साइरस मिस्त्री मौत से ठीक पहले जिस मंदिर में गए थे, उसके अंदर क्या है?
छह महीने पहले ही साइरस मिस्त्री ने इस मंदिर की मरम्मत के लिए पैसा दिया था. साइरस इस मंदिर के लिए गुप्तदान भी करते थे

टाटा संस के पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री (Cyrus Mistry) की मौत के बाद उनके आखिरी समय की गतिविधियों पर काफी कुछ कहा-लिखा जा रहा है. रविवार, 4 सितंबर को महाराष्ट्र के पालघर में हुए सड़क हादसे में साइरस मिस्त्री की मौत हो गई. इससे कुछ घंटे पहले उन्होंने गुजरात के उदवाड़ा में बने 'ईरानशाह' फायर टेंपल' (Iranshah Fire Temple in Udvada) के दर्शन किए थे. पारसी समुदाय के लिए इस मंदिर की काफी अहमियत बताई जाती है. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक खुद साइरस मिस्त्री इस मंदिर के रखरखाव का खर्च उठाते थे.
Parsis के लिए क्यों अहम है Fire Temple?उदवाड़ा गुजरात के वलसाड जिले का एक इलाका है. सूरत से 120 किलोमीटर दूर अरब महासागर पर बसा ये छोटा शहर पारसी समुदाय के लिए एक पवित्र स्थान है. दुनियाभर से पारसी यहां पवित्र अग्नि (Holy Fire of Parsi Community) के दर्शन करने आते हैं. अग्नि को फारसी में ‘आतिश’ (या आतश) कहते हैं, जिसके पारसी पूजक बताए जाते हैं. वहीं ईरानी शासक को फारसी में ‘बेहराम’ (या बहराम) कहा जाता है. इसीलिए उदवाड़ा के फायर टेंपल में जल रही अग्नि को पारसी समुदाय ‘आतिश बेहराम’ भी कहते हैं. ईरान पर कभी पारसियों के वंशजों का राज था. तब उनका धर्म फारस साम्राज्य का राजधर्म हुआ करता था. इस वजह से उदवाड़ा में जल रही पवित्र अग्नि को पारसी लोग 'ईरानशाह' भी कहते हैं.

उदवाड़ा का आतिश बेहराम भारत का सबसे पुराना 'जीवित' फायर टेंपल (Existing Fire Temple in India) है. मतलब इसकी आतिश आज भी जल रही है. बताते हैं कि इस पवित्र अग्नि को भारत में नहीं जलाया गया, बल्कि सन् 715-720 के आसपास ईरान से यहां लाया गया था. 700 साल से भी ज्यादा का समय बीत चुका है, लेकिन ये आतिश बुझी नहीं है.
भारत क्यों लाए गए 'ईरानशाह'?8वीं सदी आते-आते ईरान के फारस साम्राज्य को अरब के शासकों ने खदेड़ दिया था. तब अपने वंश की रक्षा के लिए उन्हें ईरान छोड़ना पड़ा था. 715-720 के बीच वे भारत पहुंचे. साथ में इस अग्नि को भी लेकर आए जो एक प्रतीक के रूप में ईरान के फारस साम्राज्य को रिप्रेजेंट करती है. पारसी समुदाय के शीर्ष धार्मिक पुजारी या धर्माचार्य इस अग्नि की देखरेख करते हैं. इन पुजारियों को ‘दस्तूर’ कहा जाता है. ये धार्मिक गुरू उन्हीं दस्तूरों के वंशज हैं जो इस अग्नि को यहां लाए थे.
आतिश बेहराम पहले उदवाड़ा में नहीं था. पारसी समुदाय के वंशज जब फारस की खाड़ी से होते हुए गुजरात के समुद्री तट दीव पर पहुंचे तो पहले उन्होंने वलसाड के संजन शहर को अपना ठिकाना बनाया था. जाहिर है पवित्र अग्नि को सबसे पहले संजन में ही स्थापित किया गया. माना जाता है कि उन लोगों ने ही संजन को ये नाम दिया था. उस समय यहां हिंदू राजा जदी राणा का शासन था. जानी-मानी लेखक और टेक्स्टबुक एडिटर पाउला हार्ट्ज की किताब 'जॉरोऐस्ट्रियनिजम' (Zoroastrianism) के मुताबिक जदी राणा ने कुछ शर्तों के साथ पारसी वंशजों को शरण और बसने के लिए जमीन दी थी. वे यहां फले-फूले और सन् 721 ईसवी में पहले आतिश बेहराम का निर्माण किया.
लेकिन 400 सालों तक यहां रहने के बाद 1297 के आसपास मुस्लिम शासक सुल्तान महमूद ने गुजरात पर हमला कर दिया, जिसे हम महमूद गजनवी के नाम से जानते हैं. उसने संजन पर कब्जा किया, जिसके चलते पारसी वंशजों को ये जगह छोड़नी पड़ी. उन्हें भागकर गुफाओं में शरण ली, जहां 12 सालों तक पवित्र अग्नि को भी रखा गया. बाद में हालात ठीक हुए तो वे अग्नि को लेकर नवसारी जिला पहुंचे और वहां 14 साल रहे. अब पवित्र अग्नि के दर्शन के लिए श्रद्धालु भी आने लगे थे.
1419 से 1740 तक, 300 साल से भी ज्यादा समय यहां बिताने के बाद नवसारी में खानाबदोश लुटेरों का खौफ काफी बढ़ गया था. ऐसे में अग्नि को अस्थायी रूप से सूरत लाया गया. लेकिन यहां के स्थानीय पुरोहितों के साथ पारसियों के मसले पैदा हो गए. उन्हें फिर ईरानशाह को नवसारी से निकालकर वलसाड लाना पड़ा. लेकिन इस बार संजन के लोकल पुजारियों के साथ मैत्रीपूर्ण शर्तें नहीं बन सकीं.
सैकड़ों सालों का सफर तय करते-करते आखिरकार 1741 में ईरानशाह को उदवाड़ा लाया गया. एक साल के अंदर यहां आतिश बेहराम का निर्माण किया गया. इस तरह 1742 में इस पवित्र अग्नि को भारत में अपने लिए स्थायी जगह मिली. 280 साल बीत चुके हैं, ये आतिश लगातार उदवाड़ा में जल रही है.
रविवार को हुए हादसे से कुछ घंटे पहले साइरस मिस्त्री आतिश बेहराम गए थे. फायर टेंपल के दस्तूर जी खुर्शीद ने बताया कि मिस्त्री ने मंदिर में पूजा की थी. ये भी बताया कि साइरस और उनके पिता फायर टेंपल के लिए गुप्त दान भी करते थे. छह महीने पहले ही उनकी कंपनी ने पारसियों के इस पवित्र स्थल की मरम्मत करवाई थी.
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