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दीनदयाल उपाध्याय की मौत को नानाजी देखमुख ने क्यों बताया था राजनीतिक हत्या?

आज दीनदयाल उपाध्याय की डेथ एनिवर्सरी है. कोई नहीं जानता था कि मरते समय उनके हाथ में 5 रुपए का नोट क्यों था?

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दीनदयाल उपाध्याय पहुंचे थे ग्वालियर स्थित अटल के घर.
11 फ़रवरी 2021 (Updated: 11 फ़रवरी 2021, 09:22 IST)
Updated: 11 फ़रवरी 2021 09:22 IST
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ये 1968 के जाड़े की बात है. संसद का बजट सत्र शुरू होने वाला था. इसी के मद्देनज़र जनसंघ ने 11 फरवरी को अपने 35 सदस्यों वाले संसदीय दल की दिल्ली में बैठक बुलाई थी. एक दिन पहले जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पंडित दीनदयाल उपाध्याय लखनऊ में थे. वो यहां अपनी मुंहबोली बहन लता खन्ना से मिलने आए हुए थे. उन्हें अगले दिन संसदीय दल की बैठक के लिए दिल्ली जाना था. तो आखिर ऐसा क्या हुआ कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय को दिल्ली की बजाय पटना निकलना पड़ा. पंडित जी के आखिरी सफ़र का विस्तृत ब्योरा हमें हरीश शर्मा की किताब 'पंडित दीनदयाल उपाध्याय' में मिलता है:
10 फरवरी की सुबह आठ बजे लता खन्ना के घर फोन आया. फोन के दूसरी तरफ थे बिहार जनसंघ के संगठन मंत्री अश्विनी कुमार. कुमार ने उपाध्याय से बिहार प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में शामिल होने का आग्रह किया. दिल्ली में सुंदर सिंह भंडारी से बात करने के बाद उन्होंने बिहार जाने का निर्णय लिया.
सभा को संबोधित करते हुए दीनदयाल
सभा को संबोधित करते हुए दीनदयाल

आनन-फानन में पटना जाने के लिए पठानकोट-सियालदह एक्सप्रेस के प्रथम श्रेणी में आरक्षण करवाया गया. टिकट का नंबर था 04348. ट्रेन की प्रथम श्रेणी की बोगी के 'ए' कम्पार्टमेंट में उनको सीट मिल गई थी. शाम के सात बजे, पठानकोट-सियालदाह लखनऊ पहुंची. उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री राम प्रकाश गुप्त उन्हें स्टेशन तक छोड़ने आए थे. इसके अलावा उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य पीताम्बर दास भी वहां मौजूद थे.
 
जनसंघ के नेताओं के साथ दीनदयाल
जनसंघ के नेताओं के साथ दीनदयाल

बोगी के इसी कम्पार्टमेंट की एक और सीट जिओग्राफ़िकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के एमपी सिंह के लिए आरक्षित थी. वो अपनी ट्रेनिंग के सिलसिले में पटना जा रहे थे. इस बोगी के कम्पार्टमेंट 'बी' में एक और सवारी लखनऊ से सवार हुई. ये सज्जन थे उत्तर प्रदेश विधान परिषद में कांग्रेस के सदस्य गौरी शंकर राय. ट्रेन चलने के कुछ ही समय बाद पंडित जी ने अपनी सीट गौरी शंकर राय के साथ बदल ली.
ट्रेन बाराबंकी, फैजाबाद, अकबरपुर और शाहगंज पार करते हुए जौनपुर पहुंची. उस समय रात के ठीक 12 बज रहे थे. यहां उनका पाला जौनपुर के महाराज के कर्मचारी कन्हैया से पड़ा. कन्हैया महाराज की तरफ से एक खत लेकर आया था. खत लेने के साथ ही उन्हें याद आया कि वो अपना चश्मा कम्पार्टमेंट के भीतर ही भूल गए थे. वो कन्हैया को लेकर कम्पार्टमेंट के भीतर आ गए. उन्होंने खत पढ़ने के बाद कन्हैया से कहा कि जल्द ही वो महाराजा को खत के सिलसिले में जवाब भेज देंगे. इस बीच ट्रेन ने चलने की सीटी दे दी. उस समय प्लेटफार्म पर टंगी घड़ी में 12 बजकर 12 मिनट हो रहे थे.
मुगलसराय स्टेशन जिसका नाम बदलकर अब दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन रखा जा रहा है.
मुगलसराय स्टेशन जिसका नाम बदलकर अब दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन रखा जा रहा है.


