नेहरू का राष्ट्रीयकरण, मोरारजी की शराबबंदी, मनमोहन का उदारीकरण, मोदी का निजीकरण: कैसे डूबी AI?
भाग एक: 88 साल में एयर इंडिया का एक सर्किल पूरा हुआ लगता है, जानो इस सर्किल की पूरी हिस्ट्री.
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तस्वीर 1946 की है. एयर इंडिया की फ़्लाइट एटेंडेट मोनिका गिल्बर्ट दिल्ली-मुंबई फ़्लाइट में यात्रियों को फ़्लाइट रिपोर्ट दिखाते हुए. (तस्वीर: oldindianphotos.in)
# आज़ादी से पहले, टाटा का ‘स्टार्टअप’-
बात आज से 88 साल पुरानी है. 1932. वो साल, जिस साल से पहले तक इंग्लैंड से हवाई डाक सिर्फ़ कराची तक ही पहुँचती थीं. और उसे कराची पहुँचाती थी इंपीरियल एयरवेज़. इंपीरियल एयरवेज़ ने इस डाक को मुंबई तक पहुंचाने का ज़िम्मा दिया दो नौजवानों को. एक RAF (रॉयल एयर फ़ोर्स) का पूर्व पायलट, नेविल विंसेंट और दूसरा उसका एक करीबी पारसी दोस्त जहांगीर रतनजी दादाभाई (जेआरडी) टाटा. 28 साल का नवयुवक जेआरडी टाटा जो भारत की उस टाटा फ़ैमली से आता था, जिसे देश की पहली बिज़नेस फ़ैमिली कहा जा सकता है.

टाटा फ़ैमिली से आने के अलावा जेआरडी टाटा का एक और परिचय भी था. और शायद इसी के चलते उन्हें इंपीरियल एयरवेज़ का ये कॉन्ट्रैक्ट भी मिला. हालांकि ये भी एक फ़ैक्ट है कि कॉन्ट्रैक्ट के लिए उन्हें तीन साल लगातार, ब्रिटिश राज से मगजमारी करनी पड़ी. बहरहाल, जेआरडी का दूसरा परिचय ये कि, वो भारत के पहले सिविल एवीएशन पायलट थे. ब्रिटेन के रॉयल एरो क्लब ऑफ़ इंडिया एंड बर्मा से प्रशिक्षित.
इन दोनों दोस्तों, विंसेंट और टाटा, ने इंपीरियल एयरवेज़ का कॉन्ट्रैक्ट पूरा करने के वास्ते 2 लाख रुपए इन्वेस्ट करके ‘टाटा एयर मेल’ नाम की कंपनी खोली. दो सेकेंड हैंड सिंगल इंजन एयर क्राफ़्ट ख़रीदे.
15 अक्टूबर, 1932. ये वो दिन था, जिस दिन किसी भारतीय कंपनी के विमान ने परवाज़ ली. कराची से मुंबई. वाया अहमदाबाद. इसे उड़ाने वाले थे ख़ुद जेआरडी टाटा. विमान यहीं नहीं रुका. मुंबई से वो गया चेन्नई. वाया बेल्लारी. अबकी इसे उड़ा रहे थे नेविल विंसेंट.

ये कराची-बॉम्बे-मद्रास वाली फ़्लाइट हर सोमवार को उड़ती थी और बेल्लारी में इसका नाइट हॉल्ट होता था. यूं ये 28 घंटों में अपनी यात्रा पूरी करती थी.
शुरुआत में ‘टाटा एयर मेल’ की फ़्लाइट्स मुंबई के जूहु में फ़्लाइट लैंड होती थीं. लेकिन बरसात के दिनों में एयरफ़ील्ड पानी से भर जाता. 15 अक्टूबर वाली पहली फ़्लाइट को भी उड़ने में एक महीने की देरी इसी बरसात के चलते हुई. सो, बरसात के दिनों में ऑपरेशन पुणे शिफ़्ट करना पड़ता. हालांकि शिफ़्टिंग में इतनी भी दिक्कत नहीं थी, क्यूंकि स्टाफ़ में थे दो पायलट, तीन इंजीनियर, चार कुली और दो चौकीदार. यानी सिर्फ़ 11 लोगों का स्टाफ़.
आमदनी भी कंपनी की कम ही थी. सरकार की तरफ़ कोई मदद नहीं मिलती थी. सिर्फ़ कॉन्ट्रैक्ट में वर्णित हर आर्टिकल या लेटर के लिए 16 आने.
