फौजियों और आतंकवादियों, दोनों का इलाज करने वाले कश्मीरी डॉक्टर के 5 किस्से
कश्मीर डायरी-4: अनंतनाग में हमलों के पीछे लोकल लोगों के ख्याल और आतंकवाद के दिनों का एक नया हाल.
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फोटो क्रेडिट: REUTERS

प्रदीपिका सारस्वत फ्रीलांस राइटर हैं. मीडिया की नौकरी छोड़कर इन दिनों कश्मीर में डेरा जमाए हुई हैं. दी लल्लनटॉप के लिए कश्मीर के अपने किस्सों को पहले भी लिख चुकी हैं. आज प्रदीपिका 90 के दौर में मिलिटेंसी के पांच नए किस्से सुना रही हैं, जो उन्हें एक कश्मीरी डॉक्टर ने बताए.
कश्मीर में गर्मियां सुहानी होती हैं, पर पॉपलर के पेड़ों से उड़ने वाले बर्फ के फाहों से दिखते पोलन और सैलाब के बाद तेज़ हुए कंस्ट्रक्शन से बढ़ी धूल, आपको बीमार बना सकती है. गर्मियों में बढ़ जानेवाली मिलिटेंट एक्टिविटीज़ की तो कहानी ही दूसरी है. हाल ही में मेरी तबीयत खराब हुई, मेडिकेशन के लिए एक दोस्त के ज़रिए मैं मेडिकल कॉलेज के एक प्रॉफेसर से मिलने पहुंची.

फोटो- प्रदीपिका सारस्वत
थोड़े इंतज़ार के बाद जब प्रॉफेसर साहब से मिली तो वे एक ''इंडियन'' जर्नलिस्ट से मिलकर काफी खुश हो गए. मेरी मेडिकल प्रॉब्लम की बजाय हम कश्मीर के हालात पर बात करने लगे. इन दिनों यहां पुलिस और सीआरपीएफ पर हमले की कई घटनाएं हुई हैं और एनकाउंटर्स तो होते ही रहते हैं. अभी छह दिन पहले ही अनंतनाग के बिजबिहारा में बीएसएफ के काफिले पर हमला हुआ. बीएसएफ के तीन जवान मारे गए, कई घायल भी हुए.

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अखबारों में रिपोर्ट किया गया कि हिजबुल मुजाहिदीन ने लोकल न्यूज एजेंसियों को ईमेल भेजकर हमले की जिम्मेदारी ली. अगले 24 घंटों के भीतर ही दो और आतंकवादियों ने अनंतनाग शहर, जिसे कश्मीर में आमतौर पर इस्लामाबाद भी कहा जाता है, की एक पुलिस चौकी पर हमला करते हुए एक असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर और एक कॉन्स्टेबल को मार दिया.

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दो दिन पहले पहलगाम से लौटते वक्त मैंने लोकल लोगों से इस बारे में बात की थी. पहले तो कोई इस बारे में बात करने को तैयार नहीं हुआ लेकिन बाद में एक एजुकेटेड बुज़ुर्ग कश्मीरी ने जो कहा, वो ज़रूर बताना चाहूंगी.
'इलेक्शन होने वाले हैं तो माहौल तो खराब किया ही जाएगा ज़िले का. अभी ज़िले में उतनी ज़्यादा फोर्स (आर्मी, सीआरपीएफ) नहीं है. लेकिन अब इलेक्शन में सिक्योरिटी के बहाने फोर्स मंगवाने के लिए ये अटैक कराए जाएंगे, अपने दो चार आदमी मर भी गए तो क्या बड़ी बात, ये तो पुराना खेल है. अटैक होगा तभी तो फोर्स मंगवा पाएंगे.'

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जब मैंने नादानी से पूछा कि ऐसा कैसे हो सकता है, फोर्स क्यों मंगवाना चाहते हैं यहां के ऑफिसर, वो भी अपने आदमियों को कुर्बान करके? तो वो मेरे सवाल पर हंस दिए. मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे क्लास के सबसे बेवकूफ लड़के के सवाल पर कोई टीचर उसे रहम की निगाह से देखता है.
'अरे जितनी फोर्स ज़्यादा मिलेगी इन्हें. उतना ही और पैसा मिलेगा. बिज़नेस है पूरा. माहौल खराब होगा तो सोर्स और इंटेलिजेंस पर खर्च करने को पैसा मिलेगा, और तमाम चीज़ों का पैसा मिलेगा. इलेक्शन से अच्छा क्या बहाना कमाई करने का.'
अपनी बात खत्म करते करते, वो जनाब काफी गुस्से में आ गए थे. बता दूं कि पीडीपी के मरहूम मुफ्ती की मौत के बाद खाली हुई अनंतनाग सीट पर 21 जून को बाइइलेक्शन होने हैं. वो बुज़ुर्ग इन्हीं इलेक्शन का ज़िक्र कर रहे थे. मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती खुद इस सीट पर बतौर कैंडिडेट खड़ी हुई हैं.
