ऑपरेशन ब्लू स्टार: खालिस्तान की मांग करने वाले भिंडरांवाला के साथ चार दिन तक चली जंग की कहानी
1 जून 1984 की रात 9 बजे अमृतसर में कर्फ्यू लगा दिया गया. और अगले 24 घंटों के बीच करीब 70,000 फौजी पूरे पंजाब में फ़ैल चुके थे.
खालिस्तान की मांग एक बार फिर उठी है. इस बार मांग के पीछे है अमृतपाल सिंह (Amritpal Singh). पुलिस और इंटेलिजेंस एजेंसियां उसके संगठन 'वारिस पंजाब दे' (Waris Punjab De) के लोगों को गिरफ्तार कर पूछताछ कर रही हैं. लेकिन, अमृतपाल सिंह पुलिस की पकड़ से दूर है. आज पंजाब में जो हालात हैं उनकी तुलना अस्सी के दशक के पंजाब से की जा रही है. अमृतपाल सिंह को जरनैल सिंह भिंडरांवाला के रास्ते पर जाता हुआ बताया जा रहा है. भिंडरांवाला के खालिस्तानी आंदोलन की परिणति ऑपरेशन ब्लू-स्टार थी. जिसे आजाद भारत में हुआ अब तक का सबसे बड़ा ख़ूनी संघर्ष कहा जाता है. आज कहानी उसी ऑपरेशन ब्लू स्टार की.
तारीख थी 3 जून 1984. दिन था रविवार. छुट्टी का दिन. आराम का दिन. लेकिन पंजाब में आराम गायब था. पंजाब, वो सूबा जिसके 2 बार टुकड़े हुए. पहले 1947 में और फिर 1966 में. लेकिन पंजाब इस विछोह के घाव से उभरता और फिर नींव रखता एक हंसते-खेलते सूबे की.
फिर भारत सरकार ने जून 1984 में जो कदम उठाया, उससे लग रहा था कि पिछले 5 साल से पंजाब में चली आ रही राष्ट्र विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाई जा सकेगी. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. शायद इंदिरा सरकार को भी अंदाज़ा नहीं था कि 3 जून की रात लगी आग आने वाले समय में दावानल बनकर पूरे देश को अपनी चपेट में ले लेगी.
गोल्डन टेम्पल में हो रहे पाठ के बीचों बीच गोलियों की आवाजें आने लगती थीं. ये दुखदायी था. हर सिख के लिए. हर पंजाबी के लिए. ये दुख और घबराहट हैरानी में तब बदल गए, जब अप्रैल 1984 में जरनैल सिंह भिंडरांवाला गोल्डन टैम्पल से सटे गुरु नानक निवास से अपना बोरिया बिस्तर बांधकर अकाल तख्त जा पहुंचा. अकाल तख्त गोल्डन टेम्पल के बिल्कुल सामने है. सिख धर्म में अकाल तख्त का खास दर्जा है. महाराजा रणजीत सिंह के समय से ही सिख धर्म के सारे फैसले यहीं से लिए जाते रहे हैं. ऐसे में भिंडरांवाला का वहां पर जाकर छिपना खुद में बड़ी चेतावनी थी. भिंडरांवाला के साथ परछाई की तरह दो और लोग रहते थे. अमरीक सिंह और जनरल शाहबेग सिंह. अमरीक सिंह ऑल इंडिया सिख स्टूडेंट्स फेडरेशन (AISSF) का प्रेज़िडेंट था. जबकि शाहबेग सिंह पहले भारतीय फौज में था. पिछले काफी समय से CRPF और भिंडरांवाला की फौज के बीच गोलाबारी होती आ रही थी. लेकिन अब केंद्र सरकार इस रोज की गोलाबारी और मुठभेड़ पर पूर्णविराम लगा देना चाहती थी.
