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शिव कुमार बटालवी: दर्द और प्रेम का कवि जिसे 'बिरह का सुल्तान' कहा गया

शिव कुमार बटालवी के गीत लोगों की जुबान पर थे, लेकिन नाम नहीं.

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बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू के दौरान शिव कुमार बटालवी. (साभार- बीबीसी)
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23 जुलाई 2019 (Updated: 23 जुलाई 2021, 09:46 IST)
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11694009_1470352889942996_5991047438784802869_n_170516-014003-400x400साल 2016 में आई अभिषेक चौबे की फिल्म 'उड़ता पंजाब' में दिलजीत दोसांझ का गाया 'इक्क कुड़ी' एक बार फिर शिव कुमार बटालवी की याद ताजा कर गया था. शिव प्यार के कवि थे, मृत्यु के कवि थे, जनता के कवि थे. हमारे गेस्ट राइटर रहे सावजराज सिंह ने शिव कुमार बटालवी की जिन्दगी और किरदार के पहलुओं को इस लेख के जरिये लोगों के सामने रखा था. आज शिव कुमार बटालवी का 85वां जन्मदिन है. इस लेख के जरिये हम फिर से इस कवि और उसकी कविता को याद कर रहे हैं. वो कवि, जिसे 28 की उमर में साहित्य अकादमी मिला, और जो सिर्फ़ 35 साल की उम्र में दुनिया छोड़ गया. वो कवि, जिसने कभी कहा था कि आज जैसी दुनिया हमने बनाई है, खुद जिन्दगी एक धीमी मौत में बदलती जा रही है. वो कवि, जिसने ज़िन्दगी को इतना चाहा कि वो उसका अपमान बर्दाश्त नहीं कर पाया और उसे छोड़ गया. 
माए नी माए मैं इक शिकरा यार बणायाचूरी कुट्टा ता ओ खांदा नाहींवे असा दिल दा मांस खवायाइक्क उड़ारी ऐसी मारीओ मुड़ वतनी न आयाओ माए नी माएमैं इक शिकरा यार बणाया
नुसरत साहब के सुरों के पीछे-पीछे चलते हुए पहली बार जा पहुंचा 'बिरह के सुल्तान' के पास. तब तक पता नहीं था. कि यह भला कौन बंदा है. जो जिंदगी में जहर पिए जा रहा है. और उसे कविताओं में पिरोकर मृत्यु, विरह, प्रेम, करुणा के साथ-साथ गांव की मिट्टी में बुन कर माला गूंथ रहा है. तब उन गीतों को सुनकर दिल से आह निकलती तो भी वह नुसरत के खाते जाती. और वाह निकलती तब भी नुसरत के आलाप पर जा बैठती. जब पता करने पर भी पता नहीं चला उन पंक्तियों के कवि का. तो मान बैठा कि यह कोई लोकगीत होंगे पंजाबी भाषा के.
इससे अधिक और क्या कहा जाए उस कवि के बारे में, कि उसके गीत और कविताएं लोगों की जुबान पर थे. पर उसका नाम नहीं पता था. यही तो कवि और उसकी कविता की सार्थकता है कि वो लोगों के ह्रदय में जा बैठा. जबकि लोग उसके नाम से अनजान थे.
कुछ समय पहले जब मित्र अविनाश से मिला तब बातें करते हुए शिवकुमार बटालवी को ठीक से जाना. अविनाश ने बटालवी के प्रति मेरे भीतर गहरा लगाव भर दिया था. सो उसके बाद बटालवी को ढूंढकर पढ़ने, सुनने लगा.
***
बटालवी का जन्म सियालकोट (पाकिस्तान) के गांव बड़ा पिंड लोहतियां में 23 जुलाई 1936 के दिन हुआ था. कुछ दस्तावेज़ उन्हें 7 अक्टूबर 1937 के दिन पैदा हुआ बताते हैं. बहरहाल, आजादी के बाद जब देश का बंटवारा हुआ तो बटालवी का परिवार पाकिस्तान से विस्थापित होकर भारत में पंजाब के गुरदासपुर जिले के बटाला में आ गया. उनका कुछ बचपन और किशोरावस्था यहीं गुजरी. बटालवी ने इन दिनों में गांव की मिट्टी, खेतों की फसलों, त्योहारों और मेलों को भरपूर जिया. जो बाद में उनकी कविताओं में खुशबू बनकर महका. उन्होंने अपने नाम में भी बटालवी जोड़ा. जो बटाला गांव के प्रति उनका उन्मुक्त लगाव दर्शाता है.
कुछ बड़े होने के बाद उन्हें गांव से बाहर पढ़ने भेजा गया. पर असल में बाल बटालवी तो गांव की मिट्टी में ही किसी पौधे की तरह जड़े जमाए उग गया. जो बाहर गया तो बस एक प्रेत था. जो अपनी मुक्ति के लिए भटक रहा था. उनका गांव छूट जाना उन पर पहला प्रहार था. जिसका गहरा जख्म उन्हें सदैव पीड़ा देता रहा.
आगे की पढ़ाई के लिए उनको कादियां के एस. एन. कॉलेज के कला विभाग में भेजा गया. हालांकि दूसरे साल ही उन्होंने उसे बीच में छोड़ दिया. उसके बाद उन्हें हिमाचल प्रदेश के बैजनाथ के एक स्कूल में इंजीनियरिंग की पढ़ाई हेतु भेजा गया. पर पिछली बार की तरह ही उन्होंने उसे भी बीच में छोड़ दिया. इसके बाद उन्होंने नाभा के सरकारी कॉलेज में अध्ययन किया. उनका बार-बार बीच में ही अभ्यास छोड़ देना, उनके भीतर पल रही अराजकता और अनिश्चितता का बीजारोपण था. जो कुछ ही सालों बाद उन के लिए मृत्यु का वृक्ष बन जाना था. पिता शिव को कुछ बनता हुआ देखना चाहते थे. इसलिए गांव से दूर पढ़ाई के लिए उनको भेज दिया. उसके चलते फिर कभी पिता-पुत्र में नहीं बनी. किशोरावस्था में उन्हें पास ही के किसी गांव के मेले में एक लड़की से प्यार हो गया. उस लड़की का नाम मैना था जिसे खोजते हुए बटालवी उसके गांव तक गये थे. उस लड़की के भाई से दोस्‍ती गांठ ली थी. और दोस्त से मिलने के नाम पर वो रोज मैना के गांव चले जाते. लेकिन मैना कुछ ही दिन में बीमारी हुई और चल बसी. उसकी याद में फिर बटालवी ने एक लंबी कविता लिखी 'मैना'. युवावस्था में उन्हें फिर पंजाबी लेखक गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी की बेटी से प्यार हो गया. दोनों के बीच जाति भेद होने के कारण उनका विवाह नहीं हो पाया और लड़की की शादी किसी ब्रिटिश नागरिक से करा दी गई. इस "गुम हुई लड़की" पर शिव ने 'इश्तेहार' शीर्षक से कविता लिखी:
गुम है गुम है गुम है
इक कुड़ी जिहदा नाम मोहब्बत
गुम है गुम है गुम है
साद मुरादी सोहणी फब्बत
गुम है गुम है गुम है
 
