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जब चला इस्मत आपा पर अश्लीलता का मुकदमा

इस्मत चुगतई की आज बरसी है. आइए उन्हीं के लिखे से उन्हें याद करते हैं.

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24 अक्तूबर 2018 (Updated: 24 अक्तूबर 2018, 05:48 IST)
Updated: 24 अक्तूबर 2018 05:48 IST
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सआदत हसन मंटो और इस्मत चुगताई पर मुकदमा हो गया. अश्लीलता का. मंटो अपनी कहानी 'बू' और इस्मत 'लिहाफ़' के लिए लाहौर की कचहरी में, कटघरे में खड़े किये गए. वजह, उनकी कहानी में ज़माने की जिंदा हकीकत दिखाई देती थी. और ज़माने को अपनी हकीकत लिटरेचर के आईने में देखना बर्दाश्त नहीं था.
पढ़ें, इस्मत आपा का लिखा संस्मरण 'लिहाफ़ के इर्द गिर्द', जिसे उनकी किताब 'गुनहगार' से लिया गया है. इस अंश को आप तक पहुँचाने में मदद के लिए हम शुक्रगुजार हैं 'वाणी प्रकाशन' के, जिन्होंने हमें यह अंश उपलब्ध करवाया.



शाम के चार बजे होंगे या शायद साढ़े चार कि बड़े ज़ोर से घंटी बजी. नौकर ने दरवाजा खोला और आतंकित होकर पीछे हट गया. "कौन है?" "पुलिस!" शाहिद हड़बड़ाकर उठ बैठे. "जी हाँ," नौकर थर-थर काँप रहा था. "मगर साब मैंने कुछ नहीं किया, कसम से साब." "क्या किस्सा है?" शाहिद ने दरवाजे के पास जाकर पूछा, "सम्मन है." "सम्मन? मगर...खैर लाइये" "सॉरी...आपको नहीं दे सकते." "मगर...किसका सम्मन...और कैसा सम्मन?" "इस्मत चुग़ताई के नाम! उन्हें बुलाइये." नौकर की जान में जान आयी. "मगर यह तो बताइये..." "आप उन्हीं को बुलाइये, लाहौर से सम्मन आया है."
मैं सीमा (अपनी दो महीने की बच्ची) के लिए दूध बनाकर बोतल ठंडा कर रही थी. "लाहौर से सम्मन?", मैंने बोतल ठंडे पानी में हिलाते हुए पूछा. "हाँ भई, लाहौर से आया है." शाहिद झुंझला गये. मैं हाथ में बोतल लिए नंगे पैर बाहर निकल आयी. "अरे भई कैसा सम्मन है?" और सम्मन का शीर्षक पढ़कर मेरी हँसी छूट गयी, लिखा था...'इस्मत चुग़ताई' vs 'द क्राउन'. "अरे यह बादशाह सलामत को मुझसे क्या शिकायत हो गयी, जो मुक़दमा ठोंक दिया." "मजाक़ न कीजिए", इंस्पेक्टर साहब सख्ती से बोले. "बढ़कर दस्तख़त दीजिए."
मैंने सम्मन आगे पढ़ा. बड़ी मुश्किल से समझ में आया. मेरी कहानी 'लिहाफ' पर अश्लीलता के आरोप में सरकार ने मुक़दमा चला दिया है और मुझे जनवरी में लाहौर हाईकोर्ट में हाज़िर होना है. दूसरी हालत यानी मेरी गैर हाज़िरी पर सख्त कार्रवाई की जायेगी.
"भई, मैं नहीं लेती सम्मन", मैंने काग़ज़ वापस करते हुए कहा और दूध की बोतल हिलाने लगी. "मेहरबानी करके वापस ले जाइये." "आपको लेना पड़ेगा." "क्यों?" मैं आदतन बहस करने लगी. "अरे भई क्या किस्सा है?" मोहसिन अब्दुल्लाह ने जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पूछा. वह धूल में अंटे हुए न जाने कहाँ से खाक छानकर आ रहे थे. "देखो ये लोग मुझे जबरदस्ती सम्मन दे रहे हैं, मैं क्यों लूँ," मोहसिन ने वकालत पढ़ी थी और अव्वल दर्जे से पास हुए थे. "हूँ" उन्होंने सम्मन पढ़कर कहा. "कौन- सी कहानी है?" "भई है एक कमबख्त कहानी, जान की मुसीबत हो गयी है." "सम्मन तुम्हें लेना पड़ेगा." "क्यों?" "फिर वही जिद." शाहिद भड़क उठे. "मैं हरगिज़ नहीं लूँगी." "नहीं लोगी तो तुम्हें गिरफ़्तार कर लिया जायेगा." मोहसिन गुर्राये. "कर लेने दो गिरफ़्तार, मगर मैं सम्मन नहीं लूँगी." "जेल में बन्द कर दी जाओगी."
"जेल में? अरे मुझे जेल देखने का बहुत शौक है. कितनी बार यूसुफ से कह चुकी हूँ, मुझे जेल ले चलो, मगर हँसता है कमबख्त और टाल जाता है." "इंस्पेक्टर साहब मुझे जेल ले चलिये, आप हथकड़ियाँ लाये हैं?" मैंने बड़े प्यार से पूछा. इंस्पेक्टर साहब का पारा चढ़ गया, गुस्सा दबाकर बोले, "मज़ाक़ मत कीजिए, दस्तख़त कर दीजिए."
शाहिद और मोहसिन फट पड़े. मैं बिल्कुल मज़ाक़ के मूड में हँस-हँस कर बके जा रही थी. अब्बा मियाँ जब सूरत में जज थे तो कचहरी बिल्कुल घर के मर्दानखाने (पुरुषों की बैठक) में लगती थी. हम लोग खिड़की से चोर-डाकुओं को हथकड़ियों-बेड़ियों में जकड़ा हुआ देखा करते थे. एक बार बड़े खतरनाक डाकू पकड़े गये. उनके साथ एक बहुत खूबसूरत नौजवान औरत भी थी. बाकायदा बिरजिस और कोर्ट पहने शकरे जैसी आँखें, चीते जैसी कमर और लम्बे काले बाल, मेरे ऊपर इसका बड़ा रोब पड़ा. शाहिद और मोहसिन ने बौखला दिया, मैंने बोतल इंस्पेक्टर साहब को पकड़ानी चाही ताकि दस्तख़त कर सकूँ. मगर वह ऐसे बिदके जैसे मैंने उनकी तरफ पिस्तौल की नाल बढ़ा दी हो. जल्दी से मोहसिन ने बोतल मुझसे छीन ली और मैंने दस्तख़त कर दिया. "आप थाना चलकर जमानत दीजिए, पाँच सौ रुपये की जमानत." "मेरे पास तो इस वक़्त पाँच सौ नहीं हैं." "आपको नहीं, किसी और साहब को आपकी जमानत देनी पड़ेगी." "मैं किसी को फंसाना नहीं चाहती. अगर मैं नहीं गयी तो जमानत जब्त हो जायेगी." मैंने अपनी जानकारी की धौंस जमाई. "आप मुझे गिरफ्तार कर लीजिए."
