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इंडियन आइडल फेम राधा श्रीवास्तव पर जिन बालेश्वर का स्टाइल कॉपी करने का आरोप है, उनकी पूरी कहानी जान लीजिए

सिंगिंग रियलिटी शो Indian Idol सीजन 15 की कॉन्टेस्टेंट राधा श्रीवास्तव ने अपने अलग अंदाज में एक भोजपुरी लोकगीत गाकर खूब सुर्खियां बटोर रही हैं. उनके गाने का वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल है. हालांकि वायरल होने के साथ-साथ उनके गाने से एक विवाद भी जुड़ गया है.

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Baleshwar radha srivastava indian idol
राधा श्रीवास्तव पर बालेश्वर का स्टाइल कॉपी करने का आरोप है. (इंडिया टुडे)
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आनंद कुमार
14 नवंबर 2024 (Updated: 15 नवंबर 2024, 12:49 IST)
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इंडियन आइडल 15 के ऑडिशन का मंच. एक सिंगर परफॉर्मेंस के लिए आती हैं. परफॉर्मेंस से पहले पति का पैर छूती हैं. पति की गोद में बैठी बच्ची को दुलार करती हैं. और फिर सुर साधती है. उनके गाने की शुरूआत जरा हटके होती है. वह स्टेज पर रई.. रई.. रई.. करके गाने की शुरुआत करती हैं.  फिर आगे गाना गाती हैं जिसके बोल हैं. ‘बड़ा मजा रसगुल्ला में.’ गाना जैसे जैसे परवान चढ़ता है उनकी अनोखी गायन शैली और आवाज की शोखी जजों को दीवाना बना देती है.  शो के तीनों जज श्रेया घोषाल, विशाल डडलानी और बादशाह उनकी गायिकी की तारीफों के पुल बांधने लगते हैं. विशाल ने कहा ये बेहतरीन परफॉर्मेंस थी. ऐसा तो उन्होंने पहले सुना ही नहीं है. श्रेया घोषाल रई.. रई.. रई.. गाने लगती हैं. वहीं बादशाह भी शो के लेवल की बात करते हुए गदगद दिखते हैं. अपने परफॉर्मेंस से समां बांध देने वाली इस गायिका का नाम है राधा श्रीवास्तव.

राधा श्रीवास्तव के परफॉर्मेंस का ये वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. इसे सोशल मीडिया यूजर्स का खूब प्यार मिल रहा है. लेकिन साथ ही कुछ दर्शकों ने उनकी गायकी पर सवाल उठाए हैं. उन पर एक दिग्गज भोजपुरी लोकगायक के स्टाइल को कॉपी करने का आरोप लगा है. आरोप है कि उन्होंने उनके सिग्नेचर स्टाइल रई.. रई.. रई. . को कॉपी किया. और उनको क्रेडिट भी नहीं दिया. राधा श्रीवास्तव को जिन दिग्गज बिरहा गायक के नाम पर ट्रोल किया जा रहा है. उनका नाम हैं बालेश्वर. आखिर बालेश्वर कौन हैं? जिनको भोजपुरी लोकगायकी का पहला सुपरस्टार भी कहा जाता है. जानते हैं विस्तार से.

‘माटी की गमक और ठसक लिए बालेश्वर’

जैसे कोई नरम और मीठी ऊंख (गन्ना) हो. एक गुल्ला छीलिए तो पोर खुल जाए. कुछ वैसे ही मीठी, नरम और फोफर आवाज बलेसरा की है. अपनी गमक, माटी की महक और एक खास ठसक लिए हुए बलेसरा मतलब बालेश्वर. ये शब्द हैं बालेश्वर के समकालीन रहे पत्रकार दयानंद पांडेय के जिन्होंने उनकी जीवनी पर आधारित उपन्यास ‘लोककवि अब नहीं गाते’ लिखा है.

