लल्लनटॉप इंटरव्यू: लोकसभा स्पीकर के रूप में अपनी क्या उपलब्धियां बता पाए ओम बिड़ला?
इंडिया टुडे हिंदी के प्रधान संपादक और लल्लनटॉप में हमारे मुखिया सौरभ द्विवेदी ने देश के मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला से बात की.
लल्लनटॉप का ‘जमघट.’ जहां अमूमन सत्ता के दावेदारों से सवाल पूछे जाते हैं. सवाल नेताओं से. जन प्रतिनिधियों से या फिर जन का प्रतिनिधित्व करने की आकांक्षा रखने वालों से. कुछ एक दफा ऐसा भी होता है कि जन प्रतिनिधि संवैधानिक पद पर पहुंच जाते हैं. तब उनसे सत्ता के इर्द गिर्द के कम और विधान के हवाले से ज्यादा सवाल पूछे जाते हैं. बीती 21 जून को इंडिया टुडे हिंदी के प्रधान संपादक, साथ ही लल्लनटॉप में हमारे मुखिया सौरभ द्विवेदी ने देश के मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला से बात की. इसी महीने उन्होंने बतौर लोकसभा अध्यक्ष तीन साल पूरे किए हैं. सवाल क्या रहे और ओम बिड़ला ने उन सवालों के जवाब में क्या कहा सिलसिलेवार जानते हैं.
सवाल नंबर 1- हमारी रिसर्च टीम आपकी ज़िंदगी को खंगालने की कोशिश कर रही थी. आपके बचपन के, कॉलेज के दोस्त, और कई प्रतिद्वंद्वियों से भी बात हुई. आपकी यात्रा बड़ी दिलचस्प है. कॉमर्स कॉलेज के प्रेसीडेंसी के चुनाव से लेकर (जहां लाठियां भी चलीं) अब देश की सबसे बड़ी पंचायत में लोकसभा अध्यक्ष तक. ओम बिड़ला जब पीछे मुड़ कर देखते हैं तो पहली नज़र में क्या-क्या पड़ाव नज़र आते हैं?
‘ज़िंदगी के काफी पड़ाव हैं. जब विद्यालय में थे, वो दौर 1975 का था. हम कोटा में विद्यालय में पढ़ा करते थे. उस समय स्कूलों में छात्रसंघ के चुनाव हुआ करते थे. साल 1970 में पहली बार स्कूल में छात्रसंघ के चुनाव हुए तो मैं अध्यक्ष का चुनाव जीता. मैं साइंस(मैथ्स) का स्टूडेंट था. वहां पर दो कॉलेज थे. पहला कॉमर्स कॉलेज और दूसरा सरकारी कॉलेज. कॉमर्स कॉलेज छोटा था, छात्र राजनीति में सरकारी कॉलेज की तुलना में वहां काफी कम प्रतियोगिता थी. सरकारी कॉलेज की राजनीति में स्थापित नेता चार- पांच बार अध्यक्ष चुने जा चुके थे. उनका ग्रुप चलता था. मैंने सोचा अगर मैं सरकारी कॉलेज में जाऊंगा तो मुझे चुनाव में ज्यादा कॉम्पिटीशन मिलेगा. इसीलिए मैंने सब्जेक्ट बदल कर कॉमर्स कॉलेज में दाखिला ले लिया.’
मैं स्कूल से चुनाव में था. इसके बाद मैं कॉलेज के प्रथम वर्ष में गया. और अध्यक्ष पद के लिए चुनाव में भागीदारी की. लेकिन चुनिंदा अध्यक्ष ने मुझे जनरल सेक्रेटरी बनाने की बात कही, कहा कि आपको जॉइंट सेक्रेटरी बनाएंगे. अगले साल द्वितीय वर्ष में मैंने फिर चुनाव लड़े. काफी कॉम्पिटीशन था. मैं दो वोटों से चुनाव हार गया. इसके बाद स्कूल-कॉलेज के चुनाव बंद हो गए. जब हम स्कूल-कॉलेज में थे तभी कच्ची बस्ती के कुछ गरीब लोगों का काम कर दिया करते थे. हमारा इलाका तब जनसंघ का गढ़ हुआ करता था. संघ की शाखाओं में भी जाया करते थे. परिवार भी जनसंघ की दिशा में था. उसी समय भारतीय जनता पार्टी बनी तो हम राजनीति के क्षेत्र में आ गए.'
सवाल नंबर 2- अध्यक्ष जी एक ब्यौरा छूट गया. आपने कहा दो वोट से हार गए. कॉलेज में लाठी क्यों चली थी?
