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MS SWAMINATHAN: एशिया में अकाल का नाम मिटाने वाले वैज्ञानिक को सरकार दे रही है भारत रत्न

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हरित क्रांति के जनक MS SWAMINATHAN को भारत रत्न देने का ऐलान किया. देश को अकाल और भुखमरी के दौर से निकालने में स्वामीनाथन का अहम योगदान रहा.

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m s swaminathan bharat ratna
स्वामीनाथन प्राधानमंत्री मोदी के साथ
9 फ़रवरी 2024 (Updated: 12 फ़रवरी 2024, 06:40 IST)
Updated: 12 फ़रवरी 2024 06:40 IST
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1947 में देश को आजादी मिली तब अंग्रेज देश को लगभग भुखमरी की जो हालत देश में छोड़कर गए थे. लोगों को एक वक्त मुट्ठीभर अनाज भी नसीब नहीं हो पाता था. समस्या थी कि न तो सिंचाई के लिए नहरें थीं, न बांध और न ही अच्छी पैदावार वाले बीज. ये तो बात थी 1947 की, फिर एक साल आया 1999 जब टाइम मैग्जीन का एक संस्करण आया जिसका टाइटल था, टाइम 100-सदी के सबसे बेहतरीन एशियन्स की कहानी (T I M E   100 Asians of the Century: A Tale of Titans.) इसमें जिक्र था एक भारतीय का जिसने एशिया में अकाल का नामो-निशान मिटा दिया. ये शख्स थे मनकोम्बु संबासिवन स्वामीनाथन, जिन्हें हम एम एस स्वामीनाथन (MS SWAMINATHAN) के नाम से भी जानते हैं.

हरित क्रांति के जनक के तौर पर जाने जाने वाले MS SWAMINATHAN आज फिर चर्चा में हैं. चर्चा की वजह है उन्हें भारत रत्न देने की लेने का एलान.

एम एस स्वामीनाथन और हरित क्रांति में उनके काम के बारे में एक खबर 29 सितंबर 2023 को लल्लनटॉप पर छपी थी जिसे आप नीचे पढ़ सकते हैं. 

हरित क्रांति की कहानी: हमें 'भिखारी' समझ सूअरों का गेहूं खिलाया गया, फिर आए MS Swaminathan

27 सितम्बर 2023- इतिहास में ये तारीख़ अब एक नाम के लिए जानी जाएगी. मनकोम्बु संबासिवन स्वामीनाथन. भारत के एक दिग्गज वैज्ञानिक. 27 सितंबर को स्वामीनाथन इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गए. उनकी याद में हमने सोचा आपको सुनाई जाए कहानी हरित क्रांति की. वो क्रांति जिसमें स्वामीनाथन आगे की पंक्ति के योद्धा थे.

गीली हथेलियों के बीच गीले आटे की लोई को चपत लगाई जाती है. इसलिए नाम पड़ा चपाती. संस्कृत के शब्द रोटिका से बना रोटी. और अंग्रेजों ने नाम दिया ब्रेड. ऐसे ही और कई नाम हैं. जितने देश उतने नाम. लेकिन ज़रूरत एक - भूख, जो सबको लगती है. और कई बार इतनी लगती है कि क्रांतियों की नौबत आ जाती है. भारत नाम के इस देश ने भी भूख का एक लम्बा दौर देखा है. हम ग़ुलाम थे. हमारा खाना छीनकर युद्ध के मैदान पर भेज दिया गया था. फिर हम आज़ाद हुए. हालांकि भूख की ग़ुलामी फिर भी ख़त्म नहीं हुई. और तब हुई एक क्रांति की शुरुआत. एक क्रांति जिसके लिए हथियारों की नहीं औज़ारों की ज़रूरत थी.
इससे पहले जानते हैं इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी. और इसके लिए हमें चलना पड़ेगा आजादी से भी पहले.

हरित क्रांति क्या थी?
 

