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जब आतिशफिशां पहाड़ फटता है तो लावा वादी की गोद में उतर आता है

'इस्मत आपा वाला हफ्ता' में आज पढ़िए कहानी 'बिच्छू फूफी'

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आशीष मिश्रा
12 अगस्त 2016 (Updated: 12 अगस्त 2016, 10:56 AM IST) कॉमेंट्स
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biccho fufi101 साल पहले, इस्मत आपा का जन्म हुआ था. बदायूं में. उत्तरप्रदेश में पड़ती है ये जगह. अभी जन्मदिन आने को है. मुल्क आजाद हुआ था उससे ठीक 32 साल पहले पैदा हुईं थीं. तारीख वही 15 अगस्त. उर्दू की सबसे कंट्रोवर्शिअल और सबसे फेमस राइटर हुई हैं, हमने तय किया कि जन्मदिन के मौके पर उनकी कहानियां पढ़ाएंगे. हिंदी में. पूरे हफ्ते. क्योंकि इस्मत आपा वाला हफ्ता है ये. आज पढ़िए इस्मत चुगताई की कहानी ‘बिच्छू फूफी’कहानियां हम आपको वाणी प्रकाशन के सौजन्य से पढ़ा पा रहे हैं. सहयोग उनका है. उनने उपलब्ध कराई हैं. किताब मंगाने हैं तो डीटेल्स ये रहीं.बिच्छू फूफी ISBN: 978-93-5000-963-5 इस्मत चुगताई पेज :96 मूल्य: 125/- जब पहली बार मैंने उन्हें देखा तो वह रहमान भाई के पहले मंज़िले की खिड़की में बैठी लम्बी-लम्बी गालियां और कोसने दे रही थीं. यह खिड़की हमारे सहन में खुलती थी और कानूनन उसे बन्द रखा जाता था, क्योंकि पर्देवाली बीवियों का सामना होने का डर था. रहमान भाई रण्डियों के जमादार थे. कोई शादी, ब्याह, ख़तना, बिस्मिल्लाह की रस्म होती, रहमान भाई औने-पौने उन रण्डियों को बुला देते और ग़रीब के घर में भी वहीद जान, मुश्तरी बाई और अनवरी कहरवा नाच जातीं. मगर मुहल्ले-टोले की लड़कियां-बालियां उनकी नज़र में अपनी सगी मां-बहनें थीं. उनके छोटे भाई बुन्दू और गेंदा आए दिन ताक-झांक के सिलसिले में सर-फुटव्वल किया करते थे. वैसे रहमान भाई मुहल्ले की नज़रों में कोई अच्छी हैसियत नहीं रखते थे. उन्होंने अपनी बीवी की ज़िन्दगी ही में अपनी साली से जोड़-तोड़ कर लिया था. उस यमीम साली का सिवाए उस बहन के और कोई मरा-जीता न था. बहन के हाल पड़ी थी; उसके बच्चे पालती थी. बस दूध पिलाने की कसर थी, बाकी सार गू-मूत वही करती थी.
और फिर किसी नकचढ़ी ने उसे बहन के बच्चे के मुंह में एक दिन छाती देते देख लिया. भांडा फूट गया और पता चला कि बच्चों में आधे बिल्कुल खाला की सूरत पर हैं. घर में रहमान की दुल्हिन चाहे बहन की दुर्गत बनाती हों, पर कभी पंचों में इकरार न किया. यही कहा करती थीं, ‘‘जो कुंवारी को कहेगा उसके दीदे घुटनों के आगे आएंगे.’’ हां, वर की तलाश में हरदम सूख करती थीं, पर उस कीड़े-भरे कबाब को कहां जुड़ता? एक आंख में ये बड़ी कौड़ी-सी फुल्ली थी, पैर भी एक ज़रा छोटा था, कूल्हा दबाकर चलती थी.
