अमेरिका के सबसे 'विवादित' नेता की कहानी!

अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर 27 मई 2023 को 100 बरस के हो जाएंगे. आपमें से बहुत लोगों ने किसिंजर का नाम कभी नहीं सुना होगा. लेकिन इस एक शख़्स ने दुनिया की राजनीति में जितना गुल खिलाया, उसका दूसरा उदाहरण शायद ही मिलेगा. हिटलर के चंगुल से भागकर अमेरिका आए किसिंजर नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर से लेकर विदेश मंत्री तक रहे. अपने कार्यकाल में उन्होंने सैन्य तानाशाहों को समर्थन दिया. उनके इशारे पर कई देशों में सरकारें गिराई गईं. राजनैतिक संकट पैदा हुए. उनकी नीतियों के चलते लाखों लोग मारे गए. इसके बावजूद उन्हें 1973 में नोबेल पीस प्राइज़ से नवाजा गया. इसे 20वीं सदी की सबसे वीभत्स विडंबनाओं में गिना जाता है.
अगर किसिंजर किसी अफ़्रीकी या एशियाई या साउथ अमेरिकी देश में होते तो, उन्हें युद्ध-अपराधी घोषित करने में देर नहीं लगती. ये भी संभव था कि इस वक़्त वो जेल की सलाखों के पीछे होते. मगर अमेरिका के जादुई साबुन ने उन्हें पाक-साफ़ साबित कर दिया. आज के समय में किसिंजर तीसरा विश्व युद्ध रोकने का तरीका बताते फिरते हैं. ये कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसे कोई हत्यारा मानवता पर लेक्चर दे रहा हो.
आइए जानते हैं,
- हेनरी किसिंजर की पूरी कहानी क्या है?
- उनके ऊपर कभी वॉर क्राइम का मुकदमा क्यों नहीं चला?
- और, कैसे किसिंजर ने अकेले पूरी दुनिया का चरित्र बदल कर रख दिया?
किसिंजर मई 1923 में जर्मनी में पैदा हुए थे. तब जर्मनी पहले वर्ल्ड वॉर में हुए नुकसान से उबरने की कोशिश कर रहा था. उसी दौर में एडोल्फ़ हिटलर का भी उदय हो रहा था. वो जर्मनी पर लगाए गए ज़ुर्माने और प्रतिबंधों से नाराज़ था. उसने मुल्क की दुर्दशा के लिए कम्युनिस्टों और यहूदियों को दोष देना शुरू किया. जल्दी ही उसे बहुसंख्यक जर्मन जनता का सपोर्ट मिलने लगा. इसकी बदौलत हिटलर सत्ता में आया. फिर उसने कथित अशुद्ध नस्ल के लोगों के ख़िलाफ़ हिंसक अभियान शुरू किया. उसके निशाने पर रोमां, अश्वेत और यहूदी थे. हिटलर को सबसे ज़्यादा नफ़रत यहूदियों से थी. उन्हें आम जनजीवन से अलग-थलग कर दिया गया. उनके ख़िलाफ़ जर्मन जनता के मन में ज़हर भरा गया. जिसके चलते वे यहूदियों को दुश्मन की तरह देखने लगे. इसका चरम एक अकल्पनीय नरसंहार पर जाकर खत्म हुआ. किसिंजर का परिवार भी यहूदी था. उन्हें क़यामत के दिनों का अंदेशा हो चुका था. इसलिए, वे 1938 में ही जर्मनी छोड़कर अमेरिका आ गए. 1943 में किसिंजर को नागरिकता भी मिल गई. उस वक़्त तक अमेरिका दूसरे विश्वयुद्ध में शामिल हो चुका था.
किसिंजर ने लड़ाई में हिस्सा लिया. 1945 में दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त हो गया. जर्मनी हार गया. फिर जर्मनी के एक हिस्से पर कुछ समय तक अमेरिका ने सरकार चलाई. किसिंजर ने भी इस सरकार को सेवाएं दी. हालांकि, उन्होंने जल्दी ही मिलिटरी छोड़ दी.
