अमेरिका और सोवियत संघ ही नहीं, ब्रिटेन को भी अफगानिस्तान में झेलनी पड़ी थी हार
दशकों से आतंक और अस्थिरता से क्यों जूझ रहा है अफगानिस्तान?
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अफगानिस्तान अब तालिबान के कब्जे में आ चुका है. फोटो- PTI
अफ़ग़ानिस्तान में आगे क्या होगा? इस सवाल का जवाब पूरी दुनिया ढूंढ़ रही है. तालिबान के क़ब्ज़े के बाद से काबुल नदी में बहुत पानी उतर आया है. अफ़ग़ानिस्तान की तस्वीर अचानक से बदली-बदली दिखने लगी है. जिस प्रेसिडेंशियल पैलेस से लोकतांत्रिक सरकार चलती थी, वो बंदूकधारियों की रिहाइश बन चुकी है. काबुल एयरपोर्ट पर क़यामत बरस रही है. सड़कों पर अफरा-तफरी है. बड़ी संख्या में लोग अपने वतन से बाहर निकल जाने की कोशिश में जुटे हैं. सोचिए कि कोई किस घड़ी में, किस दुख में अपने घर, अपनी डीह, अपने मुल्क़ को छोड़ पाने की हिम्मत जुटा पाता है. कोई क्या खाकर उस पीड़ा के साथ न्याय कर पाएगा?अफ़ग़ानिस्तान के इर्द-गिर्द पैदा हो रहे हालात पर एक नज़र डाल लेते हैं-
इस वक़्त दुनियाभर में सबसे अधिक आलोचना अगर किसी शख़्स की हो रही है तो वो हैं अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन. जिन डोनाल्ड ट्रंप ने तालिबान के साथ शांति-वार्ता शुरू की थी. वो भी बाइडन का इस्तीफा मांग रहे हैं. खैर, चौतरफा आलोचना से घिरे बाइडन 16 अगस्त की रात प्रकट हुए. उन्होंने कहा कि मैं अमेरिकी सैनिकों को बाहर निकालने के अपने फ़ैसले पर कायम हूं. बाइडन ने कहा,
‘मेरे पास दो रास्ते थे. या तो मैं लड़ाई खत्म करता या और सैनिकों को भेजकर इस अंतहीन लड़ाई को बढ़ने देता. मैंने पहला ऑप्शन चुना. पिछले 20 सालों के अनुभव से मैंने यही सीखा कि यूएस ट्रूप्स को निकालने का ‘सही समय’ न तो आया और न कभी आएगा.’जो बाइडन ने साफ़ कहा कि अमेरिकी सैनिक ऐसे लोगों की लड़ाई कतई नहीं लड़ सकते, जो अपने लिए खड़े नहीं हो सकते. फिलहाल, अमेरिका ने अपने सैनिकों को काबुल एयरपोर्ट पर तैनात कर रखा है. उनका दूतावास भी एयरपोर्ट से ही चल रहा है. हालांकि इस फैसले से अफ़ग़ानिस्तान में लड़ चुके कई अमेरिकी सैनिक और उनके परिवारवाले गुस्से में हैं. उनका कहना है कि जल्दबाज़ी में लिए गए एक फ़ैसले ने सारी क़ुर्बानियों को गौण कर दिया. जर्मनी ने क्या कहा? अफ़ग़ानिस्तान मामले पर एक बड़ा बयान जर्मनी की तरफ़ से आया है. जर्मनी नाटो सेना का हिस्सा था. उसके 59 सैनिक अफ़ग़ानिस्तान वॉर में मारे गए. जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में जो कुछ हो रहा है, वो कल्पना से परे है. उन्होंने ये भी कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में चीज़ें हमारा गणित पूरी तरह उल्टा पड़ गया. जर्मनी 10 हज़ार से अधिक लोगों को अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकालने की तैयारी कर रहा है. हालांकि, काबुल एयरपोर्ट पर इतनी भगदड़ थी कि पहला जर्मन प्लेन सिर्फ सात लोगों को लेकर उड़ गया.

