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सपा-RLD की चुनावी दोस्ती-दुश्मनी इन्हें कितना फायदा पहुंचाती रही है?

जब यूपी चुनाव के बाद मुलायम सिंह ने अजित सिंह से अपने अपमान का कर्रा बदल लिया.

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रालोद और सपा के बीच दोस्ती और अदावत का इतिहास रहा है, अब दोनों पार्टियों का नेतृत्व युवा हाथों में है, आगामी विधानसभा चुनावों में ये रालोद-सपा का गठबंधन तय हो चुका है. देखने वाली बात होगी कि ये जुगलबंदी किस ठौर रुकती है (फोटो सोर्स -ट्विटर)
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शिवेंद्र गौरव
7 दिसंबर 2021 (Updated: 7 दिसंबर 2021, 04:31 PM IST) कॉमेंट्स
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साल 2012. मेरठ का विधानसभा चुनाव. सिवालखास सीट पर रालोद (RLD) ने यशवीर सिंह को प्रत्याशी बनाया. इलाके के जाट नेता (दिवंगत) अजित सिंह के पास पहुंचे और कहा, 'भाईसाब आपने गलत आदमी नू टिकट कर दिया.' भाईसाब ने जवाब दिया, 'मैंने जिसे देना था दे दिया. तने नहीं जंचता तो उसे वोट न करो.'
लेकिन वोट मिला, जमकर मिला और यशवीर सिंह चुनाव जीते.
कहा जाता है कि जाटलैंड के वोटर कितना भी नाराज़ हो जाएं, वोटिंग के वक़्त छोटे चौधरी से हट नहीं पाते थे. प्रचलित कहानियां ये भी हैं कि चौधरी चरण सिंह मतदान की तारीख़ से ऐन पहले जाटों के सपने में आते थे, और कहते थे- मुझे भूल गए हो, लेकिन अजित का ध्यान रखना.
सपने कितने सच हैं ये तो देखने वाला ही जानता है, पर ये बात मुकम्मल है कि सियासत के मामले में अजित सिंह को अपने पिता से बतौर विरासत दो ख़ास चीज़ें मिलीं. एक, पश्चिमी उत्तर-प्रदेश का जाट मुस्लिम वोट-बैंक और दूसरा, गठबंधन का हुनर.
लोकदल का चुनाव निशान खेत जोतता हुआ किसान था. (फोटो सोर्स - आज तक और ट्विटर)
लोकदल का चुनाव निशान खेत जोतता हुआ किसान था. (फोटो सोर्स - आज तक और ट्विटर)