मिलिटरी से निकलने के बाद हार्वर्ड में दाखिला लिया. वहीं से पीएचडी की और फिर वहीं पढ़ाने भी लगे. इसी दौरान उन्होंने अमेरिका की विदेश-नीति पर कई किताबें लिखीं. इनकी चर्चा वाइट हाउस तक में हुई. कई राष्ट्रपतियों ने अपनी सरकार की नीतियां किसिंजर की सलाह पर बदली भी. इसी दौर में वो कुछ बड़ी अमेरिकी एजेंसियों के साथ भी जुड़े. सलाहकार के तौर पर. उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी थी.

1968 में रिचर्ड निक्सन राष्ट्रपति चुनाव जीत गए. उन्होंने किसिंजर को नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल का मुखिया बना दिया. निक्सन और किसिंजर की जोड़ी ख़ूब जमी. जब वो दोबारा चुनाव जीतकर आए, उन्होंने किसिंजर को विदेश मंत्री बना दिया. कुछ समय बाद वॉटरगेट स्कैंडल में निक्सन की कुर्सी चली गई. उनकी जगह जेराल्ड फ़ोर्ड राष्ट्रपति बने. मगर किसिंजर अपने पद पर बने रहे. 1976 के चुनाव में फ़ोर्ड हार गए. उनकी सरकार के साथ-साथ किसिंजर को भी जाना पड़ा.
तंत्र से निकलने के बाद भी किसिंजर सरकार का हिस्सा बने रहे. उन्हें कई कमीशनों का मुखिया बनाया गया. कई राष्ट्रपतियों ने उनसे अलग-अलग मसलों पर सलाह ली. वो कुछ जगहों पर पढ़ाते भी रहे. इसके अलावा, उन्होंने 10 से अधिक बेस्ट-सेलिंग किताबें भी लिखीं हैं.
हेनरी किसिंजर को नोबेल प्राइज़ के अलावा प्रेसिडेंशियल मेडल ऑफ़ फ़्रीडम भी मिल चुका है. ये अमेरिका का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है.
किसिंजर के ऊपर वॉर क्राइम्स, तख़्तापलट और नरसंहार के संगीन आरोप लगते हैं. आधिकारिक दस्तावेजों में इनकी पुष्टि भी हो चुकी है. इसके बावजूद किसिंजर ने कभी माफ़ी नहीं मांगी. और, ना ही अमेरिका की सरकार ने न्याय बरतने में कोई दिलचस्पी दिखाई.
जब भी कोई नया राष्ट्रपति वाइट हाउस पहुंचता है, वो किसिंजर को मिलने ज़रूर बुलाता है. इसमें डेमोक्रेट और रिपब्लिकन दोनों पार्टियों के राष्ट्रपति शामिल रहे हैं.
किसिंजर को लेकर हमेशा की तरह दो धड़े बने हुए हैं. एक धड़ा उन्हें शानदार राजनीति-विज्ञानी और कठोर फ़ैसले लेने वाला डिप्लोमैट बताता है. उनकी तारीफ़ करता है. यहां तक कहता है, उनके बिना अमेरिका कोल्ड वॉर हार गया होता.
वहीं, दूसरा धड़ा उन्हें युद्ध-अपराधी बताता है. उन्हें कटघरे में खड़ा करने की मांग करता है. सवाल पूछता है, लाखों लोगों की हत्या का दोषी खुलेआम मुस्कुराता कैसे घूम सकता है?
अब आप सोच रहे होंगे, किसिंजर को लेकर इतना विरोधाभास क्यों है?
ये समझने के लिए हमें उनकी उपलब्धियों और गुनाहों को विस्तार से जानना होगा.
अंक एक. सीक्रेट टॉक्स.