तालिबान के क़ब्ज़े से खुश होने वाले देशों की लिस्ट में रूस भी शामिल है. रूस ने कहा है कि तालिबान अब सुरक्षित हाथों में है. अब उनसे बिजनेस किया जा सकता है. अफ़ग़ानिस्तान में रूस के राजदूत ने कहा कि काबुल में शांति है और तालिबान पुरानी सरकारों के मुक़ाबले कहीं बेहतर है. इन सबके बीच तालिबान क्या कर रहा है? उसने सभी सरकारी कर्मचारियों को क्षमादान का ऐलान किया है. स्टाफ़्स से काम पर लौटने के लिए भी कहा गया है. तालिबान ने महिलाओं से भी सरकार में शामिल होने की अपील की है. अभी तक सरकार की संरचना पर कोई फ़ैसला नहीं लिया गया है. अफगानिस्तान का ये हाल कैसे हुआ? तालिबान भले ही कितने भी दावे कर ले, उदार और आज़ाद ख़याल लोगों का उस पर से भरोसा खत्म हो चुका है. उसने बंदूक के दम पर सत्ता हासिल की है. लोगों का भरोसा नहीं जीता है. अफ़ग़ानिस्तान यहां तक कैसे पहुंचा? इसकी एक लंबी कहानी है. समझने के लिए हमें अतीत में जाना होगा.
अमेरिका और सोवियत संघ से पहले किस महाशक्ति को अफ़ग़ानिस्तान से भागना पड़ा था? उस फ़ोन कॉल की कहानी क्या है, जिसके चलते शुरू हुई लड़ाई चार दशक बाद भी शांत नहीं हुई है? 9/11 के हमले से दो दिन पहले हुई उस हत्या की कहानी, जिसकी आहट अगर अमेरिका ने सुनी होती तो हज़ारों लोगों की जान न जाती. ब्रिटेन भी हारा था अफगानिस्तान में पिछले चार दशक में अफ़ग़ानिस्तान से दो महाशक्तियों का बोरिया-बिस्तर बंध चुका है. कोल्ड वॉर के दौर में सोवियत संघ. और, अब अमेरिका. लेकिन ये हश्र एक और महाशक्ति देश का हो चुका है. कहते हैं कि उसके साम्राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था. जी हां, हम बात कर रहे हैं द ग्रेट ब्रिटेन की. दूसरे विश्व युद्ध से पहले तक ब्रिटेन का दबदबा पूरी दुनिया पर था. उसी दबदबे वाले दौर में ब्रिटेन तीन बार अफ़ग़ानिस्तान में परास्त हुआ.
पहला क़िस्सा साल 1838 का है. उस वक़्त अफ़ग़ानिस्तान पर दोस्त मोहम्मद ख़ान का शासन चल रहा था. अफ़ग़ानिस्तान, ब्रिटिश और रूसी साम्राज्य के बीच पिस रहा था. ब्रिटेन को डर था कि अगर यहां रूस आया तो भारत में उसका शासन कमज़ोर पड़ सकता है. इसके लिए काबुल की गद्दी पर कठपुतली सरकार बिठाना ज़रूरी हो गया था. दोस्त मोहम्मद ख़ान से ऐसी कोई उम्मीद नहीं थी. इसलिए, ब्रिटेन ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला करने का फ़ैसला किया. चूंकि उस समय अफ़ग़ानिस्तान अलग-अलग कबीलों में बंटा था. कोई संगठित होकर लड़ने के लिए तैयार नहीं था. ब्रिटिश आर्मी को कोई खास टक्कर नहीं मिली. अप्रैल 1839 तक ब्रिटेन ने बढ़त बना ली थी. दोस्त मोहम्मद काबुल छोड़कर भाग गया. बाद में उसे अरेस्ट कर भारत लाया गया.