‘चुनाव में बहुत कॉम्पिटीशन था. दो वोट से चुनाव हार गए, गलत चुनाव हरा दिया गया. समर्थको में काफी आक्रोश था.’
सवाल नंबर 3- क्या कर्ण सिंह राठौर ने गड़बड़ की थी?
‘नहीं, गड़बड़ किसी ने नहीं की थी. जब हारते हैं तो स्वाभाविक रूप से समर्थकों में एक आक्रोश होता है. मुझमें कोई आक्रोश नहीं था. चुनाव था, लड़े, निकल गए.’
सवाल नंबर 4- जानकार बताते हैं कि अध्यक्ष जी अब बहुत शांत हैं, जवानी के दिनों में बहुत उग्र नेता हुआ करते थे?
‘नहीं उग्रता ऐसी नहीं होती थी कि किसी क्रिमिनल प्रॉसेस से गुजरे हों. राजनीतिक रूप से जहां आक्रोश का प्रश्न उठता था तो विद्यार्थी जीवन में कभी-कभी आक्रोशित भी होना पड़ता था. विद्यार्थियों और गरीबों के साथ अन्याय होता था तो न्याय की लड़ाई भी लड़नी पड़ती थी. ये जीवन की प्रक्रिया है. लेकिन शुरू से यह तय किया था कि राजनीतिक जीवन की तरफ ही जाना है तो उस दिशा में ही काम किया. कॉलेज के चुनाव के बाद युवा मोर्चा की पॉलिटिक्स में आ गए. बीजेपी के यूथ विंग में जिलाध्यक्ष रहा. जिलाध्यक्ष के बाद युवा मोर्चा में प्रदेश अध्यक्ष. इसके बाद युवा मोर्चा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, फिर दूसरे और तीसरे टर्म में भी युवा मोर्चा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहा. फिर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहते-रहते विधानसभा के चुनाव में साल 1998 और उससे पहले भी कई बार टिकट आया, टिकट एक बार मिल भी गया, फॉर्म भर दिया गया, लेकिन फिर कट गया.’
सवाल नंबर 5- टिकट मिलने और कटने का क्या खेल था?
‘जब मैं युवा मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष था तो कोटा में एक बड़ा सम्मलेन हुआ. तब शेखावत जी एक बार मुख्यमंत्री रह चुके थे और राजस्थान के नेता थे. जब वो जयपुर से चले तो उन्हें रास्ते में बस ही बस दिखीं. पार्टी के अध्यक्ष रामदास अग्रवाल भी उनके साथ थे. चुनाव आने वाले थे. उन्होंने कहा कि मैंने युवा मोर्चा का इतना बड़ा सम्मेलन नहीं देखा. मैं युवा मोर्चा का राजस्थान का अध्यक्ष था और सम्मलेन मैंने कोटा में किया था. जे.पी. नड्डा युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हुआ करते थे. उस सम्मलेन में जे.पी. नड्डा, रामदास अग्रवाल, भैरो सिंह शेखावत भी आए. इसके बाद विधानसभा चुनाव आए तो मुझसे कहा गया कि आपको बूंदी विधानसभा से चुनाव लड़ना है. मेरे पिताजी का नेटिव गांव बूंदी के पास ही है. तो मैं फॉर्म भरने चला गया. फॉर्म भरकर मैं दो-तीन दिन प्रचार करता रहा. किसी ने मुझे बताया कि जयपुर में कई टिकटों को लेकर मीटिंग चल रही है. उसमें आपका भी नाम है. तो मैं जयपुर निकल गया. जानकारी मिली कि स्थानीय लोग मांग कर रहे हैं कि किसी स्थानीय व्यक्ति को टिकट दिया जाए. पार्टी के निर्णय को माना गया. इसके बाद सांसद का टिकट हुआ वो भी नहीं मिला. सामान्य प्रक्रिया है. सब चलता रहता है.’
सवाल नंबर 6- लोगों ने ये भी कहा कि इस प्रक्रिया का एक पड़ाव ये भी था कि जब आपने राजनीति का कहकहरा सीखा तो आप राजस्थान के क़द्दावर नेता नरेंद्र किशोर चतुर्वेदी जी के साथ थे. और बाद में शेखावत जी के साथ आ गए. तो इस वजह से एक बड़ा खेमा लगातार आपकी तरक्की का जयपुर में विरोध करता रहता था?
‘ऐसा नहीं है. राजनीति में सब कुछ चलता रहता है. हम पार्टी के लिए एक कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहे थे तो ये सामान्य था. ऐसा कुछ नहीं था.’