इस बार इंस्पेक्टर साहब को गुस्सा नहीं आया. उन्होंने मुस्कुरा कर शाहिद की तरफ देखा, जो सोफे पर सिर पकड़े बैठे थे और मुझसे बड़ी नरमी से कहा. "चलिये भी, जरा-सी देर की बात है." "मगर जमानत?" मैंने नरम होकर कहा, अपने मूर्खतापूर्ण मज़ाक़ पर शर्मिन्दा हुई. "मैं दूँगा." मोहसिन बोले. "मगर मेरी बच्ची भूखी है, उसकी आया बिल्कुल नयी है और एकदम छोटी है." "आप बच्ची को दूध पिला दीजिए." इंस्पेक्टर साहब बोले. "तो आप अन्दर बैठिये." मोहसिन ने पुलिसवालों को बैठाया. इंस्पेक्टर साहब शाहिद के फैन निकले. और ऐसी मीठी-मीठी बातें कीं कि उनका भी मूड ठीक होने लगा.
978-81-8143-739-6
गुनहगार : इस्मत चुगताई (साभार: वाणी प्रकाशन)

मैं, शाहिद और मोहसिन पुलिस स्टेशन माहिम गये. खानापूरी करके मैंने पूछा. "कैदी कहाँ हैं?" "देखेंगी?" "ज़रूर." एक जंगले के पीछे छोटी-सी जगह में दस-पन्द्रह आदमी आड़े-तिरछे लेटे थे. "ये अभियुक्त हैं, कैदी नहीं, इन्हें कल कोर्ट में पेश किया जायेगा." इंस्पेक्टर साहब बोले. "इनका जुर्म?" "दंगा, फसाद, पॉकेटमारी, दारू पीकर दंगा करना." "इन्हें क्या सज़ा मिलेगी?" "जुर्माना या थोड़े दिनों की जेल." मुझे बड़ा अफ़सोस हुआ कि इतने फुसफुस से कैदी देखने को मिलेंगे. दो-चार कातिल और डाकू होते तो बात थी. "आप मुझे कहाँ रखते?" "औरतों का इंतज़ाम यहाँ नहीं, उन्हें ग्रांड रोड या मटुंगा ले जाते हैं."
वापस आकर शाहिद और मोहसिन मुझसे खूब लड़े, और शाहिद तो सारी रात लड़ते रहे. तलाक तक की नौबत आ गयी. मोहसिन को तो मैंने यह कहकर चुप कर दिया कि अगर ज़्यादा जान खाई तो अंडरग्राउंड हो जाऊँगी. पाँच सौ का फटका बैठ जायेगा. मगर शाहिद किसी तरह मुक़दमेबाजी की बेइज्जती और बदनामी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे. उनके माँ-बाप और बड़े भाई सुनेंगे तो क्या सोचेंगे. फिर अखबारों में ख़बर मिली तो मेरे ससुर साहब का बड़ा दर्द भरा ख़त आया..."दुल्हन को समझाओ, कुछ अल्लाह-रसूल की बातें लिखे कि आक़बत (परलोक) दुरुस्त हो. मुकदमा, वह भी अश्लीलता पर! हम लोग बहुत परेशान हैं, अल्लाह रहम करे!"
मंटो से फोन पर मालूम हुआ, उन पर मुकदमा चला है. उसी कोर्ट में, उसी रोज उसकी भी पेशी है. फिर सफिया और मंटो दौड़े आये. मंटो एकदम खुश-खुश जैसे किसी ने विक्टोरिया-क्रास दे दिया हो. मैं दिल में बहुत शर्मिन्दा थी और ऊपर-ऊपर बहादुरी जता रही थी. मगर मंटो से मिलकर शाहिद की भी ढाढस बँध गयी और मुझे भी बड़ी तसल्ली हुई. दिल में तो धड़धड़ी हो रही थी. मगर मंटो ने तो ऐसी हिम्मत बढ़ाई कि मेरा भी डर निकल गया.
"अरे एक ही तो मारके की चीज़ लिखी है आपने. अमाँ शाहिद, तुम भी यार क्या आदमी हो? यार, तुम भी चलना. तुमने जाड़ों का लाहौर नहीं देखा. खुदा की कसम हम तुम्हें अपना लाहौर दिखायेंगे. क्या तीखी सर्दी पड़ती है. तली हुई मछली, अहहह! व्हिस्की के साथ! आतिशदान में दहकती हुई आग, जैसे प्यार करने वालों के दिल जल रहे हों, और ब्लड रेड माल्टे! अहा, जैसे महबूबा का चुम्बन!" "अरे चुप करे मंटो साहब" सफिया नरवस होने लगीं.
और फिर गाली-गलौज से भरे खतों का तांता लग गया. ऐसी अनोखी पेंचदार और भारी-भरकम गालियाँ कि मुर्दा के सामने बक दी जायें तो उठकर भाग जाये. मुझे ही नहीं, मेरे पूरे खानदान को, शाहिद को और मेरी दो महीने की बच्ची को भी, क्योंकि उसके जन्म की ख़बर कहीं छप गयी थी. मुझे फिसलन कीचड़, छिपकिली और गिरगिट से बड़ा डर लगता है. बहुत से लोग बड़ी बहादुरी से बातें बना लेते हैं लेकिन मरी हुई चुहिया से डरते हैं. डाक से डर लगता था जैसे लिफाफों में साँप, बिच्छू और अजगर बन्द हों. डरते-डरते खोलती. अगर साँप, बिच्छू दिखाई पड़ते तो दो-चार शब्द पढ़कर जला देती. मगर शाहिद के हाथ पड़ जाता तो फिर तलाक़ की नौबत आ जाती. उन खतों के अलावा अख़बारों में जो लेख छप रहे थे, गोष्ठियों में जो बहसें होतीं, उन्हें मुझ जैसी सख्त जान ही झेल सकती थी.
मैंने कभी किसी का जवाब नहीं दिया. कभी अपनी गलती मानने से इंकार नहीं किया. हाँ, मुझसे ग़लती हो गयी थी, मुझे अपना अपराध स्वीकार था. सिर्फ़ मंटो ऐसा था जो इस रवैये पर भड़क उठता था. मैं खुद अपने ख़िलाफ़ थी, और वह मेरा समर्थन करता था. और शाहिद के जितने दोस्त थे इसे कोई अहमियत नहीं देते थे. ठीक-ठीक याद नहीं मगर शायद अब्बास (ख्वाजा अहमद अब्बास) ने तो 'लिहाफ़' का अंग्रेजी अनुवाद भी कहीं छपवा दिया था. प्रगतिशीलों ने न मुझे फटकारा, न मेरी तारीफ़ की. और मुझे इस रवैये से संतुष्टि मिलती थी.
जब मैंने ये कहानी लिखी तो मैं अपने भाई के साथ रहती थी. रात को मैंने कहानी लिखी सुबह अपनी भावज को सुनायी. उन्होंने यह तो नहीं कहा कि यह कहानी गन्दी है, लेकिन पहचान गयी कि किसकी कहानी है. फिर मैंने अपनी खालाज़ाद बहन (मौसेरी) को जो चौदह बरस की थी, कहानी पढ़कर सुनायी. वह कहने लगी, क्या लिखा है, हमारी तो कुछ समझ में नहीं आया. मैंने कहानी "अदब-लतीफ़" को भेजी. उन्होंने कुछ न कहा और फौरन छाप दी. शाहिद अहमद देहलवी मेरी कहानियों का संकलन छाप रहे थे, उन्होंने इसमें छाप दी.
