The Lallantop
Advertisement

हरिमोहन झा: वो लेखक जिसने दोस्त की बीवी को अपने नॉवेल की नायिका बना दिया

हरिमोहन झा का नाम सुनते ही पोंगापंथियों की हवा टाइट हो जाती थी.

Advertisement
Img The Lallantop
हरिमोहन झा और उनकी दमदार लेखनी
pic
लल्लनटॉप
24 नवंबर 2016 (Updated: 24 नवंबर 2016, 10:53 AM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
हरिमोहन झा का जन्म वैशाली जिले के बाजितपुर गांव में हुआ था. वो एक जाने-माने राइटर और क्रिटिक थे. अगर उनका दो लाइन में इंट्रो देना हो तो एक ऐसा शख्स जो धार्मिक ढकोसलाओं के खिलाफ लिखता था. खांटी आलोचक था. इनके पिता जनार्दन झा “जनसीदन” मैथिली और हिंदी के कवि और राइटर थे. हरिमोहन झा ने भी अपनी ज्यादातर राइटिंग मैथिली में ही की है. जिसको बाद में हिंदी और दूसरी भाषाओं में ट्रांसलेट किया गया. अंग्रेजी में इनका रिसर्च है “ट्रेन्ड्स ऑफ लिंग्विस्टिक एनालिसिस इन इंडियन फिलॉसफी”.
हरिमोहन झा के लिटरेचर में वो दम है कि आज भी उनकी राइटिंग का डंका बजता है. झा ने बहुत सी किताबें लिखीं जिनमें ‘कन्यादान’, ‘द्विरागमन’, ‘प्रणम्य देवता’,‘रंगशाला’, ‘बाबाक संस्कार’, ‘चर्चरी’, ‘एकादशी’, ‘खट्टर काकाक तरंग’ और ‘जीवन यात्रा’ शामिल है. हरिमोहन झा को उनके लिटरेचर के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया.अपनी किताबों में झा ने हास्य व्यंग्य, कटाक्ष, के थ्रू सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों, अंधविश्वास और पाखंड पर जोरदार तमाचा मारा. मैथिली में तो आज भी हरिमोहन झा सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले राइटर हैं. पर इन सब के बावजूद भी हरिमोहन झा एक अनटोल्ड स्टोरी बने हुए हैं.
पिता जनार्दन झा ‘मिथिला मिहिर’ के एडिटर थे. दरभंगा में रहते थे. ‘मिथिला मिहिर’ मैथिली पत्रिका थी. जिसको दरभंगा महाराज चलाते थे. इस दौरान हरिमोहन झा ने एक बच्चे के तौर पर खांटी मिथिलांचल के कल्चर को बेहद करीब से देखा. पिता जी के एडिटर होने का हरिमोहन झा को यह फायदा मिला कि उन्हें स्कॉलर्स के साथ बचपन से ही उठने-बैठने का मौका मिला. 1924 में 16 साल की कम उम्र में ही उनका विवाह करा दिया गया. उसी समय उनके पिता जी कलकत्ता चले गए. वहीं नौकरी करने लगे. अपने पिता से दूर रहना हरिमोहन झा के लिए मुश्किल था. 1927 के कंबाइंड स्टेट इंटरमीडिएट एग्जामिनेशन में संस्कृत, लॉजिक और हिस्ट्री सब्जेक्ट्स के साथ फर्स्ट क्लास फर्स्ट आए.
हरिमोहन झा
हरिमोहन झा