सूरत उसदी परियां वरगी
सीरत दी ओह मरियम लगदी
हसदी है तां फुल्ल झड़दे ने
तुरदी है तां ग़ज़ल है लगदी
लम्म सलम्मी सरूं क़द दी
उम्र अजे है मर के अग्ग दी
यहां देखें, शिव कुमार बटालवी का वो लाइव इंटरव्यू, जिसे देखकर उनकी ईमानदारी और सरलता पर मर जाने को दिल करता है−
प्यार की यह बिरह पीड़ा उनकी कविता में तीव्रता से प्रतिबिंबित होती है. कहते हैं कि प्रेम के विरह की पीड़ा जब कभी बढ़ जाती, तो शिव शराब में चूर होकर चंडीगढ़ में चौराहे पर लैम्प-पोस्ट के नीचे रात-रात भर खड़ा कविताएं गाता रहता. शिव की रचनाओं में विरह व दर्द का भाव अति प्रबल रहा है. शायद इसीलिए अमृता प्रीतम ने इन्हें "बिरह का सुल्तान" कहा था. शिव की रचनाओं में निराशा व मृत्यु की इच्छा प्रबल रूप से दिखाई पड़ती है.
एह मेरा गीत किसे ना गाणा
एह मेरा गीत मैं आपे गा के
भलके ही मर जाणा.
[अर्थात्- ये मेरे गीत किसी को नहीं गाने, ये मेरे गीत मुझे खुद ही गा के, अगले दिन मर जाना है.] मृत्यु राग की पंक्तियां दर्द की उस ऊंचाई को छू लेती हैं. अमृता प्रीतम ने इसके लिये एक बार कहा; "बस कर वीरा अब यह दर्द और नहीं सुन सकती". प्रेम की किस विरह वेदना से यह कवि गुजरा होगा भला! जैसे कि इस कवि ने अपने मृत्यु की हनक सुन रखी थी:
मैंनू विदा करो [मुझे विदा करो]
 
