'बैड बैंक' क्या है, जो नीलकंठ की तरह बैंक्स का सारा एनपीए रूपी विष पी जाएगा?
अपने आप में भारत का पहला ऐसा बैंक जो बैंकिंग का पूरा स्वरूप बदल देगा.
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जैसे शिव ने अमृत मंथन से निकले सारे विष को अपने कंठ में रख लिया था वैसे ही 'बैड बैंक' रिटेल बैंकिंग से निकले सारे बैड लोन या एनपीए को अपने तईं रख लेगा. और इसके एवज़ में उन बैंक्स को कुछ पैसे भी देगा, जिसका एनपीए इसके ख़रीदा है. फिर इसका काम होगा उस पैसे की वसूली करना. और इस प्रोसेस के दौरान प्रॉफ़िट में भी रहना. (लेफ़्ट की तस्वीर AP की और राइट वाली निजी है)
इंडियन बैंक्स एसोसिशन ने सरकार को 'बैड बैंक' बनाने का प्रपोज़ल दिया है.ये ख़बर इसलिए बड़ी है क्यूंकि ये भारत में बैंकिंग का पूरा स्वरूप बदल देगी. कैसे? ये भी समझ जाएंगे अगर 'बैड बैंक’ समझ जाएंगे. तो आइए ‘बैंकिंग’ से शुरू करके ‘एनपीए’ के रास्ते, 'बैड बैंक’ तक की लॉन्ग राइड का मज़ा लेते हैं. और हां, जैसा हमारे पहाड़ों में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा रहता है-
धीरे चलकर सफ़र का आनंद लें.# सबसे पहले बिना ज़्यादा टेक्निकल हुए समझिए 'बैंकिंग' क्या है-
हम किसी भी इंडस्ट्री, किसी भी बिज़नस मॉडल, किसी भी कंपनी की बात कर लें, हर जगह कमोबेश यही होता है कि पहले कच्चा माल ख़रीदा जाता है फिर उससे एक प्रोडक्ट बना कर बेच दिया जाता है. कच्चे माल की कॉस्ट और प्रोडक्ट (तैयार माल) के प्राइस के बीच का अंतर ही यहां उस कंपनी का प्रॉफ़िट (या कभी-कभी लॉस) कहलाता है, जिस कंपनी ने इस प्रोडक्ट का निर्माण किया है.
बैंकिंग में 'ब्याज़' ही कच्चा माल भी है और 'ब्याज़' ही प्रोडक्ट भी. वो ऐसे कि बैंक कम ब्याज देकर लोगों से पैसे उधार लेती है और ज़्यादा ब्याज लेकर लोगों को पैसे उधार बांटती है. 'दूल्हे राजा' का वो सीन याद कीजिए जिसमें जॉनी लीवर का किरदार, प्रेम नाथ के किरदार से कहता है-
मेरे बैंक में राहुल सिन्हा ने नौ करोड़ निन्यानवे लाख रुपए जमा किए हैं. अब मैं छोटी-मोटी कंपनियां ढूंढ रहा हूं लोन देने के लिए, आपको भी लोन चाहिए हो तो प्लीज़ यू आर मोस्ट वेलकम.उस फ़िल्म के मेकर्स ने सिर्फ़ इस एक कॉमेडी सीन में बैंकिंग का बेसिक हिसाब किताब बता दिया था.

यूं मोटा-मोटी तौर पर ये ब्याज़ में अंतर ही किसी बैंक का प्रॉफ़िट ठहरा. इसलिए ही तो आप देखते हैं कि एफडी, आरडी वग़ैरह में बैंक जितना ब्याज़ अपने ग्राहकों को देती है उससे कहीं ज़्यादा ब्याज़ होम लोन, कार लोन, पर्सनल लोन वग़ैरह में अपने दूसरे ग्राहकों से ले लेती है.
अब सोचिए अगर किसी बैंक में पैसे जमा करने वालों की संख्या, लोन लेने वालों की संख्या से कहीं ज़्यादा हो तो? तो चाहे बैंक लोन देने और लोन लेने वाली ब्याज दरों में कितना ही अंतर रख ले, उसे अंततः नुक़सान ही होगा.
