The Lallantop
Advertisement

क्या है मोहर्रम की कहानी, जिसमें शिया अपने शरीर पर खंजर मारकर खून निकाल देते हैं?

फातिहा और नोहा पढ़ा जाता है, जगह-जगह पर जुलूस निकलता है.

Advertisement
Img The Lallantop
शिया मुस्लिम सवा दो महीने तक मातम मनाते हैं. मोहर्रम के दौरान वो खंजर से अपने शरीर को घायल कर लेते हैं.
pic
अविनाश
21 सितंबर 2018 (Updated: 22 सितंबर 2018, 03:38 PM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
21 सितंबर को पूरे देश में मोहर्रम का जुलूस निकला. पूरे देश में जगह-जगह पर मातम मनाया गया, मर्सिया और नोहे पढ़े गए. लेकिन ये मोहर्रम क्यों मनाया जाता है, क्या है इसकी कहानी और क्यों मुसलमान अपने पूरे बदन को खंजर मारकर खून से तर-ब-तर कर देते हैं, हम आपको बताते हैं.
क्या होता है मोहर्रम?

मोहर्रम को कर्बला की जंग का प्रतीक माना जाता है.

मोहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है. मोहर्रम को कर्बला की जंग का प्रतीक माना जाता है. कर्बला इराक़ का एक शहर है, जो इराक़ की राजधानी बगदाद से 120 किलोमीटर दूर है. मुस्लिमों के लिए दो जगहें सबसे पवित्र मानी जाती हैं मक्का और मदीना. इसके बाद अगर शिया मुस्लिम किसी जगह को सबसे ज्यादा अहमियत देते हैं तो वो है कर्बला. ऐसा इसलिए है कि इस शहर में इमाम हुसैन की कब्र है. कर्बला की जंग में इमाम हुसैन का कत्ल कर दिया गया था और उन्हें कर्बला में ही दफना दिया गया था. ये कत्ल मोहर्रम के महीने के 10वें रोज हुआ था. इस दिन को आशुरा कहते हैं.
कौन हैं इमाम हुसैन, जिनका कर्बला में कत्ल हुआ था?
Photo Credit : carsa.rs
Photo Credit : carsa.rs

पूरी दुनिया की मुस्लिम आबादी आम तौर पर दो भागों में बंटी है शिया और सुन्नी. पूरी दुनिया में इस्लाम को ले जाने वाले हैं पैगंबर मुहम्मद. पैगंबर मुहम्मद के बाद इस्लाम दो भागों में बंट गया. एक धड़ा कहता था कि पैगंबर मुहम्मद के बाद उनके चचेरे भाई और दामाद अली मुहम्मद साहब के उत्तराधिकारी हैं. वहीं दूसरा पक्ष मानता था कि असली वारिस अबू बकर को होना चाहिए. अबू बकर पैगंबर हजरत मुहम्मद के ससुर थे. जिसने अली को उत्तराधिकारी माना, वो शिया कहलाए. जिन्होंने अबू बकर को उत्तराधिकारी माना वो कहलाए सुन्नी. शिया ने अपने लिए इमाम का चुनाव किया, वहीं सुन्नी ने अपने लिए खलीफा का. इस तरह से शिया के पहले इमाम अली हुए और सुन्नी के पहले खलीफा अबू बकर. अबू बकर के बाद इस्लाम के खलीफा हुए उमर और उस्मान. इन दोनों की हत्या कर दी गई. इसके बाद सुन्नी के खलीफा बने अली. लेकिन ये अली शिया के इमाम भी थे. दोनों ने ही अली को मान्यता दे दी. लेकिन अली की भी हत्या कर दी गई. अली की हत्या के बाद उनके बेटे हसन को इमाम माना गया. लेकिन हसन की भी हत्या हो गई. इसके बाद शिया ने हुसैन को अपना इमाम मान लिया. कर्बला में जब जंग हुई तो इन्हीं इमाम हुसैन का गला भोथरे खंजर से काट दिया गया था.
क्यों हुई थी कर्बला में जंग, किसके-किसके बीच हुई थी लड़ाई?

कर्बला में आज भी शिया मुस्लिम जुटते हैं और इमाम हुसैन-यज़ीद के बीच हुई लड़ाई को याद करते हैं.

