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स्वीडन की नेटो मेंबरशिप में देर क्यों लगी?

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A display shows results during a vote by lawmakers in Budapest, Hungary, on Sweden's NATO membership, which was approved 188-6 [Denes Erdos/AP Photo]
स्वीडन की नेटो मेंबरशिप में देर क्यों लगी? (AP Photo)
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27 फ़रवरी 2024
Updated: 27 फ़रवरी 2024 20:54 IST
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आख़िरकार, हंगरी की संसद ‘नेशनल असेंबली’ ने स्वीडन की नेटो मेंबरशिप पर मुहर लगा दी. इस तरह स्वीडन नेटो का 32वां सदस्य बनने के लिए तैयार हो चुका है. एप्लीकेशन के लगभग 600 दिन बाद.
स्वीडन ने मई 2022 में अप्लाई किया था. फ़िनलैंड के साथ. उस वक़्त नेटो में 30 मेंबर हुआ करते थे. नए सदस्य की एंट्री के लिए सबकी सहमति ज़रूरी थी. फ़िनलैंड के नाम पर तो सबने हामी भर दी. अप्रैल 2023 में वो 31वां सदस्य भी बन गया. लेकिन स्वीडन का मामला अटकता रहा. दरअसल, दो देशों ने कांटा फंसा दिया था. कौन-कौन? तुर्किए और हंगरी. तुर्किए की आपत्ति स्वीडन में मौजूद कुर्द अलगाववादियों से जुड़ी थी. जनवरी 2024 में उसने बाधा हटा ली. फिर 26 फ़रवरी को हंगरी ने भी ओके कर दिया. स्वीडन ऐसे समय में नेटो का सदस्य बना है, जब इस गुट की ताक़त और ज़रूरत पर लगातार सवाल उठ रहे हैं.

तो, आइए जानते हैं,

- स्वीडन की नेटो मेंबरशिप में देर क्यों लगी?
- हंगरी ने वीटो हटाने के लिए क्या सौदा किया?
- और, क्या मौजूदा दौर में नेटो की प्रासंगिकता बची है?

पहले बेसिक क्लीयर कर लेते हैं.

तारीख़, 04 अप्रैल 1949. जगह, वॉशिंगटन डीसी, अमेरिका. 12 देशों ने मिलकर नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन (NATO) की नींव रखी. उस मौके पर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन ने कहा था,

‘जिन्हें लगता है कि ये नॉर्थ अटलांटिक के देशों के द्वारा की गई आक्रामक संधि है, वे पूरी तरह से ग़लत हैं. हमें लगता है कि युद्ध को रोका जा सकता है. हम इस बात पर भरोसा नहीं करते हैं कि इतिहास की अंधी लहर अभी भी कायम है जो इंसानों को अपने साथ बहा ले जाती हैं. अपने समय में हमने बहादुर नौजवानों को कठिनतम परिस्थितियों और अटूट सेनाओं से पार पाते देखा है. हौसले और दूरदृष्टि से भरे लोग अभी भी अपनी नियति तय कर सकते हैं. वे ग़ुलामी या आज़ादी, युद्ध या शांति चुन सकते हैं. मुझे इसमें कोई भी संदेह नहीं है कि वे क्या चुनना पसंद करेंगे.’

ट्रूमैन का मानना था कि नेटो कोई आक्रामक गुट नहीं है. ये बाहरी ख़तरे के ख़िलाफ़ कवच की भूमिका निभाएगा. बाहरी ख़तरे से उनका मतलब सोवियत संघ के विस्तारवाद से था. दरअसल, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूरोप के देश उबरने की कोशिश कर रहे थे. इस दौर में भी दो देश ऐसे थे, जो दूसरों की मदद करने की हालत में बचे थे. अमेरिका और सोवियत संघ. दोनों मदद के बदले अपनी प्रभुसत्ता थोपना चाहते थे. इसी कड़ी में 1947 में अमेरिका ने मार्शल प्लान लॉन्च किया. ये प्लान काफ़ी हद तक पैसों और डिप्लोमेटिक सपोर्ट पर निर्भर था.