1 जनवरी 1942 को उत्तर प्रदेश के मऊ के मधुबन गांव में राजभर परिवार में बालेश्वर का जन्म हुआ. उनकी पढ़ाई आठवें दर्जे तक हुई.  बालेश्वर ने गायिकी की औपचारिक ट्रेनिंग नहीं ली थी. उन्होंने अपने समकालीन भोजपुरी गायकों की कॉपी करते हुए गाना शुरु किया था. जिनमें उस समय के लोकप्रिय भोजपुरी गायक वलीउल्लाह और जयश्री यादव शामिल थे. बालेश्वर ने उनकी टीम में भी शामिल होने की कोशिश की. लेकिन सफलता नहीं मिली तो अकेले ही मंचों पर गाना शुरु किया. 

शुरुआत उन्होंने गांव में शादी ब्याह में, रामलीला में और नौटंकी में गाने से की. बालेश्वर भले ही दूसरे गायकों की गाने की स्टाइल कॉपी करते थे. लेकिन शुरुआत से खुद के लिखे गाने ही गाते थे. उनके गानों में तंज और तल्खी रहती थी. गांव के सामंत के जुल्म ज्यादतियों के खिलाफ विद्रोह होता था. जिसके चलते कई बार उनको सामंतों का निशाना भी बनना पड़ा. उन्होंने उनके घर में कई बार चोरी करवा दी.

झारखंडे राय की मदद से लखनऊ पहुंचे

बालेश्वर को पहला ब्रेक मिला साल 1962 में. राज्य में लोकसभा चुनाव था. मधुबन के पूर्व विधायक और स्वतंत्रता सेनानी विष्णुदेव गुप्ता ने उन्हें दोहरीघाट भेजा. सोशलिस्ट पार्टी का प्रचार करने. बालेश्वर वहीं गाना बना बना कर गाने लगे. वहीं बालेश्वर घोसी से कम्युनिस्ट सांसद झारखंडे राय के संपर्क में आएं. झारखंडे राय उनको अपने साथ चुनाव प्रचार के लिए घोसी ले गए. बालेश्वर झारखंडे राय के लिए बना बना कर गाना गाने लगे. झारखंडे राय चुनाव जीत गए. और बालेश्वर को अपने साथ लखनऊ ले आएं. बाद में बालेश्वर को उनके बचपन के साथी रमाशंकर सिंह ने कांग्रेस नेता कल्पनाथ राय से मिलवाया. जिसके बाद वो कल्पनाथ राय के हो कर रह गए. सोनिया गांधी की रैली में भीड़ जुटाने और उसे बांधे रखने का काम उन्हें सौंपा गया. बाद के दिनों में उन्होंने मुलायम सिंह यादव और लालजी टंडन के लिए भी गाया.

1975 में मिला आकाशवाणी में गाने का मौका

लखनऊ आकर बालेश्वर इधर-उधर घूमकर गाने लगे. 1965 में आकाशवाणी लखनऊ में गाने के लिए ऑडिशन दिया लेकिन फेल हो गए. बीच में एक छोटी सी नौकरी भी की. लेकिन गाना नहीं छोड़ा. दस साल बाद सूचना विभाग से जुड़े के बी चंद्रा के सहयोग से आकाशवाणी लखनऊ का ऑडिशन दिया. और इस बार सफल रहे. आकाशवाणी पर उनकी बुलंद आवाज छा गई. इसके बाद और लोग भी मौका देने को तैयार हो गए. अब उनको गाने के कार्यक्रम भी मिलने लगे. उनसे पैसा तो ज्यादा नहीं आता था. लेकिन वाहवाही खूब मिलती थी.