कर्बला की जंग शियाओं के इमाम हुसैन और उस वक्त के सुल्तान और खुद को खलीफा घोषित कर चुके यज़ीद के बीच हुई थी. हुसैन चाहते थे कि पूरा इस्लाम उस लिहाज से चले, जिसे उनके नाना पैगंबर मुहम्मद साहब ने चलाया था. लेकिन उस वक्त यज़ीद की सत्ता थी. वो खलीफा थे. मुस्लिम इतिहासकारों के मुताबिक यज़ीद हुसैन से अपनी बात मनवाना चाहते थे. इसके लिए यज़ीद हुसैन से संधि करना चाहते थे. हुसैन यज़ीद से संधि करने के लिए अपने बच्चों, औरतों और कुछ लोगों को लेकर कर्बला पहुंचे. इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक 2 मोहर्रम को हुसैन कर्बला पहुंचे थे. हुसैन और यज़ीद के बीच संधि नहीं हो सकी. यज़ीद अपनी बात मनवाना चाहता था, लेकिन हुसैन ने यज़ीद की बात मानने से इन्कार कर दिया. हुसैन का कहना था कि अल्लाह एक है और मुहम्मद साहब ही उसके पैगंबर हैं. इससे नाराज यज़ीद ने 7 मोहर्रम को हुसैन और उनके काफिले के लिए पानी बंद कर दिया था. लेकिन हुसैन नहीं झुके. वो यज़ीद की बात मानने को राजी नहीं हुए. इसके बाद से ये तय हो गया कि दोनों के बीच लड़ाई ही होगी.
9 मोहर्रम की रात इमाम हुसैन ने रोशनी बुझा दी और अपने सभी साथियों से कहा,
‘मैं किसी के साथियों को अपने साथियों से ज़्यादा वफादार और बेहतर नहीं समझता. कल के दिन यानी 10 मोहर्रम (इस्लामी तारीख) को हमारा दुश्मनों से मुकाबला है. उधर लाखों की तादाद वाली फ़ौज है. तीर हैं. तलवार हैं और जंग के सभी हथियार हैं. उनसे मुकाबला मतलब जान का बचना बहुत ही मुश्किल है. मैं तुम सब को बाखुशी इजाज़त देता हूं कि तुम यहां से चले जाओ, मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं होगी, अंधेरा इसलिए कर दिया है कभी तुम्हारी मेरे सामने जाने की हिम्मत न हो. यह लोग सिर्फ मेरे खून के प्यासे हैं. यज़ीद की फ़ौज उसे कुछ नहीं कहेगी, जो मेरा साथ छोड़ के जाना चाहेगा.’
Iraqi Shi'ite pilgrims run between the Imam Hussein and Imam Abbas shrines as part of a ritual of the Ashura ceremony in Karbala, Iraq September 20, 2018. REUTERS/Abdullah Dhiaa Al-Deen - RC1A6C155200
कर्बला में हर साल लाखों की संख्या में लोग जुटते हैं और मातम मनाते हैं.

ये कहने के बाद हुसैन ने कुछ देर बाद रोशनी फिर से कर दी, लेकिन एक भी साथी इमाम हुसैन का साथ छोड़ के नहीं गया. इसके बाद जब 10 मोहर्रम की सुबह हुई तो इमाम हुसैन ने नमाज़ पढ़ाई. लेकिन यज़ीद की तरफ से तीरों की बारिश होने लगी. लेकिन हुसैन के साथी ढाल बनकर खड़े हो गए. हुसैन के साथियों के जिस्म तीर से छलनी हो गए और हुसैन ने नमाज़ पूरी की. जब तक दिन ढलता, हुसैन की तरफ से 72 लोग शहीद हो चुके थे. इनमें हुसैन के साथ उनके छह माह के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के भतीजे कासिम भी शामिल थे. इसके अलावा भी हुसैन के कई दोस्त और रिश्तेदार जंग में मारे गए थे.
अपने शरीर को घायल क्यों कर लेते हैं शिया?

शिया अपने शरीर को खंजर से घायल कर लेते हैं.

