The Lallantop
Advertisement

सियालकोट में ईशनिंदा के नाम पर श्रीलंकाई नागरिक की लिंचिंग कोई बड़ा आश्चर्य नहीं है

पाकिस्तान में इस तरह की हत्याओं का नुकसान आने वाली पीढ़ी को उठाना पड़ेगा.

Advertisement
Img The Lallantop
तस्वीरें पीटीआई से साभार हैं.
pic
अभिषेक
6 दिसंबर 2021 (Updated: 6 दिसंबर 2021, 04:39 PM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
3 दिसंबर 2021. शुक्रवार का दिन था. वीकेंड की पूर्व संध्या अमूमन आसानी से बीत जाती है. लेकिन उस शाम जो ख़बर फ़्लैश हो रही थी, उसने समय को थाम दिया था. ख़बर कुछ यूं थी, पाकिस्तान के सियालकोट में भीड़ ने एक श्रीलंकाई व्यक्ति की पीट-पीटकर हत्या कर दी. फिर उसकी लाश को घसीट कर ले गए और सड़क के बीचोंबीच रखकर उसमें आग लगा दी. इन सबके बीच भीड़ ने धार्मिक नारे लगाए. कुछ ने लाश के साथ सेल्फ़ी खींची. कई लोगों ने वीडियो को सोशल मीडिया पर पोस्ट भी किया. वो भी पूरी शानो-शौकत के साथ. ये हैवानियत काफ़ी देर तक चली. इस दौरान पुलिस को भी ख़बर पहुंची. पुलिस आई भी. लेकिन वो तमाशबीन बनकर खड़ी रही. जब भीड़ का काम पूूरा हो गया, तब पुलिस की कार्रवाई शुरू हुई. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, अभी तक 130 से अधिक संदिग्धों को गिरफ़्तार किया गया है. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने श्रीलंकाई राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे से बात की. इमरान ख़ान ने सख़्त कार्रवाई का भरोसा दिया है. पाकिस्तान में एक धड़ा इस लिंचिंग का विरोध कर रहा है. क्या ये कार्रवाई और विरोध पर्याप्त है? क्या इससे ईशनिंदा के नाम पर होने वाली बर्बरता रुक जाएगी? और, इस कुकृत्य में सरकार कितनी ज़िम्मेदार है? सब विस्तार से बताएंगे.