यहां से चलकर गाड़ी बनारस पहुंची और फिर 2 बजकर 15 मिनट पर मुग़लसराय जंक्शन के प्लेटफॉर्म नंबर 1 पर आकर रुकी. यह गाड़ी पटना नहीं जाती थी. इसलिए इस डिब्बे को दिल्ली-हावड़ा एक्सप्रेस से जोड़ दिया जाना था. इस शंटिंग की प्रक्रिया में आधे घंटे का समय लग जाना था. टाइम टेबल के मुताबिक इस गाड़ी का यहां से चलने का समय 2 बजकर 50 मिनट मुकर्रर था. यहां से चलकर गाड़ी को सुबह 6 बजे पटना जंक्शन पहुंचना था. गाड़ी जब पटना पहुंची तो वहां पंडित जी की अगवानी करने के लिए कैलाशपति मिश्र स्टेशन पर मौजूद थे. उन्होंने पूरी बोगी छान मारी लेकिन पंडित जी वहां नहीं थे. कैलाशपति ने सोचा कि शायद पंडित जी पटना आने के बजाय दिल्ली चले गए और वो वापस घर लौट गए.
लोगों का अभिवादन स्वीकार करते दीनदयाल (बाएं). मुगल सराय स्टेशन पर मिली लाश.
लोगों का अभिवादन स्वीकार करते दीनदयाल (बाएं). मुगल सराय स्टेशन पर मिली लाश. (दाएं)


इधर, मुग़लसराय स्टेशन के यार्ड में लाइन से करीब 150 गज दूर एक बिजली के खंबे संख्या 1267 से करीब तीन फुट की दूरी पर एक लाश पड़ी थी. इस लाश को सबसे पहले रात करीब 3.30 बजे लीवर मैन ईश्वर दयाल ने देखा था. उसने सहायक स्टेशन मास्टर को इसकी सूचना दी. करीब पांच मिनट बाद सहायक स्टेशन मास्टर मौके पर पहुंचे. उनके कार्यवाही के रजिस्टर में पटरी के पास पड़े इस आदमी के बारे में दर्ज किया गया, "ऑल मोस्ट डेड".
चूंकि आगे की कार्रवाई पुलिस की थी, लिहाजा रेलवे पुलिस को इस बारे में बता दिया गया. राम प्रसाद और अब्दुल गफूर नाम के दो सिपाही 15 मिनट बाद करीब 3.45 पर वारदात की जगह पर पहुंचे. इनके पीछे-पीछे पहुंचे फ़तेहबहादुर सिंह, जो उस समय रेलवे पुलिस के दरोगा हुआ करते थे.
जनसंघ की बैठक में दीनदयाल उपाध्याय
पत्रकारों से बातचीत करते दीनदयाल


इसके बाद रेलवे डॉक्टर को शव का मुआयना करने के लिए बुलाया गया. डॉक्टर सुबह 6 बजे के बाद पहुंचा, ठीक उस समय जब कैलाशपति मिश्र पटना जंक्शन से बैरंग अपने घर लौट रहे थे. डॉक्टर ने शव का मुआयना करके उसे अधिकारिक तौर पर मृत घोषित कर दिया. रजिस्टर में यहां इस पूरी कार्रवाई को दर्ज किया जा रहा था. वहां समय के कॉलम में भरा गया था, 5 बजकर 55 मिनट. बाद में इसे काटकर 3 बजकर 55 मिनट कर दिया गया. पुलिस के ब्योरे के हिसाब से लाश से ये सामान बरामद किए गए थे: 1. एक प्रथम श्रेणी का टिकट 2. एक आरक्षण की पावती 3. हाथ में बंधी घड़ी, जिस पर नाना देशमुख दर्ज था 4. 26 रुपए शव की जांच के बाद उसे उसकी धोती से ढक दिया गया. सुबह समय बीतने के साथ-साथ लोग लाश के आसपास जुटने लगे. इसी स्टेशन पर बनमाली भट्टाचार्य भी काम किया करते थे. वो दीनदयाल उपाध्याय को पहले से जानते थे. उन्होंने शव की शिनाख्त की, लेकिन पुलिस वाले इसे मानने को तैयार नहीं हुए. भट्टाचार्य बाबू ने इसकी सूचना स्थानीय जनसंघ कार्यकर्ताओं को दी. इसके बाद टिकट के नंबर का मिलान करके मृतक को दीनदयाल उपाध्याय के रूप में पहचाना जा सका.
दीनदयाल उपाध्याय (बाएं से दूसरे). दाहिने कोने में खड़े हैं अटलबिहारी वाजपेयी
दीनदयाल उपाध्याय (बाएं से दूसरे). दाहिने कोने में खड़े हैं अटलबिहारी वाजपेयी