1960 के दशक में क्यूबन मिसाइल क्राइसिस, सोवियत-चीन युद्ध, भारत-पाकिस्तान युद्ध के कारण कोल्ड वॉर अपने शीर्ष पर था. युद्ध के बाद चीन, सोवियत संघ से दूर हो रहा था. ऐसे में एक वैक्यूम क्रिएट हुआ. इसको भरने के लिए अमेरिका आगे आया. चीन को यूनाइटेड नेशंस में मान्यता नहीं मिली थी. इसके लिए उसे अमेरिका की मदद की ज़रूरत थी. इसी दौर में किसिंजर, निक्सन प्रशासन का हिस्सा बने. उन्होंने मौके की नज़ाकत पहचान ली. उन्होंने निक्सन को चीन से दोस्ती करने के लिए मना लिया. इसके बाद दोनों तरफ़ से चिट्ठियों का सिलसिला शुरू हुआ. इस बातचीत को सीक्रेट रखा गया. क्योंकि दोनों ही देश एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते थे. उन्हें पता नहीं था कि बातचीत किस दिशा में जाएगी.
फिर अप्रैल 1971 में चीनी प्रीमियर चाऊ एन-लाई के न्यौते पर अमेरिका की टेबल टेनिस टीम ने चीन का दौरा किया. ये दौरा काफ़ी सफ़ल रहा. इसके बाद अमेरिका ने अपना डेलिगेशन भेजने का फ़ैसला किया. इसके लिए किसिंजर को चुना गया. जुलाई 1971 में किसिंजर एशिया के दौरे पर आए. इसी दौरान वो पाकिस्तान भी गए. वहां उन्होंने बीमारी का बहाना बनाया. मीडिया को बताया गया, किसिंजर कुछ दिन आराम करेंगे.
लेकिन अगले ही दिन वो पाकिस्तान के प्लेन में बैठकर बीजिंग पहुंच चुके थे. इस ट्रिप को अंतिम समय तक छिपाकर रखा गया. दौरा खत्म होने के बाद जॉइंट स्टेटमेंट जारी किया गया. कहा गया, रिचर्ड निक्सन को चीन आने का निमंत्रण दिया गया है. और, निक्सन ने इस न्यौते को स्वीकार कर लिया है.
यहां से अमेरिका-चीन संबंधों में सुधार की शुरुआत हुई.
अक्टूबर 1971 में जब चीन को यूएन में शामिल करने का प्रस्ताव लाया गया, तब अमेरिका ने कोई आपत्ति नहीं दर्ज कराई. और, ना ही उसने अपने सहयोगी देशों पर ऐसा करने का दबाव डाला. उससे पहले तक उसने यूएन में चीन की एंट्री का विरोध किया था.
फ़रवरी 1972 में निक्सन और किसिंजर चीन गए. वहां उनका ज़बरदस्त स्वागत हुआ. ये दौरा भी सफ़ल साबित हुआ. उनके बीच वन चाइना पोलिसी और ताइवान जैसे मसलों पर बातचीत हुई. 1979 में अमेरिका ने माओ के चीन को आधिकारिक तौर पर मान्यता दे दी. इस पूरी कवायद का श्रेय किसिंजर को जाता है.
चीन से इतर, किसिंजर ने 1973 के इज़रायल-अरब युद्ध को रुकवाने में भी अहम भूमिका निभाई थी.
उनकी एक और उपलब्धि वियतनाम से जोड़ी जाती है. किसिंजर ने नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर बनते ही नॉर्थ वियतनाम के साथ बातचीत शुरू कर दी थी. इसी की बदौलत जनवरी 1973 में संघर्षविराम भी हुआ. इसके लिए किसिंजर और वियतनाम के कम्युनिस्ट नेता ली डक थो को नोबेल पीस प्राइज़ मिला. ली डक थो ने किसिंजर पर आपत्ति दर्ज कराई. उन्होंने प्राइज़ लेने से मना कर दिया.
किसिंजर का कराया संघर्षविराम सफ़ल नहीं हुआ. कुछ समय बाद ही झगड़ा फिर से शुरू हो गया. अप्रैल 1975 में नॉर्थ वियतनाम ने साउथ वियतनाम की राजधानी साइगॉन पर क़ब्ज़ा कर लिया. अमेरिका को आनन-फानन में वियतनाम छोड़कर भागना पड़ा.