सवाल नंबर 7- आप लोगों की तरक्की से सबसे ज्यादा युवा मोर्चा वाले मुस्कुराते हैं कि देखो हमारे फ्रंट का जलवा, धर्मेंद्र प्रधान, अनुराग ठाकुर. कोई अध्यक्ष बन रहा है, कोई प्रभावी कैबिनेट मंत्री बन रहा है, कोई राष्ट्रीय अध्यक्ष बन रहा है. युवा मोर्चा उन दिनों भी इतना सशक्त था या नहीं?
'बीजेपी का युवा मोर्चा हमेशा से सशक्त रहा है. उन समय बीजेपी में युवा नेता ज्यादा आते थे. उसी परिप्रेक्ष्य में हमने भी संगठन में काम किया.'
सवाल नंबर ८- 2003 में आपको टिकट मिला. उसमें कोई व्यवधान नहीं आया?
‘उस टिकट में व्यवधान इसलिए नहीं हुआ कि उस सीट से लड़ने के लिए कोई राजी नहीं था. सर्वे के मुताबिक लगता था कि वो सीट हारेंगे. लेकिन मेरा शहर था, राजनीति वहीं की थी. जीवन वहीं गुज़ारा था. सामाजिक क्षेत्र भी था. सामने चुनाव में एक मजबूत कैबिनेट मंत्री थे. ठीक है, जनता ने प्यार दिया, स्नेह दिया और जीत हुई.’
सवाल नंबर 9- एक नारा चलता है- 'ओम शांति ' का नारा. कहा जाता है कि राजनैतिक प्रतिद्वंद्वता अपनी जगह है, लेकिन शान्ति धारीवाल और ओम बिड़ला की दोस्ती बड़ी पक्की है. चुनाव में भी एक दूसरे को फायदा पहुंचाते हैं. लोग ऐसा क्यों कहते हैं?
'ऐसा नहीं है. मैं पहला चुनाव उनके खिलाफ लड़ा. जीता भी. ये चलता रहता है राजनीति में. सामाजिक राजनीतिक जीवन में मेरा मानना है कि कभी किसी के गठजोड़ से या किसी के सहयोग से चुनाव नहीं जीते जाते. चुनाव जनता तय करती है. कार्यकर्ताओं की मेहनत तय करती है. कई बार लोग कहते हैं इसने हरा दिया, उसने हरा दिया. मेरे नजरिए से किसी को कोई भीतरघात से नहीं हरा सकता है. उसका काम, पार्टी की ताकत, संगठन की ताकत, नेतृत्व के प्रति लोगों की निष्ठा मायने रखती है. कई बार मतदाता नेतृत्व को देखकर वोट करता है कि इनको मुख्यमंत्री बनाना है. उसी उद्देश्य से मतदाता मतदान करता है. चुनाव पार्टी के आधार पर लड़ा जाता है. व्यक्तिगत आधार पर कभी कोई चुनाव जीत नहीं सकता. कोई किसी को हरा नहीं सकता. लेकिन जनता ही अगर आपको हराने को तैयार हो तो कोई रोक भी नहीं सकता. इसीलिए हमेशा जनता के साथ विश्वास रखो, भरोसे. ईमानदारी और प्रतिबद्धता से काम करो. फिर मुझे लगता नहीं कि चुनाव में विपरीत परिणाम आएगा. मैं साल 2003 से चुनाव लड़ रहा हूं. 10,000 वोट से जीता. फिर साल 2008 में लड़ा, उसके दोगुने से जीता. इसके बाद 2014 में विधानसभा लड़ा. फिर 2014 में लोकसभा लड़ा. फिर इसके बाद दूसरी लोकसभा का चुनाव लड़ा.'
सवाल नंबर 10- मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत खुद भी कई बार मंच से 'ओम शांति ' बोल देते हैं?
‘कोई कुछ भी कह सकता है. चुनाव जीतने के लिए पार्टी का जनाधार, नेतृत्व महत्वपूर्ण है. और अगर व्यक्तिगत रूप से आपसे जनता ही नाराज़ हो जाए तो बात अलग है.’
सवाल नंबर 11- गहलोत साहब का जिक्र हुआ, एक ज़िक्र और होता है कि ओम बिड़ला कोटा से दिल्ली तो आ गए. जयपुर जाएंगे क्या? जब बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की फेहरिस्त बनती है तो उसमें वसुंधरा राजे, गजेंद्र सिंह शेखावत, सतीश पुनिया और आपका भी नाम आता है?
