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हरियाणा की ASHA वर्कर्स क्यों मनोहरलाल खट्टर के खिलाफ प्रदर्शन कर रही हैं?

इस साल हरियाणा सरकार ने तीन बार वादे किए. हरकत एक भी बार नहीं.

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आशा वर्कर्स ने इसी मुद्दे को लेकर मई 2018 में भी आंदोलन किया था. तब सरकार ने जो वादा किया, उसे अब तक लागू नहीं किया. (फोटोः फेसबुक)
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16 जुलाई 2018 (Updated: 16 जुलाई 2018, 01:45 PM IST) कॉमेंट्स
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तारीख 16 जुलाई, तड़के करीब 8 बजे. हरियाणा के गुड़गांव जिले के बस स्टैंड पर लाल सूट पहने और लाल ही चुंदड़ (चुनरी) ओढ़े खड़ी लुगाईयों का जत्था करनाल जाने वाली बस में सवार हो रहा है. उनको बस में चढ़ते देख पास खड़े एक अधेड़ उम्र के सज्जन हंसकर कहते हैं,
“आज फिर ताऊ खट्टर की खैर नहीं.”
उन लुगाईयों को एक नज़र देखते ही साफ पता लग रहा था कि वे या तो किसी कार्यक्रम में जा रही हैं या फिर किसी आन्दोलन में. हंसी- ठिठोली करते हुए बस में बैठते वक्त उनमें से एक जनी अपनी हंसी को गम्भीर करते हुए कहती है,
“तावली ऊपर नै हो ल्यो, घेराव को टेम 11 बजे को है''
(जल्दी ऊपर चढ़ो, घेराव का समय 11 बजे का है)
आशा वर्कर्स के प्रदर्शनों पर लगातार खबरें हुई हैं. लेकिन सरकार का रवैया टालमटोल का ही रहा है.
आशा वर्कर्स के प्रदर्शनों पर लगातार खबरें हुई हैं. लेकिन सरकार का रवैया टालमटोल का ही रहा है.

जब हमने उनसे पूछा कि आप कौन हैं, कहां जा रही हैं. तो उनमें से एक ने बताया कि वे आशा वर्कर हैं और करनाल जा रही हैं सीएम का घेराव करने. आगे कुछ पूछ पाते उससे पहले बस रवानगी की कंडक्टर सीटी बज चुकी थी. बस चलते ही अंदर से आवाज आई
“आशा वर्कर एकता जिंदाबाद.”
आशा वर्कर का पूरा नाम Accredited Social Health Activist (ASHA) या मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता है. ये वर्कर्स भारत सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM) योजना से जुड़ी हुई हैं. दरअसल गांव-देहात की महिलाएं आशा वर्कर बनती हैं, जो जन स्वास्थ्य और जनता के बीच बिचौलिए का काम करती हैं. इनके जिम्मे 43 तरह के काम होते हैं, जिनमें गर्भवती महिला को अस्पताल ले जाना से लेकर टीकाकरण करवाने और दवा दिलवाने तक के काम होते हैं.
आशा वर्कर केंद्र की कई योजनाओं और जनता के बीच के पुल का काम करती हैं. (फोटोः राजस्थान सरकार)
आशा वर्कर केंद्र की कई योजनाओं और जनता के बीच के पुल का काम करती हैं. (फोटोः राजस्थान सरकार)

भारत में 87 लाख और हरियाणा सूबे में 19875 आशा वर्कर्स हैं. इनके योगदान की कहानियां गांव-घर तक ही दबकर रह जाती हैं. शायद इसीलिए हम इनके बारे में और इनके योगदान के बारे में नहीं जानते. इन्हें अपने काम के लिए बस 1000 रूपये वेतन ही मिलता है और कई बार तो समय से भी नहीं मिलता है. 2010 में संसदीय समिति ने कहा था कि इन्हें फिक्स वेतन मिलना चाहिए. जो आज तक इन्हें नहीं दिया गया है. आशा वर्कर्स अपनी मांगों को लेकर पिछले कई साल से आन्दोलन कर रही हैं. आशा वर्कर्स की मांगों के बारे में जानने के लिए हमने उनकी यूनियन की नेता रोशनी से बात की. उन्होंने बताया,
“ हमने इसी साल 17 जनवरी को अपनी सैलरी 4 हजार इंसेटिव के साथ बढ़ाने, सभी सेंटर्स पर सामान रखने के लिए अलमारियों और एंडरॉयड फोन के साथ-साथ दुर्घटना होने पर तीन लाख रुपये दिए जाने के लिए आन्दोलन किया था. जो 31 जनवरी तक चला था. 1 फरवरी को स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज से समझौता होने के बाद हमने हड़ताल वापस ले ली थी. लेकिन 4 महीने गुजर जाने के बाद भी सरकार ने कोई भी नोटिफिकेशन जारी नहीं किया. जिसके बाद 7 जून से दोबारा सभी आशा वर्कर्स को हड़ताल पर जाना पड़ा. फिर दोबारा 15 जून को अनिल विज ने बातचीत और लिखित में मीटिंग की मिनट्स जारी कर हमें वापस भेज दिया. लेकिन हरियाणा सरकार ने अभी तक भी किए गए समझौते का नोटिफिकेशन जारी नहीं किया है इसीलिए आज हम हरियाणा सरकार के खिलाफ सीएम हाउस करनाल में डेरा डाले हुए हैं.”
आशा वर्कर्स लंबे से अपनी मांगों को लेकर लामबंद हैं. ये तस्वीर जनवरी की है. (फोटोःफेसबुक)
आशा वर्कर्स लंबे से अपनी मांगों को लेकर लामबंद हैं. ये तस्वीर जनवरी की है. (फोटोःफेसबुक)

हमने आशा वर्कर्स की मांगों को लेकर प्रशासन से भी बात करने की कोशिश की. नंबर लेकर करनाल के कलेक्टर को मिलाया तो पहले उनके दफ्तर में किसी ने फोन उठाया. हमें बताया कि कलेक्टर साहब दूसरे नंबर पर बात करते हैं. हमने वो नंबर लेकर कलेक्टर साहब का फोन खड़काया तो उन्होंने उठाया ही नहीं. खबर लिखे जाने तक करनाल में आशा वर्कर्स का आंदोलन करनाल में जारी था. सूबे के प्रशासन की ओर से किसी ऐलान के बारे में फिलहाल कोई जानकारी नहीं है.
आशा वर्कर्स या उनकी तरह सरकार से जुड़े कोई भी कर्मचारी जब भी प्रदर्शन करते हैं तो हमें लगता है कि ये वर्कर्स बिना काम आन्दोलन करते रहते हैं और इनके बारे में छपी खबरें हमारी आंखों के आगे से निकल जाती हैं. इनकी तकलीफों से बेशक हमारे समाज को कोई फर्क ना पड़ता हो लेकिन एक सच ये भी है कि ये इसी समाज के लिए बहुत कम पैसों में काम कर रही हैं.


ये स्टोरी मंदीप ने की है.




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