1979 में गाने रिकॉर्ड हुए फिर धूम मच गया

बालेश्वर आकाशवाणी की नौकरी कर रहे थे. उस समय गाने के ऑडियो  रिकॉर्ड आने शुरु हो गए थे.बालेश्वर इससे अछूते कैसे रहते. उनको भी रिकॉर्ड्स बनवाने की धुन सवार हुई. उस समय रिकॉर्ड की एक मशहूर कंपनी थी- HMV. दो साल तक बालेश्वर एच. एम. वी. के मैनेजर जहीर अहमद के आगे पीछे दौड़ते रहे. ताकि उनका रिकॉर्ड आ जाए. लेकिन साल 1979 में हरवंश जायसवाल के कहने पर HMV ने दो रिकॉर्ड बनवाए. एक 'नीक लागे टिकुलिया गोरखपुर के' और दूसरा 'बलिया बीचे बलमा हेराइल सजनी'. 1980 में यह रिकॉर्ड बाजार में आया. और उसके बाद जो हुआ इतिहास है. बालेश्वर के गानों ने धूम मचा दी. उनकी लोकप्रियता सर चढ़ कर बोलने लगी. देश के कोने कोने से उनके प्रोग्राम होने लगे. उनके कार्यक्रमों में टिकट के लिए मारामारी होने लगी. 

वरिष्ठ पत्रकार दयानंद पांडेय बताते हैं, 

 दरअसल भिखारी ठाकुर के बाद अगर भोजपुरी को किसी ने आधारबिंदु दिया, जमीन और बाजार दिया तो वह बालेश्वर ही हैं. एक समय था कि बालेश्वर के कैसेटों से बाजार अटा पड़ा रहता था. कारण था कि वह गायकी को भी साधते थे. और बाजार को भी. कैसेट और ऑरकेस्ट्रा दोनों में उनकी धूम थी. यह अस्सी और नब्बे के दशक की बात है. वह भोजपुरी की सरहदें लांघ कर मुंबई, बंगाल, असम और नागालैंड जाने लगे. नीदरलैंड, सूरीनाम, त्रिनिडाड, फिजी, थाईलैंड, मारीशस और जाने कहां-कहां जाने लगे. बालेश्वर के यहां प्रेम भी है, समाज भी और राजनीति भी. यानी कामयाबी का सारा रसायन. बालेश्वर कई बार समस्याओं को उठा कर अपने गीतों में जब प्रहार करते थे. और बड़ी सरलता से तो लोग वाह कर बैठते थे. उनके कहने में जो सादगी होती थी. और गायकी में जो मिठास होती थी. वही लोगों को बांध देती थी.

राजनीतिक दलों पर व्यंग्य गाने भी खूब गाए

लोकगीतों के अलावा बालेश्वर ने राजनीतिक मुद्दों पर भी खूब लिखा और गाया. उन्होंने अपने गानों में समकालीन राजनीतिक मुद्दों को जगह दी. और उनके व्यंग्य बाण से कोई भी राजनीतिक दल या नेता अछूता नहीं रहा. राम मंदिर विवाद पर बालेश्वर ने गाया ‘मंदिर बनी लेकिन मस्जिद न गिराई जाएगी / आडवाणी वाली भाषा पढ़ाई न जाएगी’. जब केंद्र में गठबंधन सरकारों को दौर आया तो बालेश्वर ने गाया. ‘दुश्मन मिले सबेरे लेकिन मतलबी यार न मिले/ हिटलरशाही मिले मगर मिली जुली सरकार न मिले.’

1990 के मंडल कमंडल विवाद पर बालेश्वर ने स्टेज से निशाना साधा, जिन्ना ने हिंदुस्तान का बंटवारा करा दिया/ आडवाणी ने मंदिर मस्जिद को लड़ा दिया/ वी.पी. शरद यादव ने मंडल कमंडल खड़खड़ा दिया/ पासवान काशीराम ने हरिजन और सवर्णों को जुझा दिया.

बालेश्वर का एक गाना है नाचे न नचावे केहू पइसा नचावे ला. यह गाना बालेश्वर ने तब लिखा  था जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे. और सुखराम का घोटाला सामने आया था. बालेश्वर गाते नाचे न नचावे केहू पइसा नचावे ला हमरी न मानो सुखराम जी से पूछ लो.

सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि गायक

बालेश्वर बेहद गरीब परिवार से आते थे. उनका जन्म अतिपिछड़ी राजभर जाति में हुआ था. वे समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोगों के दुख दर्द को करीब से जानते थे. और ये उनके गानों में भी दिखता था. उनका एक गाना है. ‘लोहवा के मुनरी पर एतना गुमान, सोनवा क पइबू त का करबू!’  इस गीत में कितने सहज शब्दों में वे गरीबी की पीड़ा का चित्रण करते हैं. या फिर ‘हम कोइलरी चलि जाइब ए ललमुनिया क माई’ गीत में बेरोजगारी और प्रेम का जो द्वंद रचते हैं. वो अद्भुत है. या फिर यह गीत भी कि ‘तोहरा बलम कप्तान सखी त हमरो किसान बा.’ गंवई औरत का गुरुर और स्वाभिमान इस गीत में छलक कर आता है. इसके अलावा ‘बलिया बीचे बलमा हेराइल’ जैसे विरह गीत और ‘आव ददरी के मेला’, ‘अपने त भइल पुजारी ए राजा हमार कजरा के निहारी ए राजा’ और ‘केकरे गले में डालूं हार सिया बउरहिया बनि के’ जैसे गीत भी बालेश्वर के खाते में हैं.

अश्लीलता के भी आरोप लगे

बालेश्वर के गीतों में प्रेम और विरह के अलावा अश्लीलता भी खूब उपस्थित है. ‘खिलल कली स तू खेलल त हई लटकल अनरवा का होई’. या फिर 'काहें जलेबी के तरसेली गोरकी', बडा मज़ा रसगुल्ला में'. या फिर ‘लागता ज फाटि जाई जवानी में झुल्ला’, ‘आलू केला खइलीं त एतना मोटइलीं दिनवा में खा लेहलीं दू दू रसगुल्ला’. और ‘अंखिया बता रही है, लूटी कहीं गई है.’ जैसे गीतों की भी उन के यहां कमी नहीं है.

बालेश्वर की गानों में अश्लीलता के सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार और भोजपुरी लोकगीतों के अध्येता निराला बिदेसिया बताते हैं, 

 बालेश्वर ने लोकगीतों को पारंपरिक शैली से निकाल कर अलग पहचान दी. लेकिन उन्होंने ऑडियो में एक दो गीत गाएं. जैसे एक गीत है टचना के खेतवा छोट छोट गोरिया, आव घुसुक आव गन्ने मेंट. यह गीत बड़ा टर्निंग प्वाइंट था. यह सीधे-सीधे कोई कलाकार इतना साहस जुटा रहा था कि सीधे सेक्स(देह) का आमंत्रण दे रहा था. उसी समय बिजली रानी गा रही थी लेकिन वह इतना खुल कर नहीं गा रही थी. ये एक बड़ा दुस्साहस था उनका.

निराला बिदेसिया आगे बताते हैं,  

अभी जो भोजपुरी का पॉपुलर कल्चर है वो बालेश्वर कल्चर है. बालेश्वर अंतिम समय में गायन को छोड़कर पूरी तरह से नाच पर केंद्रित हो गए थे. उनका संगीत अंतिम समय में स्टेज पर बिना लड़कियों के पूरा नहीं होता था. और आज भोजपुरी का चलन वही हैं. भोजपुरी की जो लोकप्रिय धारा है अभी जो स्त्रियों के देह पर केंद्रित है. जिसमें स्त्री ऑब्जेक्ट बन गई है. ये बालेश्वर धारा है. बालेश्वर की इस धारा ने भोजपुरी को मध्ययुगीन बनाया.