सारे मुहल्ले से एक अजीब तरह का बॉयकाट हो चुका था. लोग, रहमान भाई से काम पड़ता तो, धौंस जमाकर कह देते, ‘‘मुहल्ले में रहने की इजाज़त दे रखी थी, यही क्या कम इनायत थी.’’ रहमान उसी उसी को अपनी इज़्ज़त-अफ़ज़ाई समझते थे. यही वजह थी कि वह हमेशा रहमान भाई की खिड़की में बैठकर तूल-तवील गालियां दिया करती थी. क्योंकि बाक़ी मुहल्ले के लोग अब्बा से दबते थे. मजिस्ट्रेट से कौन बैर मोल ले! उस दिन पहली दफ़ा मुझे मालूम हुआ कि हमारी इकलौती सगी फूफी बादशाही ख़ानम हैं और ये लम्बी-लम्बी गालियां हमारे ख़ानदान को दी जा रही हैं! अम्मां का चेहरा फक था और वह अन्दर कमरे में सहमी बैठी थीं, जैसे बिच्छू फूफी की आवाज़ उन पर बिजली बनकर टूट पड़ेगी. छटे-छमाहे इसी तरह बादशाही ख़ानम रहमान भाई की खिड़की में बैठकर हुंकारतीं. अब्बा मियां उनसे ज़रा-सी आड़ लेकर मज़े से आरामकुर्सी पर दराज़ अखबार पढ़ते रहते और मोतिया महल पर किसी लड़के-बाले के ज़रिए कोई ऐसी बात जवाब में कह देते कि फूफी बादशाही फरिश्ता-बयां छोड़ने लगतीं. लोग सब खेल-कूद, पढ़ना-लिखना छोड़कर सहन में गुच्छा बनाकर खड़े हो जाते और मुड़-मुड़कर अपनी प्यारी फूफी के कोसने सुना करते. जिस खिड़की में वह बैठी थीं, उनके तूल-तवील जिस्म से लबालब भरी हुई थी. अब्बा मियां से इतनी हमशक्ल थीं जैसे वही मूंछें उतारकर दुपट्टा ओढ़कर बैठ गए हों और बावजूद कोसने और गालियां सुनने के, हम लोग बड़े इत्मीनान से उन्हें तका करते थे. साढ़े पांच फुट का कद, चार अंगुल चौड़ी कलाई, शेर का-सा कल्ला, सफ़ेद बगुला बाल, बड़ा-सा दहाना, बड़े-बड़े दांत, भारी-सी ठोढ़ी! और आवाज़ तो माशाअल्लाह मियां से एक-सुर नीची ही होगी. फूफी बादशाही हमेशा सफ़ेद कपड़े पहना करती थीं. जिस दिन फूफा मसूद अली ने मेहतरानी के संग कुलेलें करनी शुरू कीं, फूफी ने बट्टे से सारी चूड़ियां छना-छन तोड़ डालीं. रंगा दुपट्टा उतार दिया और उस दिन से वह उन्हें ‘मरहूम’ या ‘मरनेवाला’ कहा करती थीं. मेहतरानी को छूने के बाद उन्होंने वो हाथ-पैर अपने जिस्म को न लगने दिए.
ये सानेहा ख़ासी जवानी में हुआ था और वह तब से ‘रंडापा’ झेल रही थीं. हमारे फूफा हमारी अम्मा के चचा भी थे! वैसे तो न जाने क्या घपला था, मेरे अब्बा मेरी अम्मा के चचा लगते थे और शादी से पहले जब वह छोटी-सी थीं तो मेरे अब्बा को देखकर उनका पेशाब निकल जाता था और जब उन्हें यह मालूम हुआ कि उनकी मंगनी इसी भयानक देव से होनेवाली है, तो उन्होंने अपनी दादी यानी अब्बा की फूफी की पिटारी से अफ़ीम चुराकर खा ली थी. अफ़ीम ज़्यादा नहीं थी और वह कुछ दिन लोट-पोटकर अच्छी हो गईं. उन दिनों अब्बा अलीगढ़ कालिज में पढ़ते थे. उनकी बीमारी की ख़बर सुनकर इम्तहान छोड़कर भागे. बड़ी मुश्किल से हमारे नाना, जो अब्बा के फूफीज़ाद भाई भी थे और बुज़ुर्ग दोस्त भी, उन्होंने समझा-बुझाकर वापस इम्तहान देने भेजा था. जितनी देर वह रहे, भूखे-प्यासे टहलते रहे. अधखुली आंखों से मेरी अम्मां ने उनका चौड़ा-चकला साया पर्दे के पीछे बेक़रारी से तड़पते देखा.