राष्ट्रीय लोकदल (Lokdal) का वोट-बैंक कितना कम हुआ इस पर चर्चा करेंगे तो मुजफ्फरनगर दंगों का ज़िक्र आएगा, पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में जाट नेताओं के टोटे की भरपाई का ज़िक्र आएगा, अमित शाह की कूटनीति पर भी बतकही होगी और मुंबई से लड़ने आए भाजपा प्रत्याशी सत्यपाल सिंह की जीत का विश्लेषण भी करना होगा. यानी कहने को बहुत कुछ रोचक यहां भी है. लेकिन आज बात गठबंधन की.
चौधरी चरण सिंह की तीसरी पीढ़ी यानी जयंत चौधरी और समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा अखिलेश यादव आगामी यूपी विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन का ऐलान करने को हैं. इसलिए आज लोकदल के इतिहास के वो पन्ने पलटेंगे जिनमें सपा के साथ गठबंधन की कहानियां दर्ज़ हैं. #ख़राब सियासी रिश्तों से दोस्ती तक का सफ़र- यूं तो मुलायम सिंह और अजित सिंह के बीच दो बार बात बिगड़ चुकी थी. एक बार तब जब चौधरी चरण सिंह बीमार थे और लोकदल में अजित सिंह की एंट्री हो रही थी. साल था 1987. अजित सिंह पार्टी पर कंट्रोल चाहते थे. ये बात पार्टी के दूसरे नेताओं को अखर रही थी. ख़ास तौर पर हेमवतीनंदन बहुगुणा, चौधरी देवी लाल, कर्पूरी ठाकुर और मुलायम सिंह यादव को. बात बिगड़ी और सबसे पहला नुकसान मुलायम सिंह को उठाना पड़ा. उनको नेता विपक्ष के पद से हटा दिया गया और अजित सिंह ने नेता चुना अपने क़रीबी सत्यपाल सिंह यादव को.
दोबारा बात बिगड़ी दो साल बाद यानी 1989 में. मुलायम ने अपने अपमान का कर्रा बदला लिया. जनता दल में मुलायम भी थे और अजित भी. यूपी विधानसभा चुनाव में जनता दल को बहुमत से 5 कम यानी 208 सीटें मिली थीं (तब यूपी विधानसभा में 425 सीटें थीं. इन 5 सीटों का भी जुगाड़ हो गया. लेकिन मामला मुख्यमंत्री चुने जाने पर अटका. जनता दल के अध्यक्ष वी.पी. सिंह थे. चाहते थे कि सीएम अजित सिंह बनें और डिप्टी सीएम मुलायम. लेकिन मुलायम ने सीएम पद के लिए ताल ठोक दी. नतीजा ये रहा रहा कि विधायक दल की वोटिंग करानी पड़ी. जिसमें मुलायम सिंह के 115 वोट के मुकाबले अजित सिंह को 110 वोट मिले और मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने. #साल 2003, मुलायम से दोस्ती- सियासत का सही मौसम वैज्ञानिक उसे कहते हैं जो वक़्त रहते सत्ता की गंध भांप ले, जिसके चुनावी लिटमस पेपर सही रिजल्ट देते हों, या जिसे पता हो कब-कहां गठबंधन कर लेना है. और इस मामले में अजित सिंह काबिल आदमी थे. सियासी पद और कुर्सी की उठा-पटक भले रही हो लेकिन 2003 आते-आते अजित सिंह और मुलायम सिंह की दोस्ती हो गई. मध्यस्थ रहे चंद्रशेखर. इस वक़्त तक अजित सिंह NDA में थे. लेकिन NDA भी छोड़ा और RLD के 14 विधायकों का समर्थन भी मुलायम सिंह को दे दिया. इससे मायावती की सरकार गिरी और मुलायम सिंह तीसरी बार मुख्यमंत्री बने. इस सरकार में नंबर दो रहीं अजित सिंह की ख़ास अनुराधा चौधरी. कहा जाता है उस वक़्त RLD में वही होता था जो अनुराधा चाहती थीं.
अजीत सिंह और मुलायम सिंह यादव (फोटो सोर्स - आज तक)
अजित सिंह और मुलायम सिंह यादव (फोटो सोर्स - आज तक)

#साल 2004 लोकसभा चुनाव- 2003 में मुलायम से शुरू हुई दोस्ती 2004 के लोकसभा चुनाव में भी कायम रही. गठबंधन हुआ. RLD दस सीटों पर लड़ी और 3 पर जीत हासिल की. बागपत से एक बार फिर अजित सिंह सांसद चुने गए. लेकिन ये वो दौर था जब सपा में अमर सिंह का दबदबा बढ़ रहा था. उनमें और अजित सिंह की आपस में बनती नहीं थी. इसका असर सपा-RLD के गठबंधन पर भी पड़ा. #साल 2007 विधानसभा चुनाव- 2007 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए. कभी 'तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार' वाला नारा देने वाली मायावती इस बार दलित-ब्राह्मण फ़ॉर्मूले वाली सोशल इंजीनियरिंग का सफल प्रयोग करती हैं. बसपा 86 सीटों पर ब्राह्मण प्रत्याशी उतारती है जिनमें से 41 कामयाब भी होते हैं. बसपा के खाते में कुल सीटें आती हैं 206. सपा की सत्ता से विदाई होती है. मायावती मुख्मंत्री बनती हैं. RLD ने इस चुनाव में किसी के साथ गठबंधन नहीं किया था. और कुल 254 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे. लेकिन जीत मिली सिर्फ 10 सीटों पर. #2009 का लोकसभा चुनाव- 2009 के लोकसभा चुनाव में अजित सिंह पाला बदलते हैं. सपा के साथ गठबंधन की बजाय भाजपा का दामन थामते हैं. वजह वही, अमर सिंह की वजह से सपा से बढ़ती दूरी. हालांकि 2004 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार जीत का आंकड़ा थोड़ा बेहतर रहा. 10 की बजाय 7 सीटों पर चुनाव लड़े और 5 पर जीत हासिल की. पिछली बार से 2 सीट ज्यादा. RLD का समर्थन जुटाने का प्रयास कांग्रेस ने किया भी. लेकिन अजित सिंह ने कहा,
कांग्रेस को अमर सिंह चला रहे हैं. ऐसी सरकार जिसको अमर सिंह चला रहे हों उसे हम समर्थन नहीं दे सकते.
लेकिन सपा के 39 सांसद मिलाकर मनमोहन सिंह वाली पहली UPA सरकार बन गई. इसी चुनाव के साथ अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी का पॉलिटिकल लॉन्च हुआ था. मथुरा से जयंत चौधरी चुनाव लड़े और जीत कर संसद पहुंचे.
पिता अजीत सिंह के साथ जयंत सिंह (फोटो सोर्स - आज तक)
पिता अजित सिंह के साथ जयंत सिंह (फोटो सोर्स - आज तक)