(फोटो-पीटीआई)
ब्रिटेन ने काबुल की गद्दी पर शाह शुजा को बिठाया. शाह शुजा, आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान के संस्थापक अहमद शाह दुर्रानी का पोता था. इस उपलब्धि से अफ़ग़ान कबीलों को कोई खास फ़र्क़ नहीं पड़ा. उन्हें अपनी धरती पर विदेशी शासन की उपस्थिति और गद्दी पर कठपुतली सरकार कतई रास नहीं आई. 1841 तक कबीलों ने ब्रिटिश राज पर हमले शुरू कर दिए थे. ब्रिटेन ने बहुत कोशिश की. कबीलों में फूट डालने की साज़िश भी रची. लेकिन वहां उनकी दाल नहीं गली. थक-हारकर ब्रिटेन ने अफ़ग़ानिस्तान से निकलने के लिए समझौता कर लिया.
सर विलियम हे मैक्नाथन अफ़ग़ानिस्तान में ब्रिटेन के पॉलिटिकल एजेंट थे. 23 दिसंबर 1841 को वो एक मीटिंग में हिस्सा लेने पहुंचे. जैसे ही मीटिंग खत्म हुई, अफ़ग़ानों ने उन्हें पकड़ लिया. और, बड़ी बेरहमी से उनकी हत्या कर दी. ब्रिटेन को लगा, अब देर की तो ग़ज़ब हो जाएगा. 06 जनवरी, 1842 को साढ़े सोलह हज़ार लोगों का काफ़िला काबुल से निकला. अफ़ग़ानों ने काफ़िले को घेरकर ख़ून की नदियां बहा दी. उनमें से कुछ सौ लोग ही ज़िंदा बच पाए. ब्रिटेन के निकलते ही शाह शुजा को भी मार दिया गया. 1843 में दोस्त मोहम्मद ख़ान काबुल की गद्दी पर फिर से काबिज हो चुका था. फिर से हुई ब्रिटेन की वापसी ब्रिटेन ने 1878 में फिर वापसी की. उस समय राज था, दोस्त मोहम्मद के बेटे शीर अली ख़ान का. ब्रिटेन ने कहा, हमारा शासन क़बूल कर लो. शीर ने कहा, नो चांस. उसने रूस के दूत को काबुल में एंट्री दे दी. लेकिन ब्रिटेन के काफ़िले को बॉर्डर पर से ही लौटा दिया गया. नाराज़ वायसराय लॉर्ड लिटन ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया. शीर अली काबुल छोड़कर भाग गया. अंग्रेज़ों ने उसके बेटे को सत्ता सौंपी. लेकिन कुछ दिनों के बाद ही ब्रिटेन के राजदूत की हत्या हो गई. काबुल में ही. ब्रिटेन ने फिर हमला किया. इस बार पूरी ताक़त के साथ. ब्रिटेन जीत गया.
इस बार उसने शीर अली ख़ान के भतीजे अब्द अल-रहमान को अफ़ग़ानिस्तान का राज-पाट सौंप दिया. ये सिस्टम पहले विश्व युद्ध की शुरुआत तक चकाचक चला. जैसे ही वर्ल्ड वॉर शुरू हुआ, माहौल अचानक से बदल गया. ब्रिटेन, ऑटोमन तुर्की से लड़ रहा था. मुसलमान ऑटोमन साम्राज्य को सपोर्ट कर रहे थे. अफ़ग़ानिस्तान में ब्रिटेन की कठपुतली सरकार थी. ज़ाहिर था कि विरोध होता. हुआ भी. ऑटोमन समर्थकों ने अफ़ग़ानिस्तान के शासक हबीबुल्लाह ख़ान की हत्या कर दी. इस तरह आजाद हुआ अफगानिस्तान अफ़ग़ानों ने ब्रिटेन से आज़ादी का ऐलान कर दिया. ब्रिटेन वर्ल्ड वॉर से परेशान था. वो इसका विरोध नहीं कर पाया. अगस्त 1919 में रावलपिंडी में संधि हुई. ब्रिटेन ने अफ़ग़ानिस्तान की आज़ादी को मान्यता दे दी. अफ़ग़ानिस्तान ने आज़ाद होते ही सोवियत सरकार से संधि कर ली. अफ़ग़ानिस्तान, सोवियत संघ को मान्यता देने वाले देशों में सबसे आगे था. अफ़ग़ान-सोवियत संघ की दोस्ती वहीं से गाढ़ी हो चुकी थी. फिर एक फ़ोन कॉल हुआ और सब कुछ हमेशा के लिए बदल गया.