‘‘उमराव भाई! अगर उन्हें कुछ हो गया तो...’’ देव की आवाज़ लरज रही थी. नाना मियां खूब हंसे. ‘‘नहीं बिरादर, ख़ातिर जमा रखो, कुछ न होगा.’’ ‘‘उस वक़्त मेरी मुन्नी-सी मां एकदम औरत बन गई थीं. उनके दिल से एकदम देवज़ाद इंसान का खौफ़ निकल गया था. जभी तो मेरी फूफी बादशाही कहती थीं, मेरी अम्मां जादूगरनी हैं और उनका तो मेरे भाई से शादी से पहले ताल्लुक होकर पेट गिरा था. मेरी अम्मां अपने जवान बच्चों के सामने जब ये गालियां सुनतीं तो ऐसी लबोर-लबोरकर रोतीं कि हमें उनकी मार फ़रामोश हो जाती और प्यार आने लगता. मगर ये गालियां सुनकर अब्बा की गम्भीर आंखों में परियां नाचने लगतीं. वह बड़े प्यार से नन्हें भाई के ज़रिए कहलवाते. ‘‘क्या फूफी, आज क्या खाया है?’’ ‘‘तेरी मैया का कलेजा.’’ इस बेतुके जवाब से फूफी जलकर मरिन्दा हो जातीं! अब्बा फिर जवाब दिलवाते- ‘‘अरे फूफी, जभी मुंह में बवासीर हो गई है, जुल्लाब लो जुल्लाब!’’ वह मेरे नौजवान भाई की मचमचाती लाश पर कौवों, चीलों को दावत देने लगतीं. उनकी दुल्हिन को, जो न जाने बेचारी इस वक़्त कहां बैठी अपने ख़याली दूल्हा के इश्क में लरज़ रही होगी, रंडापे की दुआएं देतीं और मेरी अम्मां कानों में उंगलियां देकर बड़बड़ातीं, ‘‘जल तू जलाल तू, आई बला को टाल तू.’’ अब्बा फिर उकसाते और नन्हे भाई पूछते. ‘‘फूफी बादशाही, मेहतरानी फूफी का मिज़ाज तो अच्छा है?’’ और हमें डर लगता है कि कहीं फूफी खिड़की में से फांद न पड़ें. ‘‘अरे जा संपोलिए, मेरे मुंह न लग, नहीं तो जूती से मुंह मसल दूंगी. ये बुड्ढा अन्दर बैठा क्या लौंडों को सिखा रहा है. मुग़ल बच्चा है तो सामने आकर बात करे.’’ ‘‘रहमान भाई, ए रहमान भाई, इस बौरानी कुतिया को संखिया क्यों नहीं खिलाते?’’ अब्बा के सिखाने पर नन्हे भाई डरते हुए बोलते! हालांकि उन्हें डरने की कोई ज़रूरत तो न थी, क्योंकि सब जानते थे कि आवाज़ उनकी है मगर अलफ़ाज़ अब्बा मियां के हैं. लिहाजा गुनाह नन्हें भाई की जान पर नहीं. मगर फिर भी बिल्कुल अब्बा की शक्ल की फूफी की शान में कुछ कहते हुए उन्हें पसीने आ जाते थे. कितना ज़मीनो-आसमान का फ़र्क़ था हमारे ददिहाल और ननिहालवालों