उसके बाद उन्होंने आगे की पढ़ाई पटना कॉलेज से की. उन्होंने इंग्लिश ऑनर्स से ग्रेजुएशन किया. हरिमोहन झा ने 1932 में फिलॉसफी में एम.ए. किया. जिसमें उन्होंने बिहार-ओडिशा स्टेट लेवल पर टॉप किया. गोल्ड मेडलिस्ट बने. उसके बाद बी एन कॉलेज पटना में प्रोफेसर बने.  ग्रेजुएशन के दिनों में हरिमोहन झा ने इलाहाबाद में अपनी कॉलेज की टीम को ऑल इंडिया डिबेट कम्पटीशन में लीड किया. और विजेता बने. कॉलेज में हरिमोहन झा के टैलेंट की धूम मचनी शुरू हो गई थी.
लेकिन असली खेल शुरू होना बाकी था. हरिमोहन झा को अभी वो सब लिखना था जिससे समाज में हलचल होना था. हरिमोहन झा का शुरू से ही मैथिली लिटरेचर की तरफ ज्यादा रुझान था. 1933 में हरिमोहन झा का पहला उपन्यास “कन्यादान” आया. मैथिली में था यह उपन्यास. इस उपन्यास को जबरदस्त रिस्पॉन्स मिला. इस उपन्यास में हरिमोहन झा ने मिथिला की लोक संस्कृति को हू-ब-हू उतार दिया था. इस उपन्यास के माध्यम से हरिमोहन झा मिथिलांचल के घर-घर का जाना-पहचाना नाम हो चुका था. हरिमोहन झा काफी फेमस हो गए थे. कम उम्र में ही. आइए, उनकी दो रचनाओं के बारे में पढ़ते हैं:1."कन्यादान" उपन्यासकन्यादान, उपन्यास
कन्यादान, उपन्यास

"कन्यादान" उपन्यास ने मैथिली लिटरेचर को बहुत ही पॉपुलर बनाया. मिथिला के बाहर भी लोगों ने इस उपन्यास को पसंद किया. इस उपन्यास के जरिए उन्होंने मैथिली समाज में महिलाओं की स्थिति को दिखाया था, कि कैसे मैथिल औरतें अंधविश्वास और पाखंड की जकड़ में फंसी हुई थीं.
इस उपन्यास की नायिका एक लड़की है, जिसका नाम है “बुच्ची दाई”. “बुच्ची दाई” के किरदार का आइडिया हरिमोहन झा को अपने कॉलेज के एक दोस्त सी सी मिश्र की होने वाली वाइफ से मिला था. ‘कन्यादान’ के पब्लिश होते ही भूचाल आ गया. कोई इसकी तारीफ करने लगा तो कोई कुदाल से इसे ढाने लगा. लेकिन एक बात जरूर हुई. ‘कन्यादान’ अपने जन्म से ही फेमस हो गया. जो इसके विरोधी थे, वे भी इसके आगे का भाग पढ़ने को बेचैन रहने लगे. उनका पहला काम इतना धांसू था. इसकी अगली कड़ी “द्विरांगमन” 1949 में आई और ये भी उतना ही पॉपुलर हुई. यह उपन्यास भी मैथिल औरतों की लाइफ स्टाइल पर बेस्ड था.2.“खट्टर काकाक तरंग” व्यंग्य खट्टर काकाक तरंग, व्यंग
खट्टर काकाक तरंग, व्यंग्य