30 मई 1984 की रात को फौज का काफिला अमृतसर और पंजाब के बाकी शहरों में पहुंच गया. भिंडरावाला भारी मात्रा में हथियारों के साथ सिखों के सबसे पवित्र स्थल पर काबिज था. आस-पास की इमारतों से सीआरपीएफ और बीएसएफ के जवान नज़र बनाए हुए थे. 1 जून की रात 9 बजे अमृतसर में कर्फ्यू लगा दिया गया. और अगले 24 घंटों के बीच करीब 70,000 फौजी पूरे पंजाब में फ़ैल चुके थे.
इंदिरा का ऐलान-2 जून की शाम को देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का दूरदर्शन पर राष्ट्र के नाम संदेश आया. वे बोलीं कि,
“केंद्र सरकार राज्य (पंजाब) में फैल रहे आतंकवाद और हिंसा का अंत कर देगी.”
उन्होंने अकाली लीडरों से अपील की कि वे आने वाले दिनों में किसी तरह का कोई आंदोलन न करें.
पंजाब में विदेशियों के आने पर रोक लगा दी गई. पंजाब के गवर्नर भैरव दत्त पांडे ने केंद्र से फौज को भेजने की ऑफिशियल रिक्वेस्ट भेजी. मीडिया पर बैन लगा दिया गया. रेल और हवाई सेवाओं पर रोक लग गई. कश्मीर से लेकर राजस्थान से सटा इंटरनेश्नल बॉर्डर सील किया जा चुका था. हवा में एक अजीब सी बेचैनी और डर था. कुछ भयानक होने वाला था.
स्वर्ण मंदिर के बाहर बिहार रेजिमेंट की 12वीं बटालियन तैयार खड़ी थी. आर्मी की टुकड़ियों के साथ ऑफिसर पेट्रोलिंग कर रहे थे. ऑटोमेटिक राइफल और लाइट मशीनगन लिए फौजी छतों पर तैनात CRPF जवानों के साथ जा खड़े हुए. लेकिन कुछ ही देर बाद फौजियों को समझ आ गया कि वे छतों पर सुरक्षित नहीं हैं. दरअसल उन छतों की उंचाई काफी कम थी. जिससे भिंडरांवाला और उसके साथी कभी भी 18 सेंचुरी टॉवर और वाटर टैंक से उन पर ग्रेनेड फेंक सकते थे या फायरिंग कर सकते थे. बिहार रेजिमेंट ने तुरंत फैसला लिया अब खाली घरों की खिड़कियों से आतंकवादियों की गतिविधियों पर नज़र रखा जाने लगा. कुछ ही देर में फौजी अपनी-अपनी जगह पर तैनात थे.
ऑपरेशन ब्लू स्टार की अगुवाई कर रहे थे मेजर जनरल कुलदीप सिंह बराड़. लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा बताते हैं कि ठीक ऑपरेशन शुरू होने से पहले बराड़ ने फ़ौजियों से बोला कि जो भी इस ऑपरेशन का हिस्सा न बनना चाहता हो वो अभी मना कर सकता है. लेकिन कोई सैनिक पीछे नहीं हटा.
भिंडरावाला का आख़िरी इंटरव्यू-3 जून, 1984. गुरुपर्व का दिन. श्रद्धालु गोल्डन टेम्पल में माथा टेकने और पाठ करने के लिए इकठ्ठा हुए. सेना भिंडरांवाला का आतंक खत्म करने को तैयार थी. सुभाष किर्पेकर, एक चश्मदीद और जर्नलिस्ट जो 3 तारीख की शाम वहीं थे भिंडरावाले से मिले. मिलने से पहले उन्होंने परिक्रमा की, गुरुग्रंथ साहिब के आगे माथा टेका. लेकिन जब प्रसाद लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाए तो उन्हें आगे बढ़ने को कहा गया. इसी दौरान उनकी नज़र कैनोपी पर आए गोलियों के निशान की तरफ भी गई (सरकार का दावा है कि गोल्डन टेम्पल पर एक भी गोली नहीं चलाई गई लेकिन 200-250 गोलियों के निशान वहां दिख रहे थे). इसके बाद वे अकाल तख्त में भिंडरांवाला का इंटरव्यू लेने गए. ये भिंडरावाला का आखिरी इंटरव्यू साबित हुआ. इस दौरान वो हरविंदर सिंह संधू से भी मिले जो कि AISSF के जनरल सेक्रेटरी थे. सुभाष के मुताबिक संधू ने कहा कि,
“पाकिस्तान से मदद लेने में कोई बुराई नहीं है क्योंकि दिल्ली (सरकार) पाकिस्तान और सिखों, दोनों के साथ एक जैसा बर्ताव करती है.”