1900 से 1947 के बीच भारत की कृषि विकास दर 0 पर्सेंट रही थी. अंग्रेज़ों ने इस ‘सोने की चिड़िया’ को दाने-दाने का मोहताज बना दिया. एक मौक़ा ऐसा भी आया जब बंगाल के लोग भूख से मर रहे थे और चर्चिल कह रहा था, ‘बच्चे कम पैदा करो.’ जो अनाज भूखे बच्चों के होंठों में जाना था, उसे जंग की भट्टी में झोंक दिया गया. लाखों लोग मारे गए. इसलिए आज़ादी के बाद प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा, “बाकी सभी चीजों के लिए इंतजार किया जा सकता है, कृषि के लिए नहीं." भूखे लोग राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते थे. इसलिए कृषि पर ज़ोर दिया गया. ज़मींदारी प्रथा ख़त्म कर किसानों को मालिकाना हक़ दिया गया. डैम बनाए गए. लेकिन ये काफ़ी नहीं था.

1951 में भारत की आबादी 35 करोड़ से ऊपर थी. जिनके लिए सिर्फ सीमित खाद्दान पैदा होता था. अधिकतर खेती मानसून पर निर्भर करती थी. मानसून फेल तो खेती बर्बाद. खेती की 10% ज़मीन पर ही सिंचाई के साधन थे. उर्वरकों का इस्तेमाल भी काफ़ी लिमिटेड हुआ करता था. लोग देसी खाद का इस्तेमाल करते थे. जिनसे उपज कम होती थी. शुरुआत में सीमित जनसंख्या थी. सो काम चल गया. लेकिन आगे जनसंख्या बढ़ने वाली थी. इसलिए सरकार ने पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि पर ज़ोर दिया. इरीगेशन सिस्टम को मज़बूत किया गया, नई मशीनें लाई गईं, उर्वरकों का ज्यादा इस्तेमाल किया जाने लगा. इस क़वायद का असर भी दिखा. आज़ादी के बाद पहले कुछ सालों में कृषि विकास दर 3% से ऊपर रही. लेकिन फिर दूसरी पंचवर्षीय योजना में सरकार की प्राथमिकताएं बदल गईं.

अमेरिका में कानून पास हुआ- PL-480 


सरकार इंडस्ट्रियलाइजेशन पर जोर देना चाहती थी. जिसके चलते कृषि पीछे छूटने लगी. खाद्दान की इस कमी को पूरा करने के लिए सरकार ने एक रास्ता अपनाया. उसने गेहूं आयात करने की ठान ली. हालांकि भारत के पास डॉलर की कमी थी. जो था उससे हेवी इंडस्ट्रीज़ लगनी थी. इसलिए तब भारत के काम आया अमेरिका. वहां 1954 में एक क़ानून पास हुआ. PL-480. इस क़ानून के तहत अमेरिका ने भारत तक सस्ता गेहूं भेजना शुरू किया. PL-480 से कुछ हद तक मदद मिली. लेकिन फिर जल्द ही ये आयात किया हुआ अनाज, भारत के लिए मुसीबत बन गया.

भारत अपनी ज़रूरत का लगभग 20% आयात करता था. बाक़ी ज़रूरत खेती से पूरी होती थी. इस खेती को बड़ा झटका लगा जब 1957-58 में भारत में मानसून फेल हो गया. जिसके चलते घरेलू उपज और कम हो गई. गेहूं चूंकि बाहर से इम्पोर्ट होता था, इसलिए किसानों ने भी गेहूं की खेती कम कर दी. एक और मुसीबत ये थी कि भारत की जनसंख्या लगातार बढ़ रही थी. 1961 में जारी हुई UN food and agriculture organization की रिपोर्ट में दावा किया गया कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो कुछ सालों में भारत में भुखमरी शुरू हो जाएगी.

उधर कुछ साल बाद अमेरिका भी अपने रंग दिखाने लग गया था. 1965 में जब भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ तो अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने धमकी दे डाली कि भारत अगर फ़ूड प्रोग्राम का इस्तेमाल अपनी कृषि को सुधारने के बजाय रक्षा खरीद में करेगा तो हम अनाज नहीं देंगे. यूं भी अमेरिका तब भारत को ‘भिखारी’ समझता था. न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अखबार ऐसे कार्टून छापते थे, जिनमें भारत हाथ में कटोरा लिए खड़ा दिखाई देता था. जबकि असलियत ये थी कि PL-480 प्रोग्राम अमेरिका की दरियादिली नहीं बल्कि एक कूटनीतिक चाल का नमूना था.