असां ते जोबन रुत्ते मरना,
मर जाणां असां भरे भराए,
हिजर तेरे दी कर परिकरमा..
[अर्थात- हमें तो यौवन की ऋतु में मरना है, मर जाएंगे हम भरे पूरे, तुम से जुदाई की परिक्रमा पूरी करके..]
सिर्फ दर्द और विरह की कविताएं ही नहीं लिखी उन्होंने. कविता में गांव की सौंधी मिट्टी की खुशबू और स्थानीयता को भी केन्द्र में रखते हुए अपनी कविताओं को जन जन तक पहुंचाया और लोकप्रिय हुए. शिव की कविताएं पूरे पंजाब में लोकगीतों की तरह सुनी-गाई जाने लगीं. हिन्दुस्तान से ज्यादा पाकिस्तान में उन्हें गाया गया. जहां उनका जन्म हुआ. और फिर बंटवारे के वक्त भारत आना पड़ा. पर उनकी कविताओं ने सरहदों को लांघ दिया था. वो खुद सुरीली आवाज में कविताएं सुनाते थे. उनकी कविताओं की लोकप्रियता कीएक वजह यह भी थी.
जिस कवि ने इस कदर विरह झेला होगा, भला उसने प्यार भी कैसा किया होगा! ऐसे ही प्रेम में रोमांस को ऊंचाई देती काव्य पंक्तियां:
मैंनू तेरा शबाब लै बैठा,
रंग गोरा गुलाब लै बैठा
 
किन्नी पीती ते किन्नी बाकी ए
मैंनू एहो हिसाब लै बैठा
 
चंगा हुंदा सवाल ना करदा,
मैंनू तेरा जवाब लै बैठा
 
दिल दा डर सी किते न लै बैठे
लै ही बैठा जनाब लै बैठा
***
सिर्फ 24 साल की उम्र में शिव कुमार बटालवी की कविताओं का पहला संकलन "पीड़ां दा परागा" प्रकाशित हुआ, जो उन दिनों काफी चर्चित रहा. 1965 में अपनी महत्वपूर्ण कृति काव्य नाटिका "लूणा" के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले वे सबसे कम उम्र के साहित्यकार बने. उस समय शिव की उम्र मात्र 28 साल थी. "लूणा" शिव की अमर प्रस्तुति है. एक पुरुष होते हुए भी एक औरत के दर्द को समझा, महसूस किया. और उसे अपनी कलम से बयां किया. "लूणा" जो कि एक ऐतिहासिक कविता का रूप है, जो कि आधुनिक पंजाबी साहित्य की अद्धभुत रचना मानी जाती है और जिसने आधुनिक पंजाबी किस्सागोई की एक नई शैली की स्थापना की.
उन की प्रसिद्ध काव्य रचनायें हैं; "पीड़ां दा परागा", "लाजवंती", "आटे दीयां चिड़ियां", "मैनूं विदा करो", "दरदमन्दां दीआं आहीं", "लूणां", "मैं ते मैं" "आरती" और "बिरह दा सुल्तान"[अमृता प्रीतम द्वारा संकलित].
***
शिव शादी के बाद चंडीगढ़ चले गये. वहां वे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में कार्यरत रहे. अंतिम कुछ वर्षों में वे खराब स्वास्थ्य से त्रस्त रहे, हालांकि उन्होंने बेहतर लेखन जारी रखा. उनके लेखन में हमेशा से मृत्यु की इच्छा हमेशा से स्पष्ट रही थी और 7 मई 1973 में सिर्फ 36 साल की उम्र में शराब की दुसाध्य लत के कारण हुए लीवर सिरोसिस की वजह से, पठानकोट के किरी मांग्याल में अपने ससुर के घर पर शिव सदा के लिए मृत्यु की गोद में सो गए. अब बस उनकी कविताएं दुनिया के बीच इस अंदाज में मौजूद है-
की पुछदे ओ हाल फकीरां दा
साडा नदियों विछड़े नीरां दा
साडा हंज दी जूने आयां दा
साडा दिल जलयां दिल्गीरां दा
 
साणूं लखां दा तन लभ गया
पर इक दा मन वी न मिलया
क्या लिखया किसे मुकद्दर सी
हथां दियां चार लकीरां दा
 
तकदीर तां अपनी सौंकण सी
तदबीरां साथों ना होईयां
ना झंग छुटिया, न काण पाटे
झुंड लांघ गिया इंज हीरां दा
 
मेरे गीत वी लोक सुणींदे ने
नाले काफिर आख सदींदे ने
मैं दर्द नूं काबा कह बैठा
रब नां रख बैठा पीड़ां दा

वीडियो देखें : एक कविता रोज़: फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म 'गुल हुई जाती है'

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