में! ननिहाल हकीमों की गली में थी और ददिहाल गाड़ी बानों कटहड़े में. ननिहालवाले सलीम चिश्ती के ख़ानदान से थे, जिन्हें मुग़ल बादशाह ने मुर्शिद का मर्तबा देकर निजात का रास्ता पहचाना. हिन्दुस्तान में बसे उसे अरसा गुज़र चुका था, रंगत संवला चुकी थी. नकूश नरम पड़ चुके थे, मिजाज़ ठण्डे हो गए थे. ददिहालवाले बाहर से सबसे आखि़री खेप में आनेवालों में से थे. ज़हनी तौर पर अभी तक घोड़ों पर सवार मंज़िलें मार रहे थे. ख़ून में लावा दहक रहा था. खड़े-खड़े तलवार-जैसे नकूश, लाल फिरंगियों-जैसे मुंह, गोरिल्लों-जैसी कद्दो-कामत, शेरों-जैसी गरजदार आवाज़ें, शहतीर-जैसे हाथ-पांव. और ननिहालवाले, नज़ुक हाथ-पैरोंवाले, शायराना तबीयत के, धीमी आवाज़ में बोलने के आदी, ज़्यादातर हकीम, आलिम और मौलवी थे. जभी मुहल्ले का नाम हकीमों गली पड़ गया था. कुछ कारोबार में भी हिस्सा लेने लगे थे. शालबाफ़, ज़रदोज़ और अत्तार वग़ैरह बन चुके थे. हालांकि मेरी ददिहालवाले ऐसे लोगों को कुंजड़े-कसाई ही कहा करते थे, क्योंकि वे ख़ुद ज़्यादातर फ़ौज में थे. वैसे मार-धाड़ का शौक अभी तक नहीं हुआ था. कुश्ती, पहलवानी, तैराकी में नाम पैदा करना, पंजा लड़ाना, तलवार और पट्टे के हाथ दिखाना और चौसर-पचीसी को, जो मेरी ननिहाल के मरगूबतरीन खेल थे, हींजड़ों के खेल समझते थे.
कहते हैं जब आतिशफिशां (ज्वालामुखी) पहाड़ फटता है तो लावा वादी की गोद में उतर आता है, शायद यही वजह थी कि मेरे ददिहालवाले ननिहालवालों की तरफ खुद-ब-खुद खिंचकर आ गए. यह मल कब और किसने शुरू किया, सब शजरे (वंश-वृक्ष) में लिखा है, मगर मुझे ठीक से याद नहीं. मेरे दादा हिन्दुस्तान में पैदा नहीं हुए थे. दादियां भी उसी ख़ानदान से ताल्लुक रखती थीं, मगर एक छोटी-सी बहन बिन-ब्याही थी; न जाने क्योंकर वह शेख़ों में ब्याह दी गई. शायद मेरी अम्मा के दाद ने मेरे दाद पर कोई जादू कर दिया कि उन्होंने अपनी बहन, बकौल फूफी बादशाही, कुंजड़ों-कसाइयों में दे दी. अपने ‘मरहूम’ शौहर को गालियां देते वक़्त वह हमेशा अपने बाप को कब्र में चैन न मिलने की बद्दुआएं दिया करतीं, जिन्होंने चुग़ताई ख़ानदान की मिट्टी पलीद कर दी.
