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PM मोदी ने जिस बन्नी भैंस की इतनी तारीफ की, उसकी खूबियां कमाल की हैं

बन्नी भैंस ने कच्छ के लोगों को नई पहचान दिलाई है.

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कच्छ दौरे पर गए पीएम मोदी ने बन्नी भैंस की कई खूबियां गिनाई थीं. बन्नी भैंस मुश्किल मौसम में भी रह लेती है. (फोटो- PTI/वीडियो स्क्रीनशॉट)
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लालिमा
17 दिसंबर 2020 (Updated: 17 दिसंबर 2020, 11:48 AM IST) कॉमेंट्स
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. 15 दिसंबर को गुजरात के कच्छ गए थे. रिन्यूएबल एनर्जी पार्क, डिसैलिनेशन प्लांट और डेरी प्लांट का भूमि पूजन करने. भूमि पूजन के बाद उन्होंने कार्यक्रम में मौजूद लोगों को संबोधित किया. अपने संबोधन में पीएम ने 'बन्नी भैंस' की जमकर तारीफ की. कहा-

"कच्छ की बन्नी भैंस दुनिया में अपना नाम कमा रही है. कच्छ में तापमान 45 डिग्री हो या शून्य से नीचे हो, बन्नी भैंस आराम से सब सह लेती है. इसे पानी भी कम चाहिए. बन्नी भैंस को चारे के लिए दूर-दूर तक ले जाने में कोई दिक्कत नहीं होती. एक दिन में ये भैंस करीब-करीब 15 लीटर दूध देती है. इससे सालाना कमाई दो से तीन लाख रुपए तक होती है. मुझे बताया गया है कि हाल में एक बन्नी भैंस पांच लाख रुपए से भी ज्यादा में बिकी है. यानी जितने में दो छोटी कार खरीदी जाएं, इतने में बन्नी की एक भैंस मिलती है. साल 2010 में बन्नी भैंस को राष्ट्रीय मान्यता भी मिली. आज़ादी के बाद भैंस की ये पहली ब्रीड थी, जिसे राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह की मान्यता मिली."

अब जब पीएम ने बन्नी भैंस की इतनी तारीफ की है, तो सोचा कि आपको भी उसके बारे में थोड़ा बता दिया जाए. कहां मिलती है ये भैंस, क्या खासियत है वगैरह-वगैरह.

जहां गायें सर्वाइव न कर सकीं, भैंस बनीं सहारा

क्षेत्रफल के नज़रिए से भारत का सबसे बड़ा ज़िला है कच्छ. यहां पर बहुतई बड़ा प्राकृतिक घास का मैदान है. 'डाउन टू अर्थ' की रिपोर्ट के मुताबिक, ये मैदान करीब 2600 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ है. इस इलाके को कहते हैं बन्नी ग्रासलैंड. ये एशिया का सबसे बड़ा प्राकृतिक घास का मैदान है. इसके एक तरफ भुज जैसे शहर हैं, लेकिन उत्तर पूर्वी हिस्से में है कच्छ का रण. खारा सफेद सूखा रण. इसी रण के चक्कर में कुछ ऐसा हुआ कि बन्नी भैंस यहां के लोगों का बड़ा सहारा बनी.


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बन्नी का ग्रासलैंड इलाका. यहां करीब 42 तरह की घास होती हैं. (फोटो- वीडियो स्क्रीनशॉट)