टाटा की ऑफ़िशियल वेबसाइट में ये भी लिखा है कि
कभी-कभी अगर यात्री इन विमानों में बैठते, तो उन्हें इन मेलबॉक्स के ऊपर बैठना पड़ता. कई दफा यात्रा के दौरान उनके पांव उनके सर से ऊंचे उठे रहते थे.

टाटा एयरलाइंस का साल 1939 में रूट और टाइमटेबल. तस्वीर पर क्लिक करके बड़े रूप में देखने में और मज़ा आएगा. (तस्वीर: Bjorn Larsson | timetableimages.com)
इन सारी मुश्किलों के बावज़ूद भी ‘टाटा एयर मेल’ का ऑपरेशन जारी रहा. और ‘टाटा एयर मेल’ ने साल 1933 में, जो पहला साल था जब कंपनी ने पूरे साल ऑपरेट किया, ढाई लाख किलोमीटर से ज़्यादा की हवाई यात्रा की. 10 टन से ज़्यादा वजन की मेल इधर से उधर पहुँचाई. और 60,000 रूपये का मुनाफ़ा कमाया. इस दौरान इसने 155 यात्रियों को भी ढोया.
1938 तक कंपनी का नाम टाटा एयरलाइंस हो गया और इसी साल इसने एक अंतरराष्ट्रीय उड़ान भरी. भारत से श्रीलंका.
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, एयरलाइन ने रॉयल एयरफोर्स की काफ़ी मदद की. सेना की टुकड़ियों को इधर से उधर पहुंचाना हो या सप्लाई चैन की कड़ी बनना. इसके अलावा एयरलाइंस ने शरणार्थियों के बचाव और विमानों के रखरखाव में भी RAF की काफ़ी मदद की.
29 जुलाई, 1946 को टाटा एयरलाइंस को पब्लिक कर दिया गया. पब्लिक करने का मतलब कंपनी में आम नागरिक भी हिस्सेदारी ख़रीद सकते थे. कंपनी पब्लिक लिमिटेड हुई तो नाम भी बदल कर एयर इंडिया रख दिया गया. तब एयर इंडिया का ऑफ़िस, ‘बॉम्बे हाउस’ के दूसरे माले पर हुआ करता था. बाद में ये मुंबई की एयर इंडिया बिल्डिंग में शिफ़्ट हुआ. 1993 के मुंबई आतंकवादी हमले में ये बिल्डिंग भी एक टार्गेट थी. फ़रवरी 2013 में ऑफ़िस दिल्ली शिफ़्ट कर दिया गया. लेकिन चेयरमैन का ऑफ़िस अब भी मुंबई में ही स्थित है.
# आज़ादी के बाद और राष्ट्रीयकरण से पहले का छोटा सा वक़्फ़ा-
8 जून, 1948 को रात के 12:05 बजे एयर इंडिया ने पहली बार मुंबई से लंडन के लिए उड़ान भारी. वाया कैरो (इजिप्ट), जिनेवा (स्विट्ज़रलैंड). और इसके लिए जो विमान इस्तेमाल किया गया, वो उस समय का सबसे प्रीमियम और अत्याधुनिक विमान था. नाम था: लॉकहेड कॉन्स्टेलेशन. जिसे मार्च, 1948 में ऑर्डर किया गया था और जिसका एयर इंडिया ने नाम रखा, मालाबार प्रिंसेज. इसका किराया रखा गया फ़्लैट 1,720 रूपये. फ़्लैट मतलब, न तो अभी की तरह डायनेमिक प्राइसिंग थी, जो ऑक्यूपेंसी के आधार पर बदलती, न ही अलग-अलग क्लास (इकॉनमी, बिज़नेस वग़ैरह) थे.

विमान में 35 यात्री थे, जिनमें प्रसिद्ध क्रिकेटर दलीपसिंहजी, यूके के उच्चायुक्त कृष्णा मेनन, मुंबई के कई बड़े उद्योगपति और लंदन ओलंपिक में भाग लेने जा रहे भारत के दो साइकिलिस्ट भी शामिल थे.
इस विमान का कई बार मॉक टेस्ट हुआ था. महीनों तक सख़्ती से रिहर्सल करने के बाद पहली फ़्लाइट ठीक समय पर लंडन एयरपोर्ट पर लैंड हुई. जेआरडी टाटा फ़्लाइट से उतरते ही पत्रकारों से बोले-
अपनी घड़ियां सेट कर लो दोस्तो. हम समय पर हैं.मुंबई-लंडन और अन्य अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के लिए टाटा ने सरकार के साथ मिलकर ‘एयर इंडिया इंटरनेशनल’ का गठन किया. डील के अनुसार सरकार ने टाटा की एयर इंडिया को अंतरराष्ट्रीय फ़्लाइट ऑपरेट करने की इजाज़त दी और एयर इंडिया के 49% शेयर्स भारत सरकार के पास आ गए थे.