कुछ देर बाद सुभाष को अंदर बुलाया गया जहां भिंडरावाला था. इस इंटरव्यू में भिंडरांवाला ने कहा कि CRPF और BSF की तरह आर्मी भी यहां कुछ खास नहीं कर पाएगी. सुभाष ने पूछा कि अगर कार्रवाई के दौरान आपको कुछ हो जाता है तो आपका उत्तराधिकारी कौन होगा? भिंडरावाला ने जवाब दिया कि जो भी भगवान का दर्जा हासिल कर लेगा वही उसका उत्तराधिकारी होगा.
सुभाष, अकाल तख्त से बाहर निकल घंटाघर की तरफ बढ़े तो उन्हें लगा कि कई आंखें उन पर गड़ी हैं. सब जगह शांति पसरी हुई थी. बिजली गुल थी. सोचिए कैसा दिखता होगा हरदम चमचमाता गोल्डन टेम्पल अंधेरे और सन्नाटे में. केवल फौज की फ़्लड लाइट्स इधर-उधर घूम रही थीं. सेना के दिमाग में था कि ये एक साइकोलॉजिकल वॉर होगा. भिंडरांवाला और उसके साथी जल्दी ही सरेंडर कर देंगे. ऑफिसर्स लाउड स्पीकर्स पर बार-बार सरेंडर करने का आग्रह करते रहे. चेतावनी भी दी गई कि खूनी जंग की नौबत न आने दी जाए. लेकिन सामने से जवाब नहीं आया.
4 जून की सुबह करीब 4-5 बजे गोलियों की आवाज़ आई. ग्रेनेड हमला होने लगा. MMG यानी मीडियम मशीन गन से टॉवर और वॉटर टैंक पर गोलियां चलाई गईं. फौज की तरफ से अभी भी ज़्यादा गोलीबारी नहीं की जा रही थी. दरअसल वो देखना चाह रहे थे कि दुश्मनों के पास कौन-कौन से हथियार हैं. फौज ने दुश्मनों की ताकत को थोड़ा कम आंका था. उन्हें अंदाज़ा भी नहीं था कि दुश्मन उन पर हमला करने के लिए बंकर और पिलबॉक्स का सहारा लेगा.