ये वैसा ही है कि किसी कंपनी ने बहुत सस्ती कॉस्ट में अपना माल तो बना लिया और उसे महंगे में बेचने भी लगी. यूं कि हर पीस में उसे दबा के फ़ायदा हो रहा है. लेकिन अगर उसके पास इतने ग्राहक ही नहीं कि आधा माल भी बिक सके, तो ऐसे में बहुत संभावना है कि उस कंपनी को कुल जमा नुक़सान ही होगा.
साथ ही, बैंक के पास जितना पैसा है वो सारा का सारा लोगों को ब्याज़ में नहीं चढ़ा सकती. इसमें से कुछ प्रतिशत पैसे उसे आरबीआई के पास और कुछ प्रतिशत अपने खुद के पास रखने पड़ते हैं. यूं अब उन दोनों पैसों में और भी अंतर आ गया जो बैंक लोगों से कम ब्याज़ पर लेती है और जो वो लोगों को ज़्यादा ब्याज़ पर देती है. यानी आपेक्षित प्रॉफ़िट में कमी.
तो इस सबका तोड़ है, कॉर्पोरेट लेंडिंग. जिसमें बैंक छोटे-मोटे यानी हज़ार-लाख रूपये के बदले बड़े-बड़े यानी करोड़ों-अरबों के लोन देना शुरू कर देती है. बड़ी-बड़ी कंपनियों को. बड़े-बड़े कॉर्पोरेट हाउसेज़ को. तभी तो इसे कॉर्पोरेट लोन कहते हैं.

यूं अब बैंक के पास लोन लेने वालों की भी कोई कमी नहीं और फिर बैंक, उसके ग्राहक, उसके क़र्ज़दार सब ख़ुश. लेकिन अगर इतनी ही आदर्श स्थिति होती तो क्या ही बात थी. बैंक्स की इस पूरी रामायण में एक रावण है. नाम है एनपीए.
# एनपीए-
जब कोई व्यक्ति या संस्था बैंक से लोन लेती है तो ज़रूरी नहीं कि वो लोन वापस करे ही करे. कभी मजबूरियों के चलते और कभी इसलिए कि उसका लोन लेते वक़्त ही फ़्रॉड करना उद्देश्य था, व्यक्ति या संस्था पूरा लोन या बचे हुए लोन की किस्तें देना बंद कर देती है. इन लोन वापस न करने वालों को डिफ़ॉल्टर कहा जाता है. हो सकता है डिफ़ॉल्टर कुछ दिनों बाद पैसे देने शुरू दें, या एक दो किस्तों के बाद शायद. या फिर कुछ फ़ॉलो-अप वग़ैरह लेने के बाद.
यानी ये डिफ़ॉल्टर अपनी ट्रेजेक्टरी से तो (माफ़ करना मगर) थोड़ी इधर-उधर निकल जाते हैं, लेकिन फिर भी बैंक्स के लिए वो नहीं बनते जो इसरो के लिए विक्रम बन गया था.
लेकिन अगर काफ़ी दिनों बाद और सारे लीगल हथकंडे अपना चुकने के बावज़ूद भी बैंक को अपना पैसा इन डिफ़ॉल्टर्स से वापस नहीं मिलता तो वो मान के चलती है कि अब ये पैसे वापस नहीं आने वाले और इसे अपनी बैलेंस शीट में ‘एसेट’ वाले कॉलम में रखना, अपनी बैलेंस शीट को ख़राब करना ही ठहरा. क्यूंकि इस पैसे पर ब्याज़ भी तो बढ़ता चला जाएगा. जो कि आना था, मगर नहीं आ रहा. यानी वो भी एक नुक़सान है, जो मूलधन के विपरीत समय के साथ-साथ बढ़ता भी चला जाएगा.
तो इसलिए उस अमाउंट को किसी और मद में रख दिया जाता है, ताकि बैंक की ऑडिट रिपोर्ट ‘हाथी के दांत’ सी न बनती चली जाए. वास्तविकता से और दूर, और दूर. इसी मद को कहा जाता है 'एनपीए' यानी 'नॉन परफ़ॉर्मिंग एसेट'.