कहां गया बाकी का सामान? सुबह करीब 9.30 बजे दिल्ली-हावड़ा एक्सप्रेस मुकामा रेलवे स्टेशन पहुंची. यहां गाड़ी की प्रथम श्रेणी बोगी में चढ़े यात्री ने सीट के नीचे एक लावारिस सूटकेस देखा. उसने इसे उठाकर रेलवे कर्मचारियों के सुपुर्द कर दिया. बाद में पता चला कि यह सूटकेस पंडित जी का था.
पुलिस को इस मामले में पहला सुराग मिला एमपी सिंह के जरिए. सिंह ने बताया कि जब वो मुग़लसराय पर टॉयलेट इस्तेमाल करने के लिए गए तो उन्होंने पाया कि उसका दरवाजा बंद था. इस बीच उन्होंने देखा कि कोई 20-22 साल का एक नौजवान उपाध्याय का बिस्तर समेटकर बाहर ले जा रहा है. जब उस युवक से इस बारे में पूछा गया तो उसने बताया कि उसके पिता को यहीं उतरना था, वो गाड़ी से उतर चुके हैं, लिहाजा वो बिस्तर समेटकर ले जा रहा है.
पुलिस ने इस लड़के को खोज निकाला. इसका नाम लालता था. लालता ने पूछताछ में बताया कि राम अवध नाम के एक आदमी ने उससे कहा था कि फलानी बर्थ पर लावारिस बिस्तर पड़ा है. उसे समेट कर ले आओ. लालता के मुताबिक उसने यह बिस्तर किसी अनजान आदमी को चालीस रुपए में बेच दिया था. इसी तरह भरत नाम के सफाईकर्मी के पास उपाध्याय का जैकेट और कुर्ता बरामद किया गया. पुलिस जांच में क्या सामने आया?दीनदयाल उपाध्याय को श्रद्धांजलि देते नरेंद्र मोदी
दीनदयाल उपाध्याय को श्रद्धांजलि देते नरेंद्र मोदी


13 फरवरी 1968 को दिल्ली-हावड़ा एक्सप्रेस की बोगी को रेलवे निरीक्षक सुबोध मुखर्जी की निगरानी में हावड़ा से तूफ़ान एक्सप्रेस में जोड़कर मुग़लसराय लाया गया. इस बोगी की जांच के लिए दिल्ली से दो और कलकत्ता से तीन विशेषज्ञ बुलवाए गए. जांच में टॉयलेट में मिट्टी के कुल्हड़ में पड़े फिनाइल के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं हासिल हुआ, जिसे सबूत के तौर पर पेश किया जा सके. मामला अब सीबीआई को सौंप दिया गया.
हालांकि बोगी के कंडक्टर ने बयान में बताया कि बोगी में सवार एक किसी मेजर शर्मा ने उसे बनारस आने पर उठा देने के लिए कहा था. जब वो बनारस आने पर उन्हें उठाने गया तो उसे रास्ते में उपाध्याय की शॉल ओढ़े एक आदमी मिला. उसने बताया कि मेजर शर्मा उतर चुके हैं और डिब्बे में कोई नहीं है.
दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय और अटलबिहारी
दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय और अटलबिहारी