मुस्लिम इतिहासकारों ने हुसैन के छह माह के बेटे अली असगर की शहादत को दर्दनाक तरीके से बताया है. कहा जाता है कि जब हुसैन ने यज़ीद की बात नहीं मानी तो यज़ीद ने हुसैन के परिवार का खाना बंद कर दिया. पानी भी नहीं दिया. पानी के जो भी सोते थे, उनपर फौज लगा दी. इसकी वजह से हुसैन के लोग प्यास से चिल्ला रहे थे. प्यास की वजह से हुसैन का छह महीने का बेटा अली असगर बेहोश हो गया. हुसैन अली असगर को गोद में लेकर पानी के पास पहुंचे. लेकिन यज़ीद की फौज के हुर्मला ने तीर से अली असगर की गर्दन काट दी. इसके बाद यज़ीद के ही एक आदमी शिम्र ने हुसैन की भी गर्दन काट दी. और जिस खंजर से हुसैन की गर्दन काटी गई, वो भोथरा था. हुसैन की बहन जैनब ने अपने भाई का सिर कटते हुए देखा था. शिम्र जब हुसैन की गर्दन काट रहा था, तो उस वक्त हुसैन का सिर नमाज के लिए झुका हुआ था. हुसैन के मरने के बाद यज़ीद के आदेश पर सबके घरों में आग लगा दी गई.जो औरतें-बच्चे जिंदा बचे उन्हें यज़ीद ने जेल में डलवा दिया. हुसैन, हुसैन के परिवार और उनके रिश्तेदारों पर हुए इस जुल्म को याद करने के लिए ही शिया मुस्लिम हर साल मातम करते हैं. मातमी जुलुसू निकालकर, खुद को तीर-चाकुओं से घायल कर और अंगारों पर नंगे पांव चलकर वो बताते हैं कि यज़ीद ने जितना जुल्म हुसैन पर किया, उसके आगे उनका मातम मामूली है.
क्या सुन्नी नहीं मनाते हैं मोहर्रम?

सुन्नी मातम मनाते हैं, लेकिन वो अपने शरीर को खून से तर-ब-तर नहीं करते हैं.

मोहर्रम शिया और सुन्नी दोनों ही मनाते हैं. बस फर्क इतना है कि शिया मातम करते हैं, अपने शरीर को घायल करते हैं, अंगारों पर नंगे पांव चलते हैं, लेकिन सुन्नी ऐसा नहीं करते हैं. शिया पूरे सवा दो महीने तक मातम मनाते हैं और कोई खुशी नहीं मनाते. वहीं सुन्नी मोहर्रम के शुरुआती 10 दिनों तक मातम मनाते हैं. हालांकि वो इस दौरान खुद को घायल नहीं करते हैं. इस्लामिक जानकारों का मानना है कि सुन्नी मानते हैं कि खुद को घायल करने की इज़ाजत खुदा नहीं देता है. हालांकि मोहर्रम के 11वें दिन ताजिया दोनों दी निकालते हैं.
क्यों निकाला जाता है ताजिया?

मोहर्रम में ताजिया निकाला जाता है. 11वें मोहर्रम के दिन ताजिए कर्बला में दफ्न कर दिए जाते हैं.

मोहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है. शिया इस महीने के शुरुआत के 10 दिनों तक बांस, लकड़ी और दूसरे सजावटी सामान से ताजिया बनाते हैं. इसके जरिए वो अपने कर्बला में शहीद हुए इमाम हुसैन और दूसरे लोगों को श्रद्धांजलि देते हैं. मोहर्रम के 10वें दिन ये ताजिया बाहर निकाला जाता है और फिर उसे इमाम हुसैन की तरह एक कब्र बनाकर दफ्न कर दिया जाता है.
मातम के दौरान काले कपड़े ही क्यों पहनते हैं?
काला रंग विरोध का प्रतीक है. काला रंग मातम का प्रतीक है. इसलिए शिया जब मोहर्रम का जुलूस निकालते हैं और मातम मनाते हैं, तो वो काले कपड़े ही पहनते हैं. इसके अलावा काले कपड़ों के जरिए वो हुसैन की हत्या का विरोध भी दर्ज करवाते हैं.
क्या होता है मर्सिया और नोहा, जो मातम के दौरान पढ़ा जाता है?

महिलाएं छाती पीटकर मातम करती हैं, जिसे नोहा कहा जाता है.

आसान भाषा में कहें तो मर्सिया और नोहा शोक गीत हैं. इमाम हुसैन की शहादत का शोक मनाने के लिए मर्सिया और नोहा पढ़ा जाता है. मर्सिया और नोहा में अंतर सिर्फ इतना होता है कि नौहा पढ़ने के दौरान महिलाएं-बच्चे-बूढ़े और जवान सब छाती पीटकर मातम मनाते हैं और शोक मनाते हैं. वहीं मर्सिया सिर्फ पढ़ा जाता है.
 


 

Subscribe

to our Newsletter

NOTE: By entering your email ID, you authorise thelallantop.com to send newsletters to your email.

Advertisement