टाटा एयरलाइंस का साल 02 अगस्त, 1939 का रूट और टाइमटेबल. तस्वीर पर क्लिक करके बड़े रूप में देखने में और मज़ा आएगा. (तस्वीर: Bjorn Larsson | timetableimages.com)
# नेहरू का राष्ट्रीयकरण-
आज़ादी मिलने तक भारत में ढेरों एयरलाइंस ऑपरेट करने लग गयीं थीं. कारण ये था कि द्वितीय विश्व युद्ध के ख़त्म होने के बाद, युद्ध में इस्तेमाल हुए ढेरों विमान भंगार के मोल बिक रहे थे. लेकिन 1952 तक आते-आते, दुनिया भर की एयरलाइन्स की हालत में गिरावट देखी गई. इस विश्वव्यापी संकट से भारतीय एयरलाइंस को बचाने के वास्ते भारत के योजना आयोग ने सभी एयरलाइन्स को एकीकृत करके उनका निगम बनाने की सिफारिश की. मार्च, 1953 में संसद ने ‘एयर कॉर्पोरेशन बिल’ पारित कर दिया. 28 मई, 1953 को राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद ये बिल, क़ानून बन गया. 01 अगस्त, 1953 से नए कॉर्पोरेशन ने अपना कामकाज शुरू कर दिया था.
हालांकि शुरुआत में सरकार सिर्फ़ एक निगम स्थापित करने के पक्ष में थी, लेकिन बाद में सुधरे हुए बिल के प्रावधानों के अनुसार दो निगम बने. राष्ट्रीय विमानों के लिए राष्ट्रीयकृत विमान सेवा का नाम रखा गया, इंडियन एयरलाइंस (इंडियन एयरलाइंस कॉर्पोरेशन). इसमें 8 प्राइवेट करियर को एक साथ जोड़ दिया गया था, और इसी में एयर इंडिया के डॉमेस्टिक ऑपरेशन्स भी मर्ज़ हो गए. जबकी अंतरराष्ट्रीय विमानों को ऑपरेट करने वाली राष्ट्रीयकृत संस्था का नाम पड़ा एयर इंडिया (एयर इंडिया इंटरनेशनल कॉर्पोरेशन).
जहां इंटरनेशनल कॉर्पोरेशन के संचालन में शुरुआत में कोई दिक्कत नहीं आ रही थी, वहीं डॉमेस्टिक कॉर्पोरेशन, ‘इंडियन एयरलाइंस कॉर्पोरेशन’ की राह में ढेर सारे रोड़े थे. आठों घरेलू एयरलाइंस का मैनजमेंट से लेकर पे-स्केल तक अलग-अलग था.
हालांकि इंटरनेशनल कॉर्पोरेशन के स्मूथ संचालन के पीछे बाद में जेआरडी टाटा का भी बहुत बड़ा हाथ रहा, लेकिन वो इस पूरी राष्ट्रीयकरण वाली प्रोसेस के, शुरू से ही पक्ष में नहीं थे और अपने स्तर पर जितना हो सका इसका विरोध करते थे.
शशांक शाह की किताब, ‘दी टाटा ग्रुप’
के अनुसार, जेआरडी टाटा ने राष्ट्रीयकरण का कई मंचों पर खुलकर विरोध किया था लेकिन सरकार ने इस बारे में उनसे सीधे-सीधे कोई बात नहीं की-
जाने माने पत्रकार वीर सांघवी अपने ब्लॉग में लिखते हैंदी टाटा ग्रुप: फ़्रॉम टॉर्च बियरर टू ट्रेलब्रेज (लेखक: शशांक शाह)
तत्कालीन संचार मंत्री जगजीवन राम, जो राष्ट्रीयकरण के तौर-तरीकों का पर्यवेक्षण कर रहे थे, ने JRD से परामर्श तो किया. लेकिन यह परामर्श उन कंपनियों को दिए जाने वाले मुआवजे के बारे में था, जिनकी राष्ट्रीयकरण की योजना थी. इस बात ने जेआरडी को काफ़ी निराश किया था.
बाद में, नवंबर 1952 में, प्रधानमंत्री नेहरू के साथ एक लंच बैठक में, जेआरडी टाटा ने अपनी पीड़ा व्यक्त की. उन्होंने नेहरू से कहा कि सरकार ने जानबूझकर टाटा के साथ बुरा व्यवहार किया. और यह राष्ट्रीयकरण, निजी नागरिक उड्डयन कंपनियों, ख़ासतौर पर टाटा की हवाई सेवाओं को कुचलने की एक सुनियोजित साजिश है. नेहरू ने उन्हें आश्वस्त किया कि सरकार का कोई ऐसा इरादा नहीं है.