तो हम बात कर रहे थे डॉक्टर साहब की. नाम उनका भी बताने से मुझे मना किया गया है, तो सिर्फ डॉक्टर साहब कहूंगी. तो डॉक्टर साहब को जब मालूम हुआ कि मैं यहीं रहकर कश्मीर के बारे में लिख रही हूं तो वो मुझसे नब्बे के दशक के अपने तजुर्बे बांटने को लेकर काफी उत्साहित हो गए. याद रहे उस दशक में आर्म्ड मिलिटेंसी अपने चरम पर थी. डॉक साहब ने कई कहानियां साझा कीं. जिन्हें मैं एक एक कर सुना रही हूं. लेकिन उससे पहले कहानी का बैकग्राउंड. डॉक साहब उन दिनों श्रीनगर की बजाय गांदरबल में रहते थे. मिलिटेंसी शुरू होने के बाद हालात काफी खराब हो गए थे. हर वक्त मिलिटेंट हमले या आर्मी कॉर्डन का डर बना रहता था. गोलियों, ग्रेनेड से हुई मौतें, लोगों का गायब होना, जवान लड़कों का सीमापार जाकर आर्म्ड ट्रेनिंग लेना, उन दिनों इतना आम था जितना आज लोगों का बाज़ार से मीट लाना या कॉलेज, ऑफिस जाना.

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डॉक्टर्स, प्रॉफेसर्स और लॉयर्स जैसे प्रॉफेशनल लोग घाटी छोड़ के भारत के मुख्य हिस्सों या अन्य देशों में बसने लगे थे. इन डॉक्टर साहब ने भी अपना पासपोर्ट तैयार कराया और कश्मीर छोड़ कर सऊदी अरब जाने की तैयारी कर ली. लेकिन इससे पहले कि उनका पासपोर्ट उनके हाथ आता, उनके पास एक चिट्ठी आई. उर्दू में लिखी उस चिट्ठी में लिखा था,
‘घाटी हो या सऊदी अरब, मौत तो कहीं भी आ सकती है. हमें आपकी ज़रूरत यहां है, आप यहीं रहेंगे.’
यानी मिलिटेंट्स ने उन्हें घाटी छोड़कर न जाने पर मजबूर किया. उसके बाद डॉक्टर साहब ने वहीं रहने का फैसला किया और वे मिलिटेंट्स, उनके परिवारों और बीएसएफ, सीआरपीएफ सबका न्यूट्रल रहकर इलाज़ करने लगे. उनके घर के पास ही बीएसएफ का कैंप था, जिनके अफसरों और जवानों का इलाज ये करते थे. और मिलिटेंट्स तो थे ही उनके पेशेंट्स. मिलिटेंट्स ऑर फोर्सेज, इन दोनों सिरों के बीच के उनके अपने तजुर्बे मैं उन्हीं डॉक्टर की जुबानी सुना रही हूं.पहला किस्सा
कॉर्डन और क्लीनिक के दराज में रखे ग्रेनेडएक सुबह मैं अपने घर पर सोया हुआ था कि एक जवान ने आकर कॉर्डन की खबर दी. कॉर्डन उन दिनों आम बात थी. कॉर्डन का मतलब होता है कि इलाके के सारे लोग एक बताई हुई जगह पर इकट्ठे होंगे. उनकी गैरमौजूदगी में उनके घरों की तलाशी ली जाएगी और इन लोगों को इकट्ठा कर उनसे पूछताछ की जाएगी. मुझे कहा गया कि मैं बीएसएफ की गाड़ी में उनके साथ जाऊं. लेकिन एक बार मेरे एक मिलिटेंट पेशेंट ने मुझे साफ मनाही की थी फोर्स की गाड़ी में बैठने की, क्योंकि उनकी गाड़ियों पर कभी भी हमला होने का खतरा था. तो मैं अपनी गाड़ी से वहां पहुंचा जहां सबको इकट्ठा होना था.
कुछ देर बाद एक अफसर ने, जिसे मैं अच्छी तरह जानता था. मुझसे आकर पूछा कि कल रात मैंने क्या क्या किया था, कब और किसने मेरा क्लीनिक बंद किया वगैरह-वगैरह. मैंने जैसा था बता दिया. क्लीनिक मेरे स्टाफ के एक लड़के ने बंद किया था, जो रोज़ करता था. पता चला कि मेरी मेज की दराज में बंदूकें और ग्रेनेड रखे थे. मेरे स्टाफ का वो लड़का जो रोज़ क्लीनिक बंद करता था, वो मेरे जाने के बाद मिलिटेंट्स के हथियार को मेरे ही क्लीनिक में छुपाता था. मेरे लिए ये एक डरावनी बात थी. पर क्योंकि फोर्सेज को पता था कि इसमें मेरा कोई हाथ नहीं, साथ ही मेरे उन अफसरों और जवानों के साथ अच्छे संबंध थे, तो मुझे किसी ने परेशान नहीं किया, बावजूद इसके कि मेरे क्लीनिक से हथियार बरामद हुए थे.