‘मैं अभी किसी दावेदारी में नहीं हूं. मेरा काम अभी लोकसभा स्पीकर के रूप में है. मैं एक संवैधानिक पद पर हूं. इसकी मर्यादा को समझता हूं. मैं दल से ऊपर उठकर सभी लोगों को साथ लेकर निष्पक्ष रूप से सदन चलाऊं, ये मेरी जिम्मेदारी है. जितना निष्पक्ष रूप में सदन चलाऊंगा उतना विश्वास कायम रहेगा. चूंकि हमारे पूर्ववर्ती अध्यक्षों ने इस आसन की गरिमा को बनाए रखा है. तो मेरा भी ये दायित्व है कि आसन की गरिमा बनी रहे. व्यक्ति आता है चला जाता है. लेकिन ये मेरी जिम्मेदारी है.’
सवाल नंबर 12- 17 जून 2019 को आपके लोकसभा अध्यक्ष रहते हुए लोकसभा की पहली मीटिंग हुई थी. अभी तीन साल पूरे हुए. आपने कभी इस दौरान या इससे पहले, जो पहले लोकसभा अध्यक्ष रहे हैं उनके अनुभवों को लेकर उनसे कोई चर्चा की?
'अपने पूर्ववर्ती अध्यक्षों से मैं लोकसभा अध्यक्ष बनने के बाद मिला. उसके बाद जब मैं इंदौर गया. तब भी मैं उनके घर पर गया. मीरा कुमार जी से भी मैंने बात की. शिवराज जी से भी मैंने बात की. मैं समय-समय पर अपने पूर्ववर्ती अध्यक्षों से उनके अनुभवों का लाभ लेता रहता हूं. समय-समय पर संसद में किये गए इनोवेशन, नए कार्य, संसद की गतिविधियों में दिए गए अध्यक्षी निर्देश मैं हमेशा देखता पढ़ता रहता हूं. सभी पूर्ववर्ती अध्यक्षों का सम्मान सभी माननीय संसद सदस्य इसलिए करते थे क्योंकि वो निष्पक्ष होते थे. और निष्पक्षता से सदन की कार्यवाही चलाते थे. इसलिए मेरी जिम्मेदारी और बनती है कि उनके किये गए कार्यों को किस तरह से आगे बढ़ा सकता हूं. इसीलिए पुराने सभी अध्यक्षों के भाषणों, वक्तव्यों, उनके किये गए कार्यों से प्रेरणा लेकर कार्य करने की कोशिश करता हूं.’
सवाल नंबर 13- जब आपके नाम की घोषणा हुई तो लोग बड़े आश्चर्य में थे. परिवार वालों ने कहा कि जब हमको पता चला तो हर्ष भी हुआ और अचरज भी. आपके लिए ये कितना बड़ा आश्चर्य था?
‘निश्चित रूप से मेरा लोकसभा का दूसरा कार्यकाल था. मैं तीन बार विधानसभा में रहा था. पहले पूर्ववर्ती व्यवस्था ये थी कि वरिष्ठ सदस्यों को लोकसभा स्पीकर बनाते थे. ये एक परंपरा रही. बीच में एक बार के चुने हुए माननीय सदस्य को भी स्पीकर बनाया गया. लेकिन ऐसा विचार या मानसिक व्यवस्था बन गई थी कि बहुत सीनियर, अनुभवी व्यक्ति ही होना चाहिए. और विशेष रूप से उम्र से भी बुजुर्ग होना चाहिए, इसीलिए ये एक नई चुनौती थी, नया दायित्व था और सबके सहयोग, माननीय प्रधानमंत्री जी और सभी दलों के नेताओं के सहयोग, और सभी के सामूहिक प्रयासों से हमने कोशिश की, कि सदन की गरिमा को बनाए रखें और सदन चर्चा व समाधान का केंद्र भी बने.’
सवाल नंबर 14- पिछले दिनों इंडियन एक्सप्रेस में आपका इंटरव्यू छपा, उसकी हेडलाइन में चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया की टिप्पणी थी, उस पर क्या कहेंगे ?
‘CJI साहब ने मेरे भाषण को कोट करते हुए कहा था कि संसद के अंदर जब बिल पेश हो तो व्यापक चर्चा, संवाद हो. मैं भी इस बात को हमेशा कहता हूं कि सबकी सहभागिता हो. और सदन के अंदर मैंने ऐसा प्रयास किया है. आप पुराना रिकॉर्ड निकालकर देख लीजिए जो बिल सदन में सरकार ने प्रस्तुत किया, उस पर आवंटित समय से ज्यादा चर्चा हुई, ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया, देर रात तक चर्चा हुई. महत्वपूर्ण विधेयकों पर ज्यादा घंटे भी चर्चा हुई. ज्यादा माननीय सदस्यों की भागीदारी भी रही. इसलिए उन्होंने भी इसी दिशा में कहा था.’