हरिमोहन झा की बुक “खट्टर काकाक तरंग” 1948 में आई. यह उस समय के रूढ़िवादी सोसाइटी के दोगलेपन पर व्यंग्य था. इस व्यंग्य के मैथिली में पब्लिश होते ही, रीडर्स की डिमांड को देखते हुए उसको जल्द ही हिंदी और इंग्लिश में भी ट्रांसलेट करके मार्केट में लाया गया. इस बुक में  हरिमोहन झा और उनके काल्पनिक किरदार खट्टर काका के बीच हुए गप्प और नोंक-झोंक को दिखाया गया है. उनके इस क्रिएशन ने जन्म लेते ही वो पॉपुलैरिटी हासिल कर ली, जिसे आज के राइटर तमाम पीआर करने के बाद भी हासिल नहीं कर पाते हैं. मिथिला के घर-घर में उस किताब की कहानियां मुंह जुबानी सुनाई जानी लगी. यह बुक इतनी फेमस हुई कि दूर-दूर से चिट्ठियां आने लगीं, ‘यह खट्टर काका कौन हैं, कहां रहते हैं, उनकी और कहानियां कहां मिलेंगी?’’
उस बुक का मेन किरदार खट्टर काका मस्त आदमी हैं, ठंडई छानते हैं और मजेदार गप्पों की वर्षा करते हैं. कबीरदास की तरह खट्टर काका उलटी गंगा बहा देते हैं. उनकी बातें एक-से-एक अजूबी, निराली और चौंकाने वाली होती हैं. जैसे, ‘‘ब्रह्मचारी को वेद नहीं पढ़ना चाहिए. सती-सावित्री वाली पोथी कभी कन्याओं के हाथ में नहीं देना चाहिए. पुराण बहू-बेटियों के योग्य नहीं हैं. दुर्गा की कथा उच्च-कोटि की महिला ने रची है. गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को फुसला लिया था. दर्शनशास्त्र की रचना रस्सी को देखकर हुई थी. जब ब्रह्मा जी की बेटी थी सरस्वती तो उन्होंने उनसे शादी क्यों की. देश में अब असली पंडित नहीं बचे हैं. 'दही-चूड़ा-चीनी' गणित का त्रिभुज है. स्वर्ग जाने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है...!’’
खट्टर काका हंसी-हंसी में भी जो उलटा-सीधा बोल जाते हैं. और उसको जस्टिफाई करके ही छोड़ते हैं. लोगों को अपने तर्क-जाल में उलझाकर उसे भूल-भुलैया में डाल देना उनका सबसे पसंदीदा काम है. रामायण, महाभारत, गीता, वेद, पुराण सभी उलट जाते हैं. बड़े-बड़े दिग्गज चरित्र को गरिया देते हैं. उनके लिए देवता लोग गोबर-गणेश हैं. धर्मराज-अधर्मराज, और सत्यनारायण-असत्यनारायण के नाम को वो कार्टून समझते हैं. खट्टर काका लोगों को ऐसा चश्मा लगा देते हैं कि दुनिया ही उलटी नजर आने लगती है. अक्सर इस किताब के क्रिटिक्स हरिमोहन झा को नास्तिक और हिन्दू विरोधी होने का ठप्पा लगा देते हैं.
उनकी वाइफ सुभद्रा झा भी प्रोग्रेसिव विचारधारा वाली महिला थीं. संयोग से उनका भी रुझान मैथिली लैंग्वेज और लिटरेचर में था. हरिमोहन झा को लिखने के लिए उन्होंने हमेशा एनकरेज किया. हरिमोहन झा ने कई कविताएं भी लिखीं, जैसे "माछ", "ढला झा", "बुचकुन बाबा", "पंडित ओ मेम" और "पंडित". इन कविताओं के जरिए उन्होंने समाज के ऐसे तबकों पर जोरदार हमला किया. शुरू में तो रूढ़िवादी तबके को उनके हास्य-व्यंग्य समझ में ही नहीं आये. शुरू में उनको लगता था कि ये गांव और कस्बे के गप-शप लिखता है. पर बाद में उन्होंने रियलाइज किया कि दरअसल उनके पाखंड को इन कहानियों के जरिए चुनौती दे रहा है. एक बार तो हरिमोहन झा के विरोधियों ने दरभंगा में एक कार्यक्रम के दौरान उन पर हमला भी किया था. जब प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को इनकी लिटरेचर के बारे में पता चला, तो वो भी हरिमोहन झा के फैन हो गए. हुआ ये कि 1963 में दिल्ली में हुए मैथिली लिटरेचर की प्रदर्शनी के दौरान जब उनके लिटरेचर के बारे में बताया जा रहा था. तब उस समय के प्रधानमंत्री नेहरू उनके मतलब समझने की कोशिश कर रहे थे. जहां भी उन्हें समझने में दिक्कत होती थी तो वो इसका मतलब  अपने बिहार के सहयोगी और संसदीय कार्य मंत्री सत्य नारायण सिंह से पूछते. और सत्य नारायण सिंह उनको उन कठिन मैथिली के शब्दों के मतलब समझाते. 1984 में हरिमोहन झा की 75 साल की उम्र मे मृत्यु हो गई.


ये स्टोरी आदित्य प्रकाश ने लिखी है 




ये भी पढ़ें..

अपने जमाने के पहले ह्यूमर किंग थे गोनू झा

ये लखन झा हैं, एक बार बैठते हैं तो 700 रसगुल्ले खा जाते हैं

जलते पटाखा का बुझता प्रेमी

PM मोदी के सामने एक पत्रकार की तीखी स्पीच वायरल

इस शहर में किसी भी इंसान को मरने की इजाजत नहीं है

Advertisement