दूसरा किस्सा
अफसर की बीवी को चाहिए पश्मीना शॉल तो पकड़ लो एक फर्जी आतंकवादीएक बार घर से निकला तो पास के एक पुल पर मैंने देखा कि एक इख्वानी ने एक चौदह-पंद्रह साल के लड़के को पकड़ लिया था. इख्वानी यानी वो मिलिटेंट जो अब मिलिटेंसी छोड़ कर इंडियन फोर्सेस के लिए काम कर रहे थे. ये सादी वर्दी में होते थे लेकिन फोर्सेज के ठिकानों से ऑपरेट करते थे. मैं उस लड़के को भी जानता था और इख्वानी को भी. मैंने नज़दीक जाकर पूछा कि उसने इस लड़के को क्यों पकड़ा है. इख्वानी ने बताया कि ये लड़का मिलिटेंट है और वो उसे पकड़ कर बीएसएफ कैंप ले जाएगा. मैंने उसे समझाया कि लड़का पड़ोस का ही है और स्कूल में पढ़ता है, मिलिटेंट नहीं है.
मैंने बताया कि मैं इसे भी जानता हूं और इसके परिवार को भी. मेरे काफी समझाने पर उसने लड़के को छोड़ दिया. बाद में उसने मुझे लड़के को पकड़ने का पूरा किस्सा सुनाया. मसला ये था कि एक आर्मी अफसर की बीवी को पश्मीना शॉल चाहिए थी. पश्मीना लाने का काम उस इख्वानी को दिया गया. इख्वानी ने एक दुकानदार से लाकर कुछ शॉलें अफसर को दिखाईं, एक शॉल उन्होंने रख ली. शॉल की कीमत 90 हजार थी, लेकिन पैसा मांगने पर अफसर ने कहा कि पैसा वो खुद जुगाड़ कर ले. तो इस तरह के लड़कों को पकड़ कर, उन्हें छोड़ने के एवज में उनके घरवालों से पैसा लेकर वो शॉल के पैसों का जुगाड़ कर रहा था. एक लड़के को तो उस वक्त मैंने बचा लिया पर पैसे का बंदोबस्त तो उसने किया ही होगा.
तीसरा किस्सा
आतंकवादियों के कमांडर को मेरे क्लीनिक में नहीं पकड़ा BSF नेमिलिटेंट और उनके परिवार के लोग मेरे यहां आते रहते थे. उनका इलाज करना मेरा फर्ज़ भी था और मजबूरी भी. मैं जितना हो सके उनकी भी मदद करता था, और फोर्स वालों की भी. यहां तक कि सैंपल में मिली दवाइयां वगैरह भी उन्हें मुफ्त में दे दिया करता था. पास के बीएसएफ कैंप को भी अक्सर उनके यहां होने की खबरें मिल जाया करती थीं.
एक बार एक बड़ा मिलिटेंट कमांडर इलाज के लिए आया. बीएसएफ को उसके आने की खबर मिल गई. लेकिन इसके बावजूद उन्होंने मेरे क्लीनिक पर अटैक नहीं किया. उन्होंने उस कमांडर को मेरे क्लीनिक से बचकर निकल जाने दिया और बाद में उसका पीछा करके पकड़ा. क्योंकि अगर वो मेरे क्लीनिक में उसे पकड़ते तो मिलिटेंट्स के बीच मेरी रेपुटेशन खराब होती और मैं उनका निशाना बन जाता. और क्योंकि बीएसएफ के ये लोग मुझे जानते थे, ये भी जानते थे कि मैं न्यूट्रल हूं तो मुझे जाने दिया.
मुझे तो ये किस्सा सुनके हैदर फिल्म का वो डॉक्टर याद आ गया जो मिलिटेंट कमांडर का इलाज करने पर आर्मी के गुस्से का शिकार हो जाता है. पर इन डॉकसाब की किस्मत उस फिल्म वाले डॉक्टर से अच्छी थी.