इतिहास के कुछ पन्ने

ये पन्ना साल 2009 का है. एक ईसाई महिला थी, आसिया बीबी. वो खेतों में दिहाड़ी मज़दूरी करती थी. एक दिन उसने कथित तौर पर मुस्लिमों के लिए आरक्षित कप से पानी पी लिया. इसको लेकर झगड़ा हुआ. साथ में काम करनेवालों ने उस पर ईशनिंदा का आरोप लगा दिया. आसिया बीबी को पुलिस ने तुरंत गिरफ़्तार कर लिया. उसके ऊपर केस चला. निचली अदालत ने मौत की सज़ा सुनाई. लाहौर हाईकोर्ट ने सज़ा बरकरार रखी. 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने पूरा फ़ैसला उलट दिया. आसिया बीबी को रिहा कर दिया गया. अदालत ने तो आसिया को छोड़ दिया, लेकिन बाहर एक कट्टर जमा उसकी जान लेने पर उतारू थी. आख़िरकार, उसे पाकिस्तान छोड़कर जाना पड़ा. आसिया बीबी अपवाद थी. जो अपवाद नहीं बन पाए, उनका क्या हुआ? ऐसे लोगों के तीन वर्ग बने. पहले वो, जो सक्षम थे, लेकिन वक़्त की नज़ाक़त नहीं समझ पाए. मसलन, सलमान तासीर पंजाब प्रांत के गवर्नर थे. उन्होंने आसिया बीबी से जेल में मुलाक़ात की और ईशनिंदा कानून का विरोध किया. नतीजा, उनके ही बॉडीगार्ड मुमताज़ क़ादरी ने उनकी हत्या कर दी. क़ादरी को मौत की सज़ा हुई. उसके जनाजे को आलीशान बनाया गया. क़ादरी को हीरो का दर्ज़ा दिया गया. इसके पीछे तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (TLP) थी. पाकिस्तान सरकार ने अक्टूूबर 2021 में TLP से हाथ मिला लिया. उसे सारे गुनाहों से बरी कर दिया गया है. पाकिस्तान सरकार के मंत्री TLP मुख्यालय में सजदा किए रहते हैं. उसी TLP पर सियालकोट लिंचिंग का आरोप भी लग रहा है. आसिया बीबी को सपोर्ट करने में एक और की जान गई थी. शाहबाज़ भट्टी केंद्रीय मंत्री थे. अल्पसंख्यक मामलों के. सलमान तासीर की हत्या के ठीक दो महीने बाद की बात है. राजधानी इस्लामाबाद में उनकी कार को घेरकर गोलीबारी की गई. भट्टी मारे गए. इसकी ज़िम्मेदारी ली, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) ने. पाकिस्तान सरकार ने पिछले महीने ही TTP से संघर्षविराम समझौता किया है. अब आप समझ रहे होंगे कि किस तरह सरकारें कट्टरता की जड़ों में खाद-पानी डालतीं है. ये चरित्र पाकिस्तान तक सीमित नहीं है. दुनियाभर में ऐसा हो रहा है. मात्रा ऊपर-नीचे हो सकती है. सरकारें क्षणिक फायदों के लिए अपनी आंखें मूंद लेतीं है या बैकडोर से ऐसे पक्षों को सपोर्ट पहुंचाती हैं. कई जगहों पर ये छिप-छिपाकर हो रहा है. पाकिस्तान में सरेआम. नहीं संभले तो इसका नुकसान आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा. ये सतत सत्य है. हमने तीन वर्गों की बात की थी. दूसरे वर्ग में वे हैं, जो अदालत से तो छूट गए, लेकिन भीड़ से नहीं बच पाए. उनके पास एक ही विकल्प था. सरकार का हाथ. लेकिन हमेशा की तरह उसने हाथ खड़े कर दिए.

एक भी आरोपी को फांसी नहीं

पाकिस्तान में ईशनिंदा के एक भी आरोपी को फांसी पर नहीं चढ़ाया गया है. लेकिन भीड़ ऐसे 80 से अधिक लोगों की हत्या कर चुकी है. अदालत से छूटने के बाद भी उन्हें डर के साये में जीना पड़ता है. आसिया बीबी को कनाडा जाने का मौका मिल गया. जो मामले चर्चा में नहीं आ पाए, उनका भविष्य अंधकारमय था और अभी भी है. तीसरा वर्ग उनका है, जिन्हें अदालत जाने का मौका तक नहीं मिला. आरोप लगा और भीड़ ने पल भर के अंतराल में अपना काम कर दिया. साल 2014 की बात है, शमा और शहज़ाद दंपति पर कुरान के पन्ने फाड़ने का आरोप लगाया गया. मस्जिद के इमाम ने लाउडस्पीकर पर इसका ऐलान किया. भीड़ इकट्ठा हुई. दोनों को नंगे शरीर घर से बाहर निकाला गया. फिर उन्हें ज़िंदा ईंट भट्ठी में फेंक दिया गया. इस मामले में गिरफ़्तारियां हुईं. निचली अदालत ने सज़ा भी सुनाई. बाद में ऊपरी अदालत ने अधिकतर को बरी कर दिया. 2017 में एक यूनिवर्सिटी स्टूडेंट मशाल ख़ान ने अधिकारियों की आलोचना की. उसने यूनिवर्सिटी में धांधली का आरोप लगाया था. अफ़वाह फैलाई गई कि मशाल ने सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक बातें लिखीं. फिर छात्रों और यूनिवर्सिटीज़ स्टाफ़्स ने मिलकर उसकी हत्या कर दी. कैंपस के अंदर.