इसके बरक्स सोवियत संघ ने दमखम का प्रदर्शन किया. फ़रवरी 1948 में उसने चेकोस्लोवाकिया में तख़्तापलट करवाया. फिर वहां कम्युनिस्ट शासन शासन थोपा गया. इस घटना ने पश्चिमी देशों की चिंता बढ़ा दी. उन्हें महसूस हुआ कि सिर्फ़ पैसे के ज़ोर से सोवियत संघ से नहीं निपटा जा सकता है. अब सैन्य सहयोग की ज़रूरत है. फिर जून 1948 में एक और बड़ी घटना हुई. सोवियत संघ ने ईस्ट बर्लिन को पूरी तरह ब्लॉक कर दिया. दरअसल, जर्मनी दूसरे विश्वयुद्ध का पराजित देश था. जंग के बाद विजेता देशों ने उसका बंटवारा कर दिया. वेस्ट जर्मनी पर अमेरिका, फ़्रांस और ब्रिटेन का कंट्रोल हुआ. जबकि ईस्ट पर सोवियत संघ का. जर्मनी के साथ-साथ राजधानी बर्लिन का भी बंटवारा हुआ था. वेस्ट बर्लिन, पश्चिमी देशों के हिस्से में आया, जबकि ईस्ट बर्लिन सोवियत संघ के. वेस्ट बर्लिन की सप्लाई लाइन ईस्ट बर्लिन होकर जाती थी. जून 1948 में सोवियत संघ ने लैंड बॉर्डर बंद कर दिया. इसके बाद अमेरिका, फ़्रांस और ब्रिटेन को एयरलिफ़्ट कैंपेन चलाना पड़ा.

इसके बाद अमेरिका समेत 12 देशों की आपातकालीन बैठक शुरू हुई. कई महीनों तक नियम-कायदों पर चर्चा चली. फिर अप्रैल 1949 में उन्होंने नेटो के चार्टर पर दस्तख़त कर दिए. इसके बाद से इस गुट का लगातार विस्तार हुआ है. फिलहाल, इसके सदस्यों की संख्या 31 है.

किस देश ने कब सदस्यता ली?

> 1949 - अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, फ़्रांस, लक़्जमबर्ग, इटली, बेल्जियम, पुर्तागाल, नीदरलैंड्स, डेनमार्क, नॉर्वे और आइसलैंड.
> 1952 - ग्रीस और तुर्किए.
> 1955 - जर्मनी. 1955 में वेस्ट जर्मनी ने नेटो की सदस्यता ली थी. 1990 में ईस्ट और वेस्ट जर्मनी एक हो गए. फिर पूरा जर्मनी नेटो का मेंबर बना.
> 1982 - स्पेन.
> 1999 - चेक रिपब्लिक, हंगरी और पोलैंड.
> 2004 - बुल्गारिया, एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, रोमेनिया, स्लोवाकिया और स्लोवेनिया.
> 2009 - अल्बानिया और क्रोएशिया.
> 2017 - मॉन्टेनीग्रो.
> 2020 - नॉर्थ मेसीडोनिया.
> 2023 - फ़िनलैंड.

अगले कुछ दिनों में स्वीडन 32वां सदस्य बन जाएगा. अब सवाल ये उठता है कि आख़िर कितना अहम है नेटो?

इसके लिए आपको दो प्रावधानों की कहानी समझनी होगी.

> पहला है, आर्टिकल फ़ोर.

इसके मुताबिक, जब किसी सदस्य को अपने या किसी दूसरे सदस्य के ऊपर ख़तरा महसूस हो तो वे मिलकर उस पर चर्चा कर सकते हैं.
ये चर्चा सैन्य संघर्ष की आशंका को कम करने के लिए ज़रूरी होती है. इस तरह की बातचीत का पहला मंच नॉर्थ अटलांटिक काउंसिल (NAC) है. ये नेटो की डिसिजन मेकिंग बॉडी है. नेटो की स्थापना के बाद से आर्टिकल फ़ोर सात बार लागू किया गया है. मसलन, 2015 में तुर्किए ने इसका इस्तेमाल किया था. तब सीरिया की सीमा के पास एक आत्मघाती बम हमला हुआ था. जिसमें 30 लोग मारे गए थे. फिर आर्टिकल फ़ोर के तहत मीटिंग बुलाई गई. मीटिंग के बाद NAC ने कहा कि नेटो तुर्किए के ख़िलाफ़ आतंकी हमले की कड़ी निंदा करता है. हालांकि, इस मामले में आगे कोई कार्रवाई नहीं की गई.

> अब अगले प्रावधान की तरफ़ चलते हैं.

ये है, आर्टिकल फ़ाइव.
नेटो के संदर्भ में सबसे ज़्यादा चर्चा इसी की होती है. इसमें साझा सुरक्षा की बात दर्ज़ है. आर्टिकल फ़ाइव के तहत, अगर नेटो के किसी सदस्य देश पर हमला होता है तो उसे सभी नेटो देशों पर हमला माना जाएगा. उस हालात में सबको साथ मिलकर उसका मुक़ाबला करना होगा. इसको अभी तक सिर्फ़ एक बार लागू किया गया है. 11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमले के बाद. तब अमेरिका के नेतृत्व में नेटो सेना को अफ़ग़ानिस्तान में तैनात किया गया था.

क्या इसके अलावा नेटो ने कुछ नहीं किया?

ये कहना सरासर ग़लत होगा. नेटो की चुनौतियों और उसके इतिहास को चार हिस्सों में बांटा जा सकता है.

> पार्ट वन - कोल्ड वॉर.

शुरुआती दौर में नेटो का फ़ोकस सोवियत संघ का विस्तारवाद रोकने पर रहा. फिर 1989 में बर्लिन की दीवार गिरा दी गई. कुछ समय बाद सोवियत संघ का पतन हो गया. एक पल को लगा कि नेटो की ज़रूरत खत्म हो चुकी है. लेकिन ऐसा था नहीं. सोवियत संघ के विघटन के बाद यूरोपीय देशों की सीमाएं नए सिरे से निर्धारित हो रहीं थीं. सबसे बड़ा झगड़ा यूगोस्लाविया का था. 1995 में नेटो ने बोस्निया एंड हर्जेगोविना में अपनी सेना उतारी. फिर 1999 में कोसोवो का संकट खत्म करने में मदद की.

> पार्ट टू - 9/11.

अमेरिका पर हमले के बाद नेटो ने अपने इतिहास का सबसे बड़ा मिलिटरी ऑपरेशन चलाया. अफ़ग़ानिस्तान में वॉर ऑन टेरर शुरू हुआ. तालिबान को कुर्सी से उतारा गया. लोकतंत्र लाने की कोशिश की गई. अगस्त 2003 में इंटरनैशनल फ़ोर्स की ज़िम्मेदारी नेटो ने संभाल ली. हालांकि, वे तालिबान की वापसी रोकने में सफल नहीं हो पाए.

> पार्ट थ्री - इस्लामिक स्टेट.

2014 के साल में सीरिया और इराक़ में इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एंड लेवांत (ISIL) का उभार हुआ. इराक़ और सीरिया की सीमा तुर्किए से लगती है. तुर्किए नेटो का सदस्य है. IS का उभार मिडिल-ईस्ट के साथ-साथ यूरोप के लिए भी ख़तरनाक था. तब नेटो ने मदद भेजने का वादा किया. नेटो IS के ख़िलाफ़ बने अंतरराष्ट्रीय संगठन का सदस्य है. जैसे-जैसे यूरोप में आतंकी हमले बढ़े, साझा सुरक्षा की ज़रूरत बढ़ती गई.

> पार्ट फ़ोर - रूस.

2014 में रूस ने यूक्रेन का क्रीमिया हथिया लिया. इसकी एक बड़ी वजह ये थी कि यूक्रेन, वेस्ट की तरफ़ झुक रहा था. वो यूरोपियन यूनियन और नेटो की मेंबरशिप लेने की फ़िराक़ में था.
फिर फ़रवरी 2022 में रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया. जिस रफ़्तार से उसने बढ़त बनाई, ऐसा लगा कि वो कुछ दिनों के अंदर क़ब्ज़ा कर लेगा. हालांकि, ऐसा हुआ नहीं. जंग के दो बरस पूरे हो चुके हैं. अभी भी यूक्रेन मुक़ाबला कर रहा है. लेकिन कब तक कर पाएगा, इसपर संशय है. जिस दिन यूक्रेन हारा, रूस और वेस्ट के बीच का बफ़र ज़ोन खत्म हो जाएगा. फिर सीधे टकराव की आशंका बढ़ जाएगी. नेटो इस आशंका को कम करने की कोशिश कर रहा है. फिलहाल, ये उसकी सबसे बड़ी चुनौती है.

