विश्व की सबसे फौलादी टीचर जिसने म्यूनिख़ के क़ातिलों को चुन-चुन कर मारा
मार्गरैट थैचर और इंदिरा गांधी से भी बड़ी वाली आयरन लेडी वे थीं - गोल्डा मेयर!
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टाइम मैगजीन के कवर पर गोल्डा मेयर.
गोल्डा मेयर इज़रायल मुल्क के निर्माण के लिए लड़ने वाले लोगों में थीं. मुल्क की संस्थापक सदस्य. देश की चौथी प्रधानमंत्री. राजनीति में आने से पहले वे शिक्षिका थीं. शिक्षकों को आमतौर पर अहिंसा का संदेश देते हुए पाया जाता है लेकिन गोल्डा कई चीजों का मिश्रण थीं. वे राजनीति में भी पांच दशक से ज्यादा समय तक रहीं. वे सूझबूझ से काम लेती थीं. अडिग इरादों वाली थीं. शांति को महत्व देती थीं लेकिन ख़ून बहाने से भी पीछे नहीं रहती थीं. ये 1948 में भी दिखा जब इज़रायल राज्य की घोषणा होने को थी और अरब सेनाओं ने उन्हें घेरने का इरादा कर लिया था. ये 1972 की पतझड़ में भी दिखा जब उन्होंने ऑपरेशन व्रैथ ऑफ गॉड (ईश्वर का कहर) को मंजूरी दी. और अगले 20 साल तक (उनकी मृत्यु के बाद भी) इज़रायली गुप्तचर संस्था मोसाद के एजेंट म्यूनिख़ नरसंहार में शामिल लोगों को दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में चुन-चुन कर ख़त्म करते रहे.बात म्यूनिख़ नरसंहार की: पश्चिमी जर्मनी के म्यूनिख़ शहर में 1972 की गर्मियों में ओलंपिक खेलों का आयोजन हो रहा था. एक हफ्ता हो चुका था. 5 सितंबर को फिलीस्तीन के आतंकी समूह ब्लैक सेप्टेंबर के 8 लोगों ने ट्रैक सूट पहने खिलाड़ियों के रूप में ओलंपिक विलेज की दीवार फांदकर प्रवेश किया. फिर वहां इज़रायली ओलंपिक टीम के 11 लोगों को बंधक बना लिया. उन्होंने मांग रखी कि इज़रायली जेलों में बंद 234 फिलीस्तीनियों को छोड़ दिया जाए और बदले में वे खिलाड़ियों को रिहा करेंगे लेकिन तब प्रधान मंत्री गोल्डा मेयर ने साफ मना कर दिया. जब हॉस्टल के दरवाजे से दो खिलाड़ियों के शवों को बाहर फेंका गया तो भी उन्होंने मांगें मानने से इनकार कर दिया. इस दौरान वे जर्मनी से बात कर रही थीं कि वहां उनकी खास सेना को भेजने दें ताकि वे ऑपरेशन को अंजाम दे सकें लेकिन जर्मनी ने इनकार कर दिया.

म्यूनिख़ ओलंपिक गांव की एक बालकनी पर खड़ा हमलावर.
फिर आतंकियों ने नई मांग की. उन्होंने कहा कि उन्हें वहां से निकलने दिया जाए. जर्मन सरकार मान गई. उन्हें बस मुहैया करवाई. इसमें बैठकर वे आतंकी इज़रायली खिलाड़ियों समेत एयरपोर्ट गए. वहां अंधेरे में जगह-जगह शूटर छुपे हुए थे. खिलाड़ियों को बस से उतारकर हैलीकॉप्टर में बैठा दिया गया. कुछ ही पलों में शूटर्स ने आतंकियों को मारना शुरू किया. ये देख आतंकियों ने एक हैलीकॉप्टर को बम से उड़ा दिया और दूसरे हैलीकॉप्टर में बैठे खिलाड़ियों को मार दिया. शुरू में टीवी न्यूज़ में कहलवाया गया कि आतंकी मारे गए हैं और 9 खिलाड़ी सुरक्षित हैं लेकिन अगली सुबह स्पष्ट हुआ कि इज़रायल का कोई भी खिलाड़ी नहीं बचा.
गोल्डा ने लिया बदला: म्यूनिख़ क़त्ल-ए-आम के दो दिन के बाद इज़रायली सेना ने सीरिया और लेबनन में फिलीस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन के 10 अड्डों पर हमला पर बम गिराए. इसमें करीब 200 लोग मारे गए. फिर गोल्डा ने इज़रायली खुफिया एजेंसी मोसाद के साथ मीटिंग की और बदले का मिशन शुरू करने का आदेश दिया.