बाद में पता चला, जिस समय किसिंजर शांति समझौते की पहल कर रहे थे, उसी समय वो वियतनाम और कम्बोडिया पर बम गिराने का आदेश भी दे रहे थे.
अंक दो. नरसंहार.
रिचर्ड निक्सन को वियतनाम वॉर विरासत में मिला था. 1955 में शुरू हुआ युद्ध अमेरिका के गले की हड्डी बन चुका था. शुरुआती सालों में ही उन्हें हार का अंदाज़ा हो चुका था. लेकिन कोई भी राष्ट्रपति इसका दोष अपने सिर पर नहीं लेना चाहता था. सब इसे दूर तक टालने की फ़िराक़ में थे. निक्सन ने कुर्सी संभालते ही हाथ-पैर फेंकना शुरू कर दिया. किसिंजर की सलाह पर ऑपरेशन ब्रेकफ़ास्ट लॉन्च किया. दरअसल, अमेरिका को लगा कि हो ची मिन्ह ट्रेल को तबाह कर युद्ध जीत सकता है. हो ची मिन्ह ट्रेल कम्बोडिया तक जाती थी. इसके ज़रिए नॉर्थ वियतनाम के विद्रोहियों को सप्लाई पहुंचाई जाती थी. 1969 और 1970 के बीच अमेरिका ने कम्बोडिया पर लगभग 54 करोड़ किलो बम गिराए. इसमें लगभग 05 लाख आम नागरिक मारे गए. ये किसी नरसंहार से कम नहीं था.
बाद में लीक हुए पेंटागन पेपर्स में सामने आया कि,
“हेनरी किसिंजर और उनकी टीम ने उस दौरान हुई हर एक बमबारी को अप्रूव किया था. और, उन्होंने इसे मीडिया से छिपाकर रखने की साज़िश भी रची थी.”
दूसरी घटना भारत के पड़ोस में घटी थी. 1970 और 1971 में. वेस्ट पाकिस्तान के मिलिटरी जनरल याह्या ख़ान ने चुनाव जीतने वाले मुजीबुर रहमान को सरकार नहीं बनाने दी. जब शेख़ मुजीब की पार्टी अवामी लीग ने इसका विरोध किया, उनके ख़िलाफ़ याह्या ने सेना उतार दी. मार्च 1971 में ईस्ट पाकिस्तान में ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू हुआ. इसमें तीन लाख से अधिक बंगालियों की हत्या हुई. उस वक़्त आर्चर केंट ब्लड ईस्ट पाकिस्तान में अमेरिका के कॉन्सल-जनरल हुआ करते थे. उन्होंने डिप्लोमेटिक केबल भेजकर बताया कि याह्या की सेना नरसंहार कर रही है. इसे रोकने की ज़रूरत है. मगर निक्सन और किसिंजर ने इस अपील को दरकिनार कर दिया. और तो और, जब भारत-पाकिस्तान का युद्ध हुआ, तब अमेरिका ने अपना नौसैनिक बेड़ा भी भेजा था.

अंक तीन. तख़्तापलट.
सितंबर 1970. चिली में राष्ट्रपति चुनाव हुए. इसमें सल्वादोर अलांदे ने जीत दर्ज की. अलांदे कम्युनिस्ट थे. उनका झुकाव सोवियत संघ की तरफ था. कोल्ड वॉर के दौर में ये पहचान अमेरिका को परेशान करने के लिए काफ़ी थी. CIA ने अलांदे को हटाने के लिए सीक्रेट ऑपरेशन शुरू कर दिया. पैसे देकर हड़ताल कराई गई. प्रेस में अलांदे के ख़िलाफ़ ख़बरें छपवाई गईं. बैकडोर से सेना के विद्रोही धड़े को सपोर्ट किया गया. आख़िरकार, 11 सितंबर 1971 को एक मिलिटरी जनरल अगस्तो पिनोशे ने तख़्तापलट कर सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया. अलांदे ने गोली मार कर अपनी जान ले ली.