यह कहानी सन् 42 में छपी थी. मेरी और शाहिद की दोस्ती शादी के इरादे तक पहुँच चुकी थी. शाहिद ने कहानी नापसन्द की और हमारी चिखचिख भी हुई. मगर उस वक़्त 'लिहाफ़' पर जो व्यंग्य के तीर बरस रहे थे, वह बम्बई तक नहीं पहुँचे थे. मेरे पास सिर्फ़ "साक़ी" और "अदब-लतीफ़" आते थे. शाहिद ज्यादा बदजुबान नहीं हुए थे और हमारी शादी हो गयी थी.
सन् 44 दिसम्बर के महीने में सम्मन मिला कि हमें जनवरी में कोर्ट में हाज़िर होना है. सब कह रहे थे. जेल-वेल नहीं, बस जुर्माना हो जायेगा. और हम बड़ी खुशी से लाहौर के लिए गर्म कपड़े बनवाने लगे. सीमा बहुत छोटी और कमज़ोर थी. और बड़ी ऊँची आवाज़ में रोती थी. चाइल्ड स्पेशलिस्ट को दिखाया तो उसने कहा बिल्कुल तंदरुस्त है, यूँ ही शोर मचाती है. उसे लाहौर की सर्दी में ले जाना ठीक नहीं. एकदम से इतनी सर्दी झेल न सकेगी. तो हम ने बच्ची को अलीगढ़ सुल्ताना जाफरी की अम्मा के पास छोड़ा और लाहौर रवाना हो गये. वहीं से शाहिद अहमद देहलवी और वह कातिब (हस्त सुलेख लिखने वाला) जिन्होंने किताबत की थी, साथ हो गये थे क्योंकि बादशाह सलामत ने उन्हें भी मुजरिम करार दे दिया था. यह मुकदमा "अदब-लतीफ़" पर नहीं बल्कि उस किताब पर चला था जो शाहिद अहमद देहलवी ने छापी थी.
हमें सुल्ताना लेने आ गयी. वह उन दिनों लाहौर रेडियो स्टेशन पर काम करती थीं. लुकमान साहब के यहाँ रहती थीं. उनकी बड़ी शानदार कोठी थी. बीवी बच्चे मायके गये हुए थे इसलिए बस अपना ही राज था. मंटो भी पहुँच गये थे और पहुँचते ही हमारी खूब दावतें हुईं. ज़्यादातर मंटो के दोस्त थे मगर मुझे भी अजूबा जानवर समझकर देखने आ जाते थे. हमारी एक दिन पेशी हुई, कुछ भी न हुआ. बस जज ने नाम पूछा और ये कि मैंने यह कहानी लिखी है या नहीं. मैंने अपराध स्वीकार किया कि लिखी है, बस! बड़ी निराशा हुई. सारे वक़्त कुछ हमारे वकील साहब बोलते रहे. हम चूँकि आपस में खुसर-फुसर कर रहे थे, कुछ पल्ले नहीं पड़ा. इसके बाद दूसरी पेशी पड़ी और हम आज़ाद होकर गुलछर्रें उड़ाने लगे. मैं, मंटो, शाहिद ताँगे में बैठकर खूब शॉपिंग करते फिरे. कश्मीरी शॉल और जूते खरीदे. जूतों की दुकान पर मंटो के नाजुक सफेद पैर देखकर मुझे इतनी ईर्ष्या हुई और अपने भद्दे पैरों को देखकर मोर की तरह शोक मनाने को जी चाहा.
"मुझे अपने पैरों से घिन आती है." मंटो ने कहा. "क्यों? इतने खूबसूरत हैं." मैंने बहस की. "मेरे पैर बिल्कुल जनाने हैं." "मगर जनानियों (औरतों) से तो इतनी दिलचस्पी है आपकी." "आप तो उल्टी बहस करती हैं, मैं औरत को मर्द की हैसियत से प्यार करता हूँ. इसका मतलब ये तो नहीं कि खुद औरत बन जाऊँ." "हटाइए भी 'जनाने और मर्दाने की बहस' को. इंसानों की बात कीजिए. पता है नाजुक पैरों वाले मर्द बड़े भावुक और तेज़ दिमाग़ होते हैं, मेरे भाई अजीमबेग चुगताई के पैर भी बड़े खूबसूरत हुआ करते थे. मगर...?" और मुझे अपने भाई के मरने से पहले सूजन से घिनावने हो जाने वाले पैर याद आ गये.
सेब और आलूबुखारे से भरा दुल्हन ही तरह सजा लाहौर-जोधपुर का वह चटियल रेतीला कब्रिस्तान बन गया. जहाँ मेरा भाई मनों मिट्टी के नीचे सो रहा है जिसकी ताजा कब्र पर काँटे लगा दिये गये थे ताकि जानवर न खोद डाले. वह काँटे मेरी रगों में तैर गये और मैंने तोस की नर्म शॉल को काउंटर पर डाल दिया.
लाहौर कितना खूबसूरत था. आज भी वैसा ही हरा-भरा, क़हक़हे लगाता हुआ, बाहें फैलाकर अपने वालों को समेट लेने वाला, टूटकर चाहने वाले बेतकल्लुफ ज़िंदादिलों का शहर... पंजाब का दिल! शहर भर में खूब घूमे. जेबों में चिलगोज़े भरे सड़कों पर खाते बातों में डूबे चले जा रहे हैं. गली में खड़े तली हुई मछली पर हाथ साफ कर रहे हैं. भूख इतनी लगती, खाते जाओ, चलते जाओ, सब हज़म. एक होटल में घुस गये. हैमबर्गर और हॉट-डॉग देखकर मुँह में पानी भर आया. "हैमबर्गर में हैम यानी सूअर का गोश्त होता है, हॉट-डॉग खा सकते हैं," शाहिद ने राय दी. और हमने शरीफ मुसलमानों की तरह मज़हब का पूरा ध्यान रखते हुए डट कर हॉट-डॉग खाये. और कन्धारी अनार का रस पिया. बाद में मालूम हुआ, ये गोरी जाति बड़ी चालबाज हैं. हैमबर्गर में मीट होता है और हॉट-डॉग में सूअर की सॉसेज! हालाँकि हॉट-डॉग खाये दो दिन बीत चुके थे मगर शाहिद का जी मतलाने लगा. फिर एक मौलवी साहब ने फतवा दिया कि भूल-चूक में खा जाओ तो माफी है, तब कहीं जाकर शाहिद की मतली रुकी.
मगर शाम को जब मंटो और शाहिद खूब खा-पी चुके तो फिर दोनों की यह राय हुई की हैमबर्गर एकदम मज़हब को दकियानूसी हद तक सलामत रखता है इसलिए हॉट-डॉग खाकर ही हम जैसों की खैरियत रह सकती है. बहस खतरनाक शक्ल लेने लगी तो फैसला हुआ कि बतौर एहितयात उन दोनों से परहेज़ किया जाये, कि उनकी जन्मपत्री का कोई भरोसा नहीं. कौन हराम है कौन हलाल! इसलिए चिकेन-तोस खाये जायें. अनारकली में चक्कर लगाये, शालीमार में घूमे, नूरजहाँ का मक़बरा देखा. और फिर दावतें, मुशायरे और गुलगपाड़े. तब मेरे दिल से अपने आप शहंशाहे बरतानिया (ब्रिटेन सरकार) के हक़ में दुआएँ निकलने लगीं कि उन्होंने हम पर मुकदमा चलाकर लाहौर में ऐश करने का सुनहरा मौका दिया.