#2012 यूपी विधानसभा चुनाव- 2012 के यूपी चुनाव से पहले अजित सिंह ने फिर पलटी मारी. वजह, सत्ता का सुख न ही केंद्र में भाजपा के साथ रहके मिल पा रहा था और न यूपी में सत्ता से दूर रहकर. केंद्र में अजित सिंह ने 2011 में भाजपा का दामन छोड़ कांग्रेस का साथ पकड़ा. इनाम भी मिला, सिविल एविएशन मिनिस्टर बना दिए गए. इधर अखिलेश यादव की अगुवाई में सपा स्पष्ट बहुमत की तरफ़ बढ़ती दिखाई दे रही थी. RLD ने सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और 46 में से 9 विधानसभा सीटों पर कब्ज़ा कर लिया. हालांकि सपा की अपनी जीती सीटें 224 थीं, जो टीपू भैया को स्पष्ट बहुमत वाली सरकार में मुख्यमंत्री बनाने के लिए काफी थीं.
जयंत चौधरी और अखिलेश यादव एक मंच पर (फोटो सोर्स- आज तक)
जयंत चौधरी और अखिलेश यादव एक मंच पर (फोटो सोर्स- आज तक)

#2014 लोकसभा चुनाव- गुजरात से मोदी को दिल्ली लाया गया. बताने की ज़रूरत नहीं है कि भाजपा के लिए ये कितनी बड़ी जीत थी. कुल 543 में से 336 सीटें NDA के खाते में आईं और UPA सिर्फ़ 60 सीटों पर सिमटकर रह गई. सपा इस चुनाव में फिर भी 5 सीटें निकाल ले गई, लेकिन RLD के लिए मानो पैरों तले ज़मीन खिसक गई. चुनाव परिणाम चौधरी चरण सिंह की विरासत का अर्श चटकने जैसा था. RLD UPA के साथ गठबंधन में कुल 8 सीटों पर लड़ी और सारी सीटें हार गई.
फतेहपुर सीकरी से RLD के टिकट पर चुनाव लड़े अमर सिंह भी बुरी तरह हारे. और बाप-बेटे यानी अजित सिंह और जयंत भी अपनी सीट नहीं बचा पाए. मथुरा में जयंत चौधरी को हेमा मालिनी से हार मिली और बागपत सीट पर अजित सिंह को दिल्ली में कमिश्नर रहे सत्यपाल सिंह ने हराया. चूंकि सत्यपाल सिंह भी जाट बिरादरी से ही आते हैं, सो इस हार के बाद इस बात में भी दम नहीं रहा कि चौधरी चरण सिंह के बाद जाटों के अकेले रहनुमा छोटे चौधरी यानी अजित सिंह ही हैं.
पश्चिमी बेल्ट में RLD की खस्ताहाली की दूसरी वजह 2013 के जाट-मुस्लिम दंगे भी रहे. इस बड़े इलाके में जाट-मुस्लिम और दलित वोट बैंक पर चौधरी चरण सिंह के वक़्त लोकदल की जो पकड़ थी, वो अजित सिंह की कोशिशों के बावजूद भी उतनी कभी नहीं सधी और 2013 में तो मुस्लिमों ने रालोद को सिरे से ही नकार दिया.
सत्यपाल सिंह जाट बिरादरी से ही आते हैं, राजनीति में आने से पहले मुंबई पुलिस कमिश्नर हुआ करते थे. बागपत सीट जीतने के बाद सत्यपाल सिंह को मोदी सरकार में मंत्री बनाया गया था (फोटो सोर्स -आज तक)
सत्यपाल सिंह जाट बिरादरी से ही आते हैं, राजनीति में आने से पहले मुंबई पुलिस कमिश्नर हुआ करते थे. बागपत सीट जीतने के बाद सत्यपाल सिंह को मोदी सरकार में मंत्री बनाया गया था (फोटो सोर्स -आज तक)