यानी ‘एनपीए’ वो लोन (मूलधन+ ब्याज़) हैं जिनकी वापस आने की उम्मीद उतनी ही है जितनी जिस्म से जुदा हुई रूह की. इसलिए ही तो ऐसे पैसे का वापस आना ‘जादू’ ठहरा. मरे का ज़िंदा हो जाना ठहरा.
एनपीए का शब्दशः अनुवाद करें तो 'ऐसी संपत्ति, जिसका कोई मूल्य नहीं’ या ‘ऐसी संपत्ति, जो परफ़ॉर्म नहीं कर रही.’ सोचिए न, जो लोन बैंक ने किसी को दिया है, वो अन्यथा तो उसके लिए एसेट (संपत्ति) ही था. और उसपर मिलने वाला ब्याज़ भी. लेकिन अब उसके लिए ये सारा पैसा वैसा ही है जैसा, लंका में ख़ूब सारा सोना.
काफ़ी समय बाद जब बैंक निश्चित हो जाता है कि एनपीए अब नहीं मिलने वाला तो, उसे अब अपनी बैलेंस शीट में से भी हटा देता है. मतलब 'राइट ऑफ़' कर देता है. थोड़ा ब्लैक रेफेरेंस है लेकिन जज़्ब कीजिएगा प्लीज़. एनपीए अगर लोन की असामियक मृत्यु है तो राइट ऑफ़ उसके बाद के सारे मृत्यु संस्कार.
यूं राइट ऑफ़ और लोन माफ़ करने में अंतर भी समझ में आता है-
'लोन माफ़' बैंक ‘करता’ है जबकि 'एनपीए' (जिसके चलते बैंक को राइट ऑफ़ करना पड़ता है), बैंक के साथ ‘होता’ है.हालांकि बैंक एनपीए को लेकर शुरू से ही आंखें खुली रखता है. मतलब वो ये मान के चलता है कि जिन 100 को लोन दिया है उसमें से 2 या 10 व्यक्ति/संस्थाएं तो पैसे देने से मुकर ही जाएंगी. इसलिए वो इन डिफ़ॉल्टर्स का प्रॉविज़न भी अपने प्रॉफ़िट-लॉस में कैलक्यूलेट करके रखता है. और इसलिए ही इस राशि को 'प्रॉविज़न' भी कहते हैं.
आप सुनते हैं न कोरोना और लॉकडाउन के चलते अमुक बैंक ने अपना प्रॉविज़न बढ़ा लिया. इसका मतलब ये है कि बैंक मान के चल रहे हैं कि कोरोना और लॉकडाउन के चलते और ज़्यादा पैसा या लोन एनपीए होने वाला है. इसलिए इसे पहले ही प्रॉविज़न में डालकर लाभ-हानि की गणना की जाए.
# तो फिर दिक्कत क्या है-
अब जब NPA के लिए 'प्रॉविज़न' बन गया, और अगर सब कुछ पहले से ही कैलक्यूलेट किया हुआ है तो फिर तो बैलेंस शीट में प्रॉफ़िट ही प्रॉफ़िट दिखना चाहिए. है न?
देखिए प्रॉविज़न को एक बांध की तरह ही मानिए और एनपीए को बाढ़ की तरह. बांध बनाते हुए, बाढ़ का तो ख़्याल रखा ही जाता है, फिर भी बांध टूटते तो हैं न. क्यूं? क्यूंकि बाढ़ 'इतनी' तेज़ आएगी, इसकी बांध बनाने वालों को उम्मीद नहीं होती.
तो बैंकिंग में भी तब दिक्कत होती है जब 'प्रॉविज़न' रखते हुए इसकी उम्मीद नहीं होती कि इससे भी ज़्यादा लोग और संस्थाएं डिफ़ॉल्ट कर जाएंगी. या प्रॉविज़न से भी बड़ा, कहीं बड़ा अमाउंट डिफ़ॉल्ट हो जाएगा.