हम दूसरी पेशी की बड़ी बेकरारी से इन्तज़ार करने लगे. चाहे फाँसी भी हो तो कोई परवाह नहीं, अगर लाहौर में हुई तो शहादत का गौरव मिलेगा. और लाहौर वाले बड़ी धूम से हमारी अर्थियाँ उठायेंगे. दूसरे पेशी नवम्बर के गुलाबी मौसम में पड़ी. यानी सन् 46 में. शाहिद अपनी फिल्म में उलझे हुए थे. सीमा की आया बहुत होशियार थी, और अब सीमा भी खूब मोटी-ताजी हो गयी थी. इसलिए मैंने उसे बम्बई में छोड़ा और खुद हवाई जहाज से दिल्ली और वहाँ से शाहिद देहलवी और उनके कातिब के साथ रेल में गयी. कातिब साहब से बड़ी शर्मिन्दगी होती थी. वह बेचारे मुफ़्त में घसीट लिए गये. बड़े चुप-चुप से, तरस आ जाने वाली सूरत बनाये रहते. हमेशा आँखें झुकी, चेहरे पर उकताहट, उन्हें देखकर अपराध-बोध एकदम उभर आता था. मेरी किताब की किताबत में फँस गये. मैंने उनसे पूछा, "आपकी क्या राय है, क्या हम मुकदमा हार जायेंगे?" "मैं कुछ कह नहीं सकता, मैंने कहानी नहीं पढ़ी." "मगर कातिब साहब आपने किताबत की है." "मैं शब्दों को अलग-अलग देखता हूँ और लिख देता हूँ. इनके अर्थों पर ध्यान नहीं देता." "कमाल है! छपने के बाद भी नहीं पढ़ते." "पढ़ता हूँ, कहीं गलती तो नहीं रह गयी." "अलग-अलग शब्द!" "जी हाँ," उन्होंने पछतावे में सिर झुका लिया. थोड़ी देर बाद बोले, "एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानेगी." "नहीं" "आप के यहाँ वर्तनी की बहुत गलतियाँ होती हैं." "हाँ, वह तो होती है. असल में सीन, से, और साद में गड़बड़ा जाती हूँ. जो, ज़ाद, ज़े, ज़ाल में भी बहुत कंफ्यूजन होता है. यही हाल छोटी हे, बड़ी हे, दो चश्मी हे का है." "आपने तख्तियाँ नहीं लिखीं?" "बहुत लिखीं, और लगातार उन्हीं गलतियों पर बहुत मार खाई है मगर..." "दरअसल जैसे मैं शब्दों पर ध्यान देता हूँ, अर्थ की तरफ ध्यान नहीं देता. इसी तरह आप अपनी बात कहने में ऐसी उतावली होती हैं कि वर्ण पर ध्यान नहीं देतीं." "ऊँह! अल्लाह कातिबों को जीता रखे, वह मेरी आबरू रख लेंगे." मैंने सोचा और टाल दिया.
शाहिद साहब के साथ मैं भी एम. असलम साहब के यहाँ ठहर गयी. सलाम व दुआ भी ठीक से नहीं हुई थी कि उन्होंने झाड़ना शुरू कर दिया. मेरे अश्लील लेखन पर बरसने लगे. मुझ पर भी भूत सवार हो गया. शाहिद साहब ने बहुत रोका, मगर मैं उलझ पड़ी. "और आपने जो 'गुनाह की रातें' में इतनी गन्दी-गन्दी पंक्तियाँ लिखी हैं. सेक्स एक्ट का वर्णन किया है, सिर्फ़ चटखारे के लिए." "मेरी और बात है, मैं मर्द हूँ." "तो इसमें मेरा क्या कुसूर है." "क्या मतलब?" वह गुस्से से लाल हो गये. "मतलब ये कि आपको खुदा ने मर्द बनाया है इसमें मेरा कोई दखल नहीं और मुझे औरत बनाया है इसमें आपका कोई दखल नहीं. मुझसे आप जो चाहते हैं, वह सब लिखने का हक आपसे नहीं माँगा, न मैं आज़ादी से लिखने का हक आपसे माँगने की ज़रूरत समझती हूँ." "आप एक शरीफ मुसलमान खानदान की पढ़ी-लिखी लड़की हैं." "और आप भी पढे-लिखे और शरीफ खानदान से हैं." "आप मर्दों की बराबरी करना चाहती हैं?" "हरगिज़ नहीं. क्लास में ज्यादा नम्बर पाने की कोशिश करती थी और अक्सर लड़कों से ज्यादा नम्बर ले जाती थी." मैं जानती थी मैं कठदलीली की अपनी खानदानी आदत पर उतारू हूँ. मगर असलम साहब का चेहरा तमतमा उठा और मुझे डर हुआ कि या तो वह मुझे थप्पड़ मार देंगे या उनकी दिमाग़ी नस फट जायेगी.
शाहिद साहब की रूह फना (एक उर्दू मुहावरा है, तंग आना के अर्थ में) बस वह रोने ही वाले थे. मैंने बड़ी नर्म आवाज़ में हौले से कहा..."असल में असलम साहब मुझे कभी किसी ने नहीं बताया कि 'लिहाफ़' वाले सब्जेक्ट पर लिखना गुनाह है. न मैंने किसी किताब में पढ़ा कि इस...बीमारी...या...लत... के बारे में नहीं लिखना चाहिए. शायद मेरा दिमाग़ अब्दुर्रहमान चुग़ताई का ब्रश नहीं, एक सस्ता कैमरा है. जो कुछ देखता है, खट से बटन दब जाता है. मेरी कलम मेरे हाथ में बेबस होती है, मेरा दिमाग़ उसे बहका देता है. दिमाग और कलम के किस्से में हस्तक्षेप नहीं हो पाया." "आपको मज़हबी तालीम नहीं मिली." "अरे असलम साहब! मैंने 'बहुश्ती जेवर' पढ़ा. उसमें ऐसी खुली-खुली बातें हैं" मैंने बहुत मासूम सूरत बना कर कहा! असलम साहब कुछ परेशान-से हो गये. मैंने कहा, "जब बचपन में मैंने वो बातें पढ़ीं तो मेरे दिल को धक्का-सा लगा, वो बातें गन्दी. फिर मैंने बी.एस. के बाद पढ़ा तो मालूम हुआ कि वो बातें गन्दी नहीं हैं, बड़ी समझ-बूझ की बातें हैं जो हर आदमी को मालूम होनी चाहिए. वैसे लोग चाहें तो मनोविज्ञान और मेडिकल की किताबें हैं, उन्हें भी गन्दी कह दें." दनादन खत्म होकर बातें नर्म लहजें में होने लगीं. असलम साहब काफी ठंडे हो गये. इतने में नाश्ता आ गया. और हम चार आदमियों के लिए इतना लम्बा-चौड़ा दस्तरख्वान सजा कि जिस पर पन्द्रह आदमी आसानी से खा सकते थे. तीन-चार तरह के अंडे, सादे तले हुए, खागीना, उबले हुए शामी कबाब और क़ीमा, पराठे भी और पूरियाँ भी, तोस (टोस्ट), सफेद और पीला मक्खन, दही और दूध, शहद और सूखे-ताजे मेवे, अंडे का हलवा, गाजर का हलवा और हलवा सोहन.
