देखा है, वही घटनेवाला है क्या?’’ बाबा ने निर्ममता के साथ कहा, ‘‘तो बुरा क्या है रे? इसके झांसे में क्यों आता है? घटने न दे, कितना आनन्द आ जाएगा! तू भूलता है, पागल! इसे लीला में रस मिलता है न! अच्छा, ठीक बता, तू उस लड़की को क्या समझता है?’’ ‘‘मैं...मैं...मैं...’’ ‘‘धिक् मूर्ख, कुछ बता न! जो बात तेरे मन में पहले आवे, वही कह जा.’’ ‘‘वह पवित्रता की मूर्ति है, आर्य!’’ ‘‘तू पशु नहीं है!’’ मैं कुछ भी समझ न सका. इसी समय महामाया नामक भैरवी आईं. बाबा ने उनसे कहा, ‘‘महामाया, यह पशु नहीं जान पड़ता; किन्तु वीर भी नहीं है. अमंगल से डरा हुआ है. इसे आज का प्रसाद देना. अमंगल से इसका चित्त विक्षिप्त हो रहा है.’’ महामाया क्षण-भर ठिठककर खड़ी रहीं. फिर विनीत भाव से बोलीं, ‘‘अधिकारी है, आर्य?’’ बाबा फिर हंसे, ‘‘तुम भी अभी उसके जाल से नहीं निकलीं, महामाया! कह तो दिया, पशु नहीं है. अधिकारी नहीं होगा, तो क्या कर लेगा? तुम्हें बदनाम करता फिरेगा, यही न? डरती हो. दुत् पगली, तू भी डरती है?’’ महामाया ने कहा, ‘‘जो आज्ञा, आर्य!’’ बाबा ने कहा, ‘‘ठहरो महामाया, तुम्हें प्रत्यय दिला दूं.’’.यह कहकर उन्होंने मुझे पास बुलाया. न जाने क्या फिर देखने को मिले, यह सोचकर मैं डरता-डरता उनके पास गया. उन्होंने मेरा उत्तरीय हटा दिया और मेरु-दंड की धीरे-धीरे परीक्षा की. आधी पीठ तक आकर उन्होंने हाथ हटा लिया. बोले, ‘‘मैं ठीक कह रहा हूं, महामाया! यह देखो, इसकी कुंडलिनी जाग्रत है.’’ महामाया भैरवी ने भी हाथ से उस स्थान को छूकर देखा. आश्वस्त होकर बोलीं, ‘‘तो जैसी आज्ञा हो, बाबा!’’ ‘‘इसे कुएं के पास बैठा लेना!’’ फिर मेरी ओर देखकर बोले, ‘‘अमंगल दूर हो जाएगा, पर तू अमंगल को मंगल क्यों नहीं मान लेता? आज पूर्णिमा लगते ही इन लोगों की गोपन साधना होगी. महामाया तुझे प्रसाद देंगी. उसे तू निष्ठा के साथ ग्रहण कर और देख बाबा, भटकता न फिर. इस ब्रह्मांड का प्रत्येक अणु देवता है. देवता ने जिस रूप में तुझे सबसे अधिक मोहित किया है, उसी की पूजा कर. आ, तुझे मन्त्र बता दूं.’’ मैं बाबा के पास इस प्रकार खिंच गया, जैसे लोहा चुम्बक से खिंच जाता है. उन्होंने मुझे एक मन्त्र बताया और कहा, ‘‘जब तेरे चित्त में भय, लोभ और मोह का संचार हो, तो तू इसे ही जपा कर.’’ मैंने भक्तिपूर्वक बाबा की बात स्वीकार की. थोड़ी देर तक बाबा निश्चल-से बैठे रहे. फिर किसी के पैरों की आहट सुनकर उन्होंने आंखें खोलीं. बोले, ‘‘कौन है?’’ ‘‘विरतिवज्र हूं, आर्य!’’ ‘‘आओ.’’ विरतिवज्र की अवस्था पच्चीस के नीचे ही जान पड़ती थी. उनका मुखमंडल स्वच्छ, मोहनीय और आकर्षक था. उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं के समान चीवर धारण किया था; पर चीवर का रंग पीला न होकर लाल था. चांदनी में वह रंग और भी खिल उठा था. उनका कंठ-स्वर भी कोमल और बालकोचित था. बाबा को भूमिष्ठ होकर प्रणाम करके वे एक स्थान पर शान्त-भाव से बैठे रहे. बाबा उसी प्रकार झीमते-से रहे. फिर थोड़ी देर बाद उन्होंने पूछा, ‘‘क्या निश्चय किया है, विरति?’’ ‘‘कुछ समझ नहीं सका, आर्य! मेरे आदिगुरु अमोघवज्र ने मुझे ऐसा कुछ करने को नहीं कहा था. उन्होंने केवल नैरात्म्य की भावना में स्थिर रहने का उपदेश दिया था. एक बार मेरा चित्त जब बहुत उत्क्षिप्त हो गया था तब गुरु भी चिन्तित हुए. अपने मानसिक उत्क्षेप का कारण तो आपसे निवेदन कर ही चुका हूं. एक दिन अचानक उन्होंने मुझे बुलाकर कहा, ‘आयुष्मान, मैं अब अधिक दिन नहीं रह सकूंगा. तू कौलाचार्य अघोर भैरव के पास जा. वे ही तेरी व्यवस्था कर देंगे.’ उसी दिन से मैं आर्य की खोज में था. पर मैं अपने आदिगुरु की बात ठीक नहीं समझ सका कि क्यों उन्होंने मुझे आपके पास भेजा!’’ ‘‘नैरात्म्य-भावना तुम्हारी समझ में आई है?’’ ‘‘नहीं, आर्य!’’ ‘‘तुम्हारे ऊपर कोई विश्वास करे, तो उसे छोड़ सकने का साहस है तुममें?’’ ‘‘नहीं, आर्य!’’ ‘‘तुम और मैं का भेद भूलने में तुम्हें रस मिलता है?’’ ‘‘हां, आर्य!’’ ‘‘पुरुष और स्त्राी का भेद तुम भूल सकते हो?’’ ‘‘नहीं, आर्य!’’ ‘‘बुद्ध और बद्ध का भेद तुम्हें अच्छा लगता है या बुरा?’’ ‘‘अच्छा, आर्य!’’ ‘‘साधु आयुष्मान्, तुम सत्यवादी हो. अमोघवज्र ने समझ-बूझकर ही तुम्हें मेरे पास भेजा है. तुम सौगत-तन्त्र के अधिकारी नहीं हो, तुम कौल-मार्ग में विचर सकते हो. पर आयुष्मान्, बिना शक्ति के साधना तो इस मार्ग में नहीं चल सकती. इस बात का एक निश्चय तो तुम्हें करना ही पड़ेगा.’’