मेरी फूफी के तीन भाई थे-मेरे ताया, मेरे अब्बा मियां और मेरे चाचा. दो उनसे बड़े थे और चचा सबसे छोटे थे. तीन भाइयों की एक लाड़ली बहन हमेशा की नखरीली और तुनकमिजाज थी. वह हमेशा तीनों पर रोब जमाती और लाड़ करवाती. बिल्कुल लौंडों की तरह पलीं. शाहसवारी, तीनअन्दाज़ी और तलवार चलाने की भी ख़ास मश्क थी. वैसे तो फैल-फालकर ढेर मालूम होती थीं, मगर पहलवानों की तरह सीना तानकर चलती थीं-सीना था भी चार औरतों जितना. अब्बा मज़ाक में अम्मां को छेड़ा करते- ‘‘बेगम, बादशाही से कुश्ती लड़ोगी?’’ ‘‘उई, तौबा मेरी!’’ आलिम फ़ाज़िल बाप की बेटी, मेरी अम्मां कान पर हाथ धरकर कहतीं. मगर वह नन्हें भाई से फौरन फूफी को चैलेंज भिजवाते. ‘‘फूफी, हमारी अम्मा से कुश्ती लड़ोगी?’’ ‘‘हां-हां बुला अपनी अम्मां को, जा जाइए खम ठोककर. अरे उल्लू न बना दूं तो मिर्ज़ा करीम बेग की औलाद नहीं. बाप का नत्फ़ा है तो बुला, बुला मुल्लाज़ादी को...’’ और मेरी अम्मां अपना लखनऊ का बड़े पांयचों का पायजामा समेटकर कोने में दुबक जातीं. ‘‘फूफी बादशाही, दादा मियां गंवार थे न! बड़े नानाजान उन्हें आमदनामा पढ़ाया करते थे.’’ हमारे पड़नाना के दादाजान ने कभी दादा मियां को कुछ पढ़ा दिया होगा. अब्बा मियां छेड़ने को बात तोड़-मोड़कर कहलवाते. ‘‘अरे वो इस्तिजे का ढेला क्या मेरे बाबा को पढ़ाता, मुजावर कहीं का! हमारे टुकड़ों पर पलता था.’’ यह सलीम चिश्ती और अकबर बादशाह के रिश्ते से हिसाब लगाया जाता. हम लोग, यानी चुग़ताई अकबर बादशाह के ख़ानदान से थे, जिन्होंने मेरी ननिहाल के सलीम चिश्ती को पीर व मुर्शिद कहा था, मगर फूफी कहतीं, ‘‘खाक पीर व मुरशिद की दुम! मुजावर थे मुजावर! तीन भाई थे मगर तीनों से लड़ाई हो चुकी थी और वह गुस्सा होतीं तो तीनों की धज्जियां बिखेर देतीं. बड़े भाई बड़े अल्लाहवाले थे, उन्हें फ़कीर और भिखमंगा कहतीं. हमारे अब्बा गवर्नमेंट सर्विस में थे, उन्हें गद्दार और अंग्रेजों का ग़ुलाम कहतीं. क्योंकि मुग़लशाही अंग्रेजों ने खत्म कर डाली, वर्ना आज ‘मरहूम’ पतली दाल के खानेवाले जुलाहे यानी मेरे फूफा के बजाय वह लालकिले में जेबुन्निसा की तरह अर्क गुलाब में गुसल फर्माकर किसी मुल्क के शहंशाह की मलका बनी बैठी होतीं. तीसरे, यानी चाचा बड़े दस नम्बर के बदमाशों में थे और सिपाही डरता-डरता मजिस्ट्रेट भाई के घर उनकी हाज़िरी लेने आया करता था. उन्होंने कई क़त्ल किए थे, डाके डाले थे, शराब और रण्डीबाज़ी में अपनी मिसाल आप थे. वह उन्हें डाकू कहा करती थीं, जो उनके करेक्टर को देखते हुए क़तई फुसफुसा लफ़्ज़ था.
