कहानी गुजरात के उस राजा की जिसने यहूदियों के लिए सारी दुनिया से पंगा ले लिया!
अपनी पोलैंड यात्रा के दौरान पीएम मोदी वॉरसॉ (PM Modi in Warsaw) स्थित जाम साहेब दिग्विजयसिंहजी रंजीतसिंहजी जडेजा मेमोरियल (Digvijaysinhji Ranjitsinhji Jadeja) पर पहुंचे. जानें उनके बारे में.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पोलैंड दौरा (PM Modi in Poland) खत्म हो चुका है. पीएम मोदी का ये दौरा ऐसे समय में हुआ जब भारत और पोलैंड के डिप्लोमेटिक रिश्तों के 70 साल पूरे हुए थे. अपनी पोलैंड यात्रा के दौरान पीएम मोदी वॉरसॉ (PM Modi in Warsaw) स्थित जाम साहेब दिग्विजयसिंहजी रंजीतसिंहजी जडेजा मेमोरियल (Digvijaysinhji Ranjitsinhji Jadeja) पर पहुंचे. यहां उन्होंने जाम साहेब दिग्विजयसिंहजी रंजीतसिंहजी जडेजा को श्रद्धांजलि अर्पित की. जाम साहेब दिग्विजयसिंहजी रंजीतसिंहजी जडेजा को पोलैंड में काफी सम्मान के साथ देखा जाता है. वजह, द्वितीय विश्वयुद्ध में उन्होंने पोलैंड के बेघर हुए कई बच्चों को शरण दी थी. पोलैंड में उन्हें दोबरी महाराजा (Dobry Maharaja) नाम से याद किया जाता है. तो जानते हैं क्या है महाराजा जाम साहेब दिग्विजयसिंहजी रंजीतसिंहजी जडेजा की कहानी. इस कहानी का एक सिरा जुड़ता है हिटलर और स्टालिन के बीच हुई एक संधि से.
हिटलर-स्टालिन संधिशुरुआत 23 अगस्त 1939 से. इस दिन एक संधि पर हस्ताक्षर हुए थे. सोवियत संघ और जर्मनी के बीच. इस संधि का नाम था, मोलोटोव -रिबनट्रॉप संधि (Molotov-Ribbentrop pact) या हिटलर-स्टालिन (Hitler-Stalin Pact) संधि. संधि के तहत दोनों देश ने समझौता किया कि वो एक-दूसरे पर हमला नहीं करेंगे. लेकिन संधि का एक और छिपा हुआ पहलू था. जिसके अनुसार दोनों देश पोलैंड को आधा-आधा बांट लेने के लिए तैयार हो गए थे. 1 सितम्बर को हिटलर ने पश्चिम से पोलैंड पर आक्रमण किया. इसके 16 दिन बाद स्टालिन ने भी पोलैंड पर आक्रमण का आदेश दे दिया. नतीजा हुआ कि पोलैंड दो हिस्सों में बंट गया. जर्मन हिस्से वाले पोलैंड में यहूदियों को मारा गया. वहां कंसन्ट्रेशन कैंप्स बनाए गए. ये सर्वविदित इतिहास है. लेकिन रूस के हिस्से वाले पोलिश लोगों के साथ क्या हुआ, इसका जिक्र कम होता है.
रेड आर्मी ने जब पोलैंड पर आक्रमण किया तो ये तर्क दिया कि वो नाजियों से बचाने के लिए ऐसा कर रहे हैं. पोलिश जनता को भी पहले-पहल ऐसा ही लगा. लेकिन जल्द ही सारी हकीकत सामने आ गई. सोवियत सीक्रेट पुलिस ने 5 लाख लोगों को जेल में डालकर उनको टॉर्चर किया. इसके बाद नवम्बर 1939 में फ़र्ज़ी चुनाव कराकर सोवियत संघ ने आधे पोलैंड को खुद में मिला लिया. पोलिश मिलिट्री और सरकार के जुड़े लोगों को फ़र्ज़ी केसों के नाम पर मौत की सजा सुना दी गई. सोवियत हिस्से वाले पोलैंड में तब जनसंख्या लगभग 1.3 करोड़ के आसपास थी. कई इतिहासकारों का मानना है कि हिटलर ने जो यहूदियों के साथ किया, स्टालिन की क्रूरता भी उससे कम न थी. स्टालिन को जब सीक्रेट पोलिस की करतूतों के बारे में बताया गया तो उसने कहा,
“अगर उनकी मंशा बुरी नहीं है तो उन्हें माफ़ किया जा सकता है.”