1973 में अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन से मिलने वॉशिंगटन डीसी पहुंची गोल्डा मेयर प्रेस वार्ता के दौरान.
मोसाद ने उन सब संभावित लोगों की सूची बनाई जो ब्लैक सेप्टेंबर ग्रुप से जुड़े थे और जिनका म्यूनिख नरसंहार में हाथ था. मोसाद के फिर ऐसे एजेंट ढूंढ़े गए जो इस मिशन का हिस्सा बनने को तैयार थे. फिर मिशन व्रैथ ऑफ गॉड (ईश्वर का क़हर) शुरू किया गया. पूरी दुनिया को इस मिशन की कोई भनक न थी.
और अगले कुछ दिनों में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में उस सूची में से लोग मारे जाने लगे. किसी को गोलियों से भूना गया, किसी के बिस्तर में बम फिट कर दिया गया, किसी के होटल के पूरे कमरे को बम से उड़ा दिया गया, किसी को कार की सीट में बम लगाकर ब्लास्ट कर दिया.
दिसंबर 1978 में 80 साल की गोल्डा का निधन हो गया. अगले महीने मोसाद ने म्यूनिख़ नरसंहार के मास्टरमाइंड कहे जाने वाले अली हसन सालामेह को बेरूत में कार में बम लगाकर उड़ा दिया जिसे अलग-अलग मुल्कों में मारने की तीन कोशिशें पहले भी हुईं लेकिन वो बच निकला था. गोल्डा के जाने के बाद भी ऑपरेशन व्रैथ ऑफ गॉड चलता रहा.
स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्म: ऑपरेशन व्रैथ ऑफ गॉड पर 2005 में फिल्म भी बनी. इसका नाम था म्यूनिख़. निर्देशन स्टीवन स्पीलबर्ग का था. ये युवल अवीव की किताब वेंजेंस (प्रतिशोध) पर आधारित थी. कहानी वही थी जो उपरोक्त है. इसमें सारा ध्यान इस पर है कि कैसे मोसाद के गुप्त एजेंट एक-एक करके ब्लैक सेप्टेंबर ग्रुप के लोगों को ट्रेस करते हैं और उन्हें मारने की योजना बनाते हैं और ये एजेंट्स का एक बहुत छोटा सा समूह करता है. इस मिशन की जानकारी सिर्फ प्रधानमंत्री गोल्डा और एक-दो अन्य अधिकारियों को होती है, और किसी को नहीं. हल्क फिल्म में हल्क बनने वाले एरिक बाना, डेनियल क्रेग और सिएरन हाइंड्स जैसे अभिनेताओं ने इसमें केंद्रीय भूमिकाएं की.

फिल्म म्यूनिख़ में मोसाद एजेंट्स के पात्रों में अभिनेता लोग.
गोल्डा और इज़रायल की नीतियों को लेकर लोगों में दो राय हो सकती है लेकिन जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी गोल्डा ऐसी महिला थीं जिनसे शिक्षा ली जा सकती है. इंदिरा गांधी और मार्गरेट थैचर की तरह वे सिर्फ मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल होने वाली आयरन लेडी ही नहीं थीं बल्कि वे अपनी समझदारी में भी बहुत खरी उतरती हैं.
हम इज़रायल की दादी मां गोल्डा को उनके इन पांच विचारों में याद कर सकते हैं और सीख सकते हैं:
2. ये बात इज़रायल में कही जाती है कि बेन-गुरियन (पहले प्रधान मंत्री) ने मुझे उनके मंत्रिमंडल का "अकेला मर्द" कहा. मुझे ये लगता है कि उन्हें (या जिसने भी ये कहानी ईजाद की) ये लगा कि किसी औरत की यही सबसे बड़ी तारीफ है जो की जा सकती है. मुझे बहुत संदेह है कि अगर किसी पुरुष को मैंने कहा होता कि वो सरकार में "अकेली औरत" है तो वो खुश होता!1. सुंदर न होना सच में मेरे लिए एक वरदान साबित हुआ. ख़ूबसूरती न होने ने मुझे मजबूर किया कि मैं अपने अंदरूनी संसाधनों को विकसित करूं. जो ख़ूबसूरत लड़कियां हैं उनके सामने ये विकलांगता है जिससे उन्हें पार पाना है.
4. बुढ़ापा ऐसे हवाई जहाज की तरह है जो तूफान में से ग़ुज़र रहा है. एक बार आप इसमें सवार हो जाते हो तो फिर कुछ नहीं कर सकते. आप जहाज को रोक नहीं सकते, आप तूफान को रोक नहीं सकते और आप समय को भी रोक नहीं सकते. तो इसे शांति से और बुद्धिमानी से स्वीकार कर लेना ही ठीक है.3. औरतों की आज़ादी बहुत ही मूर्खतापूर्ण मुहावरा है. दरअसल भेदभाव तो पुरुषों के साथ होता है. वो बच्चे नहीं पैदा कर सकते.
5. एक नेता जो अपने मुल्क को युद्ध में झोंकने से झिझकता नहीं वो नेता बनने के लायक नहीं.