आज़ाद होने के बाद अफ़ग़ानिस्तान में राजतंत्र स्थापित हुआ. 1933 में ज़हीर शाह अफ़ग़ानिस्तान के राजा बने. उन्होंने 40 बरस तक शासन किया. एक दिन उनके नीचे से कुर्सी खींच ली गई. राजा साहब बेसहारा हो गए. उन्हें निर्वासन में भेज दिया गया. राजा साहब की कुर्सी खींचने वाला कोई और नहीं बल्कि उनका अपना भतीजा था. नाम मोहम्मद दाऊद ख़ान. दाऊद ख़ान ने राजशाही व्यवस्था हटा दी. वो अफ़ग़ानिस्तान के पहले राष्ट्रपति बने. दाऊद ख़ान सबको साथ लेकर चलना चाहते थे. अमेरिका को भी और सोवियत संघ को भी. दो नावों की सवारी संभव नहीं थी. अफ़ग़ान कम्युनिस्ट पार्टी PDPA को दाऊद ख़ान का चलन रास नहीं आया. अप्रैल 1978 में दाऊद ख़ान की हत्या कर दी गई. मास्टरमाइंड का नाम नूर मोहम्मद तराक़ी. द न्यू रूलर ऑफ़ द रिपब्लिक ऑफ अफ़ग़ानिस्तान.
तराक़ी का पूरा झुकाव सोवियत संघ की ओर था. अफ़ग़ानिस्तान में सदियों से सामंती व्यवस्था चली आ रही थी. तराक़ी ने उसको खत्म करने की कोशिश की. उनका दूसरा फ़ैसला ये था कि लड़कियों का स्कूल जाना अनिवार्य है. इस फ़ैसले से कठमुल्ला नाराज़ हो गए. उन्होंने विरोध किया. तराक़ी ने ऐसे लोगों को बेरहमी से कुचला. इसका नतीजा ये हुआ कि कम्युनिस्ट सरकार के ख़िलाफ़ माहौल बनने लगा. मसले को शांति से सुलझाने की बजाय तराक़ी ने दमन का रास्ता चुना. हर तरह के विरोध को दबाया जाने लगा. धर्म को दरकिनार किया जाने लगा. अख़बारों को नियंत्रित किया गया. आलोचना करने की गुंज़ाइश को खत्म कर दिया गया. धीरे-धीरे इसका दायरा बढ़ने लगा था. अफगान सेना ने कर दिया विद्रोह फिर 15 मार्च 1979 की तारीख़ आई. हेरात में अफ़ग़ान सेना के एक पूरे डिविज़न ने विद्रोह कर दिया. उन्होंने सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया. इस घटना में तीस हज़ार से अधिक लोग मारे गए. हालांकि, ये विद्रोह सफ़ल नहीं रहा. लेकिन विद्रोह सैनिक बड़ी संख्या में हथियार लेकर पहाड़ों की तरफ भाग गए. वहीं से उन्होंने कम्युनिस्ट सरकार के ख़िलाफ़ लड़ाई जारी रखी. ये तराक़ी के लिए बड़ा झटका था. 18 मार्च को उन्होंने सोवियत संघ के प्रधानमंत्री एलेक्सी कोजेगिन को फ़ोन किया. तराक़ी ने सीधे मांग रखी कि उन्हें सोवियत से सैन्य सहायता की दरकार है. कोजेगिन ने आशंका जताई कि इससे युद्ध के हालात पैदा हो जाएंगे. कुछ ही घंटों में पूरी दुनिया को पता चल जाएगा कि सोवियत संघ ने हमला कर दिया है. ये हमारे लिए नुकसानदेह साबित होगा.