सवाल नंबर 15- कभी सदन चलाते हुए ऐसा लगा कि मेरा विरोध सिर्फ इसलिए किया जा रहा है या मेरी बात नहीं सुनी जा रही, क्योंकि मैं अपेक्षाकृत नया हूं. क्या कभी कोई ऐसा मौका आया?
‘मुझे कभी ऐसा नहीं लगा. हां ये बात सही है कि मुझे जब माननीय प्रधानमंत्री जी ने और सभी नेताओं ने दायित्व दिया तो मेरे लिए लोकसभा स्पीकर का अनुभव नया था. मेरे लिए एक चुनौती थी. लेकिन सदन में 37 बैठकों के अंदर 35 विधेयक पारित हुए, देर रात तक सदन चला. और मेरी कोशिश थी कि सभी माननीय नए सदस्यों को बोलने का पर्याप्त समय और पर्याप्त अवसर मिले. मैंने कोशिश की और उन 37 बैठकों में मैं सदन की जो तस्वीर देखना चाहता था वह सुखद थी. संसद हो या कोई भी लोकतंत्र की संस्था हो चर्चा होनी चाहिए. सहमति और असहमति भी होनी चाहिए. पुरानी डिबेट्स को देखो तो व्यंग्य भी होते थे, आरोप-प्रत्यारोप भी होते थे. लेकिन मनभेद नहीं हुआ करते थे. मतभेद विचारधाराओं, कार्यक्रम की नीतियों के आधार पर और कानून बनाते समय कानूनों को लेकर हो सकते थे. लेकिन व्यापक चर्चा होती थी. मैं भी चाहता था कि सदन ऐसा ही चले. मैं उन सभी माननीय सदस्यों को धन्यवाद दूंगा जिन्होंने मेरा सहयोग किया. और पहले सत्र के अंदर कोई भी व्यवधान नहीं हुआ. बिना गतिरोध के सदन चला और देर रात तक बैठ कर सदन की कार्रवाई में सभी माननीय सदस्यों ने हिस्सा लिया.’
सवाल नंबर 16- शिमला में जो पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन हुआ था. उसमें आपका भाषण है. आपने कहा विधानमंडलों में कानून पर चर्चा और बैठकों की संख्या घटी. जरा इस चिंता के बारे में बताइए.
‘1921 में शिमला में पीठासीन अधिकारी सम्मेलन की एक परंपरा शुरू हुई थी. हमने भी कहा कि जब इसका शताब्दी वर्ष शुरू हो रहा है तो क्यों न शिमला में इस सम्मेलन को आयोजित किया जाए. सम्मेलन में 86 पीठासीन अधिकारियों की बैठक हुई थी. उन पीठासीन अधिकारियों के बीते समय के कुछ निर्णय एक्जीक्यूट हुए, कुछ नहीं हुए. वे उस समय की व्यवस्था में प्रासंगिक नहीं थे. उन सभी निर्णयों का डेटा कलेक्शन करके हमने उनका अध्ययन किया. और उन 100 सालों के अंदर जो निर्णय उस समय अमल में नहीं आए लेकिन आज प्रासंगिक हैं, हमने उन पर चर्चा की. चर्चा के 4-5 विशेष बिंदु रहे. सदन की गरिमा, शालीनता जैसे विषयों पर व्यापक चर्चा हुई.’
और अभी से नहीं 2001 में जब माननीय बाल योगी जी स्पीकर हुआ करते थे, उस समय उन्होंने राज्यों के मुख्यमंत्रियों, संसदीय कार्य मंत्रियों, सभी दलों के नेताओं से डिसिप्लिन डेकोरम पर एक व्यापक चर्चा की थी. उस समय भी यही मुद्दा था कि सदनों का अनुशासन कम होता जा रहा है. और उसके पहले भी सदन में घटती बैठकों और सदन के अंदर चर्चा, संवाद को लेकर कई बार चिंता व्यक्त की गई. चर्चा हुई तो जो आज के वर्तमान परिप्रेक्ष्य की आवश्यकता है उसे लेकर कुछ विषय निकलकर आए, जिनको आगे बढ़ाने की आवश्यकता है., ताकि सभी पीठासीन अधिकारी चाहें राज्यों के हों या देश के हों मिलकर इन लोकतांत्रिक संस्थाओं को सशक्त कर सकें, जनता के प्रति जवाबदेह बना सकें, प्रशासन में पारदर्शिता आए.
हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था की गई थी. माननीय सदस्यों के माध्यम से सदन चलने की कार्ययोजना बनी थी. इसलिए ये भी चिंता हुई कि हमारे चुने हुए व्यक्तियों के आचरण और व्यवहार पर भी चर्चा होनी चाहिए, क्योंकि उनके आचरण और व्यवहार से ही सदन चलता है. पीठासीन किसी दल का नहीं होता, लेकिन किसी दल और विचारधारा से निकल कर आता है. ये सत्य है. मुझे लगता है कि हम चर्चा और संवाद से लोकतंत्र को सशक्त कर पाएंगे.’