पटना स्टेशन के सफाईकर्मी भोला का खुलासा भी कहानी के कई अलग पक्ष उजागर करता है. भोला ने पुलिस को बताया कि उसे एक आदमी ने बोगी साफ़ करने के लिए कहा. भोला ने ऐसा ही किया, लेकिन उसे निर्देश देने वाला आदमी बोगी में नहीं चढ़ा. इसके अलावा मुग़लसराय स्टेशन पर काम करने वाले एक कुली ने पुलिस को दिए बयान में बताया कि उसे उस रात एक आदमी ने बोगी को यार्ड में आधा घंटा खड़े रखने के लिए 400 रुपए देने का प्रस्ताव रखा था.
इस जांच के बारे में सीबीआई ने अपनी वेबसाइट पर जो तफ्सीलात दी हैं, उसके मुताबिक सीबीआई को पांच दिन के भीतर ही पहला सुराग मिल गया था. दो सप्ताह के भीतर केस सुलझा लिया गया. सीबीआई के पास सिर्फ दो नाम थे, जिनका किसी न किसी किस्म का संबंध इस केस के साथ जोड़ा जा सकता था. राम अवध और भरत लाल. दोनों को अभियुक्त बनाकर अदालत में पेश कर दिया गया.
दीनदयाल उपाध्याय की शवयात्रा
दीनदयाल उपाध्याय की शवयात्रा

मुकदमे की सुनवाईदीनदयाल उपाध्याय की मौत का मुकदमा वाराणसी के विशेष जिला व सत्र न्यायालय में चला. घटना के करीब एक साल चार महीने बाद 9 जून 1969 को इस मामले में सेशन कोर्ट के जज मुरलीधर ने अपना फैसला सुनाया. इस फैसले में उन्होंने कहा कि सीबीआई जांच के बावजूद कई सारी चीजें ऐसी हैं, जिनके कारण स्पष्ट नहीं हैं. मसलन उपाध्याय की लाश के हाथ में भींचा हुआ एक पांच रुपए का नोट पाया गया था, जिसका कोई कारण साफ़ नहीं हो पाया था. उनकी लाश यार्ड में बरामद हुई, जबकि लालता नाम के युवक ने जिस समय बिस्तर चुराए थे, गाड़ी तब प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी.
हालांकि सीबीआई ने दोनों आरोपियों के इकबालिया बयान कोर्ट में पेश किए थे. इन बयानों में उन्होंने स्वीकार किया था कि उन्होंने चोरी का विरोध कर रहे दीनदयाल उपाध्याय को चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया था. लेकिन सहयात्री एमपी सिंह के बयान में इस प्रकार की किसी भी घटना का जिक्र नहीं था. कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि दोनों पक्ष कोई ऐसा साक्ष्य या बयान पेश नहीं कर पाए, जिससे इस मामले में किसी न्यायपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके. साक्ष्यों के अभाव में दोनों आरोपियों को हत्या के आरोप से बरी कर दिया गया. हालांकि भरत लाल जोकि चोरी करने के आरोप में एक से ज्यादा दफ़ा जेल जा चुका था, उसे चोरी के इल्जाम में चार साल की सजा दी गई. एक अनसुलझा सहस्य दीनदयाल उपाध्याय के मरने के बाद जनसंघ की कमान अटल बिहारी वाजपेयी के हाथ में आ गई थी. करीब चार साल अध्यक्ष रहने के बाद उन्होंने पार्टी की कमान सौंपी अपने भरोसेमंद मित्र लालकृष्ण आडवानी को. उस समय तक जनसंघ में खेमेबाजी काफी तेज हो गई थी. 1973 में कानपुर में जनसंघ का अधिवेशन हुआ. बलराज मधोक ने यहां एक नोट पेश किया. इस नोट में जनसंघ के आर्थिक दृष्टिकोण से उलट बातें कही गई थीं. इसके अलावा जनसंघ पर आरएसएस के बढ़ते प्रभाव को लेकर भी नाराजगी जताई. लालकृष्ण आडवानी उस समय जनसंघ के अध्यक्ष बन चुके थे. उन्होंने बलराज मधोक को अनुशासन तोड़ने के आरोप में पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया.
अटल बिहारी वाजपेयी (बीच में), बलराज मधोक (दाहिने कोने)
अटल बिहारी वाजपेयी (बीच में), बलराज मधोक (दाहिने कोने)