"या अल्लाह क्या क़त्ल करने का इरादा है." मैंने बहुत जलाया था. इसलिए उनके लेखन की तारीफ शुरू कर दी. मैंने उनकी 'नरगिस' और 'गुनाह की रातें' पढ़ी थीं. बस उनको ही खूब आसमान पर चढ़ाया. आखि़र में वह कुछ कायल से हुए कि कभी-कभी नंगापन साफगोई का काम करती है और अच्छी तालीम देती है. फिर उन्होंने खुद अपनी एक-एक किताब की खूबियाँ गिनानी शुरू की और मूड बहुत खुशगवार हो गया. बड़ी नरमी से बोले. "तुम जज से माफी माँग लो." "क्यों? हमारे वकील तो कहते हैं, हम मुकदमा जीत जायेंगे." "नहीं, वह साला बकता है, तुम और मंटो माफी माँग लो तो वह मुकदमा खत्म हो सकता है. पाँच मिनट की बात है." "यहाँ के इज्जतदार लोगों ने सरकार पर जोर डालकर हम पर यह मुकददमा चलवाया है." "बकवास" असलम साहब बोले, मगर आँख नहीं उठा सके. "तो फिर क्या सरकार ने या शायद बरतानिया के बादशाह ने यह कहानियाँ पढ़ी जो उन्हें मुकददमा चलाने की सूझी?" "असलम साहब ये तो सच है कि कुछ साहित्यकारों, आलोचकों और भद्रजनों ने सरकार का ध्यान इस तरफ खींचा कि यह किताबें अनैतिकता फैलाने वाली हैं, उन्हें जब्त कर लिया जाये." शाहिद साहब धीरे-से बोले. "अगल अश्लील लेखन पर प्रतिबन्ध न लगाया गया तो क्या इनको सिर पर रखा जाये." असलम साहब फट पड़े. शाहिद साहब कुछ अचकचा गये. "तब तो हम सजा के ही हक़दार हैं." मैंने कहा. "फिर वही कठबहसी!"
"नहीं असलम साहब. यह भी कोई बात हुई कि जुर्म किया, शरीफ इंसान गुमराह हुए और माफी माँग के साफ निकल गये. मैंने अगर जुर्म किया है और वह साबित हो जाता है तो सिर्फ सजा ही मेरे ज़मीर (अन्तरात्मा) को शान्ति दे सकती है." मैंने व्यंग्य से नहीं, सच्चे दिल से कहा.
"हठधर्मी न करो, माफी माँग लो." "सजा हुई तो क्या होगा, जुर्माना." "साथ में बदनामी होगी." "अरे बदनामी तो हो चुकी. अब क्या कसर बाकी है. यह मुकदमा तो कुछ भी नहीं. जुर्माना कितना होगा?" मैंने पूछा. "अरे यही कोई दो-तीन सौ!" शाहिद साहब बोले. "पाँच सौ भी हो सकता है." असलम साहब ने डराया. "ब...स?" "बहुत रुपया आ गया है?" असलम साहब चिढ़ गये. "आपकी दुआ है और अगर न भी होता तो क्या आप मुझे जेल जाने से बचाने के लिए पाँच सौ न देंगे. आपकी गिनती तो लाहौर के रईसों में होती है." "जुबान बहुत चलती है." "मेरी अम्मा को भी यही शिकायत थी. कहती थीं... बस जेब चलैय्यु, रोटी खैय्यु." बात हँसी में टल गयी. मगर थोड़ी देर बाद फिर वही बात कि माफी माँग लो. जी चाहा अपना और उनका सिर फोड़ लूँ. मगर दम घोटे बैठी रही. "फिर एकदम बात बदलकर बोले, "तुमने "दोज़खी" क्यों लिखा." मेरे दिमाग में एक धमका-सा हुआ. "तुम कैसी बहन हो कि तुमने अपने सगे भाई को दोज़खी (नारकीय दंड भोगने वाला) लिखा." "वह दोज़खी थे या जन्नती (स्वर्ग में जाने वाला), मेरा जो जी चाहा, मैंने लिखा. आप कौन होते हैं." "वह मेरा दोस्त था." "वह मेरा भाई था." "लानत है ऐसी बहन पर!"
मैंने आज तक नहीं बताया कि मैंने 'दोज़खी' लिखा था तो मेरे ऊपर क्या बीती थी. मैं खुद किस 'दोज़खी' के शोलों से गुज़री थी. मेरा क्या कुछ नहीं जलकर राख हुआ था. रात के दो बजे थे जब मैंने यह लेख खत्म किया था. कैसी डरावनी रात थी. समुन्दर घर की सीढ़ियों तक चढ़ आया था. जब तक अहाते की दीवार नहीं बनी थी. मुझ पर अजीब पागलपन-सा छाया रहा था. जो कुछ मैंने लिखा था, वह चारों तरफ सिनेमा की रील की तरह चल रहा था. मैंने लैंप बुझाया तो दम घुटने लगा. जल्दी से फिर जला दिया. अँधेरे में डर लग रहा था. मुझे वह कब्र याद आ रही थी. जिसे देखकर आने के बाद मैं महीनों अकेले कमरे में नहीं सो पाती थी. अकेले पलंग पर मुझे डर लगता था. मैं अपने साथ अपनी छोटी-सी खालाज़ाद (मौसेरी) बहन को सुलाने लगी थी. जोधपुर से मुझे डर लगने लगा था. इसलिए बम्बई भाग आयी. दस मीनारों में से एक ढह गया था. इस शून्य को कौन नाप सकता था.
मैंने कोई जवाब नहीं दिया. कमरे में जाकर अपना बक्स बन्द किया और सुल्ताना को फोन किया कि फौरन आ जाओ और मुझे जबरदस्ती ले जाओ. अगर असलम साहब रोकें तो बुरा मानकर खूब बिगड़ना. सुल्ताना ने पूछा, "क्या बात है, मैं पाँच बजे छुट्टी होते ही पहुँचूँगी." "तब तक एकाध खून हो जायेगा. तुम फौरन आओ." सुल्ताना आ गयी. मगर असलम साहब ने कह दिया कि मैं नहीं जा सकती. सुल्ताना ज़िद करती जाती थी. और मैं इस ड्रामे पर हँस-हँस कर बेहाल हुई जा रही थी. मैं सुल्ताना के साथ भागी. पेशी के दिन हम कोर्ट में हाज़िर हुए. और वो गवाह पेश हुए जिन्हें ये साबित करना था कि मंटो की कहानी 'बू' और मेरी कहानी 'लिहाफ' अश्लील हैं. मेरे वकील ने मुझे समझा दिया था कि जब तक मुझसे सीधे न सवाल किये जायें मैं मुँह न खोलूँ. वकील जो मुनासिब समझेगा, कहेगा. पहले 'बू' का नम्बर आया.
"यह कहानी अश्लील है?" मंटो के वकील ने पूछा. "जी हाँ." गवाह बोला. "किस शब्द में आपको मालूम हुआ कि अश्लील है?" गवाह: शब्द "छाती!" वकील: माई लार्ड, शब्द "छाती" अश्लील नहीं है. जज: दुरुस्त! वकील: शब्द "छाती" अश्लील नहीं. गवाह: "नहीं, मगर यहाँ लेखक ने औरत के सीने को छाती कहा है." मंटो एकदम से खड़ा हो गया, और बोला "औरत के सीने को छाती न कहूँ तो मूँगफली कहूँ." कोर्ट में क़हक़हा लगा और मंटो हँसने लगा. "अगर अभियुक्त ने फिर इस तरह का छिछोरा मज़ाक किया तो कंटेम्पट ऑफ कोर्ट के जुर्म में बाहर निकाल दिया जायेगा. या फिर सज़ा दी जायेगी." मंटो को उसके वकील ने चुपके-चुपके समझाया और वह समझ गया. बहस चलती रही और घूम-फिरकर गवाहों को बस एक "छाती" मिलता था जो अश्लील साबित हो पाता था. "शब्द "छाती" अश्लील है, घुटना या केहुनी क्यों अश्लील नहीं है?" मैंने मंटो से पूछा. "बकवास" मंटो फिर भड़क उठा.