एक NGO है 'सहजीवन'. बन्नी ग्रासलैंड इलाके में काफी काम कर रहा है. इसके प्रोग्राम डायरेक्टर हैं रमेश भट्टी. इन्होंने 'दी लल्लनटॉप' को बताया कि गर्मी के समय पश्चिम से तेज़ हवाएं चलती हैं, ऐसे में रण के हल्के खारे कण उड़कर ग्रासलैंड में आ जाते हैं. इससे नेचुरल घासों को काफी नुकसान होता है. अब ये दिक्कत तो नई नहीं है, बरसों पुरानी है. तो हुआ ये कि 1960 के दशक में जब भारत नया-नया निर्माण करके विकास कर रहा था, उस दौरान बन्नी ग्रासलैंड की नदियों पर डैम बना दिए गए. इससे घासों को ताज़ा पानी मिलना कम हो गया. फिर कच्छ के रण से आने वाली खारी मिट्टी अलग नुकसान कर रही थी. इस दिक्कत को खत्म करने के लिए वन विभाग ने एक तरकीब अपनाई. हेलीकॉप्टर के ज़रिए रण और बन्नी के इलाकों में प्रोसोपिस जुलीफ्लोरा के कई बीज बोए गए थे. प्रोसोपिस जुलीफ्लोरा यानी एक तरह का बबूल. बन्नी के लोग इसे 'गांडा' यानी पागल बबूल कहते हैं. वन विभाग का मकसद था कि खारेपन को कम किया जाए. लेकिन असर उल्टा हुआ. ये कांटेदार बबूल बन्नी में फैलता गया. ज़मीन से पानी सोखता गया. घास के मैदानों पर कब्ज़ा कर लिया. रमेश भट्टी बताते हैं,

"मवेशियों पर इस बबूल का असर बहुत बुरा हुआ, खासकर गायों पर. ये बड़े घास के मैदान मवेशियों का सबसे बड़ा आहार हैं. जब इन मैदान में पागल बबूल फैल गया, तो गाय घास के साथ इन बबूलों को भी खा जातीं. पाचन शक्ति गायों की कमज़ोर होती है, बबूल ने उन्हें काफी नुकसान पहुंचाया. वे सर्वाइव नहीं कर पाईं. फिर यहां के मालधारियों ने बन्नी भैंस को पालना शुरू किया. चूंकि इन भैंसों का पाचन तंत्र गायों की तुलना में काफी बेहतर होता है, तो बबूल खाकर भी ये दूध दे रही हैं. मौजूदा समय में बन्नी ग्रासलैंड में करीब 90 फीसद परिवार बन्नी भैंसों को पाल रहे हैं."

ऐसा नहीं है कि गायें नहीं पाली जातीं, वो भी पाली जाती हैं, लेकिन बन्नी भैंसों का पालन काफी ज्यादा है. इन भैंसों का नाम बन्नी इस इलाके के नाम पर ही पड़ा है.

क्या खासियत है इन भैंसों की?

पाचन तंत्र मज़बूत होता है. एक्सट्रीम वेदर कंडीशन में भी खुद को ढाल लेती हैं. रमेश भट्टी बताते हैं कि कच्छ में ठंड भी बहुत पड़ती है और गर्मी भी, दोनों ही कंडीशन में ये भैंसें सर्वाइव कर जाती हैं. कड़ाके की धूप सहन कर लेती हैं. इस इलाके में सूखा भी पड़ता है, इसमें भी ये भैंसे रह लेती हैं. कम पानी में गुज़ारा चला लेती हैं.


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बन्नी भैंस के सींग अंदर की तरफ से घूमे हुए होते हैं. (फोटो- वीडियो स्क्रीनशॉट)

# खुद चरकर वापस भी आ जाती हैं

घास चरने ये भैंसे खुद झुंड में निकलती हैं. कई किलोमीटर दूर जाकर घास चरकर ये खुद ही अपने-अपने मालिकों के पास वापस आ जाती हैं. इन्हें चराने के लिए अलग से किसी चरवाहे की ज़रूरत नहीं पड़ती. इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च (ICAR) और सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च इन बफेलोज़ (CIRB) के सीनियर साइंटिस्ट हैं डॉक्टर के.पी सिंह. इन्होंने बन्नी भैंस पर काफी तगड़ी रिसर्च की है. राष्ट्रीय मान्यता दिलवाने पर भी बहुत काम किया है. इन्होंने 'दी लल्लनटॉप' को बन्नी भैंस के चरने जाने की टाइमिंग पर विस्तार से बताया-

"बन्नी भैंसे अपने आप खुद चरने निकल जाती हैं. शाम करीब चार या पांच बजे. बन्नी ग्रासलैंड में दूर तक जाकर चरती हैं. रात भर वहीं रहती हैं. और सुबह चार या पांच बजे खुद से ही अपने गांव, अपने मालिकों के पास आ जाती हैं. दूध देने के लिए. सुबह एक टाइम दूध देती हैं. और शाम में दूसरी बार. फिर चरने निकल जाती हैं."