तख़्तापलट के बाद मिलिट्री हुंटा बनाई गई. हुंटा का मतलब होता है कमिटी. एक ऐसी कमिटी जिसे सेना के अफ़सर मिलकर चलाएं. अगस्तो पिनोशे को मिलिट्री हुंटा का मुखिया चुना गया. चिली में सभी पॉलिटिकल पार्टियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया. प्रेस पर सेंशरशिप लगा दी गई. किसी भी तरह के विरोध की गुंज़ाइश को खत्म कर दिया गया.
जब अगले दिन अलांदे के समर्थकों ने पिनोशे के ख़िलाफ़ मार्च निकाला. उनको बुरी तरह कुचल दिया गया. सबसे पहला नरसंहार नेशनल स्टेडियम में हुआ. अगले कुछ हफ़्तों तक विरोधियों को चुन-चुनकर मारा गया. पिनोशे कम्युनिस्टों को कैंसर कहता था. उसने शासन की लगाम थामते ही विचारधारा के नाम पर बेहिसाब ख़ून बहाया.
इन सबके बीच कथित शांति-प्रवर्तक अमेरिका क्या कर रहा था? वो ख़ून की नदी में हाथ धो रहा था. एक उदाहरण से समझिए.
01 अक्टूबर, 1973 को किसिंजर की टेबल पर एक फ़ाइल आई. इंटर-अमेरिकन अफ़ेयर्स सेक्रेटरी ने अपनी रिपोर्ट में पिनोशे के काले कारनामों की जानकारी थी. साथ में एक सलाह भी थी. कैसी सलाह? यही कि अमेरिका चिली में पिनोशे के अत्याचार को समर्थन देना बंद कर दे.
किसिंजर ने रिपोर्ट पढ़ी और कहा,
“लेकिन मुझे लगता है हमें अपनी नीति को समझने की ज़रूरत है. वे कितने भी ग़लत काम क्यों न करें, चिली का मिलिटरी शासन हमारे लिए अलांदे से कहीं बेहतर है.”
किसिंजर ने बाद में पिनोशे से मुलाक़ात भी की और उसको शाबासी भी दी. पिनोशे ने 1988 तक हंटर के दम पर शासन चलाया. इस दौरान हज़ारों राजनैतिक कार्यकर्ताओं और लोकतंत्र के समर्थकों की हत्या हुई या उन्हें जेल में टॉर्चर किया गया.
और भी कई उदाहरण हैं.
मसलन, किसिंजर ने अर्जेंटीना में 1976 में हुए सैन्य तख़्तापलट को सपोर्ट दिया था. ना सिर्फ़ सपोर्ट, बल्कि उन्होंने अपने मंत्रालय को ताकीद की कि अर्जेंटीना की नई सरकार के ख़िलाफ़ एक शब्द ना बोला जाए.
इसके अलावा, किसिंजर पर साउथ अफ़्रीका की नस्लभेदी सरकार, अंगोला और रोडेशिया जैसे देशों में सैन्य सरकारों के दमन को समर्थन देने के आरोप लगते हैं.
अब सवाल ये उठता है कि इतने सारे अपराधों के बावजूद किसिंजर को कभी सज़ा क्यों नहीं हुई?
इसकी सबसे बड़ी उनकी पहचान से जुड़ी है. किसिंजर अमेरिकी नागरिक हैं. उन्होंने अमेरिका की सरकार में रहते हुए पोलिसीज़ तय कीं. जानकारों का कहना है कि अगर किसिंजर को कटघरे में खड़ा किया गया होता तो सीधे-सीधे अमेरिका पर सवाल खड़ा होता. उनकी पोलिसीज़ को लेकर सवाल पूछे जाते. और, ये उनकी प्रांसगिकता को मुश्किल में डाल देता.
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