बहस चलती रही. हम लोग उठकर बरामदे में डगर-मगर करती बेंचो पर जा बैठे. अहमद नदीम कासमी एक टोकरा माल्टे लाये थे. उन्होंने माल्टे खाने की अद्भुत तरकीब बताई. माल्टे को आम की तरह पुलपुला कर छोटा-सा सुराख कर लो और मजे से चूसो. टोकरा भर माल्टे हम बैठे-बैठे चूस गये. माल्टों से पेट भरने के बजाय और तेज़ भूख जाग उठी. लंच ब्रेक में किसी होटल पर धावा बोल दिया. सीमा की पैदाइश के सिलसिले में मैं बहुत बीमार रही थी. सारी चर्बी छंट गयी थी. इसलिए रोग़न वाले खाने से परहेज नहीं रहा. मुर्गी इतनी हृष्ट-पुष्ट थी कि बिल्कुल गिद्ध या चील के टुकड़े लग रहे थे. मोटी-मोटी काली मिर्च छिड़क कर गर्म-गर्म कुचलों के साथ और पानी की जगह कन्धारी अनार का रस. बे अख्तियारी से मुकददमा चलाने वालों के लिए दुआएँ निकल रही थीं. शाम को लुकमान ने कुछ साहित्यकारों और कवियों को दावत दी थी. वहाँ पहली बार मेरी मुलाकात मिसेज हिजाब इम्तेयाज अली से हुई. खूब मेकअप, आँखों में ढेरों काजल.
"फ्रॉड है." मंटो ने बड़ी-बड़ी आँखें और फैलाकर मेरे कान में कहा. "नहीं वह इस फिज़ा में खोई हुई है जो उस की कलम से सपनीलें धुएँ की तरह निकली है और उसके चारों तरफ एक सतरंगा खोल बना रही है." हिजाब इम्तेयाज अली शून्य में धूरती रही और मैं इम्तेयाज अली को ढूँढ़कर उनसे बातें करने लगी. कितना फर्क था मियाँ-बीवी के मिजाज में. इम्तेयाज साहब एकदम बातूनी, क़हक़हेबाज और खुले दिल के मालिक थे. महफिल गुलज़ार होती थी. ऐसा लगा, बरसों की मुलाकात है. उनकी बातें उनके लेखन से भी ज़्यादा खुशियों से झुमा देने वाली थी. हाल ही में जब पाकिस्तान गयी तो लाहौर में हिजाब इम्तेयाज अली से फिर मिलता हुआ. हल्का-सा मेकअप. पहले से बहुत कमसिन और खिली हुई. बहुत बेतकल्लुफ और बातूनी. जैसे दूसरा ही जन्म लिया हो.
मुझे आरग़नों देखने का बड़ा शौक था जिसका हिजाब की कहानियों में बेहद ज़िक्र होता है. मैंने कभी आरग़नों नहीं देखा था. हिजाब के यहाँ गयी तो उनसे पूछा "क्या आपके पास वाकई आरग़नों है?" "हां देखेंगी?" "ज़रूर, वह शब्द जिसे आपकी कहानियाँ में पढ़कर नशा छाने लगता था. आँखों में, बे-बात आँसू छलक उठते थे." मैंने उन्हें यह भी बताया कि किसी जमाने में आपकी नकल में मैंने भी गद्य-कविता लिखी थी. जो बाद में जला दी. आरग़नों देखकर मेरे सारे जोश और रूमानियत पर ओस पड़ गयी. "अरे ये तो वही बचकाना-सा पियानों का चूज़ा है जो फिल्मी गानों की रिकार्डिंग में डिमैलो बजाया करता है. और रिकार्डिंग उसे अक्सर डांटा करता है. कभी इधर खिसकवाता है कभी उधर...और बैकग्राउंड म्युजिक में...जब हीरोइन बहुत बेचैन होती है तो इसी के सुर उसके दिमागी भूचाल को गीत की शक्ल में पेश करते हैं. आरगन कितना भोंडा नाम है और गै़न (उर्दू अक्षर) के मिला देने से कितना नाजुक, कितना गुनगुनाता हुआ. आसावरी का सुर बन जाता है."
कोर्ट में बड़ी भीड़ थी. कई लोग हमें राय दे चुके थे कि हम माफी माँग लें. वह जुर्माना हमारी तरफ से अदा करने को तैयार थे. मुकदमा कुछ ठंडा पड़ता जा रहा था. 'लिहाफ' को अश्लील साबित करने वाले गवाह हमारे वकील की जिरह से कुछ बौखला से रहे थे. कहानी में कोई शब्द पकड़ के लायक नहीं मिल रहा था. बड़े सोच-विचार के बाद एक साहब ने बताया कि वाक्या "आशिक जमा कर रही थीं" अश्लील है. "कौन-सा शब्द अश्लील है...जमा या आशिक?" वकील ने पूछा. शब्द "आशिक" गवाह ने कुछ हिचकते हुए कहा. "माई लार्ड, शब्द "आशिक" बड़े-बड़े शायरों ने प्रयोग किया है और नातों (मुहम्मद साहब की तारीफ में लिखी कविता) में भी यह शब्द प्रयुक्त हुआ है. इस शब्द को अल्लाह वालों ने बड़ा पवित्र स्थान दिया है." "मगर लड़कियों का आशिक जमा करना बड़ी घटिया बात है" गवाह बोला. "क्यों?" "इसलिए....क्योंकि...यह शरीफ लड़कियों के लिए शर्मनाक है. "जो लड़कियाँ शरीफ नहीं, उनके लिए शर्मनाक नहीं." "...नहीं." "मेरी मुवक्किल ने उन लड़कियों का ज़िक्र किया है जो शरीफ नहीं होगी. क्यों साहिबा, आपके खयाल से गै़र शरीफ लड़कियाँ "आशिक" जमा करती हैं?" "जी हाँ." "उनका ज़िक्र करना अश्लीलता नहीं, मगर एक शरीफ खानदान की पढ़ी-लिखी औरत का उनके बारे में लिखना शर्मनाक है." गवाह साहब जोर से गरजे. "तो शोक से शर्मसारी दिखाइये, मगर यह कानून की पकड़ के क़ाबिल नहीं" मामला बिल्कुल फुसफुसा हो गया. "अगर आप लोग माफी माँग लें तो हम आपका सारा खर्चा भी देगें और..." एक साहब, न जाने कौन थे, चुपके से मेरे पास आकर बोले. "क्यों मंटो साहब माफी माँग लें, जो रुपये मिलेंगे मजे से चीज़ें खरीदेंगे." मैंने मंटो से पूछा. "बकवास" मंटो ने अपनी मोरपंखी आँखें फैलाकर लिखा. "मुझे अफसोस है, यह सिरफिरा मंटो राज़ी नहीं." "मगर आप, अगर आप ही..." "नहीं, आप नहीं जानते, यह आदमी बड़ा बदमाश है. बम्बई में मेरा रहना दूभर कर देगा. इसके गुस्से से वह सज़ा हर हाल में बेहतर होगी जो मुझे मिलने वाली है." वह साहब उदास हो गये क्योंकि हमें सज़ा नहीं मिली. जज साहब ने मुझे कोर्ट पीछे के एक कमरे में बुलाया और बड़े तपाक से बोले, "मैंने आपकी अक्सर कहानियाँ पढ़ी हैं, वह अश्लील नहीं और न ही 'लिहाफ' अश्लील है. मगर मंटो के लेखन में बड़ी गन्दगी भरी है." "दुनिया में भी गन्दगी है." मैं कुनमुनी आवाज़ में बोली. "तो क्या ज़रूरी है कि उसे उछाला जाय." "उछालने से वह नज़र आती है और सफाई की तरफ ध्यान जा सकता है." जज साहब हँस दिये.