मगर जब वह अपने ‘मरहूम’ शौहर से गुस्सा होतीं तो कहा करतीं, ‘‘मुंहजले निगोड़ी, नाहटी नहीं हूं. अगर छोटा सुन ले तो पल-भर में अंतड़ियां निकाल के हाथ में थमा दे, डाकू है डाकू...उससे बच गया तो मंझला मजिस्ट्रेट तुझे जेल में सड़ा देगा, सारी उमर चक्कियां पिसवाएगा और उससे भी बच गया है तो अल्लाहवाला है, तेरी आक़बत ख़ाक में मिला देगा. देख, मुग़ल बच्ची हूं, तेरी अम्मां की तरह शेखानी-फतानी नहीं.’’ मगर मेरे फूफा अच्छी तरह जानते थे कि तीनों भाई उन्हीं पर रहम खाते हैं और वे बैठे मुस्कराते रहते हैं. वही मीठी-मीठी ज़हरीली मुस्कराहट, जिसके ज़रिए मेरे ननिहालवाले ददिहालवालों को बरसों से जला रहे हैं.
हर ईद-बकरीद को मेरे अब्बा मियां बेटों को लाकर ईदगाह से सीधे फूफी अम्मां के यहां कोसने और गालियां सुनने जाया करते. वह फौरन पर्दा कर लेतीं और कोठरी में से मेरी जादूगरनी मां और डाकू मामूं को कोसने लगतीं. नौकर को बुलाकर सेवइयां भिजवातीं, मगर कहतीं, ‘‘पड़ोसन ने भेजी हैं.’’ ‘‘इनमें ज़हर तो नहीं मिला है?’’ अब्बा छेड़ने को कहते. और फिर सारी ननिहाल के चीथड़े बिखर जाते. सेवइयां खाकर अब्बा ईदी देते, तो वह फौरन ज़मीन पर फेंक देतीं कि ‘अपने सालों को दो, वही तुम्हारी रोटियों पर पले हैं.’’ और अब्बा चुपचाप चले आते. वह जानते थे कि फूफी बादशाही वह रुपए घण्टों आंखों से लगाकर रोती रहेंगी. भतीजों को वह आड़ में बुलाकर ईदी देतीं. ‘‘हरामज़ादो, अगर अम्मां-अब्बा को बताया तो बोटियां काटकर कुत्तों को खिला दूंगी.’’ अब्बा-अम्मां को मालूम था कि लड़कों को कितनी ईदी मिली. अगर किसी ईद पर किसी वजह से अब्बा मियां न जा पाते तो पैग़ाम पर पैग़ाम आते. ‘‘नुसरत ख़ानम बेवा हो गई. चलो अच्छा हुआ, मेरा कलेजा ठण्डा हुआ.’’ बुरे-बुरे पैग़ाम शाम तक आते ही रहते और फिर वह खुद रहनुमा भाई के कोठे पर से गालियां बरसाने आ जाती. एक दिन ईद की सेवइयां खाते-खाते कुछ गर्मी से जी मितलाने लगा. अब्बा मियां को उल्टी हो गई. ‘‘लो बादशाही ख़ानम, कहा-सुना माफ करना, हम तो चले.’’ बस अब्बा मियां ने कराहकर आवाज़ सुनाई और फूफी लश्तम-पश्तम पर्दा फेंक छाती कूटती निकलीं. अब्बा को शरारत से हंसता देख उल्टे-पांव कोसती लौट गईं. ‘‘तुम आ गईं बादशाही तो मल्कुल मौत भी घबराकर भाग गए, वर्ना हम तो आज खत्म ही हो जाते.’’ अब्बा ने कहा. न पूछिए, फुफी ने कितने वज़नी कोसने दिए. उन्हें खतरे से बाहर देखकर बोलीं- ‘‘अल्लाह ने चाहा बिजली गिरेगी, नाली में गिरकर दम तोड़ोगे, कोई मैयत को कांधा देनेवाला न बचेगा.’’ अब्बा चिढ़ाने को उन्हें दो रुपए भिजवा देते, ‘‘भई हमारी खानदानी डोमनियां गालियां दे दें तो उन्हें बेल (ज़मानत) तो मिलनी ही चाहिए.’’ और वे बौखलाहट में कह जातीं- ‘‘बेल दे अपनी अम्मां-बहनिया को!’’ और फिर अपना मुंह पीटने लगतीं. खुद ही कहतीं, ‘‘ए बादशाही बन्दी, तेरे मुंह को कालिख लगे, अपनी मैयत आप पीट रही है.’’ फूफी को असल में भाई से ही बैर था. बस उनके नाम पर आग लग जाती. वैसे कहीं अब्बा के बग़ैर अम्मां नज़र आ जातीं तो गले लगाकर प्यार करतीं. प्यार से ‘नच्छू-नच्छू’ कर कहतीं-‘‘बच्चे तो अच्चे हैं?’’ वह बिल्कुल भूल जातीं कि ये बच्चे उसी बदज़ात भाई के हैं, जिसे वह अज़ल से अबद तक (आद्यन्त) कोसती रहेंगी. अम्मां उनकी भतीजी भी तो थीं. भई किस कदर घपला था. मेरी ददिहाल-ननिहाल में एक रिश्ते से मैं अपनी अम्मां की बहन भी लगती थी. इस तरह मेरे अब्बा मेरे दूल्हे भाई भी होते थे. मेरी ददिहाल को ननिहालवालों ने क्या-क्या ग़म न दिए? गज़ब तो तब हुआ जब मेरी फूफी की बेटी मुसर्रत ख़ानम ज़फर मामूं को दिल दे बैठी. हुआ यह कि मेरी अम्मां की दादी यानी अब्बा की फूफी जब लबे-दम हुईं तो दोनों तरफ के लोग तीमारदारी को पहुंचे. मेरे मामूं भी अपनी दादी को देखने गए और मुसर्रत ख़ानम भी अपनी अम्मां के साथ उनकी फूफी को देखने आई. बादशाही फूफी को कुछ डर-खौफ़ तो था नहीं. वह जानती थीं कि मेरे ननिहालवालों की तरफ़ से उन्होंने अपनी औलाद के दिल में इत्मीनान-बख्श हद तक नफ़रत भर दी है और पन्द्रह बरस की मुसर्रत ख़ानम का अभी तन ही क्या था? अम्मां के कूल्हे से लगकर सोती थीं. दूध-पीती ही तो उन्हें लगती थीं. फिर जब मेरे मामू ने अपनी करंजी, शरबत-भरी आंखों से मुसर्रत जहां के लचकदार सरापे को देखा तो वहीं के वहीं जमकर रह गए. दिन-भर बड़े-बूढ़े तीमारदारी करके थक-हारकर सो जाते तो ये फ़रमाबरदार बच्चे सिरहाने बैठे मरीज़ पर कम, एक-दूसरे पर ज़्यादा निगाह रखते. जब मुसर्रत जहां बर्फ़ में तर कपड़ा बड़ी बी के माथे पर बदलने को बढ़ातीं तो ज़फ़र मामूं का हाथ वहां पहले से मौजूद होता. दूसरे दिन बड़ी बी ने पट से आंखें खोल दीं. लरज़ती-कांपती तकिए के सहारे उठ बैठीं. उठते ही सारे ख़ानदान के ज़िम्मेदार लोगों को तलब किया. जब सब जमा हो गए तो हुक्म हुआ, ‘‘क़ाज़ी को बुलवाओ.’’ लोग परेशान कि बुढ़िया क़ाज़ी को बुला रही है, क्या आखि़री वक़्त सुहाग रचाएगी? किसको दम मारने की हिम्मत थी. ‘‘दोनों का निकाह पढ़ाओ.’’ लोग चकराए, किन दोनों का? मगर उधर मसर्रत जहां पट-से बेहोश होकर गिर गईं और ज़फ़र मामूं बौखलाकर बाहर चले. चोर पकड़े गए. निकाह हो गया. बादशाही फूफी सन्नाटे में रह गईं. हालांकि कोई ख़तरनाक बात न हुई थी. दोनों ने सिर्फ़ हाथ पकड़े थे. मगर बड़ी बी के लिए बस यही हद थी. फिर जो बादशाही फूफी को दौरा पड़ा है तो बस घोड़े और तलवार के बगैर उन्होंने कुश्तों के पुश्ते लगा दिए. खड़े-खड़े बेटी-दामाद को निकाल दिया. मज़बूरन अब्बा मियां दूल्हा-दुल्हन को अपने घर ले गए. अम्मां तो चांद-सी भाभी देखकर निहाल हो गईं. बड़ी धूम-धाम से वलीमा किया. बादशाही फूफी ने उस दिन से फूफी का मुंह नहीं देखा. भाई से पर्दा कर लिया, मियां से पहले ही नाचती थीं. दुनिया से मुंह फेर लिया और एक ज़हर था कि उनके दिलो-दिमाग़ पर चढ़ता ही गया. ज़िन्दगी सांप के फन की तरह डसने लगी. ‘‘बुढ़िया ने पोते के लिए मेरी बच्ची को फंसाने के लिए मक्कर गांठा था.’’ वह बराबर ही कहे जातीं, क्योंकि वाक़ई वह उसके बाद बीस साल तक और जीं. कौन जाने, ठीक ही कहती हों फूफी.
मरते दम तक बहन-भाई में मेल न हुआ. जब अब्बा मियां पर फालिज का चौथा हमला हुआ और बिल्कुल ही वक़्त आ गया तो उन्होंने फूफी बादशाही को कहला भेजा, ‘‘बादशाही ख़ानम, हमारा आखि़री वक़्त है, दिल का अरमान पूरा करना हो तो आ जाओ.’’ न जाने इस पैग़ाम में क्या तीर छुपे थे. भैया ने फेंके और बहनिया के दिल तराज़ू हो गए. हुलहुलाती, छाती कूटती, सफ़ेद पहाड़ की तरह भूचाल लाती हुई बादशाही ख़ानम उस ड्योढ़ी पर आ उतरीं, जहां अब तक उन्होंने क़दम नहीं रखा था. ‘‘लो बादशाही, तुम्हारी दुआ पूरी हो रही है.’’
अब्बा मियां तकलीफ में भी मुस्करा रहे थे. उनकी आंखे अब भी जवान थीं. फूफी बादशाही, बावजूद बालों के, वही मुन्नी-सी बिच्छू लग रही थीं, जो बचपन में भाइयों से मचल-मचलकर बात मनवा लिया करती थीं. उनकी शेर-जैसी खुर्राट आंखें एक मेमने की मासूम आंखों की तरह सहमी हुई थीं. बड़े-बड़े आंसू उनकी संगेमरमर की चट्टान-जैसे गालों पर बह रहे थे. ‘‘हमें कोसो बिच्छू बी.’’ अब्बा ने प्यार से कहा. मेरी अम्मां ने सिसकते हुए बादशाही ख़ानम से कोसने की भीख मांगी. ‘‘या अल्लाह...या अल्लाह...’’ उन्होंने गरजना चाहा, मगर कांपकर रह गईं. ‘‘या...या अल्लाह...मेरी उमर मेरे भैया को दे दे...या मौला... अपने रसूल का सदक़ा...’’ वह उस बच्चे की तरह झुंझलाकर रो पड़ीं, जिसे सबक़ याद न हो. सबके मुंह फ़क़ हो गए. अम्मां के पैरों का दम निकल गया. या खुदा, आज बिच्छू फूफी के मुंह से भाई के लिए एक कोसना न निकला. सिर्फ़ अब्बा मियां मुस्करा रहे थे, जैसे उनके कोसने सुनकर मुस्करा दिया करते थे. सच है, बहिन के कोसने भाई को नहीं लगते. वह मां के दूध में डूबे हुए होते हैं.

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