लेकिन उस दिन तराक़ी कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थे. उन्होंने कोजेगिन को एक सुझाव दिया. तराक़ी ने कहा कि सोवियत सैनिकों को अफ़ग़ान सेना के यूनिफ़ॉर्म में भेजा जाए तो किसी को पता नहीं चलेगा. तब केजीबी और जीआरयू ने मिलकर एक बटालियन तैयार की. इनमें से अधिकतर ताज़िक, उज़्बेक और तुर्क़ थे. इनकी सूरत और सीरत अफ़ग़ान लोगों से मिलती-जुलती थी. बाद में इस बटालियन को ‘मुस्बैट’ के नाम से जाना गया. मुस्लिम बटालियन. सोवियत संघ, तराक़ी के कहने पर अफ़ग़ानिस्तान में चला गया. उधर, अमेरिका ने पाकिस्तान के जरिए मुजाहिदीन को सपोर्ट बढ़ाना शुरू कर दिया. माहौल गर्म हो चुका था.

एक तरफ़, कोल्ड वॉर की गोटियां सेट की जा रहीं थी. वहीं दूसरी तरफ़, अफ़ग़ानिस्तान सरकार के भीतर ही फूट पड़ चुकी थी. तराक़ी के प्राइम मिनिस्टर थे, हफ़ीजुल्लाह अमीन. अक्टूबर 1979 में अमीन ने तराक़ी का मर्डर करवा दिया और ख़ुद अफ़ग़ानिस्तान के सर्वेसर्वा बन गए. सोवियत संघ परेशान हो गया. केजीबी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि अमीन अमेरिका के एजेंट हैं. सोवियत लीडरशिप ने तय किया कि अमीन को रास्ते से हटा दिया जाए. उस समय अफ़ग़ानिस्तान में कोका-कोला बहुत फ़ेमस था. तय हुआ कि इसी में ज़हर मिलाकर अमीन को मारा जाए. लेकिन ज़हर का कोई असर ही नहीं हुआ. अमीन बच गए.
प्लान बी के तहत डायरेक्ट हमले की योजना थी. 27 दिसंबर 1979 की रात सोवियत एजेंट्स ने पैलेस में घुसकर अमीन की हत्या कर दी. इसके तुरंत बाद एक लाख सोवियत सैनिकों ने अफ़ग़ानिस्तान में दाख़िल होना शुरू कर दिया. ये दस साल लंबे सोवियत-अफ़ग़ान युद्ध की शुरूआत थी. इसके आगे का इतिहास तो आपको पता ही है. आपने मुजाहिदीनों की कहानी तो सुनी ही है? रूस के ख़िलाफ़ लड़ने वाले कबाइली लड़ाके. इनमें एक नाम अहमद शाह मसूद का भी था. जिन्हें ‘पंजशेर घाटी का शेर’ भी कहा जाता है. जब 1992 में कम्युनिस्ट सरकार का खात्मा हुआ तो नई सरकार में मसूद रक्षामंत्री बनाए गए. अमेरिका की सबसे बड़ी गलती सोवियत के जाने के बाद भी मुजाहिदीनों में संघर्ष चल रहा था. उन्होंने काबुल पर क़ब्ज़े की लड़ाई जारी रखी. 1994 में तालिबान का गठन हुआ. तालिबान ने मसूद को भी साथ आने का ऑफ़र दिया. अहमद शाह मसूद ने साफ़ मना कर दिया. वो तालिबानी कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ थे. जब 1996 में अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का क़ब्ज़ा हुआ तो मसूद को काबुल छोड़ना पड़ा. उन्होंने अगले पांच सालों तक तालिबान का मुक़ाबला किया. जब तालिबान पूरे अफ़ग़ानिस्तान में बेलगाम घूम रहा था. मसूद ने अपना गढ़ बचाए रखा.