बिरहा गायक से बढ़ कर है बालेश्वर की लिगेसी

बालेश्वर को बिरहा सम्राट के रूप में याद किया जाता रहा है. लेकिन उन्होंने तमाम तरह के लोकगीत गाए हैं. निराला बिदेसिया बताते हैं कि बालेश्वर की प्रसिद्दि बिरहा गायक के तौर पर भले है. लेकिन बिरहा गायन की जो परम्परा रही है उसके गीत तो बालेश्वर ने कम गाए. जैसे हीरालाल यादव, बुल्लु यादव और रामकैलाश यादव ने गाएं. जो बिरहा के मशहूर गायक थे. बिरहा का टोन और अनुशासन अलग होता है. बिरहा दो बातों पर चलती है या तो प्रसंग गीतों पर चल रहा हो. या फिर उसमें बिरह की बात हो. लेकिन बालेश्वर के ऐसे गीत कम मिलते हैं. बालेश्वर बिरहा के बजाय दूसरे गीतों से ज्यादा लोकप्रिय हुए. बिरहा भी उन्होंने गाया तो उसमें अलग किस्म का संगीत रहा.

भोजपुरी लोकगीतों में उनके समय जैसी लोकप्रियता बालेश्वर की थी. ऐसी किसी भी और गायक को नहीं मिली. उनके गीतों ने तमाम बाउंड्री तोड़े. उनके गीत एकदम मुहावरे की तरह बन गए. स्क्रिप्ट राइटर और गीतकार अतुल कुमार राय बताते हैं,  

बालेश्वर की गायकी प्योर बिरहा की गायकी नहीं है. मैं नहीं मानता कि वो बिरहा गायक थे. जो ट्रेडिशनल बिरहा गायक होते हैं उनकी गायकी बिलकुल अलग होती है. लोग बिरहा गायक बता कर उनको बांधते हैं. उनका दायरा उससे बड़ा है. बालेश्वर अपने समय के ज्वलंत मुद्दो को गाते थे.

बालेश्वर भोजपुरी लोकगीतों का एक बड़ा नाम रहे हैं. साल 2008 में उनकी देह नहीं रही. भोजपुरी लोकगायकी को स्टारडम से नवाजने वाले बालेश्वर अब लगभग बिसरा से दिए गए हैं. साल 2014 में अखिलेश यादव की सरकार ने उनको मरणोपरांत यश भारती सम्मान जरूर दिया. लेकिन बालेश्वर के नाम पर कोई स्मारक या अकादमी स्थापित नहीं हो पाया जो उनकी विरासत को सहेज सके.

बिरहा गायन शैली

बिरहा गायन की शुरुआत बिहारी यादव से मानी जाती है. बनारस में एक मंडी है बिशेश्वर मंडी. उसको प्रिंसेप जेम्स ने बसाया था. उसी मंडी में गाजीपुर के बिहारी यादव श्रमिक थे. मजदूरी से समय बचने के बाद बिहारी यादव अपने साथियों को बिठाकर भजन या फिर उस समय की जो घटनाएं थी. उसको गीतों में पिरो कर गाते थे. उनके गायकी में भाव थी. उनका गाना सुनकर लोग भावुक हो जाते थे. लोगों की आंखे नम हो जाती थी. मौजूदा दौर में भी जो बिरहा की धुनें हैं. उसको सुनने पर आंखों से आंसू आ जाते है. क्योंकि उसके मूल में करूणा है.  बिहारी यादव से ही बिरहा गायकी की शुरुआत मानी जाती है. फिर बिरहा के कई अखाड़े बने. और पिछले डेढ़ दो सौ सालों में सैंकड़ों बिरहा गायक हुए. गाजीपुर से लेकर भदोही, इलाहाबाद और सुलतानपर तक बिरहा गायकी का विस्तार है. बिरहा गायकी में यादव जाति का सबसे ज्यादा जोर है. हीरालाल यादव और बुल्लु यादव बिरहा गायकी के बड़े नाम रहे हैं. वर्तमान में विजयलाल यादव और ओमप्रकाश यादव बिरहा के बड़े गायक माने जाते हैं. बिरहा गायकी में राजभर जाति की भी ठीक ठाक हिस्सेदारी रही है. बेचन राजभर बिरहा शैली के बड़े गायक माने जाते हैं.

वीडियो: अभिजीत सावंत से सलमान अली तक, अब क्या कर रहे हैं इंडियन आइडल के ये विनर?

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