दुश्मनों ने रॉकेट ग्रेनेड से बिहार रेजिमेंट के एक सैनिक को शहीद कर दिया और 3 को ज़ख्मी. फौज को एक और परेशानी झेलनी पड़ रही थी. गोल्डन टेम्पल के इर्द-गिर्द काफी लम्बी इमारतें थीं जिस वजह से गोलियां चलाने में दिक्कत आ रही थी और साथ ही मंदिर में भी इतनी जगह नहीं थी कि खुल कर वार किया जा सके. पिल-बॉक्स में छिपे आतंकियों पर निशाना साधने के लिए माउंटेन गन का इस्तेमाल किया गया. हवा का रुख तेज़ था. ऐसे में डर था कि कहीं मांउटेन गन से की गई हवाई फायर गोल्डन टेम्पल पर या उनके अपने सिपाहियों पर न जा गिरे. लेकिन और कोई चारा भी नहीं था. करारा जवाब दिया गया. शाम तक ऐसा ही चलता रहा. सरेंडर करने की अपील बार-बार की जा रही थी. शाम तक करीब 200 SGPC कर्मचारी और उनके परिवार वालों ने सरेंडर किया. सूरज अस्त होने से ठीक पहले टैंकों की आवाजें सुनाई देने लगीं. शुरुआत में केवल एक टैंक और APS (Armoured personnel carrier) आते दिखे. लेकिन एक-दो घंटे बाद दर्जनों टैंक और APS गोल्डन टेम्पल के पास दर्ज हुए. मैदान तैयार था. जंग के लिए. कुछ पुलिस ऑफिसर्स को भी बुलाया गया जो गोल्डन टेम्पल के चप्पे-चप्पे से वाकिफ थे. टैंक अपनी पोज़ीशन लिए खड़े थे. और तकरीबन आधे घंटे बाद ही 10 ब्लास्ट हुए जिन्होंने अमृतसर की धरती को हिला दिया.
हजारों लोग अमृतसर की तरफ बढ़ रहे थे-अब तक पूरे पंजाब में गोल्डन टेम्पल में हो रहे ऑपरेशन की खबर फैल चुकी थी. ये खबर हजम कर पाना हर सिख के लिए लगभग नामुमकिन था. लोग इकठ्ठा होना शुरू हुए. भीड़ अमृतसर की तरफ बढ़ने लगी. 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गोलवाड़ गांव में करीब 30,000 लोग हथियारों के साथ आगे बढ़ रहे थे. फौज को डर था कि इस भीड़ पर अगर काबू न पाया जा सका तो अमृतसर के आस-पास कई जगह खूनी संघर्ष करना पड़ सकता है. 5 जून की सुबह का नजारा किसी वॉर फिल्म जैसा था. दोनों तरफ से फायरिंग लगातार जारी थी. मिट्टी के बोरे और ईंटें हर तरफ पसरी थीं. आसमान में धुआं ही धुआं था.
ऑपरेशन को अंजाम तक पहुंचाने के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल मोहम्म्द इस्सर को बुलाया गया जो कि विश्व भर में ऐसे ऑपरेशन्स के लिए फेमस थे. अकाली लीडर लौंगोवाल, टोहरा और बलवंत सिंह रामूवालिया को बाहर निकालकर लाना इनकी खास जिम्मेदारी थी. 40 फौजियों की एक टीम बनाई गई. काली डंगरी में तैनात ये जवान सबसे कम उम्र के सैनिक थे. और जिम्मेदारी सबसे ज़्यादा. बाकि यूनिट्स से कवर फायर लेते हुए ये सराए से होते हुए आगे बढ़े. चारों तरफ से गोलियों की बौछार थी. इनमें से 3 फौजी शहीद हो गए और 19 घायल. लेकिन वे वापस खाली हाथ न लौटे. लौंगेवाल, टोहरा, रामूवालिया, बीबी अमरजीत कौर और SGPC (शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी) के कुछ अधिकारी साथ थे . आर्मी के दो हेलिकॉप्टर भी आसमान में घूम रहे थे. इनका काम रेकी करना था जो ये पता लगाने में मदद कर रहा था कि भवन के किस हिस्से से फायरिंग की जा रही है. जैसे ही वे दूर जाते, फायरिंग शुरू हो जाती. फौज को इस बात का अंदाज़ा था कि अगर ऑपरेशन को खत्म करने में ज़्यादा समय लगा तो उनके लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं. इसलिए फैसला लिया गया कि अकाल तख्त में छिपे बैठे भिंडरांवाला को वहीं घुस कर मारा जाएगा. ये एक बड़ा फैसला था क्योंकि हमले में अकाल तख्त को नुकसान पहुंच सकता था. ऐसे में सिख और भड़कते. लेकिन फौज अकाल तख्त की तरफ बढ़ी. परिक्रमा के सफेद मार्बल की सफेदी का रंग बदल रहा था. शहीद हो रहे सैनिकों के खून से सरोवर लाल हो चला था. टावरों और वाटर टैंक पर खड़े आतंकवादी फौज को अकाल तख्त की तरफ बढ़ता देख घबरा गए और वे अकाल तख्त की तरफ दौड़े.