रमेश भट्टी ने बताया कि गर्मी के मौसम में हरी-भरी घास कम हो जाती हैं, ऐसे में घास चरने जाने के लिए बन्नी भैंसें कई बार 10 से 15 किलोमीटर दूर जाती हैं, और तब भी खुद से लौट भी आती हैं.

# दूध कितना देती है, कीमत कितनी है?

रमेश भट्टी ने बताया कि करीब 15 से 20 लीटर औसतन दूध रोज़ाना देती है. सुबह शाम करीब सात-आठ, सात-आठ लीटर. ये भी बताया कि कई दफा दूध की मात्रा बढ़ भी जाती है, वो निर्भर करता है भैंस की प्रेग्नेंसी के समय पर. रमेश भट्टी ने बताया कि उन्होंने अधिकतम 26 लीटर दूध देने का रिकॉर्ड अपनी नज़रों से देखा है.

कोई भी बन्नी भैंस एक लाख से कम में नहीं बिकती. एकदम बेहतरीन क्वालिटी की रहे तो तीन से पांच लाख में बिकती है. अब महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और कर्नाटक के लोग भी इसे खरीद रहे हैं.


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बन्नी भैंस रात में खुद चरकर वापस अपने मालिकों के पास पहुंच जाती है. (फोटो- डॉक्टर केपी सिंह)

देखकर पहचान कैसे करेंगे?

एकदम चटक काले रंग की होती हैं. हल्का ब्राउन रंग भी होता है. पूंछ छोटी और पतली होती है. सामने के दोनों पैर थोड़े छोटे होते हैं. पीछे की तरफ से ऊंची होती हैं. मुंह छोटा होता है. सींग अंदर की तरफ घूमे हुए होते हैं. एकदम राउंड बनाते हुए.

राष्ट्रीय मान्यता कब मिली?

2010 में ICAR की ब्रीड रजिस्ट्रेशन कमिटी ने राष्ट्रीय मान्यता दी. राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता पाने वाली ये भैंस की 11वीं ब्रीड थी. अब आप सोच रहे होंगे कि पीएम ने तो कहा कि आज़ादी के बाद की पहली है, फिर 11वीं कैसे हो गई. ये फंडा क्लीयर किया डॉक्टर के.पी. सिंह ने. उन्होंने बताया कि 2010 के आस-पास ही ICAR की ब्रीड रजिस्ट्रेशन कमिटी बनी थी. और भैंसों की 10 ब्रीड, जैसे- मुर्रा, जाफराबादी, इन्हें तो पहले से ही सब जानते थे. इसलिए इस कमिटी ने अपनी तरफ से भैंसों की जो पहली ब्रीड की पहचान की, वो बन्नी ही थी. अब तक भैंसों की कुल 17 ब्रीड को रजिस्टर किया जा चुका है. लेटेस्ट यानी 17वीं ब्रीड है गोजरी. पंजाब, हिमाचल प्रदेश में पाई जाती है.

डॉक्टर केपी सिंह ने बताया कि मालधारी समुदाय के लोगों की कमाई का बड़ा ज़रिया है बन्नी भैंस. न केवल दूध से, बल्कि दूध से बने खोवे और घी से भी कमाई होती है. लोकल लोग इसे कच्छी और सिंधन के नाम से भी पुकारते हैं. लोगों का मानना है कि बन्नी भैंस, कच्छी और सिंधन भैंसों का मिश्रण है. 2013 की ब्रीड वाइज़ गिनती के हिसाब से देश में 3, 82, 122 (तीन लाख बयासी हज़ार एक सौ बाईस) बन्नी भैंसें पाई गई थीं.


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