न मुकदमा चलने से परेशानी हुई थी, न जीतने की खुशी हुई. बल्कि ग़म ही हुआ कि अब फिर लाहौर की सैर खुदा जाने कब नसीब होगी.
लाहौर कितना सलोना शब्द है... लाहौरी नमक-जैसे नगीनें, गुलाबी और सफेद! जी चाहता है कि तराशकर चन्दनहार में जड़ लूँ और किसी मुटियार की हंस जैसी गर्दन में डाल दूँ. "नम्मी-नम्मी तारियाँ दी लब" सुरिन्दर कौर के गले में लाहौरी नमक के नगीने पिघलकर सुर बन गये हैं. साथ में उसके मियाँ सोढ़ी की आवाज़ में रेशमी कपड़ों की सरसराहट अजीब रस घोल देती है. लाहौर को देखकर सुरेन्द्र और सोढ़ी के सुर दिल में जाकर एक मूक-सी हलचल मचा देते हैं. आप ही आप जी भर आता है. अंजाने, अदृश्य प्रेमी की याद हूक बनकर उठती है. लाहौर की हवा में नूर घुला हुआ है, खामोश घुँघरू जैसे बजते हैं और श्रीमती हिजाब इम्तेयाज अली की कहानियों की नारंगी कलियाँ महकने लगती हैं, और उम्र का वो जमाना याद आ जाता है जब उनके रस में डूबे क्षितिज के स्वाप्निल दृश्यों में खो जाते थे.
फिर जाने क्या हुआ? चार्ल्स डिकेन्स को पढ़ा, डेविड कॉपरफील्ड, ओलिवर ट्विस्ट्, टोनू बंगे! और गोर्की की "माँ" ने आसमान से उठाकर धरती पर पटक दिया. चेखोव, एमली ज़ोला, गोगोल, टॉल्सटॉय, दोस्तोयेव्सकी, मोपासां, ख्वाबों के सारे क़िले अड़-ड-ड़ा-ड धम्म. और मैं फिसलकर उस फूस के बँगले में आन गिरी, जहाँ हम अलीगढ़ में लालडंगी के किनारे रहते थे. यह बँगले कच्ची ईंटों के थे और कील ठोंको तो भुरभुर करके कच्ची मिट्टी बहने लगती थीं. छप्पर में कबूतरों के घौंसले से से बीट टपका करती थी. चमगादड़ें लटकती थीं और कमरों के फर्श कच्चे थे. आँधी चलती थी तो घर में बगूले नाचने लगते. न बिजली थी, न नल. मिश्ती सिर पर लाल झाड़न डालकर पानी भरने आता था. बान के पलंगों पर दरी और मैली खद्दर की चादरें और चीकट तकिये. अम्मा ने बारह गज का फर्शी पायजामा छोड़कर पाँच गज की धोती पहननी शुरू कर दी थी. एक जमाना था जब घर में बीस नौकर थे. जो भी गरीब भूखा-नंगा आता, अम्मा उसे पनाह दे देतीं. फिर पेंशन के बाद अब्बा मियाँ ने किफायत की कैंची चलाई और सिर्फ अलीबख़्श, उसकी बीवी, शेखनी बुआ जो खाना पकाती थी और कोचवान और उसकी बीवी रह गये क्योंकि अब भी दो घोड़े एक भैंस थी.
शायद मिसेज इम्तेयाज अली के शायराना माहोल से मुझे जलन पैदा हो गयी. अपने खानदान में रूमानी माहोल वैसे भी फल-फूल नहीं सकता है और मैंने सोच-विचार के बाद अपनी पहली कहानी 'बचपन' लिखी. घर में सिर्फ "तहज़ीबें-निसवाँ" आता था. मैंने वह कहानी भेज दी. कहानी वापस आ गयी और साथ में इम्तेयाज अली ताज के पिता और "तहज़ीबे-निसवाँ" के सम्पादक मुमताज़ अली साहब का डाँट-फटकार भरा पत्रा. उस कहानी में मैंने अपने और श्रीमती इम्तेयाज अली के बचपन की तुलना की थी. विरोध का बिंदु यह था कि मुझे क़िरत में (लयबद्ध) कुरआन शरीफ पढ़ाने के लिए मोलवी साहब की मार पड़ी थी, कंठ से "एैन" (उर्दू वर्ण) साफ नहीं निकलता था. ज्यादा कोशिश करने पर उल्टी हो जाती थी. उन्होंने लिखा कि मैंने क़िरत का मज़ाक उड़ाकर अपनी अधार्मिकता का सबूत दिया था.
यह लेख, बाद में मेरी कहानियाँ छपने लगीं, तब 'साफी' में छपा और पसन्द किया गया. मुझे अज़ीम भाई की रोमांटिक छेड़-छाड़ से भरी कहानियों से भी चिढ़ लगने लगी. वह झूठी थीं, उनमें उनकी व्यक्तिगत ज़िन्दगी की पीड़ा का अक्स भी न था. वह दूसरे भाइयों की शोखी, शरारत और ज़िंदादिली को अपना बना कर लिखते थे. मेरी ये हालत थी कि खिसयानी बिल्ली खम्भा-खसोटे. सच बोलने पर हमेशा मेरी मिट्टी-पलीद की जाती थी. लेकिन जब बात अब्बा मियाँ तक जाती तो वह फैसला मेरे हक़ में करते, बड़ी आपा जो उन्नीस बरस की उम्र में विधवा हो गयी थीं. अलीगढ़ के उच्च वर्ग में खासतौर पर ख्वाजा परिवार से बहुत प्रभावित थीं. और ख्वाजा परिवार की औरतों से मेरी पलभर भी न पटी. मैं सिरफिरी, बड़बोली, मुँहफट, बदतमीज़ थी. मुझ पर पर्दा लागू हो चुका था. मगर जुबान नंगी तलवार, किसी के बस में नहीं.
मेरे इर्द-गिर्द धोखा रचा हुआ नज़र आता था. देखने में शर्मिली और इज्जतदार बेटियाँ छुपकर गुसलखानों (नहान घर) और अँधेरे कोनो में रिश्तेदार नौजवानों से छीन-झपट और चूमा-चाटी करती थीं और बड़ी शरीफ कहलाती थी. मुझ जैसे बे-नथे बैल में कौन लड़का दिलचस्पी लेता. मैंने इतना कुछ पढ़ा था कि अगर बहस छिड़ जाती तो मैं इन नौजवानों को धोंसा लेती, जो किताब की सूरत से भी काँपते थे और सिर्फ मर्द होने के नाते खुद को ऊँचा आंकते थे.