जिस पार्टी का संविधान खुद मधोक ने लिखा था, वो पार्टी से बाहर निकलते ही बगावत पर उतर आए. उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय की मौत को राजनीतिक हत्या बताया. उन्होंने इस कत्ल के लिए नानाजी देशमुख और अटल बिहारी वाजपेयी को जिम्मेदार ठहराया. हालांकि मधोक की निष्पक्षता सवालों के दायरे में है. वो इस हत्या के पीछे जनसंघ में चल रहे सत्ता संघर्ष को जिम्मेदार मानते हैं. 1967 के लोकसभा चुनाव में जनसंघ ने 9.4 फीसदी वोट हासिल करके 35 सीटों पर अपना कब्जा जमाया था. वो सदन में कांग्रेस और स्वतंत्र पार्टी के बाद तीसरी बड़ी पार्टी थी. मधोक कहते हैं कि दीनदयाल उपाध्याय ने अटल बिहारी वाजपेयी और नाना देशमुख को पार्टी के अहम पदों से दूर रखा. इसके चलते नाना देशमुख ने उपाध्याय की हत्या भाड़े के हत्यारों से करवा दी.
मधोक ने यह सब खुलासे अपनी आत्मकथा 'जिंदगी का सफ़र' के तीसरे खंड में किए हैं. वो कहते हैं कि 77 की जनता पार्टी सरकार के दौर में मुंबई नॉर्थ-ईस्ट से जनता पार्टी की टिकट पर चुनकर आए सुब्रमण्यम स्वामी ने तत्कालीन गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह से इसकी जांच की मांग की थी. मोरारजी मंत्रिमंडल में उस समय विदेश मंत्री अटल बिहारी वायपेयी ने यह जांच रुकवा दी थी. देशमुख ने भी इसे राजनीतिक हत्या बताया था यह कमाल की बात है कि जिन नानाजी देशमुख पर मधोक हत्या का इल्जाम लगा रहे थे, वो किसी दौर में इसे राजनीतिक हत्या बता रहे थे. 25 मार्च 1968 को नागपुर से नानाजी देशमुख ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मौत को राजनीतिक हत्या करार दिया था. उस समय देशमुख का कहना था कि उपाध्याय के पास कुछ गोपनीय दस्तावेज थे. उन्हें हासिल करने के लिए किसी ने उनकी हत्या करवाई है. इस केस में गिरफ्तार किए गए दोनों चोर इस हत्या को अंजाम नहीं दे सकते. देशमुख के अलावा अटल बिहारी वाजपेयी भी मधोक के निशाने पर थे. उपाध्याय ही वो आदमी थे जो अटल बिहारी वाजपेयी को राजनीति में लेकर आए थे. अपने शुरुआती दौर में वाजपेयी उपाध्याय के सचिव के तौर पर काम करते रहे थे. जब उनके आवास पर उपाध्याय की मौत की सूचना देने के लिए फोन किया गया, तब वो संसदीय दल की मीटिंग में हिस्सा लेने के लिए घर छोड़ चुके थे. उनके खानसामे बिरजू को यह सूचना पहुंचाने की ताकीद की गई थी. जब संसदीय दल की मीटिंग में वाजपेयी को यह सूचना दी गई तो वो फूट-फूट कर रोने लगे.
नानाजी देशमुख
नानाजी देशमुख


अदालती फैसले के बाद 23 अक्टूबर 1969 को विभिन्न दलों के 70 सांसदों की मांग पर सरकार ने इस मामले की जांच के लिए जस्टिस वाई.वी. चंद्रचूड़ का एक सदस्यीय आयोग बनाया था. इस आयोग ने भी अपनी जांच में सीबीआई के नतीजों को सही ठहराया. हालांकि उस समय जनसंघ के एक धड़े ने इसे स्वीकार नहीं किया था. इसके बाद भी कई दफ़ा पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मौत की जांच की मांग होती रही. मगर उपाध्याय की मौत अब भी एक रहस्य बनी हुई है.

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