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हालांकि जेआरडी इसे ‘पीछे के दरवाज़े से हुआ राष्ट्रीयकरण’ कहते थे, लेकिन इसके बाद भी नेहरू सरकार ने जेआरडी टाटा को नेपथ्य में नहीं जाने दिया. सरकार ने उन्हें एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस का अध्यक्ष बनने के लिए आमंत्रित किया. बातचीत के कई दौर चले, जिसके बाद जेआरडी ने एयर इंडिया की अध्यक्षता, और इंडियन एयरलाइंस के बोर्ड का निदेशक बनना स्वीकार किया. जेआरडी के फ़ैसले के पीछे उनकी वही पुरानी चिंता छुपी हुई थी कि राष्ट्रीयकरण का एयर इंडिया के उच्च मानकों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है. यूं अबकी वो अपनी कंपनी या अपने लिए नहीं अपने देश और अपने एयरलाइन के प्रति प्रेम के लिए कुछ करना चाहते थे.वीर सांघवी
नेहरू शर्मसार थे. उन्होंने जेआरडी के सामने स्वीकार किया कि, ‘हां, घोषणा होने से पहले, कम से कम, टाटाज़ (टाटा घराने) को सूचित तो किया ही जाना चाहिए था. लेकिन विमानन क्षेत्र में अराजकता फैली हुई थी. और केवल सरकार के पास ही इतने बड़े निवेश के लिए आवश्यक धन था, जिससे नए विमान ख़रीदे जा सकें.’
जेआरडी के इस फ़ैसले से उनके ‘टाटा’ वाले सहकर्मी भी खुश नहीं थे. उनका मानना था कि जेआरडी अपना समय और ऊर्जा वहां क्यूं बर्बाद कर रहे हैं, जहां पर उनको न एक ढेला मिलना, न एक ढेले की हिस्सेदारी ही बची है. और जेआरडी इस समय में टाटा के लिए कुछ प्रोडक्टिव कर सकते हैं. हालांकि बाद उनको इस काम का वेतन भी मिला करता था- एक रुपया प्रति माह.
# एयर इंडिया का स्वर्णिम दौर-
सरकार ने जेआरडी को पैसे या हिस्सेदारी से बेशक महरूम रखा हो लेकिन कामकाज करने के लिए फ़्री हैंड ज़रूर दिया हुआ था. एयर इंडिया शायद इकलौती ऐसी सरकारी संस्था थी, जिसपर लाल-फ़ीताशाही और सरकार का न्यूनतम या शून्य दख़ल था.

जवाहर लाल नेहरू के बाद इंदिरा गांधी और उनकी सरकार ने भी एयर इंडिया के कामकाज में कोई दख़ल नहीं दिया. जेआरडी की एक्सपर्टीज और सरकार की मोनोपॉली के चलते ‘एयर इंडिया’ दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रहा था. वीर सांघवी लिखते हैं-
‘कैथे पैसिफिक’ और ‘थाई एयरवेज’ जैसी एयरलाइंस में आज जिस ‘एशियाई आतिथ्य’ का पुनर्जन्म हुआ है, उसकी जनक जेआरडी की एयर इंडिया ही है. 1960 और 1970 के दशक में जब एयर इंडिया लंदन-न्यूयॉर्क रूट पर चलती थी, तो कई अंग्रेजों और अमेरिकियों ने इसकी सर्विसेज़ को ‘पैन एम’, ‘बीओएसी’ (जो बाद में ब्रिटिश एयरवेज बन गया) या ‘टीडब्ल्यूए’ से ज्यादा पसंद किया. एयर इंडिया में आतिथ्य का ऐसा स्तर था कि पश्चिमी एयरलाइंस उसे छू भी नहीं सकती थीं.और इसमें सबसे बड़ा हाथ था जेआरडी टाटा का. उन्होंने अपने आप को एयर इंडिया की छोटी से छोटी चीज़ में शामिल कर लिया था. मेन्यू से लेकर सीट पिच तक. क्रू की यूनिफॉर्म से लेकर तक यात्रा के दौरान सर्व की जाने वाली वाइन तक.
अगर उन्हें कहीं कोई गंदगी-धूल दिख जाती, तो लोगों से कहने के बजाय उसे ख़ुद साफ़ करने लग जाते. इससे कर्मचारी शर्म के मारे ही सही, हर चीज़ चाक चौबंद रखने लगे.
...क्रमशः