हम आप जैसे छोटे-मोटे लोन लेने वाले तो चलिए लाख डेढ़ लाख का डिफ़ॉल्ट कर लेंगे. वो भी करना आसान नहीं. अव्वल तो पर्सनल लोन के अलावा बाकी, ज़्यादातर लोन सिक्योर्ड होते हैं. सिक्योर्ड बोले तो, अगर बैंक आपको लोन दे रही है तो उसके पास भी आपकी कोई अचल संपत्ति या सोना या ऐसी कोई चीज़ है, जिससे उसको नुक़सान होने की संभावना बहुत कम है. रही बात पर्सनल लोन की, तो उसकी ब्याज़ दर आपने देखी ही है कितनी ज़्यादा होती है. क्यूंकि उसमें 'प्रॉविज़न' ज़्यादा होता है. डिफ़ॉल्टर्स ज़यदा होते हैं.
साथ ही सिबिल स्कोर से लेकर, कई ऐसे लीगल रास्ते हैं कि बैंक अपना पैसा उगाह ही लेती है. मेंटल टॉर्चर, किसानों की आत्महत्या जैसी बातें न ही करें तो बेहतर.
तो हम-आप जैसे छोटे-मोटे 'रिटेल लेंडर्स' की नहीं, ज़रा बड़े-बड़े कॉर्पोरेट लेंडर्स का सोचिए. वो अगर डिफ़ॉल्ट करते हैं तो पीएनबी और यस बैंक जैसे बड़े-बड़े बैंक्स की जान हलक में आ जाती है. वो सब इस 'प्रॉविज़न' रूपी बांध के लिए बाढ़ नहीं सूनामी हैं.

# थर्ड पार्टी-
Good afternoon sir this is Rajesh Calling 'on behalf of' HDFC Life.मेरा एक दोस्त जो कॉल सेंटर में काम करता था और लोगों को एचडीएफसी लाइफ़ के इन्श्योरेंस बेचता था, वो शुरू की इस एक लाइन को ज़रा भी इधर उधर नहीं कर सकता था. इसमें आप ‘ऑन बिहाफ ऑफ़' वाक्यांश पर गौर करें. वो और उसके कुलिग इसके अलावा कुछ और नहीं कह सकते थे. यानी उनके लिए ‘कॉलिंग फ़्रॉम एचडीएफसी लाइफ़’ कहना तार्किक और लीगल दोनों तरह से ग़लत होता.
क्यूं? इसलिए क्यूंकि वो एचडीएफसी लाइफ़ में काम नहीं करता था. उसकी कंपनी का एचडीएफसी लाइफ़ के साथ कॉन्ट्रैक्ट था. हर पॉलिसी की बिक्री पर एचडीएफसी लाइफ़ उसकी कंपनी को कमीशन देती थी. और एचडीएफसी लाइफ़ ने उसकी कंपनी को राइट भी दिया था कि 'मेरे बिहाफ पर' आप पॉलिसीज़ बेच सकते हो.
तो मेरे दोस्त राजेश की कंपनी, थर्ड पार्टी हो गई. एचडीएफ़सी लाइफ़ और पॉलिसी लेने वालों के बीच. ‘ऑन बिहाफ ऑफ़’ हो गई. जिसे एचडीएफसी लाइफ़ ने अपना कॉल सेंटर वाला काम आउटसोर्स किया हुआ था.
किसी लॉजिक की ज़रूरत नहीं, आपकी इंट्यूटिव एप्रोच काफ़ी होगी ये जानने के लिए कि इस आउटसोर्सिंग का एचडीएफसी लाइफ़ को क्या फ़ायदा था और राजेश के इम्पलॉयर को क्या फ़ायदा था. राजेश की कंपनी, केवल एचडीएफसी लाइफ़ ही नहीं, आईसीआईसीआई लम्बॉर्ड और बजाज आलियांज़ के भी इंश्योरेंस बेचती थी. और इतना ही नहीं, एयरटेल और आइडिया को भी कस्टमर सपोर्ट देती थी. यानी वो 'कॉल सेंटर' चलाने में एक्सपर्ट थी. फिर वो किसी भी काम का हो.
