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विजय सिंह ने अपनी किताब 'जया गंगा' में गंगा में तैरती लाशों के बारे में क्या लिखा?

"ज़र और ज़मीन के झगड़ों में जो लोग मारे जाते हैं, उन्हें रात को नदी में फेंक देते हैं."

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'जया गंगा' पहली बार फ्रेंच भाषा में वर्ष 1985 में प्रकाशित हुई थी. लगभग 35 वर्ष बाद यह पुस्तक हिंदी में प्रकाशित हुई है.
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5 जुलाई 2021 (Updated: 5 जुलाई 2021, 11:39 AM IST) कॉमेंट्स
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लेखक, फिल्मकार और पटकथा लेखक विजय सिंह का उपन्यास ' जया गंगा' हाल ही में हिंदी में प्रकाशित हुई है. अंग्रेजी और फ्रेंच में प्रकाशित होते ही इस किताब ने इन भाषाओं के पाठकों के बीच जबरदस्त लोकप्रियता हासिल की थी. इस पर बनी फिल्म भी फ्रांस और इंग्लैंड में पसंद की गई, जबकि करीब 40 देशों में प्रदर्शित हुई. गौरतलब है कि वीडियो - किताबवाला: पुलवामा हमले पर लिखी इस किताब के कवर पर उमर फ़ारुख़ की तस्वीर क्यों छापी गई? इस किताब में लेखक विजय सिंह ने गंगा में तैरती लाशों का भी वर्णन किया है जो हाल ही में न्यूज़पेपर्स की हेडलाइन बना था. आइए पढ़ते हैं इस उपन्यास का एक अंश और जानते हैं उन्होंने अपनी किताब 'जया गंगा' में इसके बारे क्या लिखा था -  