चौथा किस्सा
कज़िन की शादी और मेरी मौत का फरमानमैं श्रीनगर के मेडिकल कॉलेज में काम करने लगा था. उन्हीं दिनों मेरी एक कज़िन की शादी ससुराल के एक लड़के से होनी थी. मैं भी शादी के लिए उनके घर पहुंचा. कुछ ही देर हुई थी कि एक अनजान मुझे ढ़ूंढते हुए आया. उसने बताया कि वो हिजबुल मुजाहिदीन का आदमी है और बोला कि यहां आपकी जान को खतरा है. आप फलां मौलवी के घर चलकर छुप जाइए. क्योंकि मैं जानता था कि वो मौलवी साहब हिजबुल के हिमायती थे, तो मुझे शुबहा हुआ कि कहीं ये वहां मुझे ले जाकर मारना तो नहीं चाहते. तो मैं उन के यहां जाने के बजाय पास ही रहने वाले अपने एक कलीग के यहां छुप गया और देर शाम एक टैक्सी मंगाकर श्रीनगर के लिए निकल गया.
बाद में पता चला कि शादी वाले घर में मुझे ढ़ूंढने कुछ लोग पहुंचे थे. मैं कई दिन श्रीनगर के अपने सरकारी क्वार्टर में छुपा रहा, क्योंकि वहां सिक्योरिटी काफी अच्छी थी. मेरे घर के पर्दे हमेशा गिरे रहते थे. मेरे परिवार को हालांकि पता था कि मैं कहां हूं, पर कोई मुझसे मिलने तक नहीं आया था. सब डरे हुए थे, मैं भी डरा हुआ था. मैंने कॉलेज में इत्तला कर दी थी कि मैं यहां छुपा हुआ हूं. फिर एक दिन एक और शख्स मेरे पास आया और उसने बताया कि मेरे ऊपर से खतरा टल चुका था.
तब जाकर मुझे पता चला कि आर्मी कैंप में इख्वानियों की मदद से मुझे और एक कांग्रेस लीडर को मारने का प्लान बनाया गया था ताकि दहशत फैलाई जा सके. मिलिटेंट्स के खिलाफ माहौल बनाया जा सके. लेकिन वो दो इख्वान लड़के, जिन्हें हमें मारने की ज़िम्मेदारी दी गई थी, वो आज भी हिजबुल मुजाहिदीन से जुड़े थे. और मुजाहिदीन के कमांडर को जब ये खबर मिली तो उसने मुझे बचाने के लिए अपना आदमी भेज दिया. बाद में आर्मी को उन लड़कों के डबल क्रॉस करने की बात पता चली और उन दोनों को मार दिया गया.
पांचवा किस्सा
चंडीगढ़ का मेडिकल रिप्रज़ेंटेटिव और उसकी गाड़ी...गांदरबल की ही बात है. एक बार एक मेडिकल रिप्रज़ेंटेटिव मेरे क्लीनिक आया. पहले भी एक दो बार मैं उससे मिल चुका था. जब वो मुझसे मिलकर बाहर निकला तो बीएसएफ वालों ने उसे पकड़ लिया और उसकी गाड़ी ज़ब्त कर ली. मैंने मामले का पता किया तो बीएसएफ वालों ने मुझे बताया कि उन्हें उनकी इंटेलिजेंस से खबर मिली है कि फलां नंबर की गाड़ी पर उन्हें शुबहा है. मैं अच्छी तरह जानता था कि यहां वो शुबहा जैसा कुछ नहीं, बीएसएफ सिर्फ गाड़ी का इस्तेमाल करना चाहती है. ऐसा वहां अक्सर होता है. यहां तक कि आज भी कई इलाकों में गाड़ियों के मालिकों को सप्ताह में एक दिन अपनी गाड़ी मिलिट्री या सीआरपीएफ को इस्तेमाल के लिए देनी होती है.
मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की. लेकिन जब उन्होंने मेरी बात नहीं मानी तो मैंने कहा कि वे अपनी जांच पूरी कर लें, और जब तक उनके पास इस आदमी और उसकी गाड़ी के पास पुख्ता सुबूत न आ जाएं वो गाड़ी मेरे कब्ज़े में रहेगी. मैं उनका डॉक्टर था, वो लोग मेरा एहतराम करते थे. मान गए. कुछ दिन गाड़ी मेरे पास रही. बाद में एक जवान ने आकर कहा कि कुछ दे दिला कर मामला खत्म करा दीजिए. आखिर एमआर को तीन-चार हज़ार रुपये देने पड़े, तब जाकर उसे उसकी गाड़ी वापस मिली.
किस्से डॉकसाब के पास और भी थे, पर देर हो रही थी तो मैं वापस चली आई. मैं नहीं कहूंगी कि इन किस्सों में हकीकत है या नहीं, पर इन दिनों में ये ज़रूर साफ हुआ है कि कनफ्लिक्ट ज़ोन की एक अलग तरह की इकॉनोमी बन जाती है. किस मद के लिए आया पैसा कहां खर्च होगा, या किस शख्स की असल कमाई यहां किस ज़रिए से है, कोई नहीं जानता. और अपनी ताकतों का इस्तेमाल कोई किस मकसद से करेगा, ये कहना तो और भी मुश्किल है.
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