सवाल नंबर 17- संशय तो रहता होगा कि ओम बिड़ला जी अभी लोकसभा अध्यक्ष हैं, सांसद बीजेपी की टिकट से चुनकर आए. भविष्य भी बीजेपी में ही है. ऐसे में फैसला लेते वक्त वो अंतर्द्वंद्व तो रहता ही होगा कि फैसला ऐसा लें कि भाजपा वाले नाराज न हों या फिर जिस कुर्सी पर बैठा हूं उसके अनुसार चलूं ?
‘एक वकील, सुप्रीम कोर्ट का जज बनता है, चीफ जस्टिस बनता है. उसने कभी न कभी किसी क्लाइंट के पक्ष में भी सुनवाई की होगी, मुख़ालफत भी की होगी. किसी जज के सामने उपस्थित भी हुआ होगा. तो अगर व्यक्ति पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर किसी सदन की कुर्सी पर या न्याय की कुर्सी पर बैठा है , तो उस समय उसका किया हुआ न्याय देश के साथ न्याय नहीं होगा. लोकसभा की तो सीधी कार्रवाई रहती है. लोकसभा का सीधा प्रसारण देश दुनिया में देखा जाता है. अगर आप आसन पर बैठकर निष्पक्षता और निर्विवाद रूप से सबको साथ लेकर कार्य नहीं करेंगे तो आप सदन नहीं चला सकते. सदन में लंबे राजनीतिक अनुभव वाले सदस्य रहते हैं, आप अगर निष्पक्ष रूप से कार्रवाई नहीं करेंगे तो निश्चित रूप से से आपके आसन पर उंगली उठेगी. 3 साल की लोकसभा की बहस में मुझे नहीं लगता किसी सदस्य ने आसन पर कोई गंभीर टिप्पणी की हो.’
‘ये सवाल हमेशा पैदा होता है कि आपकी किसी दल के प्रति निष्ठा है तो आप आसन पर बैठकर कैसे निष्पक्ष, निर्विवाद हो सकते हो. ये आसन की गरिमा है,व्यक्ति की गरिमा नहीं. आसन की गरिमा बनाए रखना मेरी जिम्मेदारी है. जिन्होंने मुझे चुना है, जिन्होंने मेरे लिए फैसला किया है, वो भी हमेशा अपेक्षा रखते हैं कि आसन निष्पक्ष रहे,निर्विवाद रहे.’
सवाल नंबर 18- आपने कहा, जिन्होंने मुझे चुना है. बीजेपी के पदाधिकारी प्रधानमंत्री मोदी का जिक्र करते हैं, कहते हैं कि आपके चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के अलावा अमित शाह का भी बहुत बड़ा योगदान है. वो गुजरात से बाहर आए तब आप लोगों की मित्रता बड़ी प्रगाढ़ हुई. क्या प्रसंग है?
‘सभी दलों का सहयोग रहता है. माननीय प्रधानमंत्री जी के नेतृत्व में जब वो संगठन का काम देखते थे. तब हम युवा मोर्चा में थे, वो हमारे प्रभारी हुआ करते थे. और अमित शाह जी ने भी युवा मोर्चा में काम किया. परिचय उसके बाद का है. जहां तक सवाल लोकसभा अध्यक्ष के निर्णय का है, दल ने, सरकार में बैठे लोगों ने, माननीय प्रधानमंत्री जी ने जो भी निर्णय किया, उसके बाद सभी दलों के नेताओं से चर्चा हुई. एक परंपरा रही कि अध्यक्ष सभी दलों के सहयोग से चुनाव हो. इसलिए उन सभी लोगों ने जिन्होंने मुझे चुना है उन सभी के प्रति मेरा मत ये है कि मैं उनके विश्वास को कायम रखूं. सदन ने मुझे चुना है,तो मेरी जिम्मेदारी है कि सदन के प्रति विश्वास-भरोसा रखूं.’
सवाल नंबर 19- आप परंपरा की बात कर रहे हैं, परंपरा तो डिप्टी स्पीकर की भी है?