जया गंगा विजय सिंह

गंगा में लाशें हमारी नाव में एक नई सवारी आ गई थी. चश्मा लगाए हुए और चेचक के दाग वाला एक नौजवान जिनका नाम गोविंद नारायण चतुर्वेदी था. मल्लाहों ने बताया कि वे भी नरौरा गांव जा रहे हैं जो हमारा आज का पड़ाव भी था. चतुर्वेदी ख़ुद को कॉमरेड कहते थे और भारी पढ़ाकू क़िस्म के लगते थे. हम दो घंटे नाव में रहे, लेकिन हमारे बीच कोई बातचीत नहीं हुई. लेनिन की किताब ‘व्हाट इज़ टु बी डन?’ के हिन्दी अनुवाद में हमारे कॉमरेड इस क़दर खोए हुए थे जैसे गंगा के दूसरे किनारे पर क्रान्ति उनका इन्तज़ार कर रही हो. ‘भैया, भैया.’ राम ने कहा, ‘ज़रा उधर देखिए.’ सफ़ेद कपड़े में लिपटी एक लाश पानी में उतरा रही थी. वह धीरे-धीरे बह रही थी जैसे धूप सेंक रही हो. यात्रा की शुरुआत से ही हमें बहुत-सी सड़ी - गली और फूली हुई लाशें तैरती दिखाई दी थीं. गंगा के आसपास रहनेवाले लोग जानते हैं कि गांवों के ग़रीब अक्सर अपने मृतकों को गंगा की गोद में सौंप देते हैं. गंगा के मैदानों में रहनेवाले ग़रीबों के पास गुज़र-बसर के साधन इतने कम होते हैं कि वे अपने मृतकों का अन्तिम संस्कार भी अच्छी तरह नहीं कर पाते. लेकिन इस लाश को देखना कुछ ज़्यादा ही रहस्यमय और डरावना था. कफ़न बिलकुल नया था और लाश भी ताज़ा और जवान लगती थी. लगता था, उसे हाल ही में एक भारी पत्थर बांधकर फेंका गया है. पत्थर निकल गए थे और शव सतह पर उतराने लगा था. उसका कफ़न भी पूरी तरह भीगा नहीं था. दो कुत्ते नदी में कूदे और तेज़ी से शव की ओर जाने लगे. पुलिसया कुत्तों जैसे अचूक ढंग से उन्होंने शव को दोनों तरफ़ से पकड़ा और धीरे से तट पर खींच लाए. तट पर आकर वे घबरा गए और कुछ दूर जाकर भौंकने लगे. वे फिर शव की ओर गए, फिर पीछे हटे और भौंकने लगे. वे बेचैनी के साथ लाश के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगे. कहीं लाश ज़िन्दा तो नहीं है? कहीं हम कुछ ग़लत तो नहीं कर रहे हैं? कहीं वह भूत तो नहीं है? फिर एक कुत्ता हिम्मत करके लाश के पास गया, उसने पंजे से कफ़न हटाया और फिर पीछे हट गया. इसके बाद दूसरे कुत्ते ने आकर अपने दांतों से कपड़ा उठाया और एक़दम पीछे हटा. उनकी जांच पूरी हो गई थी. लाश ने कोई हरकत नहीं की. कुत्ते लाश पर टूट पड़े. फिर गिद्ध आ गए. ‘हमारे खानदानी साम्राज्य में कुत्तों का क्या काम है?’ पल भर में ही पांच गिद्ध मंडराने लगे. कुत्ते उन पर भौंके. ‘हमारे शिकार को मत छूना!’ गिद्धों ने भी जैसे पलटकर जवाब दिया, ‘ख़बरदार, अगर हमारे शिकार को छुआ!’ कुत्तों के भौंकने और गिद्धों के पंख फड़फड़ा ने का युद्ध चल ही रहा था कि दस और गिद्ध उतर आए. दोनों टीमें बराबरी पर थीं. खेल शुरू हो गया. कुत्ते गिद्धों से लड़ रहे थे और गिद्ध कुत्तों से.
पहला दौर...! दूसरा दौर...! लाश चुपचाप पड़ी थी. शायद उसके होंठों पर एक ही प्रश्न था : क्या गंगा मुझे मुक्ति देगी? गंगा ने कोई जवाब नहीं दिया और जल्दी ही गिद्ध और कुत्तों के बीच समझौता हो गया.
दोनों ने मिलकर उस बेजान इंसानी गोश्त को चीरना और चीथना शुरू कर दिया. पन्द्रह मिनट के भीतर यह शाश्वत पहेली हल हो गई कि मनुष्य की देह कैसे एक डरावने भूत में बदलती है... कंकाल का दायां हाथ ऊपर उठा हुआ था जैसे हम लोगों को अलविदा कह रहा हो. मैंने ज़ोर से कहा : ‘कितना घिनौना दृश्य है!’ राम ने जवाब दिया : ‘नहीं, भैया. होता रहता है.’ ‘लेकिन है बहुत भयानक.’ ‘नहीं, भैया. आम बात है.’ ‘आम हो या न हो, राम.’ कॉमरेड गोविंद ने लेनिन से अपनी निगाह हटायी :
‘कितने अफ़सोस की बात है कि उस ग़रीब के पास ठीक से दाह-संस्कार करने का पैसा भी नहीं रहा होगा. हिन्दू धर्म में हरेक को हक़ है कि उसका दाह-संस्कार अच्छी तरह से हो.’‘आप शायद सही कहते हैं बाबूजी, लेकिन आजकल दाह-संस्कार के लिए पैसा किस के पास है. चार सौ रुपए की लकड़ी लगती है! इसीलिए वे लाशें यहां लाते हैं. मुझे पता है, सौ में से तीस लाशों का ही दाह-संस्कार होता है, बाक़ी को तो सीधे नदी में फेंक दिया जाता है. वह बेचारा ग़रीब...’
‘नहीं, भाई’, पीर सिंह ने राम को टोका. ‘लाशें सिर्फ़ ग़रीब लोगों की नहीं होती हैं, कई बार तो यह अपराधियों का काम होता है. ज़र और ज़मीन के झगड़ों में जो लोग मारे जाते हैं, उन्हें रात को नदी में फेंक देते हैं. लाशें ऊपर आती हैं तो इतनी गली हुई होती हैं कि कोई पहचान नहीं सकता. लेकिन भैया, गंगाजी की माया अपार है. उसमें दया, अपराध, प्रेम और नफ़रत सब के लिए जगह है. समझो वही जिंदगी है.’ ‘लेकिन पीर, हमें गंगा में इतनी सारी लाशें दिखाई दीं. क्या उन्हें देखकर गंगा-स्नान करनेवालों को कोई कष्ट नहीं होता? उन्हें धक्का नहीं लगता?’ ‘नहीं, भैया, बिलकुल नहीं. इंसान की देह क्या है? आत्मा तो उड़ जाती है. कोई स्वर्ग चली जाती है कोई नरक. तो क्या बचा? अरे, देह तो आत्मा का कपड़ा है. हां, हमारे पुराणों में मरे हुओं का अच्छी तरह दाह-संस्कार करना लिखा हुआ है लेकिन उन्हें गंगाजी को सौंपना भी उतना ही पवित्र है. उसके पानी में बहुत गुण हैं, भैया. वह हर चीज़ का इलाज कर सकती है, हर घाव को ठीक कर सकती है, आत्मा कितनी भी पीड़ा में हो, वह उसे शान्ति दे सकती है. गंगा में लाशें फेंकने का कोई बुरा नहीं मानता. इसलिए कि वही जिंदगी है और वह हर चीज़ को पवित्र कर देती है.’

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