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पहले गणतंत्र दिवस में क्या हुआ था?

26 जनवरी 1950 से पहले भारत ने राष्ट्रपति की सवारी पाकिस्तान से कैसे जीती थी?

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1950 से लेकर 1954 तक गणतंत्र दिवस परेड राजपथ पर नहीं हुई थी | फाइल फोटो: पीआईबी
25 जनवरी 2023 (Updated: 25 जनवरी 2023, 11:14 IST)
Updated: 25 जनवरी 2023 11:14 IST
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26 जनवरी, 1950 एक ऐतिहासिक दिन. भारत का पहला गणतंत्र दिवस. इस दिन दिल्ली में बड़े जश्न की तैयारी थी. पूरा देश ये जश्न देखने को आतुर था. दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और पंजाब सहित कई सूबों के लोग रेल गाड़ियों, बसों में भर-भरकर दिल्ली पहुंच रहे थे. कुछ ऐसे भी थे जो लोकतंत्र का ये जश्न देखने के लिए चार दिन पहले पैदल ही घर से निकल पड़े थे. दिल्ली में भीड़ इतनी कि रायसीना हिल से लेकर इरविन स्टेडियम तक केवल सिर ही सिर नजर आ रहे थे. लाखों लोग कतार में खड़े थे. पैर रखने की जगह नहीं, जो जहां टिक पाया टिक गया, घरों की छतें, पेड़, दुकानें सब लोगों से पटे हुए थे.

दिल्ली की सबसे बड़ी जिस इमारत से कभी सबसे बड़ा अंग्रेजी अफसर निकलता था और जिसके कई मीटर दूर तक आम भारतीयों को गुजरने की इजाजत नहीं थी. अब उसी इमारत से राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद बाहर निकल रहे थे. तालियों की गड़गड़ाहट रुक नहीं रही थी, नारों का शोर थम नहीं रहा था. राष्ट्रपति बार-बार अपना सिर लोगों के सामने झुकाते, हाथ जोड़ते, लेकिन जनसमूह अलग ही जोश में था.

Republic day History

फिर वो दृश्य सामने आया जिसका लोग बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे. साम्राज्यवादी सत्ता की शानो-शौकत दिखाने वाली और राजसी दंभ का प्रतीक मानी-जाने वाली वो बग्घी, जो ब्रिटिश वायसराय की शाही सवारी हुआ करती थी. जिसपर शाही मेहमान और भारत से गुजरने वाले शाही मुसाफिरों को बिठाकर दिल्ली की सड़कों पर घुमाया जाता था. वो बग्घी कभी जिसे देख भारतीय रोष में उबल पड़ते थे. लेकिन, आज वही बग्घी भारतीयों के सामने थी और वो उसे देख मंत्रमुग्ध थे, खुद पर इतरा रहे थे. क्योंकि अब हाथ से गढ़ी, सोने और चांदी से मढ़ी, लाल मखमली गद्दी वाली बग्गी पर एक भारतीय बैठा था. एक समाजवादी देश का सबसे बड़ा प्रतिनिधि. एक ऐसा सपना सच हो रहा था जिसे सैकड़ों सालों से हर भारतीय देखता आ रहा था.

 first Republic day celebration

आज, 74वें गणतंत्र दिवस से एक दिन पहले हम आपको सुनाएंगे उस जश्न की कहानी जो 26 जनवरी, 1950 को देश की राजधानी दिल्ली में मनाया गया था. साथ ही बताएंगे कि कैसे बंटवारे के दौरान वायसराय की शाही बग्घी पाकिस्तान के हाथों में जाते-जाते बची.

रिपब्लिक कंट्री बनने की घोषणा

शुरुआत करते हैं 26 जनवरी, 1950 को हुए जश्न से. दिल्ली का वायसराय हाउस, जो कुछ ही घंटों बाद राष्ट्रपति भवन कहलाने वाला था, उसका दरबार हॉल सजकर तैयार था. सरकार से जुड़े नेता और बड़े अधिकारियों को 10 बजे तक पहुंचने का न्योता दिया गया था. कार्यक्रम शुरू हुआ. ठीक 10 बजकर 18 मिनट पर देश के आखिरी गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी ने भारत के एक गणतंत्र यानी रिपब्लिक कंट्री बनने की घोषणा की. इसके छह मिनट बाद दरबार हॉल में ही डॉ राजेंद्र प्रसाद ने देश के पहले राष्ट्रपति के तौर पर शपथ ली.

president house darbar hall 26 janyary 1950

राजेंद्र प्रसाद के शपथ लेते ही करीब साढ़े दस बजे 31 बंदूकों से उन्हें सलामी दी गई. और इसके साथ ही दिल्ली ही नहीं, पूरे देश में गणतंत्र दिवस का जश्न शुरू हो गया. उधर, राष्ट्रपति भवन में गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि इंडोनेशिया के पहले राष्ट्रपति सुकर्णो का स्वागत किया गया. फिर दोपहर ढाई बजे भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति भवन से बाहर निकले. लाखों की भीड़ उनका स्वागत कर रही थी. राष्ट्रपति मुस्कराते हुए सिर झुकाकर और हाथ जोड़कर बार-बार लोगों का अभिवादन कर रहे थे. लेकिन लोगों की तालियां तब भी नहीं रुक रही थीं.