श्रीलंकाई नागरिक की हत्या

हालिया मामला भी इसी किस्म का है. श्रीलंकाई नागरिक प्रियंथा दिव्यदना सियालकोट में फ़ैक्ट्री मैनेजर के तौर पर काम कर रहे थे. कहा जाता है कि प्रियंथा मज़दूूरों को लेकर सख़्त थे. मज़दूर इसको लेकर नाराज़ चल रहे थे. तीन दिसंबर को एक बार फिर झगड़ा हुआ. इसी दौरान अफ़वाह फैली कि प्रियंथा ने धार्मिक पोस्टर छीन कर कचरे के डिब्बे में फेंक दिया. फिर वही हुआ, जो होता आ रहा है. प्रियंथा को बेरहमी से मारा गया और वज़ीराबाद रोड पर उनकी लाश में आग लगा दी. मॉब लिंचिंग के दौरान मलिक अदनान नाम के एक व्यक्ति ने अपने शरीर को ढाल बना लिया. अदनान ने प्रियंथा बचाने की पूरी कोशिश की. लेकिन वो नाकाम रहे. इमरान ख़ान ने बहादुरी दिखाने के लिए मलिक अदनान को तमगा-ए-शुजात देने का ऐलान किया है. सरकार दावा कर रही है कि किसी भी दोषी को बख़्शा नहीं जाएगा. सेना ने भी हरसंभव मदद देने का ऐलान किया है. सोशल मीडिया पर भी जमकर मुख़ालफत हो रही है. क्या ये सब पर्याप्त है? क्या इससे बर्बरता रुकेगी? ऐसा दावा करना जल्दबाजी होगी. जानकारों का कहना है कि ये क्षणिक दिखावा है. धीरे-धीरे मामला शांत पड़ जाएगा. और, सरकार आगे बढ़ जाएगी. लिंचिंग पहले भी होती रही है. सरकार ट्वीट कर देती है. सरकारी बयान जारी हो जाते हैं. कुछ गिरफ़्तारियां होती हैं. फिर आरोपी छूट जाते हैं. और, वही सिलसिला दोहराता रहता है. कोई मूल समस्या की जड़ में नहीं जाना चाहता. साल 1929 की बात है. इल्मदीन नाम के मुस्लिम युवक ने एक हिंदू पब्लिशर राजपाल की हत्या कर दी. उनके बुकस्टोर के अंदर. राजपाल पर आरोप ये था कि उन्होंने पैगंबर मोहम्मद को लेकर आपत्तिजनक किताब छापी. छह महीने बाद इल्मदीन को मौत की सज़ा दी गई. बाद में पाकिस्तान के संस्थापक बने मोहम्मद अली जिन्ना ने इल्म दीन के लिए अंतिम अपील की थी. इल्म दीन को पाकिस्तान में हीरो माना जाता है. उसके ऊपर फ़िल्में बन चुकीं है. ईशनिंदा के मामले में तलवार लेकर तैयार रहने वाली भीड़ इल्म दीन से प्रेरणा पाती है. ईशनिंदा कानून अंग्रेज़ लेकर आए थे. 1860 में. इस कानून के तहत दोषी व्यक्ति को एक से दस साल की सज़ा दी जाती थी. कुछ मामलों में ज़ुर्माने की भी व्यवस्था थी. सेंटर फ़ॉर रिसर्च एंड सिक्योरिटी स्टडीज़ की रिपोर्ट के अनुसार, 1860 से 1947 के बीच ईशनिंदा के सिर्फ़ सात केस दर्ज़ हुए. 1947 में भारत दो टुकड़ों में बंट गया. धर्म के आधार पर पाकिस्तान नाम का नया मुल्क़ बना. उसने अपने यहां इस कानून को कायम रखा. तभी से सत्ताधीशों ने मिलिटरी और कठमुल्लाओं को साधने की परंपरा शुरू की. इसका नतीजा ये हुआ कि शासन पीछे चला गया. असली ताक़त कठमुल्लाओं और सेना के पास आ गई. 1986 में ज़िया उल-हक़ की सरकार ने ईशनिंदा के मामले में मौत की सज़ा का प्रावधान जोड़ दिया. प्रावधान के लागू होने