फिर मैंने चोरी-छिपे "अंगारे" पढ़ी. रशीद आपा (प्रख्यात प्रगतिशील लेखिका डॉ. रशीद जहाँ) ही मुझे एक ऐसा व्यक्तित्व नज़र आया, जिन्होंने मुझ में आत्मविश्वास जगाया. मैंने उन्हें अपना गुरु मान लिया. अलीगढ़ की छोटी ज़हर घुली फिज़ा में वह बड़ी बदनाम थी. मेरी साफगोई को उन्होंने सराहा और फिर मैंने उनकी बतायी हुई किताबें चाट डालीं. फिर मैंने लिखना शुरू किया और मेरा ड्रामा "फसादी" में छपा. उनके बाद और कहानियाँ लिख लीं और कहानी रद्द नहीं हुई. एकदम मुझ पर ऐतराज होने लगे. लेकिन पत्रिकाओं से मेरी कहानियों की माँग बढ़ने लगी. मैंने विरोध की कोई परवाह नहीं की. मगर मैंने जब ‘लिहाफ' लिखा तो बम फूट पड़ा. साहित्यिक अखाड़े में मेरे पुर्जे उड़े. मेरे समर्थन में भी कलम उठाई गयी.
उस दिन से मुझे अश्लील लेखिका का नाम दे दिया गया. ‘लिहाफ' से पहले और ‘लिहाफ' के बाद मैंने जो कुछ लिखा किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया. मैं सेक्स पर लिखने वाली अश्लील लेखिका मान ली गयी. ये तो अभी कुछ वर्षों से युवा पाठकों ने मुझे बताया कि मैंने अश्लील साहित्य नहीं, यथार्थ साहित्य दिया है. मैं खुश हूँ कि जीते-जी मुझे समझने वाले पैदा हो गये. मंटो को तो पागल बना दिया गया. प्रगतिशीलों ने भी उस का साथ न दिया. मुझे प्रगतिशीलों ने ठुकराया नहीं और न ही सिर चढ़ाया. मंटो खाक में मिल गया क्योंकि पाकिस्तान में वह कंगाल था. मैं बहुत खुश और सन्तुष्ट थी, फिल्मों से हमारी बहुत अच्छी आमदनी थी और साहित्यिक मौत या ज़िन्दगी की परवाह नहीं थी. और वैसे में प्रगतिशीलों की चमची बनी हुई थी, बड़े ज़ोर-शोर से क्रान्ति ला रही थी.
‘लिहाफ' का लेबल अब भी मेरी हस्ती पर चिपका हुआ है जिसे लोग प्रसिद्धि कहते हैं, वह बदनामी के रूप में इस कहानी पर इतनी मिली कि उल्टी आने लगी. ‘लिहाफ' मेरी चिढ़ बन गया. जब मैंने 'टेढ़ी लकीर' लिखी और शाहिद अहमद देहलवी को भेजी, तो उन्होंने मुहम्मद हसन असकरी को पढ़ने को दी. उन्होंने मुझे राय दी कि मैं अपने उपन्यास की हीरोइन को ‘लिहाफ' ट्रेड का बना दूँ मारे गुस्सा के मेरा खून खौल उठा. मैंने वह उपन्यास वापस मँगवा लिया. हालाँकि किताबत शुरू हो गयी थी. यह उपन्यास मैंने नजीर अहमद को दे दी. जब लाहौर हिन्दुस्तान का एक शहर था.
‘लिहाफ' ने मुझे बहुत जूते खिलाये थे. इस कहानी पर मेरी और शाहिद की इतनी लड़ाइयाँ हुईं कि ज़िन्दगी युद्धभूमि बन गयी. मगर मुझे ‘लिहाफ' की बड़ी कीमत मिली. सारी कोफ़्त मिट गयीं. बहुत दिन बाद अलीगढ़ गयी, वह बेगम जिन पर मैंने कहानी लिखी थी, उनके खयाल से मेरे रोंगटे खड़े होने लगे. लोगों ने उन्हें बता दिया था कि ‘लिहाफ' उन पर लिखी गयी है. एक दावत में उनसे सामना हो गया. मेरे पैरों तले से ज़मीन खिसक गयी, उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी तरफ देखा और फूल की तरह खिल उठी. भीड़ चीरती हुई लपकीं और मुझे गले लगाया. मुझे एक तरफ ले गयी. और बोलीं..."पता है, मैंने तलाक लेकर दूसरी शादी कर ली है. माशा अल्लाह मेरा चाँद-सा बेटा है." और मेरा जी चाहा किसी से लिपट कर ज़ोर-ज़ोर से रोऊँ. आँसू रोके न रुके, मगर वे कहकहे लगा रही थी. उन्होंने मेरी शानदार दावत की. मैं मालामल हो गयी. उनका फूल-सा बच्चा देखकर मुझे ऐसा लगा, वह मेरा भी कोई है, मेरे दिमाग़ का टुकड़ा, मेरे मस्तिष्क की जीती जागती सन्तान, मेरी कलम का बच्चा! और मैंने जान लिया कि चट्टान में भी फूल खिल सकते हैं. दिल के खून से सींचने की शर्त है.
चलते-चलते बस एक बात और...
एक साहब से मैंने पूछा, "लिहाफ अनैतिकता फैलाने वाला है?" "एकदम!" वह साहब बोले. "वह क्या है?" मैंने पूछा. "इस कहानी को पढ़कर काम-भावना पैदा होती है." "अय हय, क्या लिहाफ ओढ़ने को जी चाहता है?" "नहीं, असल में बेगम बहुत सेक्सी हैं जालिम बला की सुन्दर है, ख़ुशबू में डूबी हुई. साँचे में ढला बदन, गर्म-गर्म होंठ, नशीली आँखें बस दहकता शोला, छलकता जाम है." "तो फिर?" "शैतान उकसाता है." "क्या कहता है शैतान?" "कि...कि उसके साथ..." "शैतान बड़ा अक्लमन्द है. यही तो मैं चाहती थी कि कोई माई का लाल उसे रब्बू चुड़ैल के जंगल में आज़ाद करके अपने धड़कते हुए सीने से लगाकर, उस बदनसीब हसीना के जन्म-जन्म की प्यास बुझा दे. प्यासी चिड़िया को पानी पिलाना बहुत बड़ा शबाब है." "बेगम का पता क्या है?" वह साहब मुस्कुराये. "आप बड़ी देर से पैदा हुए. वह तो अब अल्लाह की मेहरबानी से दादी बन गयी हैं. बरसों हुए एक शहजादा उन्हें काले देव के जादुई महल से आज़ाद करके ज़िन्दगी की बहारों से भरी फुलवारी में ले उड़ा." दूर किसी फ्लैट में नैयरा नूर 'फैज' की नज़्म गा रही थी...
"उन ब्याहताओं के नाम जिन के बदन बे-मुहब्बत, रियाकार (फरेबी) सेजों पर सब-सजकर उक्ता गये हैं."
और मैं सोचने लगी. कहाँ है भारत की वह महान नारी, वह पवित्रता की देवी सीता, जिस के कमल जैसे नाजुक पैरों ने आग के शोलों को ठंडा कर दिया. और मीराँबाई जिसने बढ़कर भगवान के गले में बाहें डाल दीं. वह सती सावित्री जिसने यमदूत से अपने सत्यवान की जीवन-ज्योत छीन ली. रज़िया सुल्ताना जिसने बड़े-बड़े शहंशाहों को ठुकराकर एक हब्शी गुलाम को अपने मन-मन्दिर का देवता बनाया. वह आज लिहाफ में दुबकी पड़ी है या फोर्स रोड पर धूल और खून की होली खेल रही थी.

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