अकाल तख़्त पर हमला?आतंकियों की घबराहट स्वाभाविक थी क्योंकि उन्होंने और खुद भिंडरांवाला ने कतई अंदाज़ा नहीं लगाया था कि फौज अकाल तख्त पर भी हमला कर सकती है. सैनिकों को खास तौर पर निर्देश दिए गए थे कि गोल्डन टेम्पल पर किसी तरह की फायरिंग नहीं की जाएगी. ये मुश्किल था लेकिन इंस्ट्रक्शन्स का खास ख्याल रखा गया. इसी का फायदा उठाते हुए आतंकियों ने MMG फायरिंग शुरू की जिसमें कई फौजी शहीद हो गए. नई यूनिट्स को आगे बढ़ाया गया, इनमें मद्रासी, गढ़वाली, डोगरा और पंजाबी शामिल थे. एक तरह का कवच सा बना दिया था जिससे कि फौजियों पर हो रहे हमलों को कम किया जा सके. तब तक बाकी सरायों में जवान कब्जा कर चुके थे. दिन में 1 बजे से 3 बजे तक थोड़ी-बहुत फायरिंग होती रही. बारूद और उसके धुएं से फैल रही गर्मी हवा में महसूस हो रही थी. करीब 3.45 बजे 6 हैलीकॉप्टर गोल्डन टेम्पल के ऊपर से गुज़रे. लेकिन ये सब गोल्डन टेम्पल से दूरी बनाए हुए थे. अनुमान लगाया जा रहा था कि शहर में कोई वीआईपी आया है. करीब 7 बजे दो टैंकों ने भी अकाल तख्त का रुख किया. अन्दर से ट्रक लाशें भर के चाटीविंड मुर्दाघर की तरफ बढ़ रहे थे. अंदर मरने वालों की गिनती लगातार बढ़ती जा रही थी.
जवान छतें लांघ कर अकाल तख्त की तरफ बढ़ रहे थे. सूरज छिपने तक फौज सभी आतंकियों को अकाल तख्त तक जुटाने में कामयाब रही. ऑपरेशन शुरू हुए 3 दिन बीत चुके थे.
कारवां आगे बढ़ा और तारीख भी.
आख़िरी दिन-6 जून, फैसले का दिन. सुबह 8 बजे फायरिंग कम थी. लेकिन कुछ ही देर बाद टैंक से हमले शुरू हो गए. कुछ आतंकी क्लॉक टावर से फौज पर गोलियों की बौछार कर रहे थे. थोड़ी देर बाद उन्हें भी शांत करवा दिया गया. 10 बजे तक फायरिंग दोनों तरफ से बढ़ गई. दिन में दो घंटे के लिए कर्फ्यू हटा दिया गया था. लेकिन अभी भी पूरे शहर में वाहन चलाने पर पाबंदी थी. ऐसे में कुछ लोग गोल्डन टेम्पल में हुई सैन्य गतिविधि देखने के लिए कॉम्पलेक्स के बाहर पहुंचे. कोटवाली और जलियांवाला बाग के बीच चार टैंक और घंटाघर के बाहर 3 टैंक खड़े थे. जिसका अब तक लोग सिर्फ अंदाज़ा लगा रहे थे वो सब अब उनकी आंखों के सामने पसरा था. बीच सड़क कोई हाथ जोड़े खड़ा था तो कोई दबी ज़ुबान से अरदास कर रहा था. कोटवाली में कुछ सैनिक 11 संदिग्धों को पीटते हुए ले जा रहे थे जिनकी अगुवाई एक सिख ऑफिसर कर रहे थे. कर्फ्यू शुरू हुआ और सेना फिर से बढ़ी अकाल तख्त की तरफ. इस नीयत से कि अब वापस आएंगे तो फतह के साथ ही. अमृतसर को अभी एक और रात के लिए जागना बाकी था. शाम के 7 बज रहे थे. आज फायरिंग और दिनों से ज़्यादा थी. भिंडरांवाला, शाहबेग सिंह और अमरीक सिंह आखिरी सांस तक लड़ने का मन बना चुके थे.