# क्या हो सकता है बैड बैंक, चलो अंदाज़ा लगाते हैं-अब इसी तरह का एक दूसरा सेटअप सोचिए (और ये काल्पनिक नहीं, यूएस में तो ऐसा होता ही है और छोटे-मोटे स्तर पर इंडिया में भी देखा होगा). अगर बैंक्स अपने एनपीए आउटसोर्स कर दें तो. चलिए मिलकर सोचते हैं ऐसा कैसे होगा, क्यूं होगा और बैंक और उस कंपनी को क्या फ़ायदा होगा जिसे सारे एनपीए आउटसोर्स किए हैं? तो ऐसा किया जा सकता है, कि कोई बैंक किसी थर्ड पार्टी के पास जाए और कहे-
बैंक: यार मेरे बस का नहीं लग रहा, इस एनपीए की वसूली तुम कर लो मेरी जगह प्लीज़.
थर्ड पार्टी: मुझे क्या फ़ायदा?
बैंक: तुम ऐसा करना हर वसूली पर मुझसे 1% कमीशन ले लेना या फिर ऐसा करो मेरा पूरा एनपीए ही तुम ख़रीद लो. एक करोड़ का एनपीए है, तुम 25 लाख मुझे दे दो, अब तुम उस बर्बाद हुए एक करोड़ से दस लाख वसूल पाओ या फिर पूरे एक करोड़, वो तुम्हारा रिस्क.

थर्ड पार्टी को दूसरा विकल्प सही लगता है. वो ढेरों कैलक्यूलेशन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि 50 लाख रुपए तो उगाह ही लेगी. क्यूंकि जैसे राजेश की कंपनी को कॉल सेंटर के सेटअप में महारत हासिल थी, इस कंपनी को उगाही करने में विशेषज्ञता प्राप्त है.
सौदा तय होता है. बैंक, लीगल रूप से, कह देता है कि अब तुम मेरे 'ऑन बिहाफ ऑफ', इस पैसे को चाहे जैसे वसूलो.
तो बस इसी थर्ड पार्टी का कॉन्सेप्ट ‘बैड बैंक’ का कॉन्सेप्ट है. जिसमें काम करने वालों को एनपीए वसूलने में महारत हासिल है. और जैसे राजेश के कॉल सेंटर में एचडीएफसी लाइफ़ से लेकर एयरटेल तक के कॉल सेंटर थे. वैसे ही इस विशेषज्ञ थर्ड पार्टी के पास हर बैंक के एनपीए हैं.
# वास्तविकता क्या है-
अब जब हमने तर्कों के आधार पर, 'बैंकिंग', 'एनपीए', 'थर्ड पार्टी' और 'बैड बैंक', चारों ही चीज़ें समझ चुके हैं तो शुरू में बताई गई ख़बर को तथ्यों के आधार पर भी समझना मुश्किल न होगा.
पहली बात तो हमें ये समझनी होगी कि बैड बैंक को बैड बैंक इसलिए कहा जाता है क्यूंकि इसका सिर्फ़ एक काम होता है. एनपीए की उगाही करना. एनपीए, बोले तो बैड लोन. यूं ये बैड बैंक न तो आईसीआईसीआई या एसबीआई की तरह ऐसा सरकारी या प्राइवेट बैंक होगा जो रिटेलिंग बिज़नेस में होगा. और न ही ये आरबीआई की तरह ऐसा बैंक होगा जो बाक़ी बैंक की रेगुलेटरी अथॉरिटी की तरह काम करे.
इसका तो सिर्फ़ इतना उद्देश्य होगा कि जैसे शिव ने अमृत मंथन से निकले सारे विष को अपने कंठ में रख लिया था वैसे ही ये रिटेल बैंकिंग से निकले सारे बैड लोन या एनपीए को अपने तईं रख लेगा. और इसके एवज़ में उन बैंक्स को कुछ पैसे भी देगा, जिसका एनपीए इसके ख़रीदा है. फिर इसका काम होगा उस पैसे की वसूली करना. और इस प्रोसेस के दौरान प्रॉफ़िट में भी रहना.
तो इसमें स्टाफ़िंग और कर्मचारी भी उसी तरह के होंगे, जो जानते होंगे कि डब्बे में से महत्तम घी निकालने के लिए अपनी उंगली को किस एंगल में टेढ़ा करना है.