'हां डिप्टी स्पीकर की भी परंपरा है. सभापति पैनल भी हैं. सब कुछ संविधान के अंदर है. जब डिप्टी स्पीकर के फैसले होंगे तब डिप्टी स्पीकर बन जाएगा. अभी सदन के अंदर सभापति पैनल है जिसमें सभी दलों के माननीय सदस्य हैं. आप वहां भी सवाल कर सकते हैं. अभी जो सभापति पैनल में बैठकर सभा का संचालन कर रहे हैं, कुछ देर बाद वही सदन में बैठकर ट्रेजरी या दूसरी बेंच में जाकर बैठेंगे. जब सभापति पैनल में कोई माननीय सदस्य बैठता है तो आसन की गरिमा के अनुसार व्यवहार करता है. जितने भी सभापति पैनल में बैठे लोग हैं, उन्होंने निष्पक्ष निर्विवाद रूप से सदन को चलाया है. कभी भी आसन के ऊपर उंगली नहीं उठी. उस व्यवस्था में कभी ट्रेजरी बेंच में होंगे,कभी प्रतिपक्ष में होंगे और अपनी बात रखेंगे. शासन के विभिन्न अंग चाहें न्यायपालिका हो, कार्यपालिका हो,विधायिका हो. देश इन सभी से सुचारू काम करने की अपेक्षा करता है. संसदीय लोकतंत्र की इस व्यवस्था को 75 वर्ष हो रहे हैं. आज भी हमारी यह व्यवस्था दुनिया को मार्गदर्शन दे रही है. उस समय लोग सोचते थे भारत इतना बड़ा लोकतंत्र है, इतनी विविधताऐं हैं, विचारधाराएं हैं, संस्कृतियां हैं, संसदीय लोकतंत्र में कैसे चलेंगी?'
‘हमने न सिर्फ चलाया, बल्कि दुनिया ने संसदीय लोकतंत्र में शासन की हमारी पद्धति को अपनाया. भारत ने दिशा दी कि संविधान होना चाहिए, एक विधायिका होनी चाहिए, जो सारी चीजों का फैसला करे. आज दुनिया में वही व्यवस्था चल रही है.’
सवाल नंबर 20- ये व्यवस्था तो ब्रिटिश संसद के समय से है?
‘कुछ मॉडल हमने ब्रिटिश संसद का लिया, कुछ दूसरी संसदों का भी लिया. हमारी संसद दूसरों के लिए नजीर बनी. आज भी कई देशों की संसदों के माननीय सांसद, सचिव यहां प्रशिक्षण प्राप्त करने आते हैं. हमारी कार्रवाइयों से, हमारी संसदीय समितियों से सीखते हैं. MOU साइन होते हैं कि किस तरह से जानकारी साझा की जाए.’
सवाल नंबर 21- लोकसभा का आशय है लोगों की सभा, ‘हम भारत के लोग..’ से हमारा संविधान शुरू होता है. लोकसभा लोगों तक और सुगमता से कैसे पहुंचे? जैसे हम पढ़ना चाहें कि 1970 के मानसून सत्र में जो चर्चा हुई थी, उसके बारे में जानकारी कैसे मिले और डिजिटल का जमाना है. सुना है कि लोकसभा में बहुत समृद्ध पुस्तकालय है, ज्ञान का विपुल भंडार है, लेकिन लोगों तक उसकी उपलब्धता कैसे होगी?
'ये जो आपने विषय उठाया है सबसे महत्वपूर्ण है. लोकसभा देश की 130 करोड़ जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली सभा है. लोकसभा में होने वाली चर्चा से हमारे देश की जनता सीधी जुड़ी रहे इसलिए माननीय प्रधानमंत्री जी ने एक देश एक विधायी प्लेटफार्म की बात की थी. हम उस दिशा में काम कर रहे हैं, हमारे देश में केंद्र और राज्यों की जितनी भी विधायी संस्थाएं हैं, उन सभी को एक मंच पर ला सकें. उनकी गति, कार्रवाई, उनकी बहसें, उनके बजट सभी एक मंच पर आ सकें. मुझे लगता है कि 2023 तक हम इसे पूरा कर लेंगे. लेकिन उसके पहले हमारे देश में आजादी के बाद सदन में जो भी चर्चाऐं हुई हैं, हम उस सभी का डिजिटलाइजेशन कर रहे हैं, उसे मेटा डेटा पर डालेंगे. दिसंबर, 2022 से किसी भी विषय के नाम से, वर्ष से उस चर्चा को खोजकर देख सकेंगे. उसी तरीके से हमने पुस्तकालय की सभी किताबों के डिजिटलाइजेशन का काम शुरू कर दिया है. देश की इस समृद्ध लाइब्रेरी से देश की जनता जुड़ सके, हमारा युवा लोकतंत्र में सक्रिय भागीदारी निभा सके, इस हेतु हमने व्यापक अभियान शुरू किया, हालांकि कोविड में हमारा अभियान नहीं चला. और इसी तरह जो हमारे महान नेता रहे, स्वतंत्रता सेनानी रहे, जिनका योगदान रहा, उन पर हम देश के चुनिंदा युवाओं को संसद भवन में बुलाएंगे. निबंध प्रतियोगिता आयोजित होगी,चर्चा कराएंगे,ताकि देश की जनता उन्हें जानें.