भिंडरांवाला के साथ के अधिकतर नौजवान मौत के घाट उतारे जा चुके थे. भिंडरावाला और उसके साथी अकाल तख्त की बेसमेंट में छिपे हुए थे. सेना ने ग्रेनेड का इस्तेमाल किया. जिससे भिंडरांवाला तक पहुंचा जा सके. इसी ग्रेनेड का एक खोखा भिंडरांवाला के मुंह पर भी लगा. स्टेनगन से लगातार फायरिंग की जा रही थी. और 6-7 जून की रात ऑपरेशन ब्लू स्टार का अपने मकाम पर पहुंच गया.
भिंडरांवाला, शाहबेग सिंह और अमरीक सिंह को सेना ने मार गिराया. लेकिन कुछ ही देर में टेम्पल के अंदर से (जो सरोवर के बीच है) फायरिंग होने लगी. फौज सकते में आ गई. दरअसल AISSF का जनरल सेक्रेटरी हरमिंदर सिंह संधू अपने कुछ साथियों के साथ वहां जाकर छिप गया था. सवाल था कि टेम्पल पर फायरिंग कैसे की जाए. सैनिक टेम्पल की ओर जाते पुल की तरफ दौड़े ताकि उन तक पहुंच सके. लेकिन बीच रास्ते दुश्मनों की गोलियों ने उन्हें रोक दिया. सेना ने बाहर ही इंतज़ार करने का मन बनाया. कुछ ही देर बाद संधू बाहर आया लेकिन हाथ में हथियार की जगह एक सफेद झंडा था. और इस तरह पिछले चार दिन से की जा रही कोशिशों को किनारा मिला. आर्मी के मुताबिक शाहबेग सिंह ने ही भिंडरांवाला की सुरक्षा का जिम्मा उठाया था. और उसका सेना में काम करने का एक्सपीरिएंस यहां काम आया. इसी वजह से इस ऑपरेशन को पूरा करने में उम्मीद से ज्यादा समय लगा. एक और बात, शाहबेग की बेटी और अमरीक सिंह की पत्नी भी इस लड़ाई में उनके साथ मौजूद थी. 7 जून को सुबह करीब 6 बजे काम्पलेक्स से काफी काला धुआं उठ रहा था. अंदाज़ा लगाया गया कि लाशों को जलाने का काम किया जा रहा है. करीब 3 घंटे तक ऐसा ही चलता रहा. आकाशवाणी ने अनाउंस किया कि जरनैल सिंह भिंडरांवाला की डेड बॉडी मिल गई है और दोपहर 3 बजे से 5 बजे तक कर्फ्यू हटा दिया जाएगा. लोग चौराहों पर खड़े इंतज़ार कर रहे थे. लेकिन कुछ ही देर बाद कर्फ्यू जारी रखने का फैसला लिया गया. और शूट एट साइट का ऑर्डर भी दिया गया. सड़कें एक बार फिर से लावारिस जान पड़ रही थीं.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 300 से 400 लोगों की इस ऑपरेशन में मौत हुई जबकि 90 सैनिक शहीद हुए. लेकिन चश्मदीदों और एक्सपर्ट्स की मानें तो करीब 1000 लोग मारे गए और 250 जवान शहीद हुए थे.
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