दरअसल, इस प्रोग्राम के पीछे अमेरिका के कई निजी हित छिपे हुए थे. पहला- वो भारत को सोवियत प्रभाव से दूर रखना चाहता था. दूसरा- 1950 तक उनके पास जरूरत से कहीं ज्यादा खाद्यान का भंडार इकठ्ठा हो गया था. उसे निपटाने के लिए उन्होंने PL-480 प्रोग्राम शुरू किया. इस प्रोग्राम के तहत अमेरिका भारत को गेहूं बेचता और बदले में रुपये ले लेता. अब यहां इनकी चालू पंती देखिए. ये रुपया चूंकि भारत में ही इन्वेस्ट किया जा सकता था, इसलिए अमेरिका ने शर्त रख दी कि भारत को पेस्टिसाइड और केमिकल फर्टिलाइज़र खरीदना होगा. ये फर्टिलाइज़र अमेरिका और यूरोप में बनता था. लिहाजा अमेरिकी और यूरोपियन कंपनियों की चांदी हो गई. एक और कमाल की बात. ये फर्टिलाइज़र और पेस्टिसाइड उन फैक्ट्रियों में तैयार हो रहा था जिनमें द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान केमिकल हथियार बनाए जाते थे. युद्ध के बाद फैक्ट्रियां खाली हो गईं. सो इन देशों ने पुराने माल से पेस्टिसाइड बनाना शुरू कर दिया.

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अमेरिका सूअरों वाला गेंहू भारत भेजता था
 

कुल जमा सच्चाई ये थी कि यूरोप और अमेरिका विश्व युद्ध का बचा हुआ माल बाकी दुनिया को चिपका रहे थे. यानी PL-480 प्रोग्राम में अमेरिका के दोनों हाथ कढ़ाही में थे. बस एक सिर कढ़ाही में जाना बाक़ी था. लिहाज़ा अमेरिका ने एक और घटिया हरकत की. PL-480 प्रोग्राम के तहत जो गेहूं भारत भेजा जाता था, अमेरिकी उसे सूअरों को खिलाने लायक भी नहीं समझते थे. गेहूं के अलावा हमें चावल की भी जरूरत थी. लेकिन चावल नहीं दिया जाता था.

इस अमेरिकी निर्भरता को रोकने के लिए भारत ने अपने कृषि प्रोग्राम पर ध्यान देना शुरू किया. जून 1964 में लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने. उनकी सरकार में कृषि मंत्री थे सी सुब्रमण्यम. उन्होंने एमएस स्वामीनाथन के साथ मिलकर एक नए कृषि प्रोग्राम की नींव रखी. स्वामीनाथन एक जाने माने वनस्पति विज्ञानी थे. तमिलनाडु के कुम्भकोडम में जन्मे स्वामीनाथन के पिता उन्हें डॉक्टर बनाना चाहते थे. लेकिन जब 1943 में बंगाल में अकाल पड़ा तो स्वामीनाथन ने मेडिकल की पढ़ाई छोड़कर एग्रीकल्चर कॉलेज में दाखिला ले लिया. इसके बाद उन्होंने पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री ली. और कृषि से जुड़े शोध कार्य में जुट गए. स्वामीनाथन जब कृषि की समस्या का हल ढूंढ रहे थे, उसी समय भारत से मीलों दूर एक एक्सपेरिमेंट हो रहा था. जिसका असर भारत पर भी पड़ने वाला था.

वो नोबल विजेता जिसने हरित क्रांति को जन्म दिया            
 

एक वैज्ञानिक हुआ करते थे. नाम था नॉरमन बोरलॉग. नोबल विजेता बोरलॉग को पूरी दुनिया में हरित क्रांति के जनक के रूप में जाना जाता है. उन्होंने इस क्रांति की शुरुआत मेक्सिको से की थी. ये क्रांति शुरू हुई थी गेहूं के एक छोटे से बीज से. जो दिखने में और बीजों जैसा ही था, लेकिन इसमें एक ख़ासियत थी. इसका पौधा छोटा होता था. और उपज दोगुनी होती थी.