अब आप पूछेंगे कि ये बैड बैंक हैं कहां पर? उत्तर है प्रपोज़ल में.
जिस तरह ‘व्यापार संघ’ होता है, व्यापारियों की हितों की रक्षा हेतु, वैसे ही आईबीए (इंडियन बैंक्स एसोसिशन) है रिटेल बैंक्स के लिए. इसी ने सरकार को ‘बैड बैंक’ का प्रपोज़ल भेजा है. यानी अभी तक भारत में ऐसा कोई बैंक है नहीं. बस इसकी प्रस्तावना रखी गई है. ये प्रस्ताव इस वक़्त इसलिए आया है क्यूंकि इस वक़्त बैंक्स को ऐसे ही किसी सपोर्ट की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. आप अनुमान लगा ही सकते हैं कि कोविड-19 और लॉकडाउन के चलते बैंक्स के एनपीए किस गति से बढ़ सकते हैं.

अन्यथा ऐसा नहीं है कि केवल आईबीए ने ही बैड बैंक का प्रपोज़ल दिया है, या ऐसा पहली बार हुआ हो. इससे पहले भी बैड बैंक का प्रपोज़ल आया था. इकनॉमिक सर्वे की तरफ़ से. उनका कॉन्सेप्ट तो यही था लेकिन नाम अलग. उनके द्वारा प्रपोज़्ड नाम था ‘पारा’. पब्लिक सेक्टर ऐसेट रिहेब्लीटेशन एजेंसी. आरबीआई ने भी एक बार ऐसा कॉन्सेप्ट प्रपोज़ किया था.
आईबीए ने इस प्रपोज़ल में फ़ाइनेंस मिनिस्ट्री के साथ-साथ डिपार्टमेंट ऑफ़ फ़ाईनेंशियल सर्विसेज़ और डिपार्टमेंट ऑफ़ इकनॉमिक अफ़ेयर्स को भी सीसी में रखा है.
अब चूंकि ये बैंक वसूली तो जब करेगा, तब करेगा, लेकिन पहले इसे एनपीए ख़रीदने के लिए भी पैसे चाहिए होंगे न? तो इसके लिए आईबीए ने सरकार के सामने ये प्रस्ताव रखा है कि इस बैंक को शुरुआत में 10 हज़ार करोड़ रुपए चाहिए होंगे.
# ‘बैड बैंक’ में सब कुछ गुड ही गुड नहीं है-
देखिए ये रिस्क तो है कि बैड बैंक ने जितने में एनपीए ख़रीदें हैं, हो सकता है वो उतने रूपये भी न वसूल पाए. लेकिन ये नुक़सान स्पेसिफ़िक है. हम बात करेंगे जेनरिक नुक़सान की.
रघुराम राजन ने ‘बैड बैंक’ के पूरे कॉन्सेप्ट को ‘मोरल हेज़र्ड’ कहा था. मोरल हेज़र्ड की परिभाषा भी बड़ी इंट्रेस्टिंग है. मतलब कि कोई ऐसा ‘रिस्क’, जो लीगल और लॉजिकल तरीक़े से तो सही है लेकिन इससे आपको नहीं दूसरी पार्टी का बहुत बड़ा नुक़सान हो जाएगा.
‘मोरल हेज़र्ड’ की बात इंश्योरेंस में सबसे ज़्यादा की जाती है. जब आपको पता है कि आपकी गाड़ी का इंश्योरेंस है तो आप थोड़ा और रफ़ तरीक़े से गाड़ी चलाएंगे. वैसे ही जब बैंक्स को पता है कि उनके NPA का इंश्योरेंस है तो वो थोड़ा और रफ़ तरीक़े से लोन देंगे. क्यूंकि वही तो उनकी आय का सबसे बड़ा साधन था. तब कहां वेरिफ़िकेशन चेक, तब कहां सिबिल. वही दूल्हे राजा वाला डायलॉग-
आपको भी लोन चाहिए हो तो प्लीज़ यू आर मोस्ट वेलकम.
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