अप्रैल 2001 में मसूद यूरोप की यात्रा पर गए. उन्हें तालिबान के ख़िलाफ़ लड़ाई में मदद की दरकार थी. इसी दौरान उन्होंने यूरोपियन पार्लियामेंट में भाषण भी दिया. इसमें उन्होंने अमेरिकी सरकार को ओसामा बिन लादेन के बारे में चेताया था. बाद में ये बात सीक्रेट दस्तावेज़ों से भी साबित हुई. दस्तावेज़ों के मुताबिक, मसूद ने अंदेशा जताया था कि अल-क़ायदा अमेरिकी धरती पर बड़े हमले की प्लानिंग कर रहा है. ये हमले 1998 में केन्या और तंज़ानिया में अमेरिकी दूतावासों पर हुए हमलों से भी भयानक होंगे. अमेरिका ने इस अंदेशे पर अधिक ध्यान नहीं दिया.

09 सितंबर 2001 को दो पत्रकार अहमद शाह मसूद का इंटरव्यू लेने आए. इंटरव्यू के बीच में ही भयानक धमाका हुआ. असल में वे दोनों अल-क़ायदा के आतंकी थे. जिन्होंने लादेन के कहने पर मसूद की हत्या की साज़िश रची थी. अहमद शाह मसूद इस हमले में बुरी तरह घायल हो गए. उन्हें बचाया नहीं जा सका. मसूद की मौत के दो दिन बाद ही अमेरिका पर हमला होता है. इसमें लगभग तीन हज़ार लोगों की मौत होती है. हमले का मास्टरमाइंड कौन? अल-क़ायदा का सरगना ओसामा बिन लादेन. अमेरिका की अफगानिस्तान में एंट्री 9/11 के हमले के बाद बदला लेने के लिए अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में एंट्री की. तालिबान को हराया भी. अब बीस बरस बाद हालात बदल चुके हैं. अमेरिका हार चुका है. बेहिसाब नुकसान के बाद वो चुपचाप वापस लौट रहा है. जबकि तालिबान सत्तासीन होकर मुंह चिढ़ा रहा है. अफ़ग़ान जनता के हालात बद से बदतर हो गए हैं. तालिबान के एक दिन के शासन में इतनी बेबसी और बेचैनी है कि भविष्य का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. जैसे कि एक कहानी चल रही है. एक रिपोर्टर ने काबुल में 20 साल के एक लड़के से पूछा,
मुस्तफ़ा, आप दस साल के बाद ख़ुद को कहां देखते हैं?लोग अपने भविष्य को लेकर इतने आशंकित हैं कि उनके पास कहने को कुछ नहीं बचा है. तो, आगे क्या रास्ता बचा है? क्या लोग इसी तरह बेसहारा छोड़ दिए जाएंगे? इस वक़्त दो चीज़ें चल रहीं है.
मुस्तफ़ा ने भावशून्य होकर जवाब दिया- उस समय तीस साल का मुस्तफ़ा क़ब्र में सो रहा होगा.
पहली तो ये कि वियतनाम वॉर के शरणार्थियों की तरह ही अफ़ग़ानों का भी प्रबंध किया जाए. कैसे? वियतनाम वॉर खत्म होने के बाद अमेरिका ने इंडोचाइना माइग्रेशन एंड रेफ़्यूजी असिस्टेंस ऐक्ट लागू किया था. इसके तहत साउथ वियतनाम, लाओस और कम्बोडिया के एक लाख तीस हज़ार शरणार्थियों को अमेरिका में एंट्री दी गई थी. साथ ही उनके पुनर्वास का भी इंतज़ाम किया गया था. मांग चल रही है कि अमेरिका इस बार भी कुछ वैसा ही इंतज़ाम करे.
दूसरी मांग ये चल रही है कि अमेरिका लोगों को बाहर निकलने में मदद करे. ये मांग यूएस आर्मी के कई वेटरन कर रहे हैं. उनका कहना है कि जब तक लोग बाहर जाना चाहें, उन्हें निकाला जाए. इस एयरलिफ़्ट में यूएस आर्मी सिक्योरिटी मुहैया कराए. आगे क्या होता है, ये पूरी तरह समर्थ देशों की इच्छाशक्ति पर निर्भर है.