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इस उन्नत क़िस्म के गेहूं की खोज कैसे हुई? ये कहानी अपने आप में काफ़ी दिलचस्प है. और इसके लिए हमें एक बार फिर द्वितीय विश्व युद्ध के सालों में जाना होगा. अमेरिका ने जापान पर जीत प्राप्त कर ली थी. उसके बाद अमेरिकी सेना जब जापान पहुंची तो उनके साथ एक कृषि अधिकारी भी थे. जिनका नाम था केएस सिसिल सैल्मन. सैल्मन को जापान में गेहूं की एक नई क़िस्म का बीज मिला. नाम था- नोरिन. उन्होंने ये बीज अमेरिका भेजे. वहां इन पर 13 साल तक शोध हुआ. इस लम्बे शोध के बाद 1959 में अमेरिका में एक उन्नत क़िस्म का गेहूं तैयार हुआ. जो ज़्यादा पैदावार देता था और बीमारियों से लड़ने में बेहतर सक्षम था. 1959 में ही नॉरमन बोरलॉग इन बीजों को मेक्सिको ले गए. और इसकी खेती का प्रयोग शुरू कर दिया. ये प्रयास काफ़ी सफल रहा जिसमें प्रति हेक्टेयर 10 टन से ज्यादा पैदावार हुई.

इसके बाद बोरलॉग ने पूरी दुनिया के देशों में इन बीजों को भेजना शुरू किया. उनमें क़िस्मत से भारत भी एक देश था. downtoearth वेबसाइट में अपने एक लेख में स्वामीनाथन लिखते हैं,

"बोरलॉग के बीज हमारे रबी सीजन के लिए एकदम सही थे. इसलिए सन 1959 में मैंने उनसे संपर्क किया और बीज की मांग की. हालांकि बीज देने से पहले वे हमारी खेती के तौर तरीक़ों को देखना चाहते थे. इसलिए उन्होंने खुद भारत आने का निर्णय लिया."

बोरलॉग मार्च 1963 में भारत आए. उन्होंने उत्तर भारत के कई इलाकों का दौरा किया. और खुद खेती कर नई क़िस्म के गेहूं का परीक्षण किया. उन्होंने पाया कि नई किस्म का गेहूं प्रति हेक्टेयर 4 से 5 टन पैदावार दे सकता था. जबकि पहले महज दो टन प्रति हेक्टेयर गेहूं पैदा होता था. इसके अगले साल, यानी जुलाई 1964 में सी सुब्रमण्यम देश के खाद्य एवं कृषि मंत्री बने. उन्होंने सिंचाई और खनिज उर्वरकों के साथ-साथ ज्यादा पैदावार वाली किस्मों के विस्तार को अपना भरपूर समर्थन दिया. सुब्रमण्यम को इसका राजनैतिक विरोध भी सहना पड़ा था. इसलिए उन्होंने दिल्ली में अपने घर के आगे गेहूं की खेती कर साबित किया कि नया बीज कृषि में कैसी क्रांति ला सकता है.

सुब्रमण्यम को प्रधानमंत्री शास्त्री का भरपूर सहयोग मिला. शास्त्री ने मेक्सिको से गेहूं की नई क़िस्म के बीजों के आयात को मंज़ूरी दे दी. इसके बाद ये बीज मुफ़्त में किसानों को बांटे गए. ज़्यादातर बीज हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को दिए गए. क्योंकि यहां सिंचाई व्यवस्था बेहतर थी. इसके अलावा सरकार ने उर्वरक और कीटनाशकों पर सब्सिडी देनी शुरू की, ताकि किसानों को गेहूं की खेती का इंसेंटिव मिले. शास्त्री जी के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं. उनकी सरकार ने गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया, ताकि किसान को ये गारंटी मिले कि उसकी फ़सल बर्बाद नहीं जाएगी.