#2017 विधानसभा चुनाव- इस चुनाव में भाजपा के मुकाबले सपा और कांग्रेस ने गठबंधन करके नैया पार लगाने की कोशिश की. इसे लेकर अजित सिंह से भी बात चलती रही. लेकिन वे 35 सीटों पर अड़े थे, जबकि कांग्रेस की तरफ़ से 15-16 सीट का ऑफर था. सो बात बनी नहीं और RLD ने अकेले चुनाव लड़ा. कुल 277 सीटों पर RLD ने अपने प्रत्याशी उतारे, लेकिन सिर्फ एक सीट निकली. सपा-कांग्रेस गठबंधन भी कोई चमत्कार नहीं दिखा पाया और प्रदेश में भाजपा की प्रचंड बहुमत वाली सरकार बनी. तमाम अटकलों और रस्साकशी के बाद योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बना दिया गया. #2019 का लोकसभा चुनाव- इस चुनाव में RLD सपा-बसपा के महागठबंधन में शामिल हुई. 'बुआ-बबुआ' एक हुए, लेकिन कोई चमत्कार नहीं हो सका. 'मोदी-मोदी' इस बार भी जनता पर हावी रहा. भाजपा के खाते में यूपी की 62 सीटें गईं, जबकि महागठबंधन में शामिल बसपा ने 10, सपा ने 5 और अपना दल ने 2 सीटें जीतीं. लेकिन RLD के हिस्से एक भी सीट नहीं आई. 2014 के मुकाबले वोटशेयर भी करीब ढाई फ़ीसद से घटकर डेढ़ फीसद रह गया.
अखिलेश यादव, अजीत सिंह और मायावती (फोटो सोर्स -आज तक)
अखिलेश यादव, अजित सिंह और मायावती (फोटो सोर्स -आज तक)


और अब बारी 2022 के यूपी विधानसभा चुनावों की है. कोरोना के चलते जिस तरह पंचायत चुनावों में देरी हुई थी, अगर वैसा कुछ अप्रत्याशित न घटा, तो कुछ ही महीनों में चुनाव होने की संभावना है. जयंत चौधरी और अखिलेश यादव के बीच गठबंधन और सीटों के बंटवारे को लेकर कई दौर की मीटिंग्स हुई हैं. गठबंधन तय हो चुका है. जयंत चौधरी ने करीब 40 सीटों की डिमांड रखी थी. सपा भी इसके आस-पास सीटें देने को राजी है. बस औपचारिक घोषणा होने की देर है.
चौधरी चरण सिंह का  दौर गया. इसी साल अजित सिंह का भी कोरोना के चलते निधन हो गया. सो लोकदल का सारा दारोमदार उनकी तीसरी पीढ़ी पर है. एक वक़्त था जब यूपी में लोकदल के 84 विधायक हुआ करते थे. आज जयंत चौधरी उस लिगेसी को आंकड़ों के लिहाज से कितना बचा पाएंगे, ये आने वाला वक़्त बताएगा. बाकी आपको बताने के लिए हम हैं ही.

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