सोवियत कब्ज़े के दौरान 1940 से 1941 के बीच स्टालिन ने 12 लाख पोलिश लोगों को उनकी जमीन से विस्थापित कर दिया. इनमें से 7 लाख से अधिक लोग लेबर कैंप्स में मारे गए. जिनमें एक तिहाई बच्चे थे. 1941 में ये स्थिति बदली. जब ऑपरेशन बार्बारोसा के तहत जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला कर दिया. स्टालिन के सर मुसीबत आई तो उसने दूसरे देशों से मदद की अपील की. ब्रिटेन में तब पोलैंड की निर्वासित सरकार चल रही थी. ब्रिटेन ने मदद के एवज में स्टालिन ने मांग की कि वो पोलैंड को उसकी स्वायत्ता वापिस दे दे. स्टालिन तैयार हो गया. और इस तरह 1941 में निर्वासित पोलिश सरकार और जर्मनी के बीच एक संधि हुई. संधि के तहत सोवियत संघ और निर्वासित पोलिश सरकार के बीच डिप्लोमेटिक रिश्तों की शुरुआत हुई. और स्टालिन ने हिटलर के साथ हुए सभी पुराने समझौतों को निरस्त कर दिया. साथ ही सभी पोलिश नागरिकों को आम माफ़ी दे दी.
एक छोटे से अंतराल के लिए पोलिश लोगों को सोवियत संघ से बाहर जाने की आजादी भी दे दी गई. इस मौके का फायदा उठाकर पोलिश लोगों ने एक सेना बनाई. जिसका नाम था एंडर्स आर्मी. इस सेना का नाम एक पोलिश जनरल व्लादिस्लाव एंडर्स के नाम पर पड़ा था. जनरल एंडर्स ने मौके का फायदा उठाकर हजारों औरतों और बच्चों को लेबर कैंप्स से रिहा करवाया. इन्हें कैस्पियन समंदर के रास्ते ईरान भेजा गया. वांडा एलिस नाम की एक पोलिश रेफ्यूजी बताती हैं,
“साइबेरिया में रहने के दौरान हमें एक एक टुकड़ा ब्रेड के लिए लड़ना पड़ता था. जब हम भागे तो हमें ट्रेन के डब्बों में भेड़ बकरियों की तरह रहना पड़ा. हजारों बच्चे इस दौरान मारे गए. ट्रेन में टॉयलेट करने को जगह नहीं थी, इसलिए जब कभी ट्रेन रुकती हमें जल्दी से उतारकर नित्य क्रिया करनी होती थी. हजारों मारे गए. ये केवल चमत्कार था कि हम किसी तरह बच आए”.
ईरान पहुंचकर भी इन लोगों को आराम न मिला. सोवियत यूनियन ने उत्तरी ईरान पर कब्ज़ा कर लिया था. इसलिए इन्हें वहां से भी भागना पड़ा. कुछ महीने ईरान में रहने के बाद ये लोग अलग अलग देशों में गए. इन देशों के नाम थे- भारत, यूगांडा, केन्या, साउथ अफ्रीका, न्यूजीलैंड और मेक्सिको. गौर कीजिए इनमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन जैसे देशों का नाम नहीं है. कारण- अमेरिका अपने सहयोगी स्टालिन को नाराज नहीं करना चाहता था. इसलिए जो पोलिश रेफ्यूजी अमेरिका पहुंचे, उन्हें मेक्सिको भेज दिया गया.
Jam Saheb Digvijaysinhji Ranjitsinhji Jadeja की एंट्री कैसे हुई?इनका पूरा नाम था दिग्विजय सिंहजी रतनजीत सिंहजी जडेजा. आजादी से पहले गुजरात में कच्छ के खाड़ी के दक्षिणी छोर पर एक सल्तनत हुआ करती थी, नाम था नवांनगर. यहां जडेजा राजपूतों का शासन था. आजादी के बाद ये भारतीय संघ का हिस्सा हो गया. और शहर का नाम पड़ गया जामनगर. यहां के राजाओं को जामसाहेब कहकर बुलाया करते थे. इसी परिवार में साल 1895 में दिग्विजयसिंहजी का जन्म हुआ. लंदन में पढ़ाई के बाद वे 1919 में ब्रिटिश आर्मी में कमीशन हो गए. 1931 में कैप्टन के पद से रिटायर हुए. साल 1933 में जामसाहेब रतनसिंहजी की मौत के बाद वे नवांनगर रियासत के महाराजा बने. द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने के बाद उन्हें इम्पीरियल वॉर कैबिनेट का हिस्सा बनाया गया. कैबिनेट का हिस्सा रहते हुए महाराजा दिग्विजयसिंह को पोलिश रेफ्यूजियों की हालत का पता चला, जो तब दुनिया भर से मदद की गुहार लगा रहे थे. ऐसे मौके पर महाराजा ने उनकी तरफ मदद का हाथ बढ़ाया.