इंदिरा सरकार में कृषि सुधार कार्यक्रम जारी रहे. हालांकि उनके PM बनते ही इंटरनेशनल पॉलिटिक्स ने एक नया मोड़ लेना शुरू कर दिया था. हुआ ये कि वियतनाम युद्ध के मसले पर भारत अमेरिका के विरोध में था. इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने PL-480 के तहत भेजे जाने वाले गेहूं पर फिर अड़ंगा लगाना शुरू कर दिया. आख़िरी वक्त तक शिप्स रवाना न करना, रोज़ नई शर्तें लगाना, ये लिंडन जॉनसन के पैंतरे थे. लेकिन कुछ ही सालों में ये सारी तरकीबें फेल हो गईं, क्योंकि 1968 में रबी की रिकॉर्ड तोड़ फसल पैदा हुई. 170 लाख टन गेहूं पैदा हुआ, जो उस वक्त तक हुई सबसे ज्यादा पैदावार से भी 30% ज्यादा था. अगले दो सालों में गेहूं का उत्पादन दोगुना हो गया. इसके बाद भारत में हरित क्रांति ने पूरी रफ़्तार पकड़ ली.

गेहूं के बाद धान, मक्का, ज्वार और बाजरे का नम्बर आया. हालांकि यहां ये नोट करना भी ज़रूरी है कि इस काम में तब अमेरिका के रॉकफेलर और फ़ोर्ड फाउंडेशन ने भारत सरकार की मदद की थी. ये संगठन जहां मदद कर रहे थे, वहीं अमेरिकी सरकार से भारत के रिश्ते लगातार बिगड़ते जा रहे थे. 1971 में भारत-पाकिस्तान के बीच एक और युद्ध हुआ. रिचर्ड निक्सन अब तक अमेरिका के राष्ट्रपति बन चुके थे. इंदिरा से निजी खुन्नस रखने वाले निक्सन ने भारत को खुली धमकी दे डाली कि वो खाद्दान के निर्यात पर पूरी तरह बैन लगा देंगे. भारत तैयार था. 1971 में हुई एक और बम्पर फसल के बाद 1972 में भारत ने PL-480 प्रोग्राम से पूरी तरह किनारा कर लिया. हरित क्रांति सफल रही, जिसने भारत को खाद्दान के मामले में आत्मनिर्भर बना दिया.

हरित क्रांति भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है जिसके हीरो एमएस स्वामीनाथन और सी सुब्रमण्यम जैसे लोग हैं. और भी कई लोगों ने इस क्रांति में योगदान दिया था.

हरित क्रांति से फायदे के साथ नुकसान भी
 

आख़िरी सवाल ये कि क्या हरित क्रांति से भारत को सिर्फ फायदा ही फायदा हुआ. जवाब है नहीं. कई विशेषज्ञ मानते हैं कि हरित क्रांति ने भारत की स्थानीय फसलों की किस्मों को नुकसान पहुंचाया. सिर्फ एक किस्म की खेती के चलते पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पूरी खेती गेहूं और धान पर निर्भर हो गई. धान जैसी फसलों के लिए ज्यादा पानी की जरूरत होती है. जिससे इन इलाकों के पानी का जमीनी स्तर कम होता गया. और आने वाले वक्त में ये एक बड़े जल संकट को जन्म दे सकता है.

एक नुकसान ये भी हुआ कि खेती की जमीन कम उर्वर होती गई. जिसके कारण हर साल खनिज उर्वरकों और रासायनिक कीटनाशकों के ज्यादा इस्तेमाल की जरूरत बढ़ती गई. इससे सरकारों पर सब्सिडी का बोझ बढ़ा. कई विशेषज्ञ ये भी मानते हैं कि हरित क्रांति ने देश का भला तो किया, लेकिन किसानों की हालत बेहतर नहीं हुई, खासकर छोटी जोत के किसान जो एक से ज्यादा प्रकार की फसलें उगाया करते थे. खेती के इन तरीकों ने पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया, जिसका अंत में खामियाज़ा किसानों को ही भुगतना पड़ रहा है. इसलिए विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में कृषि के तौर तरीकों में बदलाव की जरूरत है. ये एक तरीके की हरित क्रांति 2.0 होगी.

स्वामीनाथन अपने लेख में लिखते हैं, "पर्यावरण और अर्थव्यवस्था भारतीय कृषि की चुनौतियां हैं. भूजल की कमी से हरित क्रांति के गढ़ रहे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी भीषण पर्यावरण संकट झेल रहे हैं. अगर ग्लोबल वार्मिंग की वजह से औसत तापमान 1 से 2 ड‍िग्री सेल्सियस बढ़ता है तो उससे भी यह क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होगा. इसलिए जरूरी है कि कृषि के तौर तरीकों में बदलाव लाया जाए."
 

 

 

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