के बाद से ये मामले कई गुना बढ़ गए. अधिकतर मामले इतने फ़र्ज़ी होते हैं कि पहली नज़र में ही अदालत की पकड़ में आ जाते हैं. बचकाने मामलों में ईशनिंदा का केस लगा दिया जाता है. जैसे, बच्चे के नाम में ग़लती, पानी को लेकर झगड़ा, गैर-धार्मिक किताब जलाना, फ़ेसबुक पर तस्वीर शेयर करना, अख़बार के पन्ने में दवा लपेटकर देना आदि. एक बार केस लग गया तो कानून अंधा हो जाता है. उसके बाद बेगुनाही साबित करने की ज़िम्मेदारी आपकी. हर सरकार को पता है कि ग़लत हो रहा है. लेकिन कोई भी इसे बदलने की हिम्मत नहीं दिखाता. इमरान ख़ान सरकार सियालकोट की घटना को लेकर गंभीर है. सावर्जनिक दिखावा मौन सहमति से बेहतर होता है. ये अच्छी बात है. इसकी तारीफ़ हो रही है. होनी भी चाहिए. लेकिन क्या इमरान ख़ान कानून में बदलाव करने की हिम्मत दिखा पाएंगे? क्या वो कानून का मज़ाक बनाने वालों को चेता पाएंगे? शायद नहीं. चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने साफ़ कर दिया था कि वो किसी भी कीमत पर ईशनिंदा कानून का बचाव करेंगे. इमरान ख़ान चुनाव जीत गए. उन्होंने बचाव किया भी है. पाकिस्तान की आबादी का बड़ा हिस्सा इस कानून को जायज मानता है. इमरान ख़ान उनसे दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहेंगे. हाल ही में, उनकी सरकार ने दो सबसे कट्टर पार्टियों से हाथ मिलाया है. TLP की लगभग सभी मांगें मान लीं गई. जबकि TTP के साथ हथियार रखने को लेकर समझौता हुआ है. TLP की बुनियाद में ईशनिंदा कानून है. जबकि TTP अपने हिसाब का शरिया कानून लागू करना चाहती है. एक तरफ़ इमरान ख़ान इन पार्टियों से समझौता करते हैं. फिर वो किस मुंह से उनकी बुनियाद पर चोट पहुंचा पाएंगे? पाकिस्तान ने धर्म का इस्तेमाल विदेशी मामलों में भी किया है. उसने भारत और अफ़ग़ानिस्तान में जिहाद के नाम पर हज़ारों लोगों का ब्रेनवॉश किया है. उन्हें लड़ने और मरने के लिए बॉर्डर पार भेजा है. ये पाकिस्तान की सीक्रेट स्टेट पॉलिसी का हिस्सा रहा है. इसलिए, ईशनिंदा के नाम पर होने वाली हिंसा में पाकिस्तान सरकार बराबर की ज़िम्मेदार है. ये बात हर सरकार पर लागू होती है. अगर कोई सत्ताधीश एक तरफ़ हिंसा की निंदा करता है, और दूसरी तरफ़ ज़िम्मेदार लोगों को शह दे तो उसे केवल दोमुंहापन कहा जा सकता है.

हमने चकित होने का अधिकार खो दिया है

पाकिस्तानी अख़बार डॉन ने एक लेख में बहुत सटीक बात लिखी है,
सियालकोट की घटना कोई बड़ा आश्चर्य नहीं है. हमने चकित होने का अधिकार खो दिया है. हम एक तरफ़ लक्षणों का इलाज करते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ बीमारी की जड़ को बढ़ावा देते रहते हैं.

Subscribe

to our Newsletter

NOTE: By entering your email ID, you authorise thelallantop.com to send newsletters to your email.

Advertisement