सवाल नंबर 22- नए संसद भवन का क्या स्टेटस है?
‘इस पुराने संसद भवन को 100 साल होने जा रहे. आज नए भवन की आवश्यकता है. हमने देश की सरकार से आग्रह किया था कि नया संसद भवन बनना चाहिए. देश की अपेक्षा थी कि नई चुनी हुई सरकार संसद भवन बनाए. हमारे आग्रह को सरकार ने माना. नए संसद भवन का निर्माण चल रहा है. माननीय प्रधानमंत्री जी ने जब शिलान्यास किया था तो ये भी जिम्मेदारी दी थी कि 2022 तक इसका निर्माण कर लिया जाए. काम प्रगति पर है. मुझे आशा है कि नवंबर, दिसंबर में शीतकालीन सत्र नई बिल्डिंग में होगा.’
सवाल नंबर २३- विपक्षी सांसदों ने कई मसले बार-बार उठाए हैं. प्रेस से बातचीत में आपकी टिप्पणियों से भी ये बात समझ में आई कि कई बार मंत्रीगण पूरी तैयारी से नहीं आते हैं, एक दूसरा मुद्दा पेपरलेस करने और कनेक्टिविटी को लेकर है और एक विषय बार-बार आ रहा है कि मुद्दों पर आम सहमति नहीं बन पाती. इन तीनों मुद्दों पर आपका क्या रुख है?
‘इन तीनों मुद्दों पर अलग-अलग दृष्टिकोण हैं. स्टैंडिंग कमेटी में महत्वपूर्ण बिल जा रहे हैं. लेकिन कई बिलों पर सरकार को लगा कि इसे जल्दी कानून बनाना है. सहमति-असहमति चलती है, लेकिन किसी भी विधेयक को लाने के पीछे सरकार की मंशा जनता के हित में ही रहती है. अधिकतर बिलों पर आवंटित समय से ज्यादा चर्चा हुई,ज्यादा लोगों ने भागीदारी की. मैं सभी सदस्यों को बोलने के लिए पर्याप्त समय देता हूं.’
‘आप डेटा देख लें सत्ता पक्ष से कम संख्या होने के बाद भी, विपक्ष को आवंटित समय से ज्यादा दिया गया है. मैं रिकॉर्ड के आधार पर यह कह रहा हूं. सत्तापक्ष के लोग तो बिल लेकर ही आए हैं, लेकिन प्रतिपक्ष के लोगों को भी पर्याप्त समय मिलना चाहिए. कई बार असहमति के स्वर से भी देश के हित में स्वर निकलते हैं. कानून बनाते समय कई बार सकारात्मक सुझाव आते हैं और उन्हें सम्मिलित किया जाता है.’
सवाल नंबर 24- कई बार सदन में हंगामा चलता रहता है और बिल पास होते रहते हैं. क्या कहेंगे?
‘ऐसा सामान्य रूप से बहुत कम हुआ है. एक सत्र में ऐसा जरूर हुआ है जब बहुत प्रयास के बावजूद गतिरोध समाप्त नहीं हुआ. बाकी मेरे तीन साल के कार्यकाल में बिलों पर व्यापक चर्चा और संवाद कराया गया है.’
सवाल नंबर 25- बतौर लोकसभा अध्यक्ष आपको तीन वर्ष हो गए हैं. सबसे ज्यादा संतुष्टि क्या लगती है? उपलब्धि क्या लगती है?
‘मुझे लगता है कि सदन के अंदर जो नए सदस्य हैं, महिला सदस्य हैं, आदिवासी इलाकों से आए सदस्य हैं, वो सदन के माध्यम से अपने क्षेत्र की समस्याओं, अभावों के मुद्दे उठाते हैं और सरकार ने शून्यकाल ने उठाए गए मुद्दों का लोकसभा के अंदर पहली बार जवाब दिया है. जिससे उनके क्षेत्र में विकास कार्य हुए हैं. कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर पहली बार चुनकर आए कई माननीय सदस्यों को मौका मिला है. पहले वरिष्ठ सदस्य ही ज्यादातर समय बिल पर बोलते रहे हैं. मैंने नए सदस्यों को उनकी पार्टी की तरफ से नाम देने के बावजूद भी बोलने का मौका दिया है. नए सदस्यों से आपने चर्चा की होगी, उन्होंने कभी नहीं कहा होगा कि हमें अवसर नहीं मिला.’