ब्रिटिश सरकार पोलिश रेफ्यूजियों के भारत आने को लेकर खुश नहीं थी. उनका भी कारण वही था. वो अपने सहयोगी स्टालिन को नाराज नहीं करना चाहते थे. लेकिन महाराजा इस बात पर अड़ गए. और सरकारी लाल फीताशाही को दरकिनार करते हुए 500 पोलिश रेफ्यूजियों को अपने यहां शरण दी. इनमें काफी संख्या में बच्चे थे. महाराजा दिग्विजयसिंह ने उनसे कहा,
भारत ने दी पोलिश रेफ्यूजियों को शरण“नवांनगर की जनता मुझे बापू कहती है, आज से मैं तुम्हारा भी बापू हूं.”
ये वो दौर था जब भारत खुद युद्ध की मार झेल रहा था. इसके बावजूद भारत वो पहला देश बना जिसने पोलिश रेफ्यूजियों को अपने यहां शरण दी. महाराजा दिग्विजय सिंह ने बाकी रियासतों को भी मनाया. टाटा घराने और कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी की मदद से रेफ्यूजियों के लिए चंदा इकठ्ठा किया गया. 1942 से 1948 के बीच लगभग 6 हजार पोलिश रेफ्यूजियों को भारत में शरण दी गई. बालाचड़ी में इनके लिए पहला कैम्प बनाया गया. इसके अलावा एक कैम्प कोल्हापुर के नजदीक वालीवाड़े में बनाया गया.
दुनियाभर में जहां रेफ्यूजियों को न्यूनतम आसरा दिया जाता था. वहीं भारतीय कैंप्स में रहने की सारी सुविधाएं थीं. बच्चों के लिए अलग कमरे, अलग बिस्तर, खाना, कपड़ा समेत चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध थीं. महाराजा दिग्विजय ने यहां बच्चों के पढ़ने का इंतज़ाम भी किया. इनके लिए पोलैंड से किताबें मंगवाईं ताकि वो अपनी भाषा में पढ़ सकें. इतना ही नहीं एक चर्च भी बनाया गया ताकि लोग अपने धार्मिक अनुष्ठान कर सकें.
1945 में दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हुआ. पोलैंड सोवियत यूनियत का हिस्सा बन गया. 1946 में पोलिश सरकार ने इनकी वापसी की मांग की. इसके बावजूद इनमें से अधिकतर 1948 तक भारत में ही रहे. और 1948 के बाद अलग-अलग देशों में रहने के लिए चले गए. 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद पोलैंड ने राजधानी वॉरसॉ में दिग्विजय सिंहजी के नाम पर एक चौक का नाम रखा. साथ ही पोलैंड ने महाराजा को मरणोपरांत सर्वोच्च नागरिक सम्मान कमांडर्स क्रॉस ऑफ दि ऑर्डर ऑफ मेरिट भी दिया. बालाचड़ी में दिन गुजारने वाले लोगों के एक डेलीगेशन ने साल 2018 में यहां का दौरा किया. बालाचड़ी में अपना बचपन गुजारने वाली जेन बिलेकी कहती हैं,
“महाराजा नहीं होते तो पता नहीं हमारा क्या होता. मैं एक पोलिश हूं, और अपने देश से बहुत प्यार करती हूं लेकिन मेरी आत्मा का एक हिस्सा आज भी भारत में है. मुझे लगता है पोलैंड के साथ-साथ भारत भी मेरा अपना घर है”.
महराजा दिग्विजयसिंहजी की कहानी भारतीय इतिहास की उन कहानियों में से हैं. जिन पर हम गर्व कर सकते हैं. जिनसे पता चलता है कि भारत को महान बनाने वाली असली चीज कौन सी है. हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की परंपरा वाले देश के नागरिक हैं. वो देश, जो अपने नागरिकों को ही नहीं, वरन दुनिया के सभी लोगों को अपना मानता है. ये बात यथार्थ में शायद पूरी तरह सत्य नहीं, लेकिन एक देश के तौर पर हमारा आदर्श तो बन ही सकती है.
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