और, इसी चुनौती ने स्वीडन को बदलने के लिए मजबूर किया. मई 2022 में उसने फ़िनलैंड के साथ नेटो की सदस्यता के लिए आवेदन कर दिया. ये बड़ा दिलचस्प था.
क्यों? स्वीडन ने आख़िरी बार लड़ाई 1814 में लड़ी थी. नॉर्वे के साथ. उसके बाद वो कभी किसी जंग में शामिल नहीं हुआ. पीसकीपिंग मिशन में अपनी फ़ोर्स ज़रूर भेजी. लेकिन ख़ूनखराबे से दूर रहा.
सोवियत संघ के विघटन के बाद उसने अपनी 90 फीसदी आर्मी और 70 फ़ीसदी एयरफ़ोर्स भंग कर दी थी. बस काम भर की फ़ौज रखी. मुल्क की पॉलिटिक्स काफ़ी हद तक ह्यूमन डेवलपमेंट पर फ़ोकस्ड रही. लेकिन रूस के आक्रामक रवैये के बाद कहानी पलट गई. उसने अप्लाई तो कर दिया, मगर आगे की राह बहुत आसान नहीं थी.

मेंबरशिप के मामले में नेटो ‘ओपन डोर पॉलिसी’ का वादा करता है. यूरोप का कोई भी देश नेटो का सदस्य बन सकता है. तीन ज़रूरी शर्तें हैं,

- पहली, लेटर ऑफ़ इंटेन्ट. यानी, औपचारिक तौर पर आवेदन और नेटो की शर्तों को लागू करने का वादा करे.
- दूसरी, नेटो का कोई सदस्य मेंबरशिप पर वीटो ना करे. और, उनकी संसद नए सदस्य की सदस्यता के प्रस्ताव पर मंज़ूरी दे.
- और तीसरी, संबंधित देश नेटो की शर्तों का पालन करे. और, ज़रूरी नियमों को अपने संविधान के हिसाब से लागू कराए.

स्वीडन दूसरी शर्त पर फंस गया. हंगरी और तुर्किए ने उसकी मेंबरशिप का समर्थन करने से मना कर दिया. तुर्किए का आरोप था कि वो अपराधियों को बचा रहा है. तख़्तपालट के आरोपियों को शरण दे रहा है. उसने उनके प्रत्यर्पण की मांग की. स्वीडन ने मना कर दिया. इससे तुर्किए नाराज़ हो गया. उसने वीटो लगाने की बात कही. फिर जुलाई 2023 में लिथुआनिया में बंद दरवाज़े के पीछे मीटिंग हुई. इसके बाद तुर्किए ने अपना विरोध हटा लिया. कुछ घंटों के बाद ख़बर आई कि अमेरिका ने तुर्किए को F-16 फ़ाइटर जेट्स बेचने वाला है. 2019 में तुर्किए ने रूस से एयर डिफ़ेंस सिस्टम खरीदा था. इसके बाद अमेरिका ने तुर्किए की फ़ाइटर जेट्स वाली डील पर रोक लगा दी. लेकिन जुलाई 2023 में उसने रोक हटा ली. इसके अलावा, स्वीडन ने भी तुर्किए पर अपना सुर बदलने का वादा किया था. जानकारों के मुताबिक़, इसी डील के बदले तुर्किए ने ओके किया था. जनवरी 2024 में तुर्किए की संसद ने भी प्रस्ताव पास कर दिया.

ये तो हुई तुर्किए के विरोध की कहानी. मगर हंगरी ने कभी अपने विरोध की वजह खुलकर नहीं बताई. एक कारण तो ये निकाला गया कि हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के क़रीबी हैं. इसलिए, उनके दबाव में काम कर रहे हैं. 

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