तभी राष्ट्रपति भवन के मुख्य गेट के बायीं ओर से एक बग्घी आती दिखाई दी. ये थी ब्रिटिश वायसराय की सोने और चांदी से मढ़ी, मखमली गद्दी वाली और छह ऑस्ट्रेलियाई घोड़ों से खिंचने वाली शाही बग्घी. बग्घी को देखते ही भीड़ में और उत्साह आ गया, नारों का शोर और तेज हो गया.

इर्विन स्टेडियम में हुई थी परेड

भारत के पहले राष्ट्रपति बग्घी में बैठे और उनका कारवां इर्विन स्टेडियम की ओर रवाना हो गया. बता दें कि इर्विन स्टेडियम को अब मेजर ध्यानचंद स्टेडियम के नाम से जाना जाता है. 1950 से लेकर 1954 तक गणतंत्र दिवस परेड राजपथ पर नहीं हुई थी. ये कभी इर्विन स्टेडियम, कभी किंग्सवे कैंप, तो कभी रामलीला मैदान में आयोजित होती थी.

उस समय के चर्चित अखबार 'सैनिक समाचार' ने अपने एक लेख में राजेंद्र प्रसाद के काफिले पर लिखा था,

‘राष्ट्रपति भवन से लेकर इरविन स्टेडियम तक सड़कें लोगों से भरी हुई थीं. देश की राजधानी में ऐसी भीड़ दूसरी बार दिख रही थी. इसने 15 अगस्त 1947 को इंडिया गेट पर उमड़े जन सैलाब की याद दिला दी. राष्ट्रपति के काफिले के रास्ते में कहीं भी पैर रखने की जगह नहीं थी. सड़क, पेड़, दुकानों की छतें और बड़ी इमारतों पर लोग घंटों पहले से जाकर बैठ गए थे.’

राष्ट्रपति का कारवां कनॉट प्लेस और उसके करीबी इलाकों से गुजरते हुए करीब पौने चार बजे इर्विन स्टेडियम पहुंचा. 15 हजार लोगों के सामने आधुनिक गणतंत्र के पहले राष्ट्रपति ने तिरंगा फहराकर परेड की सलामी ली.

Dr Rajendra Prasad republic day irwin stadium

उस दिन हुई परेड में सशस्त्र सेना के तीनों बलों ने भाग लिया था. इसमें नौसेना, इन्फेंट्री, कैवेलरी रेजीमेंट, सर्विसेज रेजीमेंट के अलावा सेना के सात बैंड भी शामिल हुए थे. हालांकि, तब मोटर साइकिल पर स्टंट की परम्परा नहीं थी और ना ही वो झांकियां थीं, जिनके जरिए देश के अलग-अलग राज्य अपनी विरासत और संस्कृति प्रदर्शित करते हैं. बीटिंग रिट्रीट, लोक नृत्य और आतिशबाजी भी बाद में ही गणतंत्र दिवस के जश्न का हिस्सा बने.

पहले गणतंत्र दिवस के जश्न के बाद अब बात उस घटना की जिसके जरिए ये तय हुआ कि ब्रिटिश वायसराय की शाही बग्घी पर पाकिस्तान के नहीं, बल्कि भारत के राष्ट्रपति बैठेंगे.

जून 1947 की बात है अंग्रेजों से भारत को मुक्ति मिलने की तारीख आ चुकी थी. ऐसे में भारत और पाकिस्तान के बीच जल्द से जल्द बंटवारा कराने की जिम्मेदारी आखिरी वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन को दी गई. 15 अगस्त की तारीख में महज 73 दिन ही बचे थे. इतने कम समय में दोनों मुल्कों के बीच सरकारी संपत्ति और पैसे का बंटवारा होना था. ये बिलकुल भी आसान काम नहीं था. माउंटबेटन ने दिल्ली के हर ऑफिस में एक कैलेंडर टंगवाया जो ये बताता था कि 15 अगस्त आने में अब कितने दिन बाकी रह गए हैं.

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भारत की तरफ से इस काम में एचएम पटेल और पाकिस्तान की तरफ से चौधरी मोहम्मद अली को लगाया गया. इन दोनों को ही चीज सामना के बंटवारे से लेकर संबंध-विच्छेद की शर्तें तैयार करनी थीं. ऐसी शर्तें जिन पर दोनों राजी हों. सैकड़ों अधिकारी रोजाना लम्बी-चौड़ी सूचियां तैयार करके इन्हें भेजते और फिर ये अपनी सिफारिश माउंबेटन को भेजते. सरकारी कार्यालयों में रखे सामान से लेकर लगभग हर चीज के बंटवारे पे बात बन चुकी थी. भारतीय सेना के बंटवारे पर भी बात बन गई थी. 25 लाख सैनिकों में दो तिहाई भारत के साथ और एक तिहाई पाकिस्तान जाएंगे, ऐसा तय हुआ था. सैनिकों को अपना मुल्क चुनने के विकल्प भी दे दिए गए थे.

पैसे को लेकर खूब मचा बवाल!

लेकिन कुछ चीजें ऐसी थीं जिन पर बात नहीं बन पा रही थी. जब कहीं बंटवारा होता है तो आमतौर पर सबसे ज्यादा तू-तू, मैं-मैं पैसे को लेकर होती है. यहाँ भी यही हुआ. नकद पैसा कैसे बंटेगा, रिजर्ब बैंक में जो सोने के ईटें रखी थीं, उनका बंटवारा कैसे होगा? और अरबों डॉलर का वो कर्जा कौन चुकाएगा, जो ब्रिटिश शासन में देश पर चढ़ा था.

डोमिनीक लापिएर और लैरी कॉलिंस अपनी किताब 'फ्रीडम एट मिड नाइट' में लिखते हैं कि ये समस्या इतनी उलझ चुकी थी कि एचएम पटेल और मोहम्मद अली किसी समझौते पर नहीं पहुंच पा रहे थे. आखिर में इन दोनों को सरदार पटेल के घर के एक कमरे में बंद कर दिया गया. उनसे कहा गया कि जब तक वो दोनों किसी समझौते पर नहीं पहुँच जायेंगे, तब तक उन्हें कमरे ही रहना होगा. कई दिनों तक कमरे में सौदेबाजी चली. फिर तय हुआ कि बैंकों में मौजूद नकद रकम और अंग्रेजों से मिलने वाले पौंड-पावने का साढ़े 17 प्रतिशत पाकिस्तान को मिलेगा. और भारत पर चढ़े कुल कर्ज का भी साढ़े 17 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तान चुकाएगा.

इसके अलावा ब्रिटिश वायसराय से जुड़ीं शाही चीजों को बांटने में काफी माथा-पच्ची की गई. कई दिनों की बातचीत के बाद वायसराय की स्पेशल सुनहरी-सफेद रेलगाड़ी भारत को मिली. भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ और पाकिस्तान के गवर्नर की सभी निजी गाड़ियां पाकिस्तान के हिस्से में गईं.

वायसराय के अस्तबल में मची खींचतान!

इस दौरान एक बेहद चर्चित विभाजन वायसराय के अस्तबल में हुआ. वायसराय की सोने और चांदी से मढ़ी बग्घी आखिर किसे मिले? ये तय नहीं हो पा रहा था. काफी समय तक इस पर सोच विचार किया गया. कोई हल नहीं निकला, दोनों ही मुल्क इसे छोड़ने को राजी नहीं थे. दोनों ही आजादी के बाद अपने-अपने राष्ट्रपति की शाही सवारी बनाने को उत्सुक थे.

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जब कोई भी हल नहीं निकला तो माउंटबेटन के निजी सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट पीटर होज ने एक सुझाव दिया. बोले कि अब ये फैसला भाग्य के भरोसे छोड़ दो. एक सिक्का उछालकर तय कर लो कि शाही बग्घी कौन ले जायेगा? पाकिस्तान की तरफ से कमांडर-मेजर याकूब खां और भारत की तरफ से कमांडर-मेजर गोविंद सिंह को बुलाया गया. चांदी का सिक्का हवा में उछाला गया. गोविन्द सिंह बोले 'सन' लिखी साइड मेरी. सिक्का जब खनकता हुआ अस्तबल के फर्श पर गिरा तो उसके ऊपर मोटा-मोटा 'सन' लिखा चमक रहा था. गोविंद सिंह ख़ुशी से उछल पड़े.

क्योंकि अब किस्मत ये फैसला कर चुकी थी कि साम्राज्यवादी शासकों की शाही गाड़ी में नए समाजवादी भारत के राष्ट्रपति बैठेंगे